पर्यावरण और अपशिष्ट प्रबंधन

waste management
waste management
कूड़े के निपटान का सबसे उपयुक्त तरीका लैंडफिलिंग रहा है, परंतु इसीनरेटर और कंपोस्टिंग की अन्य दो विधियां भी सृजित की गई हैं। इसीनरेटर की विधि अधिक व्यापक नहीं हो पाई और इससे वायु प्रदूषण की अतिरिक्त क्षति होती देखी गई, परंतु प्लास्टिक के थैलों, अस्पतालों से निकले दवाओं के खाली पत्तों, ऑपरेशन थिएटर में उपयोग में लाने के बाद फेंके जाने वाले सामानों के निस्तारण की कोई अन्य तरकीब इसीनरेटर के अतिरिक्त फिलहाल आविष्कृत नहीं की जा सकी है। यह भयावह भविष्य का खतरनाक संदेश है कि भारत जैसे वृक्षों का आदर और पूजा करने वाले देश में वर्षा और पेयजल की लगातार कमी हो रही है। यह तो और भी विचित्र बात है कि सामाजिक और सरकारी दोनों ही स्तरों पर उपलब्ध पेयजल का असामान्य दोहन होता है। अपशिष्ट पदार्थों का असुरक्षित निपटान और उससे होने वाले वायु-प्रदूषण के अतिरिक्त जल-प्रदूषण के प्रति असावधानी विनाशकारी है।

भारत ही नही, प्रदूषण का विस्तृत दुष्प्रभाव संसार पर पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़ा-प्रबंधन के प्रति असावधानी को गंभीरता से लिया गया है और इससे वातावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के प्रति चिंता प्रकट की गई है। वायुमंडल में तापमान की असामान्य वृद्धि और उपयुक्त भूजल के विषैले होते जाने की एक अलग ही समस्या दिखाई पड़ने लगी है।

तापमान बढ़ने से ध्रुवीय प्रदेशों की बर्फ पिघल रही है। इससे पृथ्वी के जलमग्न होने की आशंका इधर के दिनों में अधिक गंभीरता से व्यक्त की गई है। समुद्रों के जलस्तर में भी वृद्धि हुई है, छोटे द्वीपों का अस्तित्व खतरे में पड़ता दिखाई पड़ रहा है। कूड़े के असुरक्षित निपटान से स्थिति इतनी भयावह होती दिखाई देती है कि दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों का तापमान लगातार जीवन के विरुद्ध होता जा रहा है।

छोटे एवं बड़े शहरों में दैनिक जीवन के उपयोग से निकलने वाले कूड़े का उपयोग प्रायः गड्ढों को भरने के लिए किया जाता है, परंतु इसकी समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती। पेयजल के रूप में उपयोग में लाए जाने वाले भूजल के आर्सेनिक आदि हानिकारक तत्वों से विषाक्त होने का मुख्य कारण यही है।

देश के महानगरों की स्थिति तो और भी बुरी है। कूड़े के निपटान के लिए उपयुक्त स्थानों का अभाव है। भारत में कुल 5161 नगर हैं, जिनमें 35 को महानगर का दर्जा प्राप्त है। 393 प्रथम श्रेणी और 401 द्वितीय श्रेणी के नगरों के अतिरिक्त कई और 20000 से 50000 की आबादी वाले छोटे नगर भी हैं। भारत में इन नगरों से प्रतिदिन लगभग एक लाख टन अपशिष्ट पदार्थ निकलते हैं। छोटे नगरों में निकलने वाले कूड़े को प्रति व्यक्ति औसत मात्रा 0.1 कि.ग्रा है, जबकि बड़े नगरों में कूड़े व्यक्ति 0.4 से 0.6 किग्रा. औसत कूड़ा निकलता है।

भारत में नगरों के सौंदर्य को बिगाड़ने में ये कूड़ा अहम भूमिका निभाता है। नगरीय सभ्यता की ओर आकर्षित होते मध्यवर्गीय ग्रामीणों की बढ़त से नगरों की आबादी में वृद्धि होती है तो ये नए नगर कूड़े के प्रबंधन के प्रति स्वाभाविक रूप से लापरवाह भी होते हैं। नगरों के विकास के लिए बनाए गए स्थानीय शासन के प्राधिकरणों के कर्मचारियों एवं पदाधिकारियों में कुशलता का अभाव तो है ही, निष्ठा भी कम न है।

कर्मचारियों को कूड़े के पर्यावरणीय दुष्प्रभाव का सैद्धांतिक ज्ञान न होने के कारण व्यावहारिक तौर पर परेशानी होती है। नगर प्राधिकरणों में कर्मचारियों का आभाव अलग है और जो कर्मचारी हैं वे भी काम के अनुपात में कम हैं। सरकार उनके नियमित वेतन और दूसरे भत्तों के समुचित तथा ससमय भुगतान का पुख्ता प्रबंध भी नहीं कर पा रहीं। नगरों में कूड़ों के साथ मानव मल मिश्रित होता है। कम अथवा निम्नवर्गीय आबादी वाला क्षेत्र ही प्रायः कूड़े को फेंकने की जगह की रूप में किया जाता है। उन क्षेत्रों के लोग अपने व्यक्तिगत जीवन से निःसृत कूड़े के प्रबंधन के लिए अपेक्षाकृत अधिक उदासीन होते हैं।

अमूमन शहरों के निम्नवर्गीय लोग तो कूड़ों वाले अर्थात उपेक्षित सरकारी क्षेत्रों में ही अपनी झोपड़ियां खड़ी करते हैं, जिन्हें स्लम क्षेत्र कहा जाता है। वर्षा के दिनों में इन क्षेत्रों में पसरी गंदगी शहर की समूची आबोहवा पर प्रतिकूल असर डालती है। शहरों में पांव फैलाती संक्रमण जनित नई बीमारियों का जन्म भी प्रायः यहीं से होता है। वृक्षों का अभाव, वाहनों एवं कल-कारखानों से निकलने वाला धुआं, ध्वनि आदि के प्रति पर्यावरणविदों का ध्यान तो लंबे समय से जाता रहा, पर इस कूड़े के निपटान से संबंधित न तो कोई तकनीकी ज्ञान सृजित किया गया और न ही इसके प्रति अपेक्षित ध्यान दिया गया।

नगरों से मुख्य मार्गों एवं गलियों के कूड़ों का निपटान किए जाने के प्रबंध गैर-मुनासिब हैं। सिर्फ 72.5 प्रतिशत कूड़ा ही हटाया जाता है। उनमें भी अधिकांश कूड़े का उपयोग खाली गड्ढों को भरने, सड़क किनारे फेंक देने आदि में होता है। कूड़े को खुले में फेंकने और खुला छोड़ देने का और भी खतरनाक परिणाम दिखाई पड़ रहा है।

कूड़े का निष्पादन जैविक खाद बनाने या उसके बंद निपटान के लिए किया जाना चाहिए, जो महज उठाए गए कूड़े में से दस प्रतिशत भाग का ही हो पा रहा है। शहरों के पास खाली भूमि का अभाव है। कूड़ा फेंकने के लिए सरकारी तौर पर जिन क्षेत्रों का चयन किया जाना चाहिए, वे जनसंख्या रहित हों।

यदि इस दृष्टि से क्षेत्रों का चयन होता भी है तो वे शहरों से दूर होने के कारण व्यय साध्य होते हैं। सरकारी कर्मचारियों एवं ठेकेदारों की उदासीनता अथवा अधिक लाभ अर्जित करने की इच्छा के कारण ये कूड़ा वहां तक पहुंच ही नहीं पाता। यदि पहुंच भी पाता है तो उसके खुले निपटान के कारण स्थानीय प्रदूषण का नया खतरा उत्पन्न हो जाता है।

पश्चिमी देशों में भारत की अपेक्षा अधिक सुचिंतित और सावधान नागर-जीवन सुलभ है। वे कूड़े के निपटान के लिए उचित प्रबंध करते हैं। वहां सेनेटरी लैंडफिल में कूड़ा डालने के बाद ऊपर से निश्चितप्रायः मिट्टी डाल दी जाती है, लैंडफिल के चारों तरफ चिकनी मिट्टी भी डालने का प्रावधान है। इससे दुर्गंध और जीवाणुओं के प्रसार को रोका जाना संभव हो पाता है।

यह एक प्रकार की कंपोस्टिंग की भी व्यवस्था होती है और इससे नए पौधों के पोषण को तो बल मिलता ही है, खाली पड़े गड्ढों को लैंडफिलिंग के बाद उपयोग मे लाने की संभावना भी बढ़ जाती है। कूड़े में मानव मल और फलों-सब्जियों के सड़े हुए अंश मिले रहते हैं। मिट्टी या बालू की तुलना में इनकी मात्रा अधिक ही रहती है। सड़न से दुर्गंध आती है और वातावरण के तापमान को तेजी से बढ़ने वाली मीथेन गैस की मात्रा भी वातावरण में तेजी से फैलती जाती है।

पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से ऑक्सीजन के अभाव और कल-कारखानों के धुएं से बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड एवं कार्बन मोनोऑक्साइड को लेकर की गई चिंता तो विद्यालयी पाठ्यक्रमों में भी शामिल है, परंतु कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में इक्कीस गुणा अधिक हानिकारक मीथेन गैस के प्रति पर्यावरणविदों की चेतना अपेक्षाकृत विलंब से जागृत हो रही है। अब जाकर भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन-मंत्रालय ने इससे संबंधित एक आदेश जारी किया है।

25 सितंबर, 2000 को जारी हुए इस आदेश का क्रमांक 908 (बी) है, जिसमें सेनेटरी लैंडफिल के लिए कुशल कर्मियों को लगाए जाने पर विशेष बल दिया गया है। इसमें लैंडफिल वाली सेनेटरियों का क्षेत्रफल तय करने की बात कही गई है कि वह कम-से-कम तीन से चार दशकों का समय देख सकें। इसके अंतर्गत तीन लाख से कम जनसंख्या वाले क्षेत्रों को चिन्हित करने का प्रावधान है। ऐसे दो-तीन नगरों को मिलाकर एक क्षेत्रीय समिति को गठन के निर्णय लिया गया है, जिससे साधन एवं खाली क्षेत्रों के अभाव को कम व्यय से इस कार्य में आड़े आने से रोका जा सके। इस प्रकार निस्तारण की लागत प्रति टन कम हो सकेगी।

छोटे नगरों में कोष की कमी अथवा अनुपयुक्तता के कारण प्रबंधन होने में कठिनाई होती है, ठेकेदारों का अभाव होता है, उनके ससमय भुगतान के प्रति सचेष्ट नहीं होने के कारण भी यह समस्या उत्पन्न होती है। क्षेत्रीय समिति के गठन के बाद सेनेटरी लैंडफिल के लिए भूमि क्रय का बंदोबस्त आसानी से संभव है। स्थानीयता के कारण न सिर्फ ठेकेदारों की सुलभता संभव है, बल्कि संयंत्रों और स्थानीय लोगों का सहयोग लेना आसान हो सकता है।

स्थानीय लोगों को अपने-अपने क्षेत्रों से निस्तारित कूड़े के निपटान और उसके चक्रीय उपयोग से संबंधित प्रशिक्षण की व्यवस्था कम लागत में की जा सकती है। पॉलीथिन, शीशा, पत्थर के टुकड़ों को अलग कर कूड़े से जैविक खाद बनाने का सस्ता और आवश्यक प्रबंधन विकसित करना अधिक आसान है। रासायनिक खादों के बढ़ते दुष्प्रभाव, अनुपलब्धता एवं महंगाई के विकल्प स्वरूप जैविक खाद पर अवलंबित होना अधिक प्राकृतिक और उपयुक्त होगा।

इन क्षेत्रीय समितियों को यह भार सौंपा गया है कि वे कूड़े के ढेर की ऊंचाई तीस मीटर से अधिक न बढ़ने दें। छोटे नगरों में उसे 5 मीटर तक ऊंचे कूड़े के ढेरों को एकत्रित कर 30 मीटर तक ऊंचाई सीमा में जमा करना अधिक मुश्किल नहीं। इस प्रकार की लैंडफीलिंग के नियंत्रित प्रबंधन से जहरीली मीथेन गैस को उपयोगी बनाया जा सकता है। इससे विद्युत का उत्पादन संभव है।

अभी तक कूड़े के निपटान का सबसे उपयुक्त तरीका लैंडफिलिंग रहा है, परंतु इसीनरेटर और कंपोस्टिंग की अन्य दो विधियां भी सृजित की गई हैं। इसीनरेटर की विधि अधिक व्यापक नहीं हो पाई और इससे वायु प्रदूषण की अतिरिक्त क्षति होती देखी गई, परंतु प्लास्टिक के थैलों, अस्पतालों से निकले दवाओं के खाली पत्तों, ऑपरेशन थिएटर में उपयोग में लाने के बाद फेंके जाने वाले सामानों के निस्तारण की कोई अन्य तरकीब इसीनरेटर के अतिरिक्त फिलहाल आविष्कृत नहीं की जा सकी है।

इसीनरेटर खर्चीली प्रणाली भी है। कृत्रिम वस्तुओं के निपटान के लिए यह प्रणाली उपयोग में लाई जाती है। कृत्रिम वस्तुएं कम-से-कम उपयोग में लाइ जाएं, कम साधनों का उपयोग हो और एक ही साधन का कई कार्यों में उपयोग हो। यदि कूड़ा फेंका जाए तो उसे फेंकने से पूर्व वर्गीकृत कर दिया जाए।

कृत्रिम वस्तुओं यथा पॉलीथिन, प्लास्टिक, लोहे के टुकड़ों, शीशों और दूसरे पदार्थों को फेंकने से पूर्व अलग-अलग टोकरियों में एकत्रित करते जाना चाहिए। इससे उन्हें पुनर्चक्रण में लगाया जा सकता है। उन्हें कबाड़ियों को बेचकर कुछ भी कमाया जा सकता है, जो पदार्थ हमारे लिए उपयोगी नहीं हों, उन्हें अन्य परिवारों तक हस्तांतरित कर देना चाहिए।

प्रायः यह निर्णय लेना चाहिए कि हमारे द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले पदार्थ डिस्पोजेबल कम हों। उनकी जगह टिकाऊ और कीमती सामानों के उपयोग से यह संभव हो सकता है कि वे अपेक्षाकृत कूड़ों में तत्काल तब्दील न हों। प्लास्टिक भू-मृदा के लिए सर्वाधिक हानिकारक है। निकट के वर्षों में यह अलग समस्या बन गई है। प्लास्टिक के थैलों की जगह टिकाऊ और बार-बार उपयोग में लाए जा सकने वाले कपड़ों के थैलों का इस्तेमाल अधिक हो।

छोटे आंगनों में कंपोस्ट पिट का निर्माण किया जाना चाहिए, जिनमें जैविक अपशिष्टों का निपटान हो, अजैविक अपशिष्टों के निस्तारण की अलग से व्यवस्था आवश्यक है। जैविक कूड़े से बने जैविक खाद को बागवानी आदि में उपयोग में लाया जा सकता है, अथवा छोटे और मंझोले किसानों को बेचकर मुनाफा भी कमाया जा सकता है।

कूड़े से लैंडफिलिंग के उचित प्रबंध के अंतर्गत कई प्रयोग किए गए। कूड़े वाली भूमि को मिट्टी से ढंक दिया जाता था अथवा एशफॉल्ट से बना वाटरप्रूफ आवरण दे दिया जाता था। इससे भूजल और वर्षा के जल से उसका संपर्क रोक दिया जाता था। लाभ यह होता था कि पेयजल संक्रमित नहीं होता था और वातावरण भी जीवाणुओं के दुष्प्रभाव से मुक्त रहता था।

इससे कूड़ा न तो फैलता था और न ही इसकी सूखी धूल वातावरण को अपशिष्ट करती थी। बाद में कूड़े से पटे क्षेत्रों को मिट्टी डालकर सामान्य कर दिया जाता था और उन पर आबादी के बढ़ते धनत्व के कारण इमारतें बना दी जाती थीं। परंतु कूड़े से बाद में गैस रिसने की कई घटनाओं ने नगर जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। कुछ समय पूर्व मुंबई में एक ऐसी ही डंपिंग को बंद किया गया है। प्रयास किया जा रहा है कि उसका उपयोग विद्युत निर्माण के रूप में किया जाए।

मुंबई हाईकोर्ट ने ऐसी डंपिंगों-कैंपिंगों की अपेक्षा बायोस्टेबिलाइजेशन को श्रेयस्कर माना है। इसमें लागत भी कम आती है तथा क्षेत्र को बाद में खेत के खुले मैदान के रूप में विकसित किया जा सकता है। इससे कूड़े के आयतन को भी कम किया जा सकता है और वातावरण में गैस का फैलाव भी नहीं हो सकता। ऐसे प्रंबंधनों से मुंबई के अतिरिक्त नासिक, मदुरै और कोलकाता में कई मैदान विकसित भी किए जा चुके हैं।

अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि में कूड़े के प्रबंधन से संबंधित शोध और प्रयोग किए जा रहे हैं। अमेरिका में मिट्टी से कैंपिंग असफल रही और शुष्कता के कारण दरार आ गई। ऑस्ट्रेलिया में मीथेन गैस का उपयोग महंगा सिद्ध हुआ। फाइटो कैंपिंग से कूड़े वाले क्षेत्र पर वृक्षारोपण कर सफलता पाई गई।

कूड़े का प्रबंधन व्यक्तिगत सावधानी से संभव है। यह न सिर्फ सामाजिक कर्तव्य है, बल्कि जीवन और पर्यावरण के अन्योन्याश्रय संबंध का निर्धारक जैविक कर्तव्य भी।

पत्रकार कॉलोनी, महनार वैशाली (बिहार)

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading