पर्यावरण की ‘वन्दना’
1982 में वन्दना जी ने देहरादून में विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण अनुसन्धान संस्थान (आरएफएसटीई) की स्थापना की। यहां उन्होंने नर्मदा और वन विज्ञान पर अपना अध्ययन जारी रखा। पर्यावरणविद् वन्दना शिवा को 1993 में आल्टर्नेट नोबेल पुरस्कार ‘राइट्स लाइवलीहुड फाउण्डेशन’ की ओर से दिया गया था। 1994 में उन्हें ‘डच गोल्डन प्लाण्ट अवार्ड’ प्राप्त हुआ। अमेरिका की ‘टाइम’ पत्रिका ने दुनिया के 10 श्रेष्ठ व्यक्तियों में वन्दना जी की गिनती की। ‘एशिया वीक’ के अनुसार वे दुनिया के प्रथम पाँच सशक्त संवादकों में से एक हैं। जी हाँ, भौतिक विज्ञानी वन्दना शिवा ने प्रकृति संरक्षण के मार्ग का लम्बा सफर तय किया है। 1973 में पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद 1979 में उन्होंने पश्चिम ओंटारियो विश्वविद्यालय, कनाडा से ‘क्वाण्टम थ्योरी’ पर शोध प्रबन्ध लिखा।
भारत लौटकर उन्होंने भाभा परमाणु अनुसन्धान केन्द्र में अनुसन्धानकर्ता का पद सम्भाला। जंगलों का निरन्तर नष्ट होना, हिमालय के आस-पास के क्षेत्र में हुई भूस्खलन की घटनाओं ने छात्र-जीवन में ही वन्दना को झकझोरा। वे वन संरक्षण के योद्धा सुन्दरलाल बहुगुणा के चिपको आन्दोलन से जुड़ गईं। 1982 में वन्दना जी ने देहरादून में विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण अनुसन्धान संस्थान (आरएफएसटीई) की स्थापना की। यहाँ उन्होंने नर्मदा और वन विज्ञान पर अपना अध्ययन जारी रखा। उनकी लिखी ‘हरित क्रान्ति जनित हिंसा’ पुस्तक 1980 के दशक में उभरे संकट के अध्ययन पर आधारित है। गेहूँ और धान की एकत्र-फसल व्यवस्था, पानी, रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अधिक उपयोग से खेती और पर्यावरण को पहुँची क्षति के बारे में इसमें जानकारी दी गई है।
फसलों के अनुवांशिक (जेनेटिक) बदलाव के लिए विरोध की वजह बताते हुए वह कहती हैं- अनुवांशिक बदलाव निहित फसलों (जीएम प्रौद्योगिकी) का स्वास्थ्य और पर्यावरण पर क्या प्रभाव होगा, इस बारे में कोई जानकारी आज उपलब्ध नहीं है। वन्दना जी कहती हैं कि वैज्ञानिक कारणों के अलावा सामाजिक और आर्थिक कारणों से भी इस प्रौद्योगिकी का विरोध करना ठीक लगता है। वन्दना जी ने 1987 में ‘नवधान्य’ योजना शुरू की, जो जैविक खेती और बुनाई के लिए बीज को बचाने को बढ़ावा देती है। वन्दना शिवा का दावा है कि जैविक खेती से कम लागत में अधिक-से-अधिक उत्पादन मिलता है।