पर्यावरण के मोर्चे पर शिकस्त

24 Mar 2014
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अनियोजित औद्योगिकरण और शहरीकरण से नदियां, झीलें, तालाब और अन्य जल संसाधन बुरी तरह प्रदूषित हो रहे हैं। वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर के अनुसार भारतीय सभ्यता की धुरी और अर्थव्यवस्था की जीवनरेखा गंगा नदी मर रही है। 1970 से ग्लोबल वार्मिंग की गति तीन गुना बढ़ चुकी है। पिछला साल अब तक का सबसे गर्म वर्ष था। पिछले सौ सालों में सर्वाधिक गर्म 12 साल में से 11 पिछले दो दशकों में रहे हैं। जून 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र समेत अन्य राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने पर्यावरण की चुनौती से निपटने के लिए अनेक उपाय किए। आज हमारे सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या ये उपाय पर्याप्त सिद्ध हुए हैं और क्या हम पर्यावरण के मोर्चे पर जंग जीतने जा रहे हैं? इस संबंध में नौ प्रमुख पहलुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। ये हैं-गरीबी, विषमता और विभेद, शहरी स्थितियां जल एवं साफ-सफाई, खाद्य सुरक्षा, भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी, वन, जैवविधता, नदियां और अन्य जल संसाधन और ग्लोबल वार्मिंग। यद्यपि ये तमाम मदें किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से जुड़ी हैं, फिर भी इस मुद्दे को स्पष्ट तौर पर समझने के लिए यह जरूरी है कि इनका एक-एक करके विश्लेषण किया जाए।

जहां तक गरीबी विषमता और विभाजन का सवाल है, ये विश्व के अधिकांश भागों में पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं विकास के साथ-साथ वंचित लोगों की संख्या में वृद्धि हो रही है, विषमता बढ़ रही है और वर्ग विभाजन तीव्र हो रहे हैं। शक्तिशाली देशों का छोटा समूह वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कब्जा जमाए बैठा है। इस समूह की आर्थिक विचारधारा के कारण धनी और धनी हो रहे हैं, शक्तिशाली और अधिक शक्तिशाली हो रहे हैं और विभिन्न देशों के बीच असमानता में वृद्धि हो रही है। इस्तांबूल में 9-13 मई को आयोजित सबसे कम विकसित देशों के चौथे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में खुलासा हुआ कि इस श्रेणी के देशों की सं. 1971 में 25 से बढ़कर 2011 में 48 हो गई है। इन सब देशों की सम्मिलित जनसंख्या 88 करोड़ है और इन देशों में आधे से अधिक लोग 1.25 डॉलर रोजना से भी कम पर गुजर बसर करते हैं।

विकासशील देशों में शहरी विकास घोर अनियोजित तरीके से हुआ है। शहरों में वायु-प्रदूषण के कारण करीब छह लाख लोग हर साल अकाल मौत का शिकार हो जाते हैं। इन शहरों में बड़ी मात्रा में वैश्विक संसाधन खप रहे हैं और ये कार्बन की भारी मात्रा वायुमंडल में उगल रहे हैं। शहरों में अधिकांश विश्व ऊर्जा की खपत हो रही है और हर साल 65 अरब टन कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है। आज विश्व में हर दस लोगों में से चार के पास शौचालय नहीं है और दस में से दो लोगों के पास पीने का स्वच्छ पानी नहीं है। इन दशाओं की स्वाभाविक परिणति जन स्वास्थ्य की गंभीर स्थिति के रूप में सामने आती है। उदाहरण के लिए, भारत में हर साल करीब 3.8 करोड़ लोग पीलिया, टाइफाइड और हेपेटाइटिट्स जैसे गंभीर जलजनित रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। करीब एक करोड़ लोग पानी में आर्सेनिक की अधिक मात्रा के कारण कैंसर के शिकार हैं। करीब 6.6 करोड़ लोग फ्लोरोसिस की गिरफ्त में है। इन रोगों का आर्थिक भार खौफनाक है। हर साल करीब 7.3 करोड़ रुपए इन रोगों की भेंट चढ़ जाते हैं।

एक तरफ वैश्विक आबादी हर साल करीब 8.7 करोड़ बढ़ जाती है, वही दूसरी तरफ खाद्यान्न की उपलब्धता साल दर साल कम हो रही है। पिछले तीन सालों के दौरान खाद्यान्न की कीमतें दो गुनी हो चुकी हैं। इस कारण करीब 10 करोड़ लोगों पर गरीबी रेखा के नीचे जीने का खतरा मंडरा रहा है। विश्व की करीब 40 फीसदी कृषि योग्य जमीन की उर्वरा शक्ति घट रही है। हरित क्रांति घट रही है। हरित क्रांति की हमें भारी कीमत चुानी पड़ी है। इससे न केवल कृषि उत्पादन लागत बढ़ी है, बल्कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति में भी भारी ह्रास हुआ है विश्व में हर साल करीब 70 लाख वर्ग हेक्टेयर भूमि से वन कम हो जाते हैं। वन में आगजनी भी गंभीर समस्या बन चुकी है। उदाहरण के लिए भारत में पांच प्रतिशत वन क्षेत्र आग से प्रभावित हो जाता है। यदि विलुप्तता की दर कायम रही जो 2025 तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद पर 7 प्रतिशत का नकारात्मक असर पड़ेगा। जैवविविधता की क्षति एक हरित मसला ही नहीं है। इसका खाद्यान्न, ईंधन, दवाओं के उत्पादन और भूमि उर्वरता पर सीधा असर पड़ता है। अगर इन मुद्दों की अनदेखी की जाएगी तो इसका सबसे अधिक नुकसान गरीब को ही उठाना पड़ेगा। भूमि और अन्य संपत्ति के रूप में उनके पास जो भी साधन बचे हैं। उनकी उत्पादकता कम हो जाएगी।

अनियोजित औद्योगिकरण और शहरीकरण से नदियां, झीलें, तालाब और अन्य जल संसाधन बुरी तरह प्रदूषित हो रहे हैं। वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर के अनुसार भारतीय सभ्यता की धुरी और अर्थव्यवस्था की जीवनरेखा गंगा नदी मर रही है। 1970 से ग्लोबल वार्मिंग की गति तीन गुना बढ़ चुकी है। पिछला साल अब तक का सबसे गर्म वर्ष था। पिछले सौ सालों में सर्वाधिक गर्म 12 साल में से 11 पिछले दो दशकों में रहे हैं। यह विरोधाभासी लग सकता है, किंतु सच है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण बाढ़ और बारिश का प्रकोप बढ़ रहा है।

निश्चित तौर पर 1972 के बाद किए गए उपायों का कुछ सकारात्मक परिणाम भी आया है। पर्यावरण को लेकर जागरूकता में काफी वृद्धि हुई है और ओजोन छेद करीब-करीब बंद हो गया है। तेजाबी बारिश पर भी अंकुश लग गया है, लेकिन पर्यावरण के प्रदूषित होने की गति के आलोक में इन लाभों का महत्व फीका पड़ जाता है। इससे भी बदतर यह है कि बेहद अन्यायपूर्ण, अनुचित और अनैतिक व्यवस्था सामने आ रही है। धनी लोगों का उपभोक्तावाद इस छोटे से ग्रह के सीमित संसाधनों पर असीमित भार डाल रहा है। पर्यावरण को क्षति पहुंचाने में सबसे कम भूमिका गरीबों की होती है, लेकिन इसके दुष्परिणामों का सबसे अच्छा खामियाजा इन्हें ही उठाना पड़ता है। मार्च 2011 में जापान में भयंकर भूकंप के बाद आई सुनामी के बाद टोक्यो के गवर्नर इशिहारा ने भयाक्रांत होकर कहा था- यह हमारे उपभोक्तावाद का दैवीय दंड है। इशिहारा की इस तकलीफ को कोई भी कुटिल मुस्कान के साथ खारिज नहीं कर सकता। प्रकृति में दिव्यता के साथ-साथ संतुलन भी है और उपभोक्तावाद इस संतुलन को गड़बड़ा रहा है।

यह समय है जब पिछले चार दशक के दौरान अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पर्यावरण को हुए नुकसान के प्रति चेत जाना चाहिए उसे अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए और पर्यावरण निगल रही नवउदारवाद की लालची शक्तियों पर अंकुश लगाना चाहिए। साथ ही अपनी जीवन पद्धति में बदलाव लाकर प्रकृति पर पड़ रहे भारी बोझ को कम करना चाहिए। इससे प्रकृति के साथ तालमेल और संतुलन कायम होगा और पूरी मानवता एक परिवार के तौर पर एकजुट होगी।

श्री जगमोहन भूतपूर्व राज्यपाल जम्मू-कश्मीर एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री
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