पर्वतीय क्षेत्र विकास आयोजना


पर्वतीय क्षेत्रों में वचनों की कटाई तथा भू-क्षरण का पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। इन दोनों समस्याओं के कारण जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। बाढ़ में वृद्धि होती जा रही है, अनाजों की उत्पत्ति में गिरावट आ रही है। पशुओं द्वारा विशेष रूप से भेड़-बकरियों द्वारा चराई, भवनों, सड़कों, बाँधों, बड़े तथा मध्यम उद्योगों के अनियंत्रित निर्माण तथा खनन आदि कुछ अन्य कारण है जिनसे पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं और बढ़ती ही जा रही हैं। लेखक ने प्रस्तुत लेख में कुछ सुझाव दिये हैं जो हमारी प्राकृतिक पर्यावरण तथा जीवनयापन प्रणाली के लिये आवश्यक पारिस्थितिकी सन्तुलन की सुरक्षा तथा संरक्षण करने और पर्वतीय क्षेत्रों का एकीकृत विकास करने में उपयोगी साबित हो सकेंगे।

पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर किये जा रहे खनन कार्यों के कारण वायुमण्डल तो दूषित होता ही है, इसके साथ-साथ वायु में पत्थर के कणों की मात्रा भी अधिक हो जाती है जोकि उच्च तापमान के लिये उत्तरदायी है। इस प्रकार के लक्षणों के साथ-साथ हरित सामग्री के अपवर्तन के कारण वर्षा ऋतु के चक्र में व्यवधान आता है। सम्भवतः गढ़वाल, हिमालय तथा हिमाचल प्रदेश के पर्वतों पर जल भण्डारण की गम्भीर समस्या इसी का एक भाग है।

पर्वतीय क्षेत्र में विकास आयोजना की आवश्यकता तथा महत्ता पर बार-बार बल दिया गया है। वर्ष 1989 में आयोजित किये गए नगरपालिका सम्मेलन में पर्वतीय क्षेत्रों तथा उत्तर-पूर्व क्षेत्र के लोगों को अपनी पारम्परिक प्रणाली की सरकार और विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों, जिनके लिये ऐसे क्षेत्रों में समग्र रूप से कोई सामान्य मापदंड लागू किया जाना सम्भव नहीं है, को ध्यान में रखते हुए इन क्षेत्रों की जनता की विशेष आवश्यकताओं को अभिज्ञात किया गया था जिसकी परिणति नगरपालिका के 74वें संविधान संशोधन, 1992 के रूप में हुई। विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति दिनांक 20 अप्रैल, 1993 को प्राप्त हुई थी और अधिनियम 1 जनवरी 1993 से प्रवृत्त हुआ। यह भी महसूस किया गया था कि पर्वतीय क्षेत्रों में संरचनात्मकों की लागत मैदानी भागों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक है, और इसलिये बड़े पैमाने पर निवेश किया जाना अपेक्षित है। इसी प्रकार नगर की कुल जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए वार्डों का आकार छोटा होना चाहिए और इसीलिये ऐसे क्षेत्रों में छोटे वार्डों का गठन किया जाना चाहिए।

पर्वतीय नगर स्वास्थ्यवर्धक जलवायु और नैसर्गिक सौन्दर्य का बोध कराते हैं जिनका पर्यटन की दृष्टि से रुचिकर केन्द्रों के रूप में संरक्षण, विकास तथा रख-रखाव किया जाना आवश्यक है। अतः स्थानीय निकायों द्वारा राज्य के पर्यटन और परिवहन विभागों के साथ परामर्श करके विकास का एक चरणबद्ध, सुव्यवस्थित तथा एकीकृत कार्यक्रम तैयार किया जाना जरूरी है।

वनों की कटाई तथा भूक्षरण पर्वतों की मुख्य समस्या है। इन दोनों समस्याओं के कारण जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। बाढ़ में वृद्धि होती जा रही है और अनाज तथा ‘कैशक्रोप’, चारे ईंधन तथा अन्य लघु वन्य उत्पादों की उत्पत्ति में गिरावट आती जा रही है। पशुओं द्वारा, विशेष रूप से भेड़-बकरियों द्वारा दीर्घकाल तक चराई करना, अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों की गिरावट का मुख्य कारण है। इसके साथ ही भवनों, सड़कों, बाँधों, बड़े तथा मध्यम उद्योगों के अनियंत्रित निर्माण, खनन आदि के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरण सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं और बढ़ती ही जा रही हैं।

कुछ उभरते हुए पहलू


‘नेशनल एटलस आॅफ इण्डिया’ ने भारत के भौतिकीय प्रभागों को 7 श्रेणियों में वर्गीकृत किया है। जिनमें प्रमुख रूप से पर्वतीय भू-प्रदेश शामिल हैं। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है (1) उत्तरी पर्वत जिसमें हिमालय तथा उत्तर-पूर्व की पर्वत शृंखलाएँ शामिल हैं। (2) केन्द्रीय उच्च भूमि- इस पर्वतीय भू-प्रदेश के पश्चिम में अरावली की पहाड़ियाँ हैं तथा दक्षिण में सतपुड़ा की पहाड़िया हैं। (3) प्रायद्वीपीय पठार- जिसमें पश्चिमी घाट (सतपुड़ा) की पर्वत शृंखला, गरजल पर्वत, राजमहल पर्वत तथा पूर्वी घाट शामिल हैं।

असम, जम्मू तथा कश्मीर, नागालैंड, पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर तथा त्रिपुरा यह ऐसे राज्य तथा संघ-शासित प्रदेश हैं जिसमें ये पर्वत तथा समीपवर्ती नगर स्थित हैं। यह प्रदेश तथा राज्य भारत के उत्तर-पश्चिमी तथा उत्तर-पूर्वी सीमान्त प्रदेशों तक फैले हुए हैं। एकमात्र अपवाद त्रिपुरा ही है जो एक अलग-थलग भू-भौतिकीय स्वरूप का है। इन सभी राज्यों में पर्वत तथा पर्वतीय क्षेत्र भिन्न-भिन्न स्वरूप के भू-भौतिकीय क्षेत्र है। राष्ट्रीय विकास के सन्दर्भ में पर्वत तथा पर्वतीय क्षेत्र भिन्न-भिन्न स्वरूप के भू-भौतिकीय क्षेत्र हैं। राष्ट्रीय विकास के सन्दर्भ में पर्वतीय क्षेत्रों की एक विशिष्ट प्रासंगिकता है। इस दृष्टिकोण से सूक्ष्म तथा विशाल स्तरों पर पारिस्थितिकी संरक्षण के लिये पर्वतीय क्षेत्रों का विकास करना तथा आयोजना बनाया जाना महत्त्वपूर्ण है।

जलापूर्ति, विद्युत तथा आवास जैसी अनिवार्य सेवाएँ उपलब्ध कराए जाने की दृष्टि से पर्वतीय क्षेत्रों का समग्र विकास असन्तोषजनक है क्योंकि इन क्षेत्रों में संरचनात्मक तथा सामाजिक-आर्थिक सुविधाओं का अभाव है। इसके लिये यह आवश्यक है कि वन्य प्रदेशों के नियंत्रण से सम्बन्धित विधान में स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति का उल्लेख किया जाये। यह भी पाया गया है ठेकेदार पर्वतीय क्षेत्रों में स्वीकृत सीमा से भी अधिक वृक्षों की कटाई करते हैं जिसकी वजह से पर्वतीय नगरों का विकास समन्वित आधार पर किया जाना सम्भव नहीं हो पाता।

केन्द्रीय सरकार ने वर्ष 1974 से पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम आरम्भ किया था, जिसके अन्तर्गत उत्तर प्रदेश के आठ जिले, असम के दो जिले, तमिलनाडु में नीलगिरी तथा पश्चिम बंगाल में दर्जिलिंग जिले के तीन उप-सम्भाग तथा पश्चिमी घाट, जिसमें महाराष्ट्र कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा गोवा के राज्यों के भाग सम्मिलित हैं, को शामिल किया गया था। पाँचवीं पचवर्षीय योजना के दौरान इन क्षेत्रों को 170 करोड़ रुपए की विशेष केन्द्रीय सहायता प्रदान की गई थी जिसे 7वीं पंचवर्षीय योजना में बढ़ाकर 870 करोड़ रुपए कर दिया गया था।

पर्वतीय क्षेत्रों को उत्तरोत्तर रूप से दिए जा रहे महत्त्व को ध्यान में रखते हुए योजना आयोग ने पर्वतीय क्षेत्रों की परियोजना बनाने तथा विकास का दृष्टिकोण अपनाए जाने और तत्सम्बन्धी नीति तैयार करने हेतु तथा सातवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान निधि का आवंटन करने से सम्बन्धित विषयों का निर्धारण करने हेतु उप-दल का गठन किया था। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में नदियों, वन्य-संसाधनों, वनस्पतियों तथा जीव-जन्तुओं तथा खनिज सम्पदा का भण्डार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। पहाड़ी क्षेत्रों तथा समीपवर्ती क्षेत्रों में लघु नगरों के विकास से सम्बन्धित समिति की रिपोर्ट के अनुसार वन पर्वतीय क्षेत्रों के एक बहुमूल्य संसाधन हैं, वे जलवायु विषयक परिस्थितियों का स्थिरीकरण करने, वर्षा आदि का विनियमन करने और नदियों के जल-प्रवाह को नियमित करने में सहायता करते हैं, इसके अतिरिक्त वे भू-क्षरण की रोकथाम करते हैं। परिणामतः भिन्न-भिन्न किस्मों के उत्पादों की उत्पत्ति की उन्नती में सहायक होते हैं। वन उत्पादों में इमारती लकड़ी ईंधन लकड़ी बरोज (रेजिन) जड़ी-बूटियाँ तथा कुछ अन्य फल भी शामिल हैं।

विधान में निःसन्देह रूप से वन्य संसाधनों के प्राकृतिक संरक्षण का उद्देश्य रखना अति, आवश्यक है। हमारे देश की भौतिकीय सीमाओं की सुरक्षा हमारी सामरिक भू-भौतिकीय परिस्थितियाँ करती हैं। अतः पर्वतीय भू-भाग जो भारत को उसके पड़ोसी देशों से विभाजित करते हैं, इन प्रदेशों में अवैध प्रवेश की रोकथाम के लिये प्रभावी विधान तथा प्रशासन तंत्र होना आवश्यक है।

पर्वतीय क्षेत्रों में वनों की कटाई का पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। पर्वत चाहे उनकी चट्टान आयु सीमा कितनी भी हो, पृथ्वी पर एक उत्कृष्ट संरचना है। पर्वतीय वन, पथरीली चट्टानों के बीच एक सम्भाग शक्ति के रूप में कार्य करते हैं और इन सबको मिलाकर एक पर्वत-शृंखला निर्मित होती है। जब पर्वतों पर आच्छादित हरित सम्पदा को हटाया जाता है। तब भू-क्षरण तथा भू-स्खलन व्यापक पैमाने पर होता है। पिछले कुछेक दशकों के दौरान पर्वतों पर व्यापक पैमाने पर खनन कार्य किया जा रहा है, जिसके लिये भारी मात्रा में वनों की कटाई की जाती रही है। व्यापक पैमाने पर की जा रही वनों की कटाई और अयस्क तथा चूना पत्थर के लिये डाइनामाइट से किये गये विस्फोटों के फलस्वरूप पर्वत बंजर होते जा रहे हैं।

परिणामतः प्राकृतिक पर्वतीय वन उस खोखले, नग्न, अस्थिर, तथा स्पन्दकारी स्वरूप के पथरीले ढाँचे का रूप ले रहे हैं जिसके दुष्परिणाम भू-स्खलन तथा आँधी-तूफान के रूप में सामने आ रहे हैं। जैसा कि देखा जाता है पर्वतीय क्षेत्रों की समूची सामाजिक-आर्थिक संरचना वनों के विदोहन पर आधारित है इसलिये समुचित विधिक कार्यवाहियों के बिना, अविचारित रूप से किया गया संरक्षण पर्वतीय क्षेत्र की निसहाय जनता की व्यथा में वृद्धि ही करेगा।

किसी समय पर्वतीय ढलानों पर स्थित घने जंगल, जिनमें प्रचुर मात्रा में इमारती लकड़ी, औषधीय पौधे तथा जड़-बूटियाँ एवं हरी-भरी पत्तियों के ढेर थे आज उनकी वास्तविकता यह है कि उनका परिवर्तन बंजर क्षेत्र के रूप में हो गया है। इस प्रकार समग्र वन्य पारिस्थितिकी प्रणाली अपनी सुन्दरता तथा सक्षमता से वंचित होती जा रही है और वनों की निरन्तर कटाई के कारण पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों का जीवन अत्यन्त विकट होता जा रहा है। वायुमण्डल में पत्थर के कणों की मात्रा अधिक होना मनुष्यों, जानवरों और यहाँ तक कि पेड़-पौधे में भौतिकीय विकारों का प्रमुख कारण है। बायोसिन्थेटिक प्रक्रिया को रोके जाने की आवश्यकता है कयोंकि पत्थर के चूरे के कण पत्तों के छिद्रों को बन्द कर देते हैं। इसी तरह वर्षा ऋतु के दौरान खनन कार्य के समय निकाली गई सामग्री धरती पर छा जाती है परिणामस्वरूप फसल को हानि पहुँचती है और सड़क मार्गों में भी व्यवधान उत्पन्न होता है। व्यापक पैमाने पर किये जा रहे खनन कार्यों और वनों की कटाई के कारण जल स्तर में भी गिरावट आती है और परिणामतः पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की व्यथा निरन्तर बढ़ती ही जाती है।

पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर किये जा रहे खनन कार्यों के कारण वायुमण्डल तो दूषित होता ही है, इसके साथ-साथ वायु में पत्थर के कणों की मात्रा भी अधिक हो जाती है जोकि उच्च तापमान के लिये उत्तरदायी है। इस प्रकार के लक्षणों के साथ-साथ हरित सामग्री के अपवर्तन के कारण वर्षा ऋतु के चक्र में व्यवधान आता है। सम्भवतः गढ़वाल, हिमालय तथा हिमाचल प्रदेश के पर्वतों पर जल भण्डारण की गम्भीर समस्या इसी का एक भाग है। पर्वतीय क्षेत्रों में हिम परतें कम होती जा रही हैं क्योंकि हरित क्षेत्र प्रायः नष्ट होता जा रहा है और इस प्रकार जलस्रोतों के प्रायः लुप्त होने की आशंका है। पर्वतीय सैरगाह अपनी नैसर्गिक सुन्दरता के साथ-साथ अपनी जलवायु के वैशिष्ट्य से वंचित होते जा रहे हैं। खनन कार्यों से दून घाटी तथा हिमाचल प्रदेश में सोलन और अनेक अन्य पर्वतीय क्षेत्र प्रभावित हुए हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में खनन कार्य से पारिस्थितिकी सन्तुलन बिगड़ गया है। पर्वतीय क्षेत्रों में खनन संकायों के कारण भौतिकीय हानियाँ सर्वत्र देखी जा सकती हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के गाँवों में रहने वाले क्षुब्ध किसानों की व्यथा बढ़ती जा रही है। पर्वतों के निवासियों के लिये भू-स्खलन होना एक नियमित घटना सी हो गई है।

खान तथा खनिज (विनियमन तथा विकास) अधिनियम 1947 जो कि कोयला तथा लौह अयस्क क्षेत्र पर लागू होता है, को पर्वतीय क्षेत्रों में निर्ममता से किये जा रहे खनन कार्य की रोकथाम के लिये कठोरतापूर्वक लागू किये जाने की आवश्यकता है जिससे पर्वतों पर किये जा रहे आघातों से उनकी सुरक्षा की जा सके।

पर्वतीय क्षेत्रों में वन्य क्षेत्र काफी सीमा तक लुप्त हो गए हैं। व्यापक पैमाने पर वनों की कटाई की जा रही है जिसके परिणामस्वरूप पर्वतीय क्षेत्रों की ऊपरी हरित सतह लुप्त होती जा रही है जिसका ज्वलन्त उदाहरण मसूरी पर्वतों पर चूना पत्थर की खुदाई के रूप में दिया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर वनों की कटाई से जंगली जीव-जन्तु प्रायः लुप्त होते जा रहे हैं। वनों की कटाई के कारण भूमि के उत्पादन में गिरावट आई है और भू-क्षरण के कारण बाढ़ की घटनाओं में भी वृद्धि होती जा रही है।

पर्वतीय क्षेत्रों के विकास का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी संरक्षण का है वन्य प्रदेशों के संसाधनों की दृष्टि से बाँधों का निर्माण और विकास एक महत्त्वपूर्ण पहलू है और इसको ध्यान में रखते हुए सम्भवतः ‘साइलेंट वैली’ का परित्याग कर दिया गया था। टिहरी बाँध के कारण बिजली के उत्पादन तथा ग्रामीण क्षेत्र के एक बड़े भू-भाग की सिंचाई से सम्बन्धित विवाद भी उठा था। पर्वतीय क्षेत्र और बाँध के निर्माण पर भी कुछेक मुद्दे उभरे क्योंकि यह क्षेत्र भूकम्प की दृष्टि से संवेदनशील है। पर्वतीय क्षेत्रों के विकास से सम्बन्धित कानूनी पहलू को वनों की कटाई को रोकथाम के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए तथा वन अधिनियम के अन्तर्गत वृक्षों की कटाई पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।

पर्वतीय क्षेत्रों का विकास टुकड़ों में हुआ। क्योंकि यहाँ छितरी आबादी होने के कारण नगरपालिकाएँ नहीं हैं अतः जनता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सुविधाओं का विस्तार किया जाना जरूरी है चूँकि अपर्याप्त घनत्व तथा नगरपालिका कानूनों के आभाव और विकासात्मक नियंत्रणों के कारण पर्वतीय शहरों की आयोजना से सम्बन्धित पहलू को हानि पहुँची है। पर्वतीय शहरों में ऊँचे-ऊँचे भवनों के कारण क्षितिजीय पंक्ति और भू-सुदर्शनीकरण को व्यवधान पहुँचा है और पर्वतों की मृदु भूमि पर दबाव बढ़ा है। उदाहरण के तौर पर मसूरी तथा मनाली की ऊँची-ऊँची इमारतें, जो कि नगरपालिका कानूनों का उल्लंघन करके बनाई गई हैं, एक प्रत्यक्ष प्रमाण है जिसकी वजह से सैकड़ों वृक्ष नष्ट हो गए हैं। पर्वतीय नगरों में व्यावसायिक भवनों, आरामदेह होटलों, वीडियो क्लबों, हेल्थ क्लबों तथा विपणन परिसरों की अन्धाधुन्ध वृद्धि की रोकथाम तथा भवन निर्माण से सम्बन्धित कानूनों को कठोरतापूर्वक लागू किया जाना अत्यन्त आवश्यक है।

पर्वतीय क्षेत्रों को नगरपालिकाओं की परिधि के भीतर लाया जाना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों के नगरपालिका कानूनों को भवन निर्माण से सम्बन्धित नियमों के विनियमन और जल-आपूर्ति, परिवहन, विद्युत आदि जैसी जन-सेवाओं के उपबन्धों के अनुरूप बनाया जाना चाहिए। पर्वतीय नगरों की नगरपालिकाओं का स्तर बढ़ाया जाये और उसे कठोरतापूर्वक लागू करना अति आवश्यक है। इस तथ्य को नगरपालिका सम्मेलनों में विधिवत रूप से स्वीकार किया गया था।

प्रभावी विधि ढाँचा


वैज्ञानिक दृष्टि से सम्मत डिजाइन तथा पर्वतीय क्षेत्रों के लिये उपयुक्त विशिष्टियों के अनुरूप किया जाये जिससे शिथिल मृदा को रोका जा सके, जल निकासी की समुचित प्रणाली को विकसित किया जा सके और साथ-ही-साथ भूस्खलन की घटनाओं को कम किया जा सके। पर्वतीय क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम है और ग्राम छोटे-छोटे हैं तथा लम्बी दूरी तक छितरे हुए हैं ऐसे स्थानों पर कुली, मजदूरों तथा खच्चरों के लिये पगडंडियाँ बनाकर उनका समुचित रख-रखाव किया जाना चाहिए।

पर्वतीय क्षेत्रों में पारिस्थितिकीय सन्तुलन के संवर्धन के लिये अपेक्षित विधान में निम्नलिखित पहलुओं को सुनिश्चित किया जाना चाहिए:-

1. पर्वतीय क्षेत्रों में विद्यमान वनों की प्रभावी ढंग से सुरक्षा की जाये और उनका उपयोग पुनर्नवीकरण योग्य संसाधन के रूप में किया जाये और उपयुक्त प्रजातियों के पेड़-पौधों को लगाकर इस भण्डार में वृद्धि की जाये।
2. वन्य भूमि पर किसी भी कार्य के लिये कब्जा करने की अनुमति न दी जाये।
3. वन्य भूमि का हस्तान्तरण गैर-वन्य प्रयोजनों के लिये न किया जाये, चाहे वह प्रयोजन कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यों न हो।

पर्वतीय क्षेत्रों के सन्दर्भ में पारिस्थितिकीय सन्तुलन को बनाए रखने के उद्देश्य से वर्ष 1980 में वन (संरक्षण) अधिनियम बनाया गया था। इस अधिनियम में यह विनिर्दिष्ट किया गया है कि कोई भी राज्य सरकार अथवा कोई प्राधिकरण वन्य भूमि अथवा आरक्षित वन को गैर-वन्य उत्पादों के प्रयोजन हेतु हस्तान्तरण की अनुमति नहीं देगा। वनों से सम्बन्धित विषय का स्थानान्तरण समवर्ती सूची में कर दिये जाने से प्राधिकरण का केन्द्रीकरण किये जाने की एक पद्धति की शुरुआत हो गई। ऐसा नहीं है कि पर्वतीय क्षेत्रों के वनों का संरक्षण तथा समुचित विकास करना राज्यों का कार्य नहीं था, बल्कि पर्वतीय क्षेत्र के वनों का विकास करने की पद्धति का केन्द्रीयकरण किये जाने से क्षेत्रीय प्रयासों में और बाधा आने की सम्भावना बढ़ गई है। परिणामस्वरूप इस बात की भरपूर आशंका है कि औद्योगिक उपयोग के लिये बड़े पैमाने पर वनों की कटाई की जाएगी तथा पर्वतीय क्षेत्रीय सीमाएँ ही नष्ट होने की सम्भावना बढ़ जाएगी।

आश्चर्यजनक बात यह है कि अनेक राज्य सरकारों ने इस अधिनियम के प्रति असन्तोष व्यक्त किया है क्योंकि यह पर्वतीय क्षेत्रों की विकास परियोजनाओं के कार्यान्वयन में अवरोध उत्पन्न करता है। वर्ष 1982 में संसद में एक संशोधन पेश किया गया था जिसमें सरकार के लिये यह अनिवार्य किये जाने की माँग की गई थी कि वह सड़कों, पेयजल योजनाओं, दूरसंचार लाइनों तथा विद्युत लाइनों जैसी सार्वजनिक उपयोग की सेवाओं हेतु वनों की कटाई करने के बारे में अपनी अनुमति को न रोके। इस संशोधन में यह भी परिकल्पना की गई थी कि वह सड़कों हेतु वनों की कटाई करने के बारे में अपनी अनुमति को न रोके तथा राज्य सरकारों द्वारा जब कभी अपनी अनुमोदित योजनाएँ केन्द्र सरकार के अनुमोदन के लिये भेजी जाएँ तो ऐसी योजनाओं का निपटान उनकी प्राप्ति से 15 दिन के भीतर कर दिया जाये। अधिनियम के कार्यान्वयन के बारे में व्यापक विचार-विमर्श और अधिक विस्तृत सूचना उपलब्ध न होने के कारण इस संशोधन को मूर्त रूप नहीं दिया जा सका।

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी वन्य नीति इस मानक पर आधारित है कि पर्वतीय क्षेत्रों के वनों को वन्य निवासियों से खतरा है और इसलिये विशेष रूप से इन वनों को सुरक्षा दी जाये। वर्ष 1980 के भारतीय वन्य विधेयक के मसौदे में तत्सम्बन्धी अपराधों की सूची में वृद्धि की गई थी और इसमें वन्य उत्पादों, घास, फूलों, पत्तियों तथा शाखाओं को एकत्रित करने जैसे मामलों को भी शामिल किया गया था जिन्हें अभी तक वन्य निवासी अबाधित रूप से एकत्र कर रहे थे। प्रस्तावित दण्ड को कठोर बनाया गया था और इसके अन्तर्गत 3 वर्ष का कारावास अथवा 5000/- रुपए तक का जुर्माना अथवा दोनों की व्यवस्था की गई थी।

पर्वतीय क्षेत्रों के वन्य निवासियों की यह मान्यता है कि वनों की सुरक्षा में सरकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि उन्हें वन्य अधिनियम और उसके अधीन बनाए गए नियमों की अधिक जानकारी नहीं है। चम्बा पर्वत के निवासी वनों की कटाई के दुष्प्रभाव के प्रति सचेत लगते हैं चूँकि उन्होंने इस स्थिति से निपटने के लिये ग्रामस्तर पर वृक्ष सुरक्षा समितियाँ गठित की हैं। यह स्पष्ट है कि मात्र विधान से वन्य क्षेत्रों की सुरक्षा नहीं की जा सकती बल्कि पारिस्थितिकी-सन्तुलन बनाये रखने हेतु हमारे वनों की सुरक्षा और संरक्षण के लिये जन चेतना जागृत करनी होगी। जनता को पर्यावरण की स्थिति में गिरावट आने के दीर्घकालिक कुप्रभावों के प्रति जागृत करना होगा और पर्वतीय क्षेत्रों में पारिस्थितिकी के पुनर्निर्माण के लिये उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी। वृक्षों को निरन्तर अवैध रूप से गिराया जा रहा है जबकि मौजूदा कानूनों में इस अपराध के लिये कारावास और दंड की व्यवस्था है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें कठोरतापूर्वक लागू नहीं किया जाता है।

पर्वतीय क्षेत्रों के वन्य-विधान में निम्नलिखित बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए। वे हैं: पारिस्थितिकी सन्तुलन के संरक्षण तथा पुर्नस्थापन के माध्यम से पर्यावरणिक स्थिरता को बनाए रखना, शेष प्राकृतिक वनों तथा जनता की मूलभूत आवश्यकताओं, विशेष रूप से ग्रामीण तथा कबीलाई लोगों के लिये ईंधन तथा चारे की पूर्ति हेतु भावी पीढ़ियों के लाभ के लिये शेष प्राकृतिक वनों का संरक्षण करने तथा व्यापक आनुवांशिक संसाधनों की सुरक्षा करके तथा वन्य संसाधनों से सम्बन्धित पारम्परिक अधिकारों की सुरक्षा तथा वनों के सम्बन्ध में रियायत देकर वनों तथा इसके इर्द-गिर्द रहने वाले कबीलों और अन्य निर्धन जनता के बीच आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित करना। कानून की अधीन विशेष (मजिस्ट्रीयल) अधिकार दिये जाने की आवश्यकता है, ताकि ऐसे लोगों पर जुर्माना लगाया जा सके और कारावास दिया जा सके जिन्होंने अपने वाणिज्यिक लाभों/सम्भावनाओं के लिये वन्य क्षेत्रों पर कब्जा किया है। वन्य संसाधनों के संरक्षण के लिये पर्वतीय क्षेत्रों में पर्यावरणिक न्यायालय स्थापित किये जाने पर भी ध्यान दिया जाना उचित होगा।

चौथी पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय विकास की महत्ता को स्वीकार किया गया था और निवेश की उच्च लागत और अल्प आवर्त और परिणामस्वरूप अलाभकारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया था कि पर्वतीय राज्यों के लिये केन्द्रीय सहायता का विशेष आबंटन किया जाये और केन्द्रीय सहायता दिये जाने की पद्धति को अधिक उदार बनाया जाये ताकि उन्हें अपने स्वयं के आयोजनागत संसाधनों में से पर्याप्त निधि आबंटित करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सके। इस पद्धति में अन्यत्र प्रदान की जा रही 30 प्रतिशत की केन्द्रीय सहायता की तुलना में इन क्षेत्रों में किये गए खर्च पर 50 प्रतिशत केन्द्रीय सहायता की व्यवस्था की गई है। हिमालय पर्वत के कुछेक सीमान्त क्षेत्रों में इस पद्धति में 90 प्रतिशत अनुदान तथा 10 प्रतिशत ऋण शामिल हैं।

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में केन्द्रीय सहायता की इस पद्धति के प्रति अनुकूल रुख अपनाए जाने के अलावा इन क्षेत्रों के लिये एकीकृत क्षेत्रीय विकास आयोजनाओं के निष्पादन में वृद्धि करने के लिये निधि के अतिरिक्त आबंटन की व्यवस्था की गई थी। इस योजना में ‘‘पिछड़े तथा विशेष क्षेत्र जिसमें पर्वतीय तथा कबिलाई क्षेत्र भी शामिल हैं’’ के बारे में एक अलग अध्याय दिया गया था। इसमें यह उल्लेख किया गया था कि पिछड़े क्षेत्रों में विकास सम्भावनाओं का कार्य प्राथमिकता के आधार पर किया जाये ताकि समस्त जनता को समानता और सामाजिक न्याय दिये जाने के उद्देश्य को मूर्तरूप दिया जा सके। इसमें इस बात को भी स्वीकार किया गया था कि पिछड़े क्षेत्रों का विकास आयोजना की दृष्टि से एक अत्यन्त जटिल समस्या है। इसमें यह भी उल्लेख किया गया था कि विपणन कार्य करने वाली शक्तियाँ सामान्य रूप से इस प्रकार अपना कार्य करती हैं कि विकास का रुख पहले से ही विकसित क्षेत्रों में सकेन्द्रित हो जाता है और अर्थव्यवस्था का संघटीकरण, आकार तथा दक्षता निर्माण विभिन्न क्षेत्रों के बीच असमानता और असन्तुलन में वृद्धि करता है। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के कार्यक्रम लाभोन्मुख बनाए गए थे। सातवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्रों में पारिस्थितिकी के विकास पर बल दिया गया था तथा 1. पारिस्थितिकी पुनर्स्थापन 2. पारिस्थितिकी संरक्षण 3. पारिस्थितिकी के विकास पर आयोजनागत दृष्टि से विशेष ध्यान भी केन्द्रित किया गया था।

आठवीं पंचवर्षीय योजना के परिप्रेक्ष्य में पर्वतीय क्षेत्रों के विकास के भौतिक तथा सामाजिक-आर्थिक पहलू पर विशिष्ट ध्यान देना, पर्वतीय क्षेत्रों की कोटि में गिरावट आने की प्रक्रिया की रोकथाम पर बल देना, भूमि की उत्पादकता में बड़े पैमाने पर वृद्धि करना, नीम, पीपल, जामुन, तथा आम जैसे बहुविध प्रकार के वृक्षों का रोपण करके व्यापक पैमाने पर वृक्षारोपण किये जाने के कार्य पर ध्यान देना आवश्यक है। एक ही प्रकार के अर्थात यूकेलिप्टस के पौधों को लगाये जाने की प्रवृत्ति को निरुत्साहित करना होगा क्योंकि ये पर्वतीय क्षेत्रों में बाढ़ की रोकथाम करने में सक्षम नहीं है। अतः आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कानून का समुचित रूप से प्रवर्तन करके वाणिज्यिक वानिकी को निरुत्साहित करने की दृष्टि से पहल करना आवश्यक है।

नीति की दृष्टि से आवश्यक पहलू


पर्वतीय क्षेत्रों में चरागाहों तथा चराई की उत्पादकता में वृद्धि करने के लिये प्रयास किये जाने के साथ-साथ दुर्लभ पर्वतीय संसाधनों का सुस्थिर वैज्ञानिक उपयोग किये जाने के कार्य पर उचित ध्यान देना होगा जिससे न्यूनतम भू-क्षेत्र के खाद्य, ईंधन लकड़ी, इमारती लकड़ी तथा चारे की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके। गैर-पारम्परिक ऊर्जा के विकास तथा लकड़ी रहित आधारित ऊर्जा के स्रोत के इस्तेमाल पर अधिक बल दिया जाना चाहिए। एकीकृत विकास हेतु, जलाशयों के विकास को आयोजनाबद्ध किया जाना आवश्यक है क्योंकि ये जनता की जल आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ जल तथा मृदा-संसाधनों का संरक्षण कर सकते हैं।

पर्वतीय क्षेत्र में प्रत्येक ग्राम अथवा ग्रामों के समूह का अपना-अपना वन होना चाहिए जिससे ये वन ग्रामीणों की ईंधन लकड़ी, चारे तथा इमारती लकड़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। पर्वतीय क्षेत्रों के बागानों के उत्पादों को माल बन्द (पैकेजिंग) करने के लिये लकड़ी के उपयोग में कमी लाने के उद्देश्य से प्लास्टिक जैसी उपयुक्त लकड़ी रहित माल-बन्द सामग्री का उत्तरोत्तर प्रयोग किया जाये। नियमों तथा विनियमों को मार्गदर्शी सिद्धान्तों के रूप में तैयार किया जाये ताकि पर्वतीयक क्षेत्रों में लकड़ी के दुरुपयोग को रोका जा सके क्योंकि ऐसा करना बहुमूल्य वन्य सम्पदा का गम्भीर दुरुपयोग है।

आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय पहलू यह सुनिश्चित करना है कि पर्वतीय मार्गों का निर्माण यातायात की आवश्यकताओं, वैज्ञानिक दृष्टि से सम्मत डिजाइन तथा पर्वतीय क्षेत्रों के लिये उपयुक्त विशिष्टियों के अनुरूप किया जाये जिससे शिथिल मृदा को रोका जा सके, जल निकासी की समुचित प्रणाली को विकसित किया जा सके और साथ-ही-साथ भूस्खलन की घटनाओं को कम किया जा सके। पर्वतीय क्षेत्रों में जनसंख्या का घनत्व कम है और ग्राम छोटे-छोटे हैं तथा लम्बी दूरी तक छितरे हुए हैं ऐसे स्थानों पर कुली, मजदूरों तथा खच्चरों के लिये पगडंडियाँ बनाकर उनका समुचित रख-रखाव किया जाना चाहिए। पर्वतीय क्षेत्रों के स्थानिक तथा आर्थिक विकास को गतिशीलता प्रदान करने के कार्य का संवर्धनन करने के उद्देश्य से सड़कों का निर्माण प्रत्येक दृष्टि से पूरा किया जाना आवश्यक है।

आशा है कि इन उपायों से हमारे प्राकृतिक पर्यावरण तथा जीवनयापन प्रणाली के लिये आवश्यक पारिस्थितिकी सन्तुलन की सुरक्षा तथा संरक्षण करने और पर्वतीय क्षेत्रों का एकीकृत विकास करने के मामले में दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा।

दिवाकर एस. मेशराम (अध्यक्ष, आई.टी.पी. तथा मुख्य नियोजक, नगर एवं ग्राम नियोजन संगठन शहरी विकास मंत्रालय)
आर.पी. बंसल (वरिष्ठ अनुसन्धान अधिकारी, नगर एवं ग्राम नियोजन संगठन। लखनऊ)


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