पर्यावरण सुरक्षा व विकास की चुनौतियाँ

11 Feb 2013
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सबसे बड़ी समस्या है कि रेगुलेटरी संस्थाओं के निष्क्रिय हो जाने की स्थिति में, इन लोगों के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं होगा, जिनसे वे अपनी समस्याओं के लिए गुहार लगा सकें। ऐसी स्थिति में उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता। जाहिर है ऐसे में उनकी हताशा और बढ़ेगी और अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए वे विरोध का आक्रामक तरीका अपनाएंगे और इससे हिंसात्मक विरोध को बढ़ावा मिलेगा। पिछले साल हमने कई हिंसात्मक विरोध देखें हैं, 2007 में इन हिंसात्मक विरोधों के और बढ़ने की ही उम्मीद है, घटने की तो कतई नहीं। जो पर्यावरण और देश दोनों के लिए बुरा संकेत है। पर्यावरण के लिहाज से वर्ष 2006 काफी महत्वपूर्ण रहा। ऐसा इसलिए नहीं कि हमें पर्यावरण प्रबंधन में आशातीत सफलता मिली और न ही इसलिए कि पिछले साल हमें कोई प्राकृतिक आपदा नहीं झेलनी पड़ी। पिछले साल को पर्यावरण के प्रबंधन कार्य पर विमर्श करने और इसकी चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए याद किया जाएगा। पर्यावरण में आ रही गिरावटों को लेकर प्रदर्शनों में तेजी आई। पर दूसरी तरफ पर्यावरण में आ रही गिरावटों को लेकर प्रदर्शनों में तेजी आई। पर दूसरी तरफ पर्यावरण को लेकर उठाई गई चिंताओं को खारिज करने के प्रयासों में भी तेजी आई है। पर्यावरण को लेकर इतनी उदासीनता इसलिए दिखती है क्योंकि आज आर्थिक विकास हमारा मूलमंत्र बन गया है। पर्यावरण के संस्थान भी पर्यावरण से जुड़े प्रश्नों और अपने स्टैंड पर कायम नहीं रहते हैं। इसकी वजह यह भी है कि हमने अब तक यह स्वीकार नहीं किया है कि पर्यावरण आर्थिक बदलाव के घटक के रूप में काम कर सकता है। साल भर उन विरोधों को याद कीजिए जो बांध परियोजनाओं, वनोन्मूलन, खनन, औद्योगिक प्रदूषण के खिलाफ हुए। लेकिन हमें यह भी याद करना होगा कि पर्यावरण की सुरक्षा के लिए (पर्योवरण पर पड़ने वाले प्रभावों से लेकर तटीय इलाकों के रेगुलेशन आदि) निहायत जरूरी सुझावों को भू नकार दिया गया। भवन निर्माण में लगे बिल्डरों ने लॉबी बनाकर उन सभी प्रयासों को कमजोर करने की कोशिश की, जो उनके काम में बाधा डाल सकते थे। उन प्रयासों के कारण यह तथ्य सामने आ पाया था कि ये बिल्डर न सिर्फ पानी का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं, बल्कि बहुत ज्यादा कचरा भी पैदा कर रहे हैं।

सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि पर्यावरण के लिए किए जाने वाले संघर्ष को अधिक विकास के लिए बाधा के रूप में देखा जाता रहा है। आज यह सोच नीति-निर्माताओं पर हावी है कि ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करो, इसी युक्ति के सहारे और आर्थिक विकास के जादू के जरिए गरीबी से निजात पाई जा सकती है। लेकिन इस सोच की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें ग़रीबों के लिए कोई स्थान नहीं है।

सभी संपत्ति इकट्ठा करने की होड़ में तंत्र की कमजोरियों का फायदा उठा रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि हमारा प्रशासन तंत्र भ्रष्टाचार, लाल-फीताशाही और अक्षमता से पूरी तरह ग्रस्त हैं। इन सब चीजों के आधार पर यह मांग की जाती है कि इन नौकरशाहों की भूमिका कम की जानी चाहिए। वर्तमान प्रशासन व्यवस्था के परिदृश्य में यह मांग रखना भी आसान हो जाता है कि रेगुलेशन या तो हटाया जाना चाहिए या फिर उन्हें बनाना चाहिए। उदाहरण के लिए बिल्डर लॉबी ने अपना तर्क सफलतापूर्वक यह कह कर रखा कि उनकी योजनाओं को पास करने में न सिर्फ ज्यादा समय लिया जाता है, बल्कि व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण बहुत ज्यादा रिश्वत भी देनी पड़ती है। लेकिन कभी ये बिल्डर यह नहीं कहते हैं कि इन्हीं बिलडरों की जमात है, जिसने अपने काम को अंजाम देने के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। इन्होंने यह कभी नहीं का कि आज चुनौती रेगुलेशन और पर्यवेक्षण को मजबूत किए जाने की है न कि उन्हें कमजोर करने की। यह भी कभी नहीं का जाता है कि रेगुलेशन संस्थाओं के लिए भवन, कर्मचारियों, प्रशिक्षण और प्रबंधन के औजार आदि साधनों की जरूरत होगी। वे सीधे रेगुलेशन करने वाली संस्थाओं को बंद करने पर जोर देते हैं। और इसमें वे बहुत हद तक सफल भी हो रहे हैं।

इस पहलू पर कभी ध्यान नहीं दिया जाता है कि जो लोग योजनाओं का विरोध कर रहे हैं, ऐसा नहीं है कि वे राष्ट्रविरोधी हैं या वे विकास नहीं चाहते हैं। सच यह है कि वे अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में लाखों लोग अपने जीविकोपार्जन के लिए प्राकृतिक संपदाओं पर ही निर्भर करते हैं। वे संघर्ष इसलिए कर रहे हैं ताकि उनसे ये संसाधन न छिन जाएं, और वैसे भी संसाधन पहले से ही काफी कम हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि पर्यावरण में गिरावट आएगी तो उनका जीवन असंभव हो जाएगा।

इन लोगों के प्रदर्शन को देखकर हमें कम से कम यह बात सोचनी चाहिए कि अगर विकास की यह प्रक्रिया जारी रही तो गरीबी और बढ़ेगी। आज औद्योगिक विकास के जिस मॉडल को अपनाया जा रहा है उसमें विकास के लिए सिर्फ स्थानीय संसाधनों मसलन खनिज, पानी व ऊर्जा की जरूरत होती है, न कि स्थानीय लोगों की। इस विकास में स्थानीय लोगों को न तो रोज़गार मिलता है और न ही उनकी आर्थिक स्थिति सुधरती। य विकास उनसे सिर्फ उनके संसाधन ही छीनता है। जो लोग विकास के इस मॉडल का पक्ष लेते हैं, उन्हें इस सच्चाई को भी देखना चाहिए।

सबसे बड़ी समस्या है कि रेगुलेटरी संस्थाओं के निष्क्रिय हो जाने की स्थिति में, इन लोगों के पास कोई ऐसा तंत्र नहीं होगा, जिनसे वे अपनी समस्याओं के लिए गुहार लगा सकें। ऐसी स्थिति में उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता। जाहिर है ऐसे में उनकी हताशा और बढ़ेगी और अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए वे विरोध का आक्रामक तरीका अपनाएंगे और इससे हिंसात्मक विरोध को बढ़ावा मिलेगा। पिछले साल हमने कई हिंसात्मक विरोध देखें हैं, 2007 में इन हिंसात्मक विरोधों के और बढ़ने की ही उम्मीद है, घटने की तो कतई नहीं। जो पर्यावरण और देश दोनों के लिए बुरा संकेत है।

आज सच्चाई यह है कि न तो हम इन विरोधों को ठीक से समझ पा रहे हैं और न ही पर्यावरण संबंधी चिंताओं को । हम यह तो जानते हैं कि संसाधनों का दोहन कर विकास कैसे करना है और संसाधनों को संरक्षित करना है। लेकिन हम यह नहीं जानते हैं कि हम इन संसाधनों का कैसे किफायत से इस्तेमाल कर लोगों की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करें। आज सच यह है कि लोगों का विस्थापन औद्योगिकरण और संरक्षण दोनों के ही कारण हो रहा है। लोगों से खनन और जंगल तथा वन्य जीव सुरक्षा के नाम पर ज़मीन छीनी जा रही है। उन्हें दोनों ही सूरतों में कुछ नहीं मिलता है।

पर्यावरण सुरक्षा के यही तरीके हमने अमीर देशों से सीखे हैं। जिसमें पर्यावरण को बर्बाद किया जाता है और उसके बाद उसे संभालने के लिए उपाय किए जाते हैं। उन देशों का मानना है कि एक बार कारखाने बन जाएं और संपत्ति इकट्ठी हो जाए तो उसके बाद प्रदूषण को कम करने के लिए उपाय किए जा सकते हैं। आज पर्यावरण को दुरुस्त करने के लिए बहुत ज्यादा निवेश किया जा रहा है, लेकिन पर्यावरण को हानि पहुंचाने के सवाल को दुनिया भर के विमर्श में कोई तवज्जो नहीं दी जाती है। हम उन्हीं लोगों का अनुसरण करना चाहते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि हम यह काम साधनों के साथ करना चाहते हैं। यह रास्ता हमें सिर्फ बर्बादी की तरफ ले जाएगा। मैंने शुरू में कहा था कि 2006 परिवर्तन का वर्ष रहा है। यह हमारे भविष्य का आईना भी है। लेकिन 2007 में हमें वर्तमान को बदलने के लिए विमर्श करना चाहिए।

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