पर्यावरण और चुनावी घोषणापत्रों का विश्लेषण

2 Aug 2014
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पर्यावरण के मोर्चे पर तीनों ही दल एक जैसे हैं। वे भारत (और पूरी पृथ्वी) की सीमित प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों को संकट में डाले बिना अगली पीढ़ी तक पहुंचाने पर चुप हैं तथा जीडीपी पर ही अपना दांव लगा रहे हैं। भाजपा व कांग्रेस से तो ऐसी ही उम्मीद थी, पर इस मामले में ‘आप’ ने भी आश्चर्य में डाल दिया है, क्योंकि इसकी कार्यकारिणी में ऐसे अनेक सदस्य हैं जो इन विरोधाभासों को समझते हैं। वैसे पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस ने पर्यावरण के प्रति कुछ सम्मान दिखाया है, लेकिन तीसरी बार वह ऐसा करेगी इसके संकेत घोषणा-पत्र से नहीं मिले हैं।चुनावी घोषणा-पत्र इस बात की ओर इशारा करते हैं कि सत्ता में आने पर राजनीतिक दल क्या करना चाहते हैं। यह जरूरी नहीं है कि सत्ता में आने पर वे इस पर अमल करें, लेकिन इससे दल की मनोस्थिति का भान होता है कि किस तरह जनता के हितों की रक्षा की जाएगी। इस लिहाज से आम आदमी पार्टी का घोषणा- पत्र कांग्रेस और भाजपा से कहीं आगे है, वैसे इसके कई बिंदुओं से निराशा भी होती है। इस वक्त भारत के सामने तीन प्रमुख चुनौतियां हैं, जिम्मेदार एवं जवाबदेह राजनीतिक शासन को हासिल करना, आर्थिक और सामाजिक कल्याण सुनिश्चित करना (विशेषकर ऐसे व्यापक वर्ग हेतु जो कि अभी भी गरीब हैं) और बिना पारिस्थितिकीय विध्वंस किए जीवन को जीने लायक बनाना। विकास के कई दशक पुराने मॉडल जिसमें कि पिछले दो दशकों का वैश्विक संस्करण भी शामिल है, इसे प्राप्त नहीं कर पाया है। इसने भारत को कमजोर किया है।

शासन स्तर पर भ्रष्टाचार एवं सार्वजनिक क्षेत्र में अकर्मण्यता अभी भी व्याप्त है, लोगों को सशक्त बनाने वाली स्वशासी संस्थाएं कमजोर बनी हुई हैं। यदि सामाजिक आर्थिक मोर्चे पर बात करें तो भोजन, पानी, रहवास, सेनीटेशन, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा से कम से कम 70 प्रतिशत जनसंख्या जूझ रही है। इन्हें भी निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, जिससे यह अमीर लोगों के हाथ में जा रही है और गरीबों की पहुंच से बाहर होती जा रही है। अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई (भारत की आधी से अधिक संपत्ति 10 प्रतिशत के हाथ में है) भी हमें शर्मिंदा करती है। पर्यावरण के मोर्चे पर अनेक सर्वेक्षण बता रहे हैं कि हम अस्थिरता और आत्मघात के फिसलन भरे रास्ते पर चल रहे हैं और विश्व बैंक सरीखा संकुचित नजरिए वाला संगठन भी पर्यावरणीय लागत घटाने के बाद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में शून्य प्रतिशत वृद्धि बता रहा है।

व्यक्तियों को सशक्त बनाए बिना जवाबदेह व जिम्मेदार राजनीतिक शासन असंभव है। ऐसे में प्रथम तल पर गांवों में ग्रामसभा व नगरों में मोहल्ला समितियों को निर्णय प्रक्रिया में शामिल करना होगा। वैसे तो सभी दल विकेंद्रीयकरण की बात करते हैं, लेकिन स्वराज के माध्यम से ‘आप’ इसके सबसे नजदीक पहुंचा है और उसने वादा किया है कि विकास गतिविधियों हेतु सीधे स्थानीय निकायों को धन देगी और भुगतान में भी लोगों की सहमति ली जाएगी। बाकी के दोनों दल शहरी शासन के विकेंद्रीकरण पर मौन हैं। सत्ता के विकेंद्रीकरण का सबसे गंभीर पक्ष है कि भूमि, प्राकृतिक संसाधनों और अन्य मुद्दों का, जिन पर लोगों का जीवन व जीविका निर्भर है, का क्या होगा? सिर्फ ‘आप’ ने ही कहा है कि भूमि अधिग्रहण एवं खनिज, वन एवं जल ग्रामसभा के अधिकार क्षेत्र में होंगे। मजेदार बात यह है कि कांग्रेस भी वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन एवं वनों को अन्य परियोजनाओं में हस्तांतरित करने पर मौन रही है। यही हाल भाजपा का भी है।

यदि सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर बात करें तो आर्थिक वैश्वीकरण के पिछले दो दशकों ने संगठित क्षेत्र में रोजगार सृजन रोक सा दिया है। सभी दल रोजगार में असाधारण वृद्धि की बात कर रहे हैं। भाजपा ने श्रम आधारित उद्यमों पर जोर दिया है। ‘आप’ का भी कहना है कि रोजगार सृजन उसकी आर्थिक नीति का प्राथमिक लक्ष्य है तथा वह गांव से शहरों की ओर पलायन रोकेगी।

इस हेतु वह पारंपरिक उद्योगों को बढ़ावा देगी, छोटे उद्योगों एवं कृषि क्षेत्र जिसे बेहतर अधोसंरचना उपलब्ध होगी औपचारिक ऋण तक आसान पहुंच और यथोचित तकनीकी हस्तक्षेप तथा बेहतर समर्थन मूल्य की व्यवस्था करेगी। कांग्रेस का भी एजेंडा रोजगार है, जो कि सरकार बनाने के 100 दिनों के भीतर लागू हो जाएगा। परंतु लगता नहीं है कि उसने पिछले दो दशकों की रोजगार विहीन वृद्घि दर से कुछ सबक लिया है और वह औद्योगिक कारीडोर, शहरी क्लस्टर, निर्यात वृद्धि की रट लगाए हुए है।

दुर्भाग्यवश इन वायदों की कोई कीमत नहीं है। पिछले दो दशकों में लाखों मजदूर घर बैठ चुके हैं। जबरिया विस्थापन से लोग मछली मारने, वानिकी, कृषि, शिल्प, पशुपालन जैसे अनेक उद्यमों से बाहर हो गए हैं। आर्थिक असमानता की बढ़ती खाई की अनदेखी सभी दलों ने की है। किसी भी दल ने अनाप-शनाप वेतन, संपत्ति, अमीरों को दिए जा रहे लाभ पर रोक लगाने की बात नहीं की है।

पर्यावरण के मोर्चे तीनों ही दल एक जैसे हैं। वे भारत (और पूरी पृथ्वी) की सीमित प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों को संकट में डाले बिना अगली पीढ़ी तक पहुंचाने पर चुप हैं तथा जीडीपी पर ही अपना दांव लगा रहे हैं। भाजपा व कांग्रेस से तो ऐसी ही उम्मीद थी, पर इस मामले में ‘आप’ ने भी आश्चर्य में डाल दिया है, क्योंकि इसकी कार्यकारिणी में ऐसे अनेक सदस्य हैं जो इन विरोधाभासों को समझते हैं। वैसे पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस ने पर्यावरण के प्रति कुछ सम्मान दिखाया है, लेकिन तीसरी बार वह ऐसा करेगी इसके संकेत घोषणा-पत्र से नहीं मिले हैं। बल्कि निवेश पर केबिनेट कमेटी बनाकर उसने भविष्य के संकेत दे दिए हैं। प्रत्येक दल ने जलसंवर्धन को लेकर विकेंद्रीयकरण की बात कही है, लेकिन किसी ने भी यह नहीं कहा है कि इसे महाकाय परियोजनाओं की बनिस्बत प्राथमिकता दी जाएगी। सभी घोषणा-पत्रों में रिन्युवेबल ऊर्जा की बात की गई है।

‘आप’ के घोषणा-पत्र में इस तरह स्नेतों को स्थानीय हाथों में सौंपने की बात है। सभी निर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने की बात कर रहे हैं। लेकिन बढ़ते शर्मनाक उपभोक्तावाद, खासकर अमीरों द्वारा एवं अनैतिक विज्ञापन पर सभी मौन हैं। किसी ने भी यह उल्लेख नहीं किया है कि खतरनाक प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट से कैसे मुक्ति पाई जाएगी। वैसे भाजपा ने एक सार्वजनिक यातायात प्रणाली के माध्यम से निजी वाहनों पर निर्भरता समाप्त करने की प्रशंसनीय पहल दिखाई है। इसमें यात्रा, समय व पर्यावरणीय लागत का भी उल्लेख है। कांग्रेस ने भी सार्वजनिक यातायात का उल्लेख किया है, लेकिन निजी के मुकाबले इसे प्राथमिकता नहीं दी है। वैसे ‘आप’ ने इस पर आश्चर्यजनक चुप्पी साधी है।

कृषि के संबंध में संरक्षण, जैविक प्रणाली, सूखी खेती आदि को लेकर स्वागतयोग्य प्रतिबद्धता दर्शाई गई है। वहीं ‘आप’ ने खेती एवं पशुओं की देशज किस्मों को प्रोत्साहन देने की बात भी की है। लेकिन हरित क्रांति संबंधित प्राथमिकता को लेकर अभी भी स्पष्टता नहीं है।

जीनांतरित बीजों (जीएम) को किसी भी दल ने अस्वीकार नहीं किया है। वैसे भाजपा ने घोषणा-पत्र में पूरी तरह से वैज्ञानिक परीक्षण, मिट्टी पर इसके दीर्घकालिक प्रभाव, उत्पादन और जैविक प्रभाव के परीक्षण के बाद अनुमति को कहा है। कांग्रेस ने खुदरा में एफडीआइ की वकालत की है। कृषि में विदेशी निवेश के विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं। भाजपा व ‘आप’ ने कम से कम इसे नकारा है।

सामान्य तौर पर कहें तो इन तीनों दलों में से केवल ‘आप’ ही है जिसने पर्यावरण व अर्थव्यवस्था को अंतर्निहित समानता माना है और एक विशिष्ट विकास मॉडल की बात की है जो कि न्यायपूर्ण व सुस्थिर होगा।

लेकिन इसका अर्थ समझ पाने में वह भी असफल रही है। इस तरह के मॉडल में स्थानीयता सर्वोपरी है। वैसे ‘आप’ के घोषणा-पत्र में भी आंतरिक विरोधाभास दिखाई देता है। खासकर आर्थिक पारिस्थितिकीय मोर्चे पर। कांग्रेस व भाजपा अपने पूर्ववर्ती रुख पर ही कायम हैं। इससे भारत भविष्य में राजनीतिक, आर्थिक व पर्यावरणीय गिरावट की ओर ढुलक सकता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। )

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