पर्यावरण बचाने के लिए जन संकल्प जरूरी

18 Jan 2020
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पर्यावरण बचाने के लिए जन संकल्प जरूरी
पर्यावरण बचाने के लिए जन संकल्प जरूरी

स्वच्छ पर्यावरण

सुखद है कि मौजूदा केन्द्र सरकार ने अपनी घोषणाओं में कार्बन संतुलन के प्रति संकल्प जताया है। जरूरी है कि हम भी अपनी सामुदायिक, संस्थागत व व्यक्तिगत भूमिका का आकलन करें और उन्हें अपनी आदत बनाएं। इसके लिए सर्वप्रथम हम विश्व को आर्थिकी मानने की बजाय, प्रकृति मानें, हर अवसर, सम्बन्ध और संसाधन को आमदनी में तब्दील कर देने की बजाय, उन्हें खुशहाली के प्राकृतिक समृद्धि सूचकांक की कसौटी पर खरा उतारने की प्रवृत्ति विकसित करें। अधिकाधिक उपभोग से जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद दर) भले ही बढ़ती हो, किन्तु जलवायु संतुलन बिगड़ जाता है। बिगाड़ को सुधारने के लिए प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यक उपलब्धता और उपभोग में संतुलन जरूरी है। प्राकृतिक संसाधन सीमित है। अतः अपव्यय रोकना व उपभोग घटाना जरूरी है।

जलवायु बदल रही है, तो इसमें हम क्या करें? हमने थोड़े ही ताप बढ़ाया है। सरकारों को करना चाहिए...और फिर पूरे दुनिया के वायुमण्डल का तापमान बढ़ रहा है, एक अकेले देश या अकेले व्यक्ति के करने से क्या होगा?

स्वार्थपूर्ण प्रवृत्ति वाले ये बोल अक्सर सुनने को मिल जाते हैं किन्तु निजी दायित्व के प्रति यह उदासीनता व्यापक लेकिन काफी नुकसानदेह है। अतः इस उदासीनता का टूटना जरूरी है। इसे तोड़ने के लिए जवाबदेह सोच का होना जरूरी है। जरूरी है कि हम पूरी जवाबदेही के साथ सोचें कि बारिश की ताजा बूंदों को संजोने की बजाय, भूजल भण्डारों को खाली करने में कौन लगा है? हजारों वर्ष पूर्व पुरखों के संजोए पाताली पानी को खींचकर पैसा कमाने वाले बोतलबंद कारोबार का खरीददार कौन है? कम बारिश के इलाकों में भी अधिक पानी की फसलें कौन बो रहा है? नदी-समुद्रों को पॉलीथिन, प्लास्टिक व अन्य जहरीले कचरे से कौन भर रहा है? तेज आवाज से लुढ़क आने वाली कंकड़ी के कच्चे हिमालय में तेज रफ्तार गाड़ियां कौन दौड़ा रहा है? इक्का, बैलगाड़ी, साइकिल को कबाड़ में रखकर मोटरसाइकिल व कार हासिल करने की दौड़ में कौन लगा है? एक ओर गाँव के गाँव खाली हैं, दूसरी ओर नगरों में कई के लिए सिर छिपाने की जगह भर शेष नहीं। नगरीय इमारतें, हवा के हिस्से का आसमां खा रही हैं। यह असंतुलन कौन बढ़ा रहा है? चूना-सुर्खी-मिट्टी के माकानों को सीमेंट, शीशा, लोहा, स्टील, टाइल्स और पत्थर जैसे गहरे खनन आधारित औद्योगिक उत्पादों की बेतहाशा खपत वाले मकानों में किसने तब्दील किया? परिवेश को विकिरणों को भर देने वाले ई-उपकरणों का दीवानगी की हद तक बटन दबाने में कौन लगा है?

आर्थिक उदारवाद के भारत में घोषित तौर पर प्रवेश के बीते 29 वर्षों के दौरान हमने अपनी निजी जीवन शैली, रोजमर्रा की जरूरतों, आकांक्षाओं और आर्थिक क्षमताओं में जो कुछ बदलाव हासिल किए हैं, कार्बन के बढ़ते उपभोग व उत्सर्जन से इनका सीधा नाता है।

सुखद है कि मौजूदा केन्द्र सरकार ने अपनी घोषणाओं में कार्बन संतुलन के प्रति संकल्प जताया है। जरूरी है कि हम भी अपनी सामुदायिक, संस्थागत व व्यक्तिगत भूमिका का आकलन करें और उन्हें अपनी आदत बनाएं। इसके लिए सर्वप्रथम हम विश्व को आर्थिकी मानने की बजाय, प्रकृति माने हर अवसर, सम्बन्ध और संसाधन को आमदनी में तब्दील कर देने की बजाय, उन्हें खुशहाली के प्राकृतिक समृद्धि सूचकांक की कसौटी पर खरा उतारने की प्रवृत्ति विकसित करें। अधिकाधिक उपभोग से जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद दर) भले ही बढ़ती हो, किन्तु जलवायु संतुलन बिगड़ जाता है। बिगाड़ को सुधारने के लिए प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यक उपलब्धता और उपभोग में संतुलन जरूरी है। प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। अतः अपव्यय रोकना व उपभोग घटाना जरूरी है।

अपव्यय रोकें, उपभोग घटाएं

शुरुआत, हममें से प्रत्येक को उपभोग की एक निजी लक्ष्मणरेखा बनाकर ही करनी होगी। जिसके आस-पास जो संसाधन मौजूद हैं, उनका अस्तित्व मिटाए बगैर उन्हीं में जीवन चलाने को अपनी आदत और जगत का गौरव बनाना होगा।

गौरतलब है कि कम्प्यूटर को हाइबरनेट या स्क्रीनसेवर मोड में रखने से ऊर्जा की बचत कम, बल्कि कार्बन उत्सर्जन में योगदान ज्यादा होता है. लिहाजा, अगर अगले कुछ घंटे काम न करना हो, तो कम्प्यूटर बंद रखें। उत्सर्जन घटाने के लिए कम्प्यूटर चलाने में ही नहीं, जल व बिजली खपत में भी अनुशासन बनाना होगा। इसके लिए सुविधा नहीं, शारीरिक क्षमता बढ़ाएं। घर में एयरकंडीशनर नहीं, हरियाली लाएं। हरियाली बढ़ेगी, गर्मियों में खिड़कियां व परदे खुलेंगे और हम पहनावे में हल्के व कम रंगीन कपड़े चुनेंगे, तो एयरकंडीशनर लगाने की जरूरत ही नहीं रहेगी।

अपव्यय घटाने में तकनीकी भी हमारी मदद कर सकती है। बस, हम इतना याद रखें कि इस दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं, जिसके उत्पादन में कार्बन, ऊर्जा और पानी न लगता हो। उपभोग घटेगा, तो ऊर्जा बचेगी, पानी बचेगा। पानी बचेगा, तो ऊर्जा बचेगी, कार्बन उत्सर्जन स्वतः घट जाएगा। सिंचाई में टपक बूंद और फव्वारा पद्धति का प्रयोग। शौचालय के सिस्टर्न का छोटा आकार और उससे निकलने वाले पानी की तेज रफ्तार। सेंसरयुक्त नल व सिस्टर्न। सिस्टर्न बड़ा हो, तो उसमें रेत से भरी एक बोतल। बिजली के कम खपत वाले ग्रीन लेबल फ्रिज, बल्ब, मोटरें। साधारण ग्राम्य चूल्हे की जगह, उन्नत चूल्हा। कोयला व तैलीय ईंधन से लेकर गैस संयंत्रों तक को ठंडा करने की ऐसी तकनीकें, जिनमें कम से कम पानी लगे।

कचरा घटाएं, पुर्नोपयोग बढ़ाएं

ब्रांड और क्वालिटी के नाम पर आजकल हर चीज पैक की जा रही है, पानी, बीज, मिट्टी, गोबर के उपले और तक! जबकि हकीकत इससे जुड़ा है। दूसरी तरफ, जबसे ऑनलाइन खरीददारी का चलन बढ़ा है, पैकेजिंग उद्योग व कोरियर वालों की मौज आ गई है। इस कारण भी कूड़े-कचरे की मात्रा में बेतहाशा वृद्धि हुई है। प्रत्येक भारतीय द्वारा पॉली कचरा निकालने की मात्रा का औसत आधा किलो से बढ़कर अब 11 किलो प्रति वर्ष हो गया है। 4 जनवरी, 2018 को लोकसभा में पेश आंकड़ा है कि भारत में औसतन हर रोज करीब 1,45626 लाख तथा सालाना 531,53 लाख मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है।

यदि हम अपने घरों में पैदा हो गई गीले-सूखे कचरे को ही अलग-अलग रखने लग पाएं, तो उनका ठीक से निष्पादन सम्भव जाए। गीला कूड़ा, जैविक खाद बन हमारे खेत-बागानों की उत्पादकता बढ़ाए, रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों का उपयोग स्वतः घट जाए। सूखा कूड़ा, नया रूप ले पुनः हमारे काम की चीज बन जाए। सोचिए, यदि कपड़े धोने के काम में आए पानी को पोछा लगाने या गाड़ी धोने में इस्तेमाल कर लें, पुराने कपड़ों को झोला-दरी-पायदान बनाने वालों को दे आएं, मल शोधन संयंत्रों से निकले पानी का रुख बागवानी और खेती में उपयोग के लिए मोड़ दे, फैक्टरी अपने ईटीपी से निकले पानी का खुद उपयोग करने लगे, तो ये सभी कूड़ा-कचरा कहां बचे? सड़क बनाने में इस्तेमाल होते ही तो पॉलीथीन, सहायक कच्चा माल हो गई। आज जरूरत इसी की है। कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, इसके लिए जरूरत, ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पादों को नियोजित करने की भी है। वन टाइम यूज पॉली झिल्ली की बजाय, ऑल टाइम कपड़े का थैला। जेलपेन की जगह निबपेन। उत्सवों में पॉली व कागजी कप-गिलास-थालियों की जगह धातु के बने बर्तन। इसके लिए हर मोहल्ले का अपना सहकारी भण्डार।

श्रीनगर, शिमला और दार्जिलिंग ठण्डे इलाके हैं। दक्षिण भारत के कई जिले असहनीय ताप के लिए जाने जाते हैं। सफेद रंग ताप को लौटा देता है। गहरा रंग सोख लेता है। हम यह जानते हैं, बावजूद इसके इंटीरियर डेकोरेटर, गर्म इलाकों की इमारतों की दीवारों को भी गहरे रंगों से पुतवा रहे हैं। शीशा, ताप पाकर गर्म हो जाता है। चमकदार शीशा, चमकदार टाइल्स, चमकदार टिन शीट मौसम में गर्मी बढ़ाते हैं। फिर भी हम हर जगह एक समान डिजाइन और एक समान मैटीरियल का उपयोग कर रहे हैं। विपरीत भूगोल में भी शीशे वाली इमारतें बना रहे हैं। बाहरी दीवार को भी टाइल्स से सजा रहे हैं। टिन शीटों को ताप अनुकूल रंग और रसायनों की कोटिंग की जरूरत है। जहाँ नहीं जरूरत, हम वहाँ भी इमारतों को पहले बंद कर रहे हैं और फिर घुटन और ठण्डक से बचने के लिए एयरकण्डीशनर लगा रहे हैं।

गांव सहेंजे, नगर बचाएं

परिदृश्य पर गौर कीजिए कि मध्य एशिया से लेकर अफ्रीका तक करीब 40 देशों के लोग अपनी जड़ों से उजड़कर, खासकर यूरोपीय देशों में जा रहे हैं। यूरोपीय नगरों के मेयर चिन्तित हैं कि उनके नगरों का क्या होगा। कई देशों के बीच तनातनी और युद्ध की स्थिति है। इनके मूल में पानी की कमी और उसके लिए दूसरे के संसाधनों पर कब्जे की घटनाएं हैं।

ठीक है कि नगरीय विस्तार को हम नहीं रोक सकते, लोग उचित नियोजन तो कर सकते हैं। अभी और आज से सोचना शुरू करें कि हमारे गाँव, एक सांस्कृतिक इकाई हैं। गाँव, रिश्तों पर बसते हैं। नगर, एक भौतिक इकाई होता है नगरों का निर्माण, सुविधाओं के सपने पर खड़ा होता है। गाँव को नगर में तब्दील कर देना, एक सांस्कृतिक इकाई को भौतिक इकाई में तब्दील कर देना है, अपनी पहचान तथा सामुदायिक व पर्यावरणीय सुरक्षा के पैमानों से गिर जाना है। गाँव का गाँव बना जरूरी है। अतः जरूरत और जनाकांक्षा को ध्यान में रखते हुए गाँवों में पढ़ाई, दवाई और कमाई का स्वावलम्बी ढांचा बनाना जरूरी है।

जितना लें, उतना लौटाएं

कुल मिलाकर इस समय की समझदारी और सीख यही है कि दुनिया के सभी देश धन का घमंड छोड़, पूरी धुन के साथ मानव निर्मित पर्यावरण के सुधार में इतनी ईमानदारी, समझदारी और प्रतिबद्धता के साथ जुट जाएं, ताकि कुदरत के घरौंदें भी बचें और हमारी आर्थिक, सामाजिक व निजी खुशियां भी। प्रकृति निर्मित ढांचों और मानव निर्मित ढांचों के बीच संतुलन तो साधन ही होगा। इस संतुलन को साधने का मूल सूत्र वाक्य एक ही हैः कुदरत से जितना और जैसा लें, उसे कम से कम उतना और वैसा लौटाएं।

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