पर्यावरण-प्रदूषण और हमारा दायित्व

भोपाल गैस कांड से प्रभावित मनुष्यों की 20-25 वर्ष तक होने वाली संतानें या तो विक्षिप्त या विकृत हुई, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। ठीक इसी प्रकार कल-कारखानों का गंदा जल, जल प्रदूषण को बढ़ावा देता है। कल-कारखानों को जल की उपलब्धता के कारण अधिकांशतः नदियों के किनारे लगाया गया है। उनके द्वारा स्रावित दूषित जल जिसे बिना उपचारित किए नदियों में बहाया जा रहा है, जिससे हमारे लिए पेयजल का संकट उत्पन्न होता जा रहा है। सिर्फ मनुष्य ही नहीं, बल्कि अनेक जीव, जो हमारी प्राकृतिक विरासत की अमूल्य धरोहर हैं, वह भी लुप्तावस्था को प्राप्त होते जा रहे हैं। पर्यावरण-प्रदूषण एक गंभीर समस्या का रूप ले चुका है। इसके साथ मानव समाज के जीवन-मरण का महत्वपूर्ण प्रश्न जुड़ा है। हमारा दायित्व है कि समय रहते इस समस्या के समाधान के लिए आवश्यक कदम उठाएं। यदि इसके लिए आवश्यक उपाय नहीं किए गए तो प्रदूषण-युक्त इस वातावरण में पूरी मानव-जाति का अस्तित्व संकट में पड़ सकता है। आज मनुष्य अपनी सुख-सुविधा के लिए प्राकृतिक संपदाओं का अनुचित रूप से दोहन कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप यह समस्या सामने आई है।

सबसे पहले हमारे सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रदूषण क्या है? जल, वायु व भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन प्रदूषण है। एक और दुनिया तेजी से विकास कर रही है, जिंदगी को सजाने-संवारने के नए-नए तरीके ढूंढ़ रही है, दूसरी ओर वह तेजी से प्रदूषित होती जा रही है। इस प्रदूषण के कारण जीना दूभर होता जा रहा है। आज आसमान जहरीले धुएं से भरता जा रहा है। नदियों का पानी गंदा होता जा रहा है। सारी जलवायु, सारा वातावरण दूषित हो गया है। इसी वातावरण दूषण का वैज्ञानिक नाम है-प्रदूषण या पॉल्यूशन।

हमारा पर्यावरण किन कारणों से प्रदूषित हो रहा है? आज सारे विश्व के समक्ष जनसंख्या की वृद्धि सबसे बड़ी समस्या है। पर्यावरण प्रदूषण में जनसंख्या की वृद्धि ने अहम् भूमिका का निर्वाह किया है।

औद्योगीकरण के कारण आए दिन नए-नए कारखानों की स्थापना की जा रही है, इनसे निकलने वाले धुएं के कारण वायुमंडल प्रदूषित हो रहा है। साथ ही मोटरों, रेलगाड़ियों आदि से निकलने वाले धुएं से भी पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। इसके कारण सांस लेने के लिए शुद्ध वायु का मिल पाना मुश्किल है।

वायु के साथ-साथ जल भी प्रदूषित हो गया है। नदियों का पानी दूषित करने में बड़े कारखानों का सबसे बड़ा हाथ है। कारखानों का सारा कूड़ा-कचरा नदी के हवाले कर दिया जाता है, बिना यह सोचे कि इनमें से बहुत कुछ पानी में इस प्रकार घुल जाएंगे कि मछलियां मर जाएंगी और मनुष्य पी नहीं सकेंगे। राइन नदी के पानी का जब विशेषज्ञों ने समुद्र में गिरने से पूर्व परीक्षण किया तो एक घन सेंटीमीटर में बीस लाख जीवन-विरोधी तत्व मिले। कबीरदास के युग में भले ही बंधा पानी ही गंदा होता हो, आज तो बहता पानी भी निर्मल नहीं रह गया है, बल्कि उसके दूषित होने की संभावना और बढ़ गई है।

पर्यावरण प्रदूषण को वायु प्रदूषण या वातावरण प्रदूषण भी कहते हैं। वातावरण दो शब्दों से मिलकर बना है- वात+आवरण अर्थात् वायु का आवरण। पृथ्वी वायु की मोटी पर्त से ढकी हुई है। एक निश्चित ऊंचाई के पश्चात् यह पर्त पतली होती गई है। वायु नाना प्रकार की गैसों से मिलकर बनती है। वायु में ये गैसें एक निश्चित अनुपात में होती हैं। यदि इसके अनुपात में संतुलन बिगड़ जाएगा तो मानव या सभी जीवों के जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।

हम सभी अपनी सांस में वायु से ऑक्सीजन लेते हैं तथा कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। मोटर गाड़ियों, स्कूटरों आदि वाहनों से निकला विषैला धुआं वायु को प्रदूषित करता है। अमेरिका में प्रत्येक तीन व्यक्ति के पीछे कार है, जिनसे प्रतिदिन ढाई लाख टन विषैला धुआं निकलता है। पेड़-पौधे इस विषैली कार्बन डाइऑक्साइड को सांस के रूप में ग्रहण कर लेते हैं और ऑक्सीजन बाहर निकालते हैं वायुमंडल में इन जहरीली गैसों का अधिक दबाव बढ़ना ही प्रदूषण कहा जाता है। कोयले आदि ईंधनों के जलाए जाने से उत्पन्न धुआं वायु प्रदूषण का मुख्य कारण है।

यह अन्य सभी प्रदूषणों से अधिक भयावह है। विषैली गैसें पृथ्वी के वायुमंडल को उष्ण बना देती हैं, फलस्वरूप तापमान बढ़ जाता है। ध्रुव प्रदेशों का बर्फ पिघलने लगता है, समुद्र का स्तर ऊंचा हो जाता है। इससे समुद्र तट पर रहने वालों को खतरा उत्पन्न हो जाता है। विषैली वायु में श्वास लेने से दमा, तपेदिक और कैंसर आदि भयानक रोग हो जाते हैं, जिससे मनुष्य का जीवन संकटमय हो जाता है।

आजकल बड़ी फ़ैक्टरियों और कारखानों के हजारों टन दूषित रासायनिक द्रव्य नदियों में बहाए जाते हैं, जिसके फलस्वरूप नदियों का पानी पीने योग्य नहीं रहता। मल-मूत्र तथा गंदे नाले नदियों में मिलने से जल को गंदा कर देते हैं, जिससे जल-प्रदूषण बढ़ जाता है और इससे अनेक रोग हो जाते हैं। समुद्र में मिलकर नदियों का प्रदूषित पानी जल के जीवों के लिए भी घातक सिद्ध हो रहा है। समुद्र के खारे पानी से मीठे का संतुलन बिगड़ जाता है। प्रदूषित जल का प्रयोग मानव-जीवन को अनेक बीमारियों से ग्रस्त कर देता है। इस खराब रासायनिक मिश्रित पानी से धरती की उपजाऊ शक्ति भी क्षीण हो रही है, जो अतिविचारणीय है।

भूमि पर मिट्टी में होने वाले दुष्प्रभाव को थल-प्रदूषण कहा जाता है। खाद्य पदार्थों की उपज बढ़ाने और फसलों को हानि पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़े को मारने के लिए जो डी.डी.टी. या अन्य विषैली दवाइयां भूमि पर छिड़की जाती हैं, वे दवाएं मिट्टी में मिलकर भूमि को दूषित बना देती हैं। इससे धरती की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है। प्रयोग करने वालों के लिए भी यह हानिकारक सिद्ध हो सकता है।

आजकल ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। मोटरकार, स्कूटर, हवाई जहाज, रेडियो, लाउडस्पीकर, कारखानों के सायरनों तथा द्रुतगति से चलने वाली मशीनों की आवाज से ध्वनि प्रदूषण दिन दूना, रात चौगुना बढ़ रहा है। इन सबका असह्य शोर ध्वनि प्रदूषण को जन्म देकर मनुष्य की पाचन शक्ति पर भी प्रभाव डालता है। नगर के लोगों को रात्रि में नींद नहीं आती, कभी-कभी तो मानव मस्तिष्क पर इतना प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है कि मानव पागलपन के रोग से ग्रसित हो जाता है।

औद्योगिक सभ्यता ने हमें असंख्य भौतिक लाभ पहुंचाए हैं, सुख-सुविधाएं दी हैं, किंतु इन सबके लिए हमें पर्यावरण की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। कारखानों से निकलने वाली गैसें व धुआं CO2, CO, SO, ट्रेटामेथिल लेड आदि वायु प्रदूषण फैला रहे हैं, जिससे गले के रोग, दांतों व हड्डियों के रोग, आंखों में जलन, जुकाम, खांसी, दमा तथा टी.बी. (क्षय रोग) आदि हो सकते हैं। SO2 गैस हरे-भरे पौधों को मृत कर देती हैं। वायु प्रदूषण का दुष्परिणाम भारत में 3 दिसंबर, 1984 को देखा गया, जब भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के कारखाने से जहरीली गैस मेथिल-आइसोसायनेट का रिसाव हुआ तो 3000 लोग मारे गए और 30-40 हजार लोग आंशिक या पूर्ण रूप से विकलांग या विक्षिप्त हो गए।

भोपाल गैस कांड से प्रभावित मनुष्यों की 20-25 वर्ष तक होने वाली संतानें या तो विक्षिप्त या विकृत हुई, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। ठीक इसी प्रकार कल-कारखानों का गंदा जल, जल प्रदूषण को बढ़ावा देता है। कल-कारखानों को जल की उपलब्धता के कारण अधिकांशतः नदियों के किनारे लगाया गया है। उनके द्वारा स्रावित दूषित जल जिसे बिना उपचारित किए नदियों में बहाया जा रहा है, जिससे हमारे लिए पेयजल का संकट उत्पन्न होता जा रहा है। सिर्फ मनुष्य ही नहीं, बल्कि अनेक जीव, जो हमारी प्राकृतिक विरासत की अमूल्य धरोहर हैं, वह भी लुप्तावस्था को प्राप्त होते जा रहे हैं। प्रदूषित जल से हैजा, मोतीझरा, पेचिश, क्षय इत्यादि गंभीर रोग हो जाते हैं। इसे रोकने के लिए निम्न उपाय किए जाने चाहिए-

1. वनों को प्रोत्साहन देना चाहिए तथा पेड़-पौधे लगाने चाहिए।
2. वनों तथा पेड़ों की कटाई पर रोक लगानी चाहिए।
3. कल-कारखानों में प्रदूषक नियंत्रण यंत्र लगाना चाहिए।
4. प्रदूषित जल को नदियों, समुद्र में मिलाने से पूर्व उसका शोधन कर लेना चाहिए।

किसी भी देश की ऊर्जा की अधिक खपत उसकी औद्योगिक प्रगति, आर्थिक व सामाजिक उत्थान, जीवनयापन की गुणवत्ता, मानव कल्याण का मापदंड बनती जा रही है। विभिन्न देशों में ऊर्जा खपत की दर में निरंतर वृद्धि हो रही है। अभी भी विश्व में ऊर्जा स्रोत-खनिज, कोयला, खनिज तेल व प्राकृतिक गैस हैं। एक अनुमान के अनुसार जिस तीव्र गति से प्रभावित स्रोतों का दोहन किया जा रहा है, इस स्थिति में ये स्रोत शायद ही सन् 2020 तक चल सकें। अतः विश्व ऊर्जा संकट के दौर से गुजर रहा है। इन परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के निरंतर उपयोग से पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या निरंतर बढ़ रही है। यदि ऊर्जा के सभी स्रोत समाप्त हो गए तो मानव के अब तक के सारे विकास कार्यक्रमों व खोजों पर पानी फिर जाएगा और मानव अपने विनाश को स्वयं देखता रहेगा। अतः ऊर्जा संकट से निपटने के लिए हमें परंपरागत ऊर्जा स्रोतों का संरक्षण अर्थात् ऊर्जा की खपत को कम करना होगा और वैकल्पिक एवं नवीनीकरण योग्य ऊर्जा स्रोतों का पता लगाकर उनके उपयोग की तकनीक का विकास करना होगा।

भारत में कोयले के बाद पेट्रोलिम उत्पाद ईंधन के प्रमुख स्रोत हैं। इनकी खपत में लगातार वृद्धि हो रही है। सन् 1950-51 में जहां यह सिर्फ 35 लाख टन थी, सन् 2003-04 में बढ़कर लगभग 10.76 करोड़ टन हो गई है। भारत में पेट्रोलियम उत्पादों को संरक्षित करने के लिए अन्य विकल्पों पर विशेष जोर दिया जा रहा है। इसके लिए इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल की बिक्री शुरू की गई है। हाइड्रोजन के ईंधन के रूप में प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड तथा अनुसंधान एवं विकास केंद्र, जिसे पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा इस कार्य के लिए नोडल एजेंसी निर्धारित किया गया है, द्वारा स्कूटरों, तिपहिया वाहनों एवं बसों में हाइड्रोजन के प्रयोग के लिए एक रोड मैप तैयार किया गया है।

पेट्रोलियम उत्पादों को संरक्षित करने का अन्य विकल्प है, जैव-ईंधन, वनस्पति तेल, पशु वसा, जिसे परंपरागत डीजल में मिलाकर ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। अनुसंधान और विकास अध्ययन से पता चला है कि जैव-डीजल मिश्रित ईंधन से वाहन के इंजन की उम्र बढ़ती है और इससे अपेक्षाकृत कम प्रदूषण होता है। वनस्पति तेल से बायोडीजल बनाने में छत्तीसगढ़ प्रशासन देश के अन्य राज्यों की तुलना में अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

आधुनिक विज्ञान के विकास के साथ-साथ विश्व में जनसंख्या-वृद्धि भी तीव्र गति से हुई है। वर्तमान में भारत की जनसंख्या 3.2 अरब से अधिक तथा विश्व की जनसंख्या 7 अरब से अधिक पहुंच गई है। भारत में प्रतिवर्ष एक ऑस्ट्रेलिया के बराबर जनसंख्या बढ़ती है, जिसके लिए प्रतिवर्ष लगभग 40 लाख टन खाद्यान्न व 50,000 विद्यालय चाहिए। जनसंख्या विस्फोट के कारण भुखमरी, अकाल, प्रलय आदि आपदाएं मानव को झेलनी पड़ेगी और अंत में मनुष्य स्वयं का विनाश अपनी आंखों से देखने को विवश होगा, क्योंकि जनसंख्या विस्फोट के कारण मानव जंगलों की अंधाधुंध कटाई कर रहा है, वहां पर तरह-तरह के उद्योग एवं नए-नए शहर बसाए जा रहे हैं, जिससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है और जैसे ही संतुलन बिगड़ा कि प्रकृति का कोप मानव के विनाश का कारण बन जाता है। कुछ वर्ष पूर्व गुजरात में आए भयंकर भूकंप तथा समुद्र में आई सुनामी को इसी के उदाहरण के रूप में देख सकते हैं। अतः हमें जनसंख्या विस्फोट को परिवार नियोजन अपनाकर रोकना होगा।

प्रदूषण वायुमंडल, जल एवं थल में प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। यदि इस समस्या का निदान जल्दी न खोजा गया तो कहा नहीं जा सकता कि इसका अंत कितना दुछखदायी होगा?

औद्योगीकरण और जनसंख्या-वृद्धि दोनों ने ही संसार के सामने प्रदूषण की गंभीर समस्या कर दी है। अतः प्रदूषण को रोकने एवं पर्यावरण को स्वच्छ बनाने के लिए दोनों को नियंत्रित करना चाहिए। उद्योगों के कारण उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार ने नए उद्योगों की स्थापना के लिए लाइसेंस दिए जाने के लिए कुछ नियम बनाए हैं, जिसके अंतर्गत धुएं तथा अन्य व्यर्थ पदार्थों के समुचित ढंग से निष्कासन तथा उसकी अवस्था का दायित्व उद्योगपति को लेना होता है। जनसंख्या को नियंत्रित करने में सरकार जी-जान से प्रयत्नशील है। इन सबके बावजूद पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने के लिए वनों की अनियंत्रित कटाई को रोकने हेतु कठोर नियम बनाए जाएं तथा जन-साधारण को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या आज किसी राष्ट्र विशेष की समस्या न होकर विश्व की समस्या हो गई है। स्वाभाविक है कि जमीन पर तो सीमा-रेखा खींची जा सकती है, लेकिन आकाश में नहीं। लोगों के आवागमन को तो रोका जा सकता है, लेकिन वायु के आवागमन को कैसे रोका जा सकता है? इसलिए पर्यावरण-प्रदूषण की समस्या से जहां एक ओर सभी राष्ट्र अपने-अपने स्तर पर जूझ रहे हैं, वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास किए जा रहे हैं। इस समस्या को समाप्त नहीं किया जा सकता, लेकिन कम जरूर किया जा सकता है। इस दृष्टि से भारत में राज्य सरकारों ने अनेक नियम और कानून बनाए हैं। नर्मदा बांध परियोजना विवाद इसका प्रमाण है। कल-कारखानों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है।

प्रदूषण के कारणों और स्वरूपों पर विस्तार से विचार करने लगें तो सिर चकराने लगता है। सब कुछ तो दूषित है- हवा, पानी, पेड़-पौधे और अन्न। फिर क्या खाएं क्या पिएं, कहां जाएं? प्रसिद्ध वैज्ञानिक जॉर्ज वुडवेल ने ठीक ही कहा है कि परिवेश के चक्रों के प्रदूषण के बारे में हमने जितना कुछ जाना है, वह इसका पर्याप्त प्रमाण है कि इस विराट धरती पर अब कहीं सुरक्षा और स्वच्छता नहीं है। वैज्ञानिक सभ्यता का अभिशाप प्रदूषण के रूप में ही सामने आया है। यह मानव को मृत्यु के मुंह में धकेलने की चेष्टा है, यह प्राणियों के अमंगल की कामना है। जीवन को सुरक्षित बनाए रखने के लिए प्रदूषण नियंत्रण एक मौलिक आवश्यकता है। इस समस्या के प्रति उपेक्षा एवं उदासीनता से मानव का अस्तित्व ही संकटमय हो सकता है। पर्यावरण सुरक्षा सामाजिक एवं सामूहिक उत्तरदायित्व है। प्रत्येक नागरिक को चाहिए कि वह इस दिशा में अपना योगदान दे, ताकि समस्त मानव-जीवन सुखमय हो सके।

व्याख्याता, शा.उ.मा.शा. कुदुदंड, बिलासपुर (छ.ग.)
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