पर्यावरण संरक्षण का हो सामूहिक प्रयास

केंद्र सरकार की ओर से ग्रामीण विकास के साथ ही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भी अनोखी पहल की जा रही है। ग्रामीण विकास संबंधी योजनाओं को लागू करते वक्त पर्यावरण पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। फिर भी पर्यावरण संरक्षण के लिए सामूहिक भागीदारी निभानी होगी। हर व्यक्ति जिस तरह से विकास को तवज्जो देता है, उसी तरह से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में भी उसे अपनी भूमिका निभानी होगी। ग्रामीण स्तर पर चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों में पर्यावरण का सर्वोपरि मानना होगा। इसके लिए सबसे उपयुक्त तरीका है कम से कम रासायनिक का प्रयोग करना और अधिक से अधिक पौधारोपण। जरूरतों के लिए पेड़ काटते वक्त एक पौधा लगाने और उसे संरक्षित करने की भी जिम्मेदारी निभानी होगी।जिस गति से ग्रामीण विकास हो रहा है, उसी तरह से हमारे सामने कई तरह की चुनौतियां भी खड़ी होती जा रही हैं। ऐसी स्थिति में हमें विकास के साथ ही उन चुनौतियों को लेकर भी सजग रहना होगा। जहां तक ग्रामीण विकास की बात है तो गांवों में हर स्तर पर विकास की चकाचोंध दिख रही है। विकास की इस चकाचौंध में सबसे बड़ी चुनौती पर्यावरण संकट की है। पर्यावरण को संरक्षित करना आवश्यक हो गया है। यदि अभी से इस मुद्दे पर गंभीरता नहीं दिखाई गई तो भविष्य की स्थिति काफी गंभीर हो जाएगी। पर्यावरण की अनदेखी करने की वजह से आज हमारे पास शुद्ध पेयजल का अभाव है। सांस लेने के लिए शुद्ध हवा कम पड़ने लगी है। वन्य जीव विलुप्त हो रहे हैं। पहले गांवों में बाग-बगीचों की भरमार थी, लेकिन अब बाग-बगीचों की जगह इमारतें नजर आती हैं। निश्चित रूप से इन इमारतों का बनना विकास का प्रतीक है, लेकिन पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ना हमारे जीवन के लिए खतरा है। जिस तरह से विकास की परिभाषा व्यापक है, उसी तरह से पर्यावरण की परिभाषा में जल, जंगल, जमीन और खेतीबाड़ी से लेकर मौसम तक शामिल है। हमें हर स्तर पर सावधानी बरतने की जरूरत है।

आज हमारे सामने ग्लोबल वार्मिंग की समस्या है। इसका मूल कारण ग्रीनहाउस गैसों से जोड़ा जाता है। जहां तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का सवाल है तो सर्वाधिक उत्सर्जन के मामले में भारत ने काफी सावधानी बरती है, लेकिन वैश्विक स्तर पर पश्चिमी देश भारत से कई गुना अधिक उत्सर्जन कर रहे हैं जिसकी वजह से ओजोन परत लगातार क्षतिग्रस्त हो रही है। विश्वव्यापी गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग) का कारण ओजोन का क्षरण ही है। सबसे अधिक (21.3 प्रतिशत) ग्रीनहाउस गैसें विद्युत निर्माण संयंत्रों से निकलती हैं। इनमें परमाणु ऊर्जा से बनने वाली बिजली का योगदान सर्वाधिक है। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले महाविनाश का ताजा उदाहरण जापान है। इससे पूर्व सोवियत संघ में हुई चेर्नोबल दुर्घटना भी बहुत पुरानी नहीं है। इसके बाद 16.8 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसें औद्योगिक इकाइयों से तथा 14 प्रतिशत परिवहन से उत्पन्न होती हैं। इन दिनों खेती में अन्न के बदले जैविक ईंधन उगाने का फैशन चल निकला है। इस ईंधन से भी 11.3 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैसें उत्पन्न हो रही हैं।

फिलहाल भारत के गांवों में जब तक पर्यावरण का ध्यान नहीं रखा जाएगा, तब तक विकास की अवधारणा पूरी नहीं होगी। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से इस दिशा में बेहतर प्रयास किए जा रहे हैं। ग्रामीण स्तर पर पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। इसमें स्वच्छता अभियान सर्वोपरि है। संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत जहां गांवों में शौचालय का निर्माण कराया जा रहा है वहीं अवशिष्टों को संधारित करने की दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रयास किए जा रहे हैं। ग्रामीण स्तर पर संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत सफाई हो रही है। इस दिशा में बेहतर काम करने वाली पंचायतों को पुरस्कृत किया जा रहा है। इससे ग्रामीणों में स्वच्छता एवं पर्यावरण को लेकर जागरूकता आई है। इसके साथ ही कूड़े को निस्तारित करने और उसे खाद के रूप में प्रयोग करने के लिए भी ग्रामीणों को जागरूक किया जा रहा है। इन सबके बीच गोबर गैस को वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में प्रयोग करने के लिए ग्रामीणों को जागरूक किया जा रहा है।

गांवों में कैसे हो विकास के साथ पर्यावरण संरक्षण


गांवों में विकास के साथ ही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में केंद्र सरकार के केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का महत्वपूर्ण स्थान है। राज्य सरकारों द्वारा इस दिशा में किए जा रहे प्रयासों को केंद्र सरकार केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के तहत तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान कर और मजबूती प्रदान कर रही है। स्वच्छता के विचार को विस्तारित कर 1993 में व्यक्तिगत स्वच्छता, गृह स्वच्छता, सुरक्षित पेयजल तथा कूड़े-कचरे, मानव मलमूत्र और नाली के दूषित पानी के निस्तारण को इसमें शामिल किया गया है। गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे परिवारों के लिए स्वच्छ शौचालयों का निर्माण, शुष्क शौचालयों का फ्लश शौचालयों में उन्नयन, महिलाओं के लिए ग्राम स्वच्छता भवनों का निर्माण, स्वच्छता बाजारों तथा उत्पादन केंद्रों की स्थापना, स्वास्थ्य शिक्षा और जागरूकता के लिए सघन अभियान चलाना आदि भी इस कार्यक्रम के अंग हैं।

पशुओं के गोबर एवं अन्य अवशिष्ट का प्रबंधन


ग्रामीण इलाके में कृषि के साथ ही पशुपालन जुड़ा हुआ है। कुछ समय पहले पशुओं के गोबर से निकलने वाली मिथेन गैस को धरती का तापमान बढ़ने का कारण बताया गया था। इसी तरह निरर्थक रूप से गोबर के जल में मिलने से जल भी प्रदूषित हो जाता है। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार किसानों को पशुओं के गोबर का उचित प्रयोग करने की दिशा में न सिर्फ ट्रेनिंग दे रही है बल्कि इसके लिए अनुदान की भी व्यवस्था की गई है। इसके लिए जहां जैविक खेती के प्रति किसानों को आकर्षित किया जा रहा है वहीं गोबर गैस प्लांट लगाने के लिए अनुदान की व्यवस्था की जा रही है। ऐसे में किसान गोबर के साथ ही अन्य कूड़ा-करकट भी संधारित करके खाद तैयार कर रहे हैं। इसे बड़े पैमाने पर विस्तारित करने की जरूरत है। यदि हर किसान जैविक एवं कंपोस्ट खाद तैयार करने लगे तो पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण काम होगा। इससे किसानों का पैसा भी बचेगा और अधिक उत्पादन भी मिलेगा। साथ ही रासायनिक खादों और कीटनाशक से भी मुक्ति मिल जाएगी।

मशीनीकरण का प्रभाव


वैश्विक गर्मी का कारण मशीनीकरण भी माना जाता है। जहां मोटर-गाड़ियों में हजारों लीटर डीजल-पेट्रोल खर्च होता है वहीं कृषि कार्य में भी अब डीजल-पेट्रोल की खपत बढ़ने लगी है। मशीनीकरण से जहां पर्यावरण प्रदूषण हो रहा है वहीं ग्रामीण विकास में अहम भूमिका निभाने वाली मधुमक्खी, तितली और गौरैया सहित अन्य जीव-जन्तु खत्म हो रहे हैं। हमारी कोशिश होनी चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा काम प्रदूषणरहित तरीके से करें। उदाहरण के तौर पर देखें तो घर से खेत, विद्यालय और बाजार आदि की दूरी कम होने के बाद भी हम वाहनों का प्रयोग करते हैं जबकि यह दूरी साइकिल से भी तय की जा सकती है।

कृषि और पर्यावरण


गांवों में कृषि कार्य अच्छे से हो, कुएं-तालाब, बावड़ियों की सफाई यथा समय हो, गंदगी से बचाव के उपाय किए जाएं। संक्षेप में यह कि वहां ग्रामीण विकास योजनाओं का ईमानदारीपूर्वक संचालन हो तो ग्रामों का स्वरूप निश्चय ही बदलेगा और वहां के पर्यावरण से प्रभावित होकर शहर से जाने वाले नौकरीपेशा भी वहां रहने को आतुर होंगे।

खेतों में रसायनों का असंतुलित प्रयोग- भूमि की उर्वरता बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद का तथा फसल को कीड़ों और रोगों से बचाने के लिए कीटनाशक दवाओं का उपयोग किया जाता है, जो भूमि को प्रदूषित कर देते हैं। इनके कारण भूमि को लाभ पहुंचाने वाले मेंढक व केंचुआ जैसे जीव नष्ट हो जाते हैं जबकि फसलों को क्षति पहुंचाने वाले कीड़े-मकोड़ों से बचाव में यही जीव सहायक होते हैं। इसलिए कृषि फसल में एलगी, कम्पोस्ट खाद तथा हरी खाद का उपयोग किया जाना चाहिए ताकि खेतों में ऐसे लाभदायक जीवों की वृद्धि हो सके जो खेती की उर्वराशक्ति बढ़ा सकें। कृषि तथा अन्य कार्यों में कीटनाशकों के प्रयोग की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अधिकांश कीटनाशकों को विषैला घोषित किया है, बावजूद इसके हमारे देश में तो इनका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। इसे रोकने की जरूरत है। कोशिश होनी चाहिए कि अधिक से अधिक जैविक खाद और रसायन का प्रयोग करें। इससे पर्यावरण संरक्षण होगा और हमें फायदा भी मिलेगा।

मिट्टी का कटान- भारत के एक अनुमान के तहत खेती योग्य भूमि का 60 फीसदी भूमि कटाव, जलभराव और लवणता से ग्रस्त है। यह भी अनुमान है कि मिट्टी की ऊपरी परत में से प्रतिवर्ष 4.7 से 12 अरब टन मिट्टी कटाव के कारण खो रही है। पानी के साथ बहने वाली यह मिट्टी अपने साथ विभिन्न रासायनिक तत्वों को भी ले जाती है। इससे बचने के लिए खेतों की मेड़बंदी करना जरूरी है। मिट्टी का कटाव रोककर हम कई तरह के फायदे ले सकते हैं। इसके लिए हमें पौधारोपण का फंडा अपनाना होगा।

ग्रामीण जीवन में जंगल की महत्ता


गांव से लेकर शहर तक तेजी से विकास हो रहा है। विकास की इस दौड़ में सबसे ज्यादा नुकसान जंगलों का हुआ है। जंगल जिस तरह से प्रभावित हो रहे हैं, उसका सबसे ज्यादा असर भी गांवों पर ही पड़ेगा क्योंकि जंगल किसी न किसी रूप में ग्रामीण जनजीवन से जुड़े हुए हैं। ये ग्रामीणों के लिए जहां जीवनयापन के साधन बनते हैं, वहीं पर्यावरण की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ग्रामीण इलाके में खाना बनाने के लिए लकड़ी की जरूरत पड़ती है तो घर बनाने से लेकर तमाम उपकरण बनाने में भी इनका प्रयोग होता है। साथ ही पशु संपदा समृद्धि में भी जंगलों की भूमिका उल्लेखनीय है। इसके बाद भी जंगल कम हो रहे हैं। इसे बचाने की जरूर है। यदि इसी तरह से जंगलों की कटाई होती रही तो आने वाले दिनों में लोगों को लकड़ी के लिए तरसना पड़ेगा।

बाजार में जिस तरह से दूसरी चीजों के दाम बढ़ रहे हैं, उससे कई गुना अधिक लकड़ी के दाम बढ़े हैं, लेकिन शहरों की अपेक्षा गांवों में अभी भी पेड़ों की संख्या बरकरार है। यही वजह है कि काम चल रहा है, लेकिन लोगों को जंगलों की महत्ता अभी कम समझ में आ रही है। यदि यही हाल रहा तो भविष्य में स्थिति काफी गंभीर हो सकती है। इस वजह से जंगलों को बचाने के लिए हर व्यक्ति को अपने स्तर पर प्रयास करना होगा। यदि हम अपने उपयोग के लिए एक पेड़ काटते हैं तो कम से कम एक पौधा लगाने और उसे पोषित करने की भी जिम्मेदारी निभानी होगी। अन्यथा आने वाली पीढ़ियां लकड़ी के लिए तरसेंगी। जंगल बचाने की दिशा में किए जा रहे सरकारी प्रयासों में भी अपनी भूमिका निभानी होगी।

सरकार ने भी जंगल की स्थिति पर जताई चिंता


सरकार की ओर से जारी एक रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि जलवायु परिवर्तन से भारतीय जंगलों पर प्रभाव पड़ रहा हैा। रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन से उच्च हिमालयी क्षेत्र के जंगल खासतौर पर प्रभावित होते जा रहे हैं। इन इलाकों में अत्यधिक कटाई, मवेशियों द्वारा घास चरने जैसी अनेक चुनौतियां पहले से ही मौजूद हैं। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन को भेजे जाने वाले दूसरे राष्ट्रीय संदेश में भी पर्यावरण मंत्री ने चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि जलवायु के प्रभावों का आकलन दर्शाता है कि राष्ट्रीय स्तर पर 45 प्रतिशत वन्य क्षेत्रों में बदलाव हो सकते हैं।

रिपोर्ट में सभी वन्य क्षेत्रों की स्थिति दर्शाने के लिए देश के डिजिटल वन्य नक्शे का इस्तेमाल किया गया है। इसमें भारत के पूरे क्षेत्र को 1,65,000 ग्रिडों में बांटा गया है। इनमें से 35,899 वन ग्रिड के तौर पर चिह्नित हैं। संयुक्त राष्ट्र समझौते के तहत उसे जानकारी देने की प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिहाज से पर्यावरण मंत्रालय द्वारा तैयार रिपोर्ट के मुताबिक इन वन क्षेत्रों की सघनता उच्च हिमालयी पट्टियों, मध्य भारत के हिस्सों, उत्तरी-पश्चिमी घाटों एवं पूर्वी घाटों में ज्यादा है।

रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर पर्वतीय जंगलों पर जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की आशंका है। इनमें हिमालय के शुष्क तापमान वाले और हिमालयी आर्द्र तापमान वाले जंगल शामिल हैं। इसके विपरीत पूर्वोत्तर के जंगलों, दक्षिणी-पश्चिमी घाटों और पूर्वी भारत के वन्य क्षेत्रों के इस लिहाज से कम प्रभावित होने का अनुमान है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत वैश्विक समुदाय के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के लिए प्रतिबद्ध है। भारत कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अपनी तरफ से कदम उठा रहा है। हमें कई क्षेत्रों में सफलता भी मिली है। हालांकि इस तथ्य को नहीं नकारा जा सकता है कि पर्वतीय जंगलों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है। इस संबंध में कदम उठाया जाना बेहद जरूरी हो गया है। ये जंगल पहले से ही कई समस्याओं का सामना कर रहे हैं। औद्योगिक प्रगति का दबाव भी इन जंगलों पर है।

जर्मनी में कचरा से कार चलाने की तैयारी

जर्मनी के टुटगार्ट शहर में कचरा प्रबंधन की दिशा में महत्वपूर्ण काम किया गया है। यहां कचरे के जरिए कार चलाने की तैयारी है। इससे एक तरफ जहां कचरे का प्रबंधन होगा, वहीं पेट्रोल की समस्या से भी निजात मिलेगा। टुटगार्ट शहर को जर्मनी के ऑटोमोबाइल नगर के रूप में पहचाना जाता है। यहां फल और सब्जियों के कचरे को इकट्ठा करके बायोगैस तैयार किया गया। अब यहां बायोगैस सर्विस स्टेशन बनाने की तैयारी चल रही है, जहां से लोग अपनी कार में गैस डलवा सकेंगे। एक अंग्रेजी वेबसाइट के मुताबिक जर्मनी में हर साल करीब 11 मीट्रिक टन फल एवं सब्जियां कचरे में फेंक दी जाती हैं। अकेले टुटगार्ट में हर साल करीब दो हजार किलो ग्रीन कचरा होता है। इसे या तो फेंक दिया जाता है अथवा नगर निगम इससे खाद तैयार करता है। इससे पहले जर्मनी के कई राज्यों में बायोगैस के जरिए घर को गर्म रखने का सिस्टम चलाया जा रहा है। इससे बिजली की बचत होती है। अब नए प्रयोग के तहत इससे कार चलाने की तैयारी है। इस नए प्रोजेक्ट में फ्राउएनहोफर संस्थान का इंटरफेशियल इंजीनियरिंग और बायोटेक्नोलॉजी विभाग मदद कर रहा है। इसके लिए जर्मनी के शोध मंत्रालय से 60 लाख यूरो की राशि जारी की गई है। इस प्रोजेक्ट के जरिए बाजार से कचरा एकत्रित कर उसे सड़ाया जाएगा। सड़ांध से मीथेन गैस बनेगी। इस मीथेन गैस का प्रयोग ही कार में किया जाएगा। यह गैस सीएनजी की अपेक्षा काफी सस्ती पड़ेगी। फ्राउएनहोफर संस्थान के रिसर्चर उर्सुला लीसमान के मुताबिक जैविक कचरे में पानी बहुत होता है और लिग्निन, लिगनोसेल्यूलोज कम होता है। इससे वह आसानी से अपघटित हो जाता है। फल में साइट्रिक एसिड होता है। इस तरह सभी कचरे किसी न किसी रूप में हमारे लिए उपयोगी साबित होंगे। इसी तरह सड़े हुए कचरे से निकले पानी में नाइट्रोजन और फास्फोरस होती है। इसे काई की पैदावार बढ़ाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। काई से डीजल इंजन के लिए ऑयल बन सकता है।



बचाना होगा वन्य जीवों को


ग्रामीण जनजीवन में चक्रिय व्यवस्था है। मानव जीवन के लिए पशु-पक्षियों का भी बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इनके जरिए पर्यावरण का चक्रण बना रहता है लेकिन ग्रामीण विकास की दौड़ में पशु-पक्षियों पर भी प्रभाव पड़ रहा है। तमाम प्रजातियां लुप्त होती जा रही हैं तो कई संकट से जूझ रही हैं। भारत में 50 करोड़ से भी अधिक जानवर हैं जिनमें से पांच करोड़ प्रति वर्ष मर जाते हैं और साढ़े छह करोड़ नए जन्म लेते हैं। वन्य प्राणी प्राकृतिक संतुलन स्थापित करने में सहायक होते हैं। उनकी घटती संख्या पर्यावरण के लिए घातक है। सरकार की ओर से पशु-पक्षियों को संरक्षित करने की दिशा में तमाम कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन सामूहिक भागीदारी के बिना यह प्रयास पूरा नहीं हो सकता है। पर्यावरण की दृष्टि से वन्य प्राणियों की रक्षा अनिवार्य है।

जल प्रदूषण बनी चुनौती


विकास की दौड़ में जीवन की सबसे मूल्यवान प्राकृतिक संपदा जल खत्म होता जा रहा है। जो पानी बचा हुआ है वह प्रदूषित होता जा रहा है। यही वजह है कि जल संकट से निबटने के लिए पुख्ता रणनीति बनाई जा रही है। राज्य सरकारें और केंद्र सरकार जल को बचाने और प्रदूषित जल से मुक्ति पाने के लिए बजट में करोड़ों रुपये का प्रावधान कर रही है क्योंकि जल ही जीवन है। प्राणी कुछ समय के लिए भोजन के बिना तो रह सकता है लेकिन पानी के बिना नहीं। यह सच है कि पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमग्न है फिर भी करीब 0.3 फीसदी जल ही पीने योग्य है। विभिन्न उद्योगों और मानव बस्तियों के कचरे ने जल को इतना प्रदूषित कर दिया है कि पीने के करीब 0.3 फीसदी जल में से मात्र करीब 30 फीसदी जल ही वास्तव में पीने के लायक रह गया है। नदियों एवं अन्य जलस्रोतों में कारखानों से निष्कासित रासायनिक पदार्थ व गंदा पानी मिल जाने से वह प्रदूषित हो जाता है।

नदियों के किनारे बसे नगरों में जले-अधजले शव तथा मृत जानवर नदी में फेंक दिए जाते हैं। कृषि उत्पादन बढ़ाने और कीड़ों से उनकी रक्षा हेतु जो रासायनिक खाद एवं कीटनाशक प्रयोग में लाए जाते हैं वे वर्षा के जल के साथ बहकर अन्य जल-स्रोतों में मिल जाते हैं और प्रदूषण फैलाते हैं। नदियों, जलाशयों में कपड़े धोने, कूड़ा-कचरा फेंकने व मलमूत्र विसर्जित करने से भी यह स्थिति पैदा होती है। विश्व में 260 नदी बेसिन ऐसे हैं, जो सिर्फ एक ही नहीं बल्कि कई देशों तक पहुंचते हैं। एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में आधी से ज्यादा नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं और इनका पानी पीने योग्य नहीं रहा है और इन नदियों में पानी की आपूर्ति भी निरंतर कम हो रही है। हमें पीने का पानी ग्लेशियरों से प्राप्त होता है और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ग्लेशियर का पानी भी हमसे दूर होता जा रहा है।

दुनिया में जल उपलब्धता 1989 में 9000 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति थी जो 2025 तक 5100 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति हो जाएगी और यह स्थिति मानव जाति के संकट की स्थिति होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया भर में 86 फीसदी से अधिक बीमारियों का कारण असुरक्षित व दूषित पेयजल है। वर्तमान में 1600 जलीय प्रजातियां जल प्रदूषण के कारण लुप्त होने के कगार पर हैं। अगर हम भारत की बात करें तो यहां वर्तमान में 303.6 मिलियन क्यूबिक फीट पानी प्रतिवर्ष एशियाई नदियों को हिमालय के ग्लेशियर्स से प्राप्त हो रहा है। भारत में सिंचाई कार्यों के लिए 70 प्रतिशत जल भूमिगत जल स्रोतों से प्राप्त होता है और घरेलू कार्यों के लिए 80 प्रतिशत जल की आपूर्ति भूमिगत जल स्रोतों से की जाती है। लेकिन यह भूमिगत जल भी अब प्रदूषित होता जा रहा है। दूसरी तरफ बढ़ती आबादी और बढ़ता औद्योगिकीकरण जल की खपत बढ़ा रहा है। ऐसी स्थिति में हमारे सामने दोहरी चुनौतियां हैं। एक तरफ स्वच्छ पानी कम हो रहा है तो दूसरी तरफ पानी की जरूरत बढ़ रही है।

पैसा नहीं पर्यावरण प्रेम

पूरी दुनिया जहां पैसे के पीछे दौड़ रही है, वहीं भारतीयों ने एक नई मिसाल कायम की है। भारतीय पैसे से कहीं ज्यादा पर्यावरण को तवज्जो दे रहे हैं। यह खुलासा हुआ है अमेरिका की सर्वेक्षण कंपनी गैलप के ताजा सर्वे में। इस कंपनी की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत हरित अर्थव्यवस्था बनने का प्रयास कर रहा है। भारतीय आर्थिक वृद्धि पर पर्यावरण रक्षा को मामूली रूप से प्राथमिकता देते हैं। गैलप के अनुसार भारत ने वैश्विक भूभाग पर हरित क्षेत्र को बढ़ाने के उल्लेखनीय प्रयास किए हैं। इसकी एक बानगी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली है, जहां हाल के वर्षों में हरित क्षेत्र में वृद्धि दर्ज की गई है।



जल प्रदूषण की स्थिति


पर्यावरण संबंधी तमाम अध्ययन देश में जल प्रदूषण के दिनोंदिन भयावह होते जाने के बारे में चेताते रहते हैं। अब सीएजी यानी नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने भी इस बारे में आगाह किया है। विभिन्न प्रकार के रासायनिक खादों और कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल ने खेतों को इस हालत में पहुंचा दिया है कि उनसे होकर रिसने वाला बरसात का पानी जहरीले रसायनों को नदियों में पहुंचा देता है। भूजल के गिरते स्तर और उसकी गुणवत्ता में कमी को लेकर कई अध्ययन सामने आ चुके हैं जिसमें कहा गया है कि देश में चौदह बड़ी, पचपन लघु और कई सौ छोटी नदियों में मल-जल और औद्योगिक कचरा लाखों लीटर पानी के साथ छोड़ा जाता है। जाहिर है कि यह कचरा किसी न किसी रूप में पानी के जरिए हमें प्रभावित करता है। एक अध्ययन के मुताबिक बीस राज्यों की सात करोड़ आबादी क्लोराइड और एक करोड़ लोग सतह के जल में आर्सेनिक की अधिक मात्रा घुल जाने के खतरों से जूझ रहे हैं। इसके अलावा, सुरक्षित पेयजल कार्यक्रम के तहत सतह के जल में क्लोराइड, टीडीसी, नाइट्रेट की अधिकता भी बड़ी बाधा बनी हुई है।

पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमग्न है फिर भी करीब 0.3 फीसदी जल ही पीने योग्य है। विभिन्न उद्योगों और मानव बस्तियों के कचरे ने जल को इतना प्रदूषित कर दिया है कि पीने के करीब 0.3 फीसदी जल में से मात्र करीब 30 फीसदी जल ही वास्तव में पीने के लायक रह गया है।विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब साठ फीसदी बीमारियों की मूल वजह जल प्रदूषण है। जल प्रदूषण का मुख्य कारण मानव या जानवरों की जैविक या फिर औद्योगिक क्रियाओं के फलस्वरूप पैदा हुए प्रदूषकों को बिना किसी समुचित उपचार के सीधे जलधाराओं में विसर्जित कर दिया जाना है। हालांकि प्राकृतिक कारणों से भी जल की गुणवत्ता प्रभावित होती है। लेकिन अपशिष्ट उपचार संयंत्र के बगैर फैक्ट्रियों से निकलने वाले अवशिष्ट का पानी में मिलना सबसे बड़ा कारण है। ये रासायनिक तत्व पानी में मिलकर मानव या जानवरों में जलजनित बीमारियां पैदा करते हैं।

कैल्शियम, मैग्नीशियम, सोडियम, पोटेशियम, आयरन, मैग्नीज की अधिकता और क्लोराइड, सल्फेट, कार्बोनेट, बाई-कार्बोनेट, हाइड्राक्साइड, नाइट्रेट की कमी के साथ ही ऑक्साइड, तेल, फिनोल, वसा, ग्रीस, मोम, घुलनशील गैसे (ऑक्सीजन, कार्बन-डाइ-ऑक्साइड, नाइट्रोजन) आदि जल की वास्तविकता को प्रभावित करते हैं। जल प्रदूषण से बचने के लिए समय-समय पर नियम-कानून भी बनाए गए, लेकिन जिस अनुपात में जल प्रदूषण बढ़ रहा है, ये नियम-कानून कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं। हमारे देश में नदी अधिनियम 1951, 1961 में जल प्रदूषण पर व्यवस्थित तरीके से नियंत्रण स्थापित किया गया। इसके बाद प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम 1984 बना। लेकिन ये कानून पूरी तरह से जल प्रदूषण रोकने में कारगर साबित नहीं हो पा रहे हैं।

वायु और ध्वनि प्रदूषण


जब गांवों में सड़कें पहुंची तो वहां वाहनों का शोर और उनका धुआं भी बढ़ने लगा है। दूसरी तरफ कल-कारखाने भी पहले से कई गुना अधिक बढ़े हैं। इसके विपरीत पेड़-पौधों की संख्या घटी है। चूंकि पेड़-पौधे कार्बन-डाइ-ऑक्साइड सहित अन्य हानिकारक गैस को ग्रहण कर हमारे लिए ऑक्सीजन उपलब्ध कराते हैं। जब पेड़-पौधों की संख्या कम है तो ऑक्सीजन का कम तैयार होना लाजिमी है। ऐसी स्थिति में वायु के साथ ध्वनि प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण के लिए वायु और ध्वनि प्रदूषण भी कम घातक नहीं हैं। वायु में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन, 21 प्रतिशत ऑक्सीजन, 0.03 प्रतिशत कार्बन-डाइ-ऑक्साइड तथा शेष निष्क्रिय गैसें और जल वाष्प होता है। हवा में विद्यमान ऑक्सीजन ही जीवधारियों को जीवित रखती है।

मनुष्य आमतौर पर प्रतिदिन 22 हजार बार सांस लेता है और सोलह किलोग्राम ऑक्सीजन का उपयोग करता है जोकि उसके द्वारा ग्रहण किए जाने वाले भोजन और जल की मात्रा से बहुत अधिक है। इस समस्या से निजात पाने के लिए जहां हमें इससे निपटने के लिए कोयला, डीजल व पेट्रोल का उपयोग कम करना होगा वहीं कारखानों में चिमनियों की ऊंचाई बढ़ाते हुए फिल्टर का उपयोग करना होगा। इन सभी का असर कम करने के लिए पेड़-पौधों को संरक्षित करना होगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेलः chandrabhan0502@gmail.com

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