पर्यावरण पर किया जाता प्रहार भी हिंसा ही है

30 Sep 2018
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स्वामी
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जल, जंगल, जमीन, हवा जैसे प्राकृतिक संसाधनों को भरपूर मुनाफे के लिये बेरहमी से लूटना, दुहना एक तरह की हिंसा ही है। यह हिंसा धीरे-धीरे समाज में जगह बनाती है और फिर इंसानों के बीच अपने क्रूरतम रूप में अवतरित होती है। आज के दौर में चहुँओर फैला तनाव पर्यावरण के प्रति की जा रही इसी हिंसा का ही एक रूप है। सबसे ताजा उदाहरण गंगा की अविरलता को बनाए रखने की खातिर करीब सौ दिन से अनशन पर बैठे आईआईटी, कानपुर के पूर्व प्राध्यापक जीडी अग्रवाल और उनके मुद्दों के प्रति किया जा रहा सत्ता और समाज का व्यवहार है।

स्वामी सानंद के साथ बैठे अन्य पर्यावरण विशेषज्ञस्वामी सानंद के साथ बैठे अन्य पर्यावरण विशेषज्ञ (फोटो साभार - डॉ. अनिल गौतम)प्रकृति का शोषण हमेशा हिंसक ही होता है। भारत में प्राकृतिक संरक्षण के लिये कई बहुत अच्छे कानून हैं जो भारतीय आस्था के मुताबिक सत्य और अहिंसा के पोषक हैं। आजादी के बाद जल-जंगल-जमीन के संरक्षण हेतु बहुत से पर्यावरण रक्षक, प्रदूषण नियंत्रक, भूजल पुनर्भरण आदि के कानून-कायदे बनाए गए थे। भारत सरकार ने जंगल के संरक्षण का कार्य अपने हाथों में रखा था, उसके पीछे भी भावना यही थी, लेकिन इन नियम-कानूनों का क्रियान्वयन हमेशा हिंसा, झूठ और शोषण पर ही आधारित रहता है। मसलन- ‘हरित न्यायाधिकरण’ (ग्रीन ट्रिब्यूनल) भारत सरकार ही संचालित करती है। वह जो कानून बनाती, बनवाती है, ‘ट्रिब्यूनल’ के जरिए उसका पालन भी करवाती है, लेकिन उद्योगपतियों के हित में बने कानूनों का तुरन्त पालन होता है और प्रकृति के हित में बने कानूनों को अक्सर अनदेखा किया जाता है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे जमाने वालों, शोषकों व प्रदूषणकर्ताओं के पक्ष के निर्णय लागू होते हैं और मानवीय तथा प्राकृतिक हिंसा बढ़ती जाती है। आम लोगों में सत्य की हार का वातावरण बनता है और समाज में हिंसा फैलती है। जाहिर है, अब हिंसा केवल मानवता ही नहीं पूरी प्रकृति के साथ होने लगी है। इस हिंसा का जनक तो राजा होता है, सत्ता और शक्ति होती है।

मौजूदा केन्द्र सरकार के पिछले चार वर्षों के निर्णय हमें यही दिखा रहे हैं। जब तक सत्ता के अपने कान सुनते, देखते और समझते हैं, तब तक सत्ता को लोग अपना मानते हैं। जनता में विश्वास बना रहता है। अन्यायकारी को दण्डित करने वाली व्यवस्था मौजूद रहती है। इसी से समाज निर्भय बना रहता है। इसके विपरीत जब सरकार केवल अपने ही दल या समूह की सुनती, मदद करती है तब समूचा समाज ही भयभीत होने लगता है। हमें निर्भय बनाने वाला रास्ता तो प्यार, विश्वास, निष्ठा, आस्था और भक्ति से मुक्ति और शक्ति प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा होकर सृजन कराता है। वही समृद्धि का रास्ता है।

भय-युक्त वातावरण सृजन शक्ति को समाप्त कर देता है। सबसे सभी को डर लगने लगता है। डर हमें कमजोर बनाता है। विस्थापन, विकृति और विनाश का रास्ता दिखाता है। आज हम इसे ‘विकास’ कहकर गुमराह हो रहे हैं। इस विकास के नाम पर आम नागरिक लालची बनकर उसी रास्ते पर चलना-चलाना तय कर रहा है जिससे वह सदैव सत्ता, सरकारों की तरफ ही देखता रहे।

सरकारों ने कभी स्वावलम्बी बनने के भाव और विचारों को जन्म नहीं दिया। जब अपने मन में स्वावलम्बी बनने का भाव आ जाता है तब दूसरों के शब्द, आदेश राहत नहीं देते हैं, तब तो कर्मशीलता से ही सुख और शक्ति मिलती है, श्रमनिष्ठा आती है। सृजनशीलता बनती और पनपती है। सृजनशील को भयभीत करना बहुत मुश्किल है। परावलम्बी तो सदैव भयभीत ही रहता है। इसलिये सरकारें सभी को भयभीत बनाकर रखना चाहती हैं। परावलम्बी के साथ हिंसा होती है तो वह इसे सहता रहता है। हिंसा सहने वाले ही हिंसा को बढ़ावा देते हैं। वे ही असत्य को भी सत्य मानते हैं। इनमें सत्य शोधन की शक्ति नहीं रहती। सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलना तलवार की धार पर चलने जैसा कठिन है। कोई भी डरपोक, कमजोर व्यक्ति सृजन या निर्माण नहीं करता है। कमजोर व्यक्ति के हाथ ‘जगन्नाथ’ नहीं बन सकते।

इस विचार के क्रियान्वयन का उदाहरण गंगा के संरक्षण, संवर्धन और पवित्रता को बरकरार रखने की माँगों को लेकर करीब सौ दिन से अनशन पर बैठे आईआईटी, कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जीडी अग्रवाल (संन्यास लेने के बाद स्वामी सानंद) का है। वे निर्भय हैं इसलिये उन्हें सफलता की उम्मीद है। अभी तक वे अकेले ही गंगा के लिये तपस्या कर रहे थे, अब उनके साथ गोपालदासजी भी हिमालय की हरियाली, गोचर बचाने हेतु तपस्या कर रहे हैं। बहुत से युवा उनके साथ इस कार्य में जुटे हैं। गंगा को संकट मुक्त करने हेतु जब समूचा राष्ट्र इकट्टा होगा, तब ही सफलता भी मिलेगी। सत्य-अहिंसा का यही रास्ता सफलता दिलाएगा, लेकिन ये भी जान लेना जरूरी है कि सरकारें अहिंसा और सत्य से डरती ही नहीं, बल्कि बचती भी हैं।

सात दशक पहले हमें आजादी अहिंसा और सत्य के बलबूते पर मिली थी, लेकिन यदि आज के राजनेता, सत्ताधारी उस समय होते तो शायद हमें आजादी नहीं मिल पाती। वे इससे बचने का कोई रास्ता ‘झूठमेव जयते’ में खोज लेते। अभी गंगा जी की अविरलता-निर्मलता हेतु बिल पास कराके कानून बनवाना भी सत्य की चाह और खोज ही है। इस हेतु देश के सभी सक्षम नेताओं, अधिकारियों से मिलना हुआ है, लेकिन किसी भी दल के नेता ने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान गंगा में विश्वास नहीं दिखाया। जाहिर है, कोई भी राजनैतिक दल अब प्राकृतिक संरक्षण करके साझे भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिये काम नहीं कर रहा है। सत्य और अहिंसा के रास्ते पर नहीं चल रहा है। ऐसा लगता है अब संसद के लिये भी गंगा जी ‘अछूत’ बन गई हैं।

संसद में सभी कुछ सुनाया गया, लेकिन गंगा जी की आवाज मामूली सी ‘आम आदमी पार्टी’ के अकेले सजंय सिंह ने ही राज्यसभा में उठाई। केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गंगा जी को पर्यावरणीय प्रवाह देने का वायदा तो किया, लेकिन प्रवाह में बाधक बाँधों के निर्माणाधीन कार्यों पर रोक नहीं लगाई। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने अपना समर्थन देते हुए कहा कि हमने गंगा की अविरलता के लिये काम किया है, आगे भी करेंगे। उनकी पार्टी की डॉ. मनमोहन सिंह सरकार ने तत्कालीन तीन बड़े बाँधों का निर्माणाधीन कार्य रोक दिया था। भागीरथी को ‘पर्यावरणीय संवेदनशील’ घोषित कर दिया था। नए बाँधों के निर्माण पर रोक लगी थी। प्रोफेसर जीडी अग्रवाल अभी तक पहले की तरह सशक्त होकर ही बोल रहे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री जी और संसद नहीं सुन रही है। कब सुनेगी? मालूम नहीं है। लेकिन सुनना पड़ेगा, यह तय है। याद रखें, सत्य को परेशान किया जा सकता है, लेकिन पराजित नहीं।

लेखक, राजेन्द्र सिंह तरुण भारत संघ के अध्यक्ष एवं जल बिरादारी के राष्ट्रीय समन्यवक हैं और जल, जगंल, जमीन, के संरक्षण का अभूतपूर्व कार्य कर रहे हैं।

 

 

 

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