पर्यावरणीय विधान (कानून)

30 Sep 2018
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environmental law
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पर्यावरण की चेतना कई पर्यावरणीय मुद्दों को संबोधित करती है- जैसे वायु, भूमि और जल का प्रदूषण, मृदा अपक्षीर्णन, औद्योगीकरण, शहरीकरण, प्राकृतिक संसाधनों का अपक्षय (कमी), इत्यादि।

पर्यावरण संबंधी कानून पर्यावरण के संरक्षण व प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग को नियंत्रित करने में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर्यावरण-संबंधी कानूनों की सफलता मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करती है कि उनको किस प्रकार लागू करते हैं। कानून एक स्वस्थ पर्यावरण को कायम रखने के लिये आम जनता को शिक्षित करने का भी एक अनमोल यंत्र है।

राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तरों पर अनगिनत कानून पहले से ही बन चुके हैं। इस पाठ में आप कुछ महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय कानूनों के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे। भारतीय (स्थानीय) कानूनों को अंग्रेजी में ‘एक्ट्स’ कहा जाता है, जबकि अन्तरराष्ट्रीय कानून व नियम समझौता, विज्ञप्ति व संधि के नामों से जाने जाते हैं।

उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात आपः


- भारत में पर्यावरण संरक्षण व बचाव के संवैधानिक निर्देशों का वर्णन कर सकेंगे;

- विभिन्न भारतीय पर्यावरणीय कानूनों (नियमों) व उनके उद्देश्यों की सूची तैयार कर पाएँगे व उनका वर्णन कर सकेंगे;

- प्रदूषण-संबंधित विभिन्न नियमों का वर्णन कर पाएँगे-विशेष कर जो वायु, जल और पर्यावरण से संबंधित एक्ट हैं;

- पर्यावरण के क्षेत्र में विभिन्न वैश्विक समझौतों व उनके उद्देश्यों का वर्णन कर सकेंगे।

23.1 पर्यावरणीय कानून (ENVIRONMENTAL LAWS)
देश के सारे कानूनों की उत्पत्ति पर्यावरण की समस्याओं से जुड़ी हैं। पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रभावशाली कानूनों व नियमों का होना आवश्यक है, नहीं तो, बढ़ती जनसंख्या की अधिक साधनों की आवश्यकता पर्यावरण पर बहुत भार डाल देगी। इन नियमों को लागू करना दूसरा मुख्य पहलू है। पर्यावरण को और अधिक अवक्रमित होने (हानि) एवं प्रदूषण से बचाने के लिये इन कानूनों-नियमों को बलपूर्वक तथा प्रभावशाली ढंग से लागू करना अति आवश्यक है।

23.1.1 कानून (विधान) की आवश्यकता
पिछले समय (हाल के समय) में ही विभिन्न प्रकार की पर्यावरण संबंधी समस्याएँ उभरी हैं जो कि मानवीय सुख-समृद्धि के लिये खतरा बन गई हैं। पर्यावरणीय समस्याओं का एक जरूरी पहलू यह है कि उनका प्रभाव केवल स्रोत के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि दूर-दूर तक के क्षेत्रों तक फैल जाता है।

पर्यावरण के दुरुपयोग और अवक्रमण से बचाव के लिये प्रभावशाली कानूनों की आवश्यकता है। दुष्ट लोगों, जंगल के माफिया ग्रुप, शिकारियों, प्रदूषकों एवं पर्यावरणीय संसाधनों के अत्यधिक शोषण से बचाव के लिये, प्रभावशाली कानूनों की आवश्यकता है। प्रदूषण एक ऐसा कारक है जो कि राजनैतिक दीवारों और कानूनी दायरों की परवाह नहीं करता। अतः हम यह कह सकते हैं कि पर्यावरणीय समस्याएँ मूल रूप से वैश्विक हैं, सिर्फ स्थानीय नहीं हैं। अतः ऐसी समस्याओं के निवारण के लिये पर्यावरण संबंधी कानून न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी जरूरी है।

पाठगत प्रश्न 23.1
1. पर्यावरण-संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिये कानूनों की क्यों आवश्यकता है?
2. कानूनों का लागूकरण क्यों आवश्यक है?

23.2 राष्ट्रीय कानून (NATIONAL LAWS)
भारतीय संविधान में संशोधनों के द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर, पर्यावरण के सुधार एवं बेहतरी के लिये कड़े प्रयास किए गए हैं- आरम्भिक काल में हमारे संविधान में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिये कोई प्रावधान नहीं था। परन्तु 1972 में स्टॉकहोम में हुए संयुक्त राष्ट्र की मानवीय पर्यावरण से संबंधित कॉन्फ़्रेंस के पश्चात, भारतीय संविधान में संशोधन किया गया और उसमें पर्यावरण के संरक्षण को एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया।
 

हालाँकि भारत में 1879 में हाथियों के संरक्षण का कानून और सन 1929 में वन संरक्षण का कानून आया था, परन्तु पर्यावरण संबंधी कानून 1972 में ही आया। यह 1971 की वन्य जीवन संरक्षण एक्ट से प्रेरित था। जैसा कि हम सभी जानते हैं, भारत को विश्व के बाहर बहुत अधिक विविधता वाले देशों में गिना जाता है। अभी भी ऐसी कई जन्तु प्रजातियाँ हैं, जिनकी पहचान अभी तक नहीं हुई है। जैविक विविधता का कृषि, औषधि और उद्योग के साथ सीधे उपभोग का संबंध है। इसके अलावा वह देश की संपदा भी है। हमारे संविधान में जैवविविधता के संरक्षण का प्रावधान है।


भारतीय संविधान के अनुच्छेद-51ए (51 A) में 42वां संशोधन, पर्यावरण के संरक्षण एवं उसमें सुधार को एक मूल कर्तव्य का रूप देता है।

‘‘यह भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह प्राकृतिक वातावरण जिसमें वनों, झीलों, नदियाँ और वन्य जीवन जैसी प्राकृतिक संपदा सम्मिलित है, का संरक्षण करे व जीवित प्राणियों के लिये मन में करुणा रखे।’’

पर्यावरण के संरक्षण व बेहतरी के लिये केन्द्र द्वारा प्रदेशों को एक निर्देश जारी किया गया है। जिसे राजकीय नीति निर्देश आधार का दर्जा प्राप्त है। अनुच्छेद 48-ए (48 A) स्पष्ट करता है- ‘‘यह राज्य का कर्तव्य है कि वह न केवल पर्यावरण का बचाव व सुधार करे बल्कि देश के वनों और वन्य जीवन का भी संरक्षण करे।’’

भारत में सन 1980 में देश में स्वस्थ पर्यावरण के विकास के लिये पर्यावरण विभाग की स्थापना हुई थी। यही विभाग, आगे चलकर, सन 1985 में पर्यावरण और वन मंत्रालय कहलाया। इस मंत्रालय की मुख्य जिम्मेदारी पर्यावरण संबंधी कानूनों और नीतियों का संचालन व लागूकरण है।

हमारे संविधान के प्रावधान कई कानूनों का सहारा लेते हैं, जिन्हें हम एक्ट और नियमों के नाम से जानते हैं। हमारे अधिकांश पर्यावरण-संबंधी कानून व नियम विधानसभा व राज्य सभाओं द्वारा निर्मित कानून हैं। ये एक्ट प्रायः अपनी कार्य शक्ति को नियंत्रक एजेंसियों को प्रसारित करते हैं, जोकि उनके लागूकरण की तैयारी करती है। भोपाल गैस दुर्घटना के पश्चात पर्यावरण संरक्षण कानून (Environment Protection Act, EPA) सन 1986 में तैयार होकर सामने आया।

इसे एक मुख्य कानून माना जा सकता है क्योंकि ये वर्तमान कानूनों की कई कमियों को पूरा करता है। इसके पश्चात तो विशिष्ट पर्यावरणीय समस्याओं को संबोधित करने के लिये कई पर्यावरणीय कानूनों का विकास हुआ है। उदाहरण के लिये अभी हाल के वर्षों में ही सी.एन.जी. का प्रयोग, दिल्ली प्रदेश में सार्वजनिक यातायात के वाहनों के लिये अनिवार्य कर दिया गया है। इसके फलस्वरूप दिल्ली के वायु प्रदूषण की मात्रा कम हो गई है।

पाठगत प्रश्न 23.2
1. सन 1972 की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन किस विषय पर आधारित था?
2. संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन कहाँ हुआ था?
3. ई.पी.ए. किस वर्ष में पारित हुआ था?
4. वायु प्रदूषण को कम करने की दृष्टि से किस ईंधन को दिल्ली के सार्वजनिक यातायात के वाहनों में अनिवार्य कर दिया गया है।

23.3 प्रदूषण संबंधित कानून
पर्यावरण के सभी घटकों में, वायु और जल सभी जीव-जन्तुओं की उत्तरजीविता के लिये सबसे मूलभूत आवश्यकताएँ है। अतः उनको अवक्रमित होने से बचाने के उद्देश्य के कारण निम्नलिखित कानूनों को पारित किया गया है:

- जल एक्ट (कानून)
- वायु संबंधी एक्ट (कानून)
- पर्यावरण संबंधी एक्ट (कानून)

प्रत्येक श्रेणी के कुछ महत्त्वपूर्ण कानूनों के बारे में संक्षिप्त विवरण नीचे हुआ हैः

23.3.1 (i) जल (प्रदूषण के बचाव व नियंत्रण) कानून सन 1974 व संशोधन 1988
इस कानून अधिनियम (एक्ट) का मुख्य उद्देश्य जल प्रदूषण से बचाव व उसका नियंत्रण करना है तथा पानी की स्वच्छता को कायम या संचित रखना है (चाहे वह झरनों, कुओं या भूमि में हो)। इस कानून की कुछ मुख्य विशेषताएँ नीचे दी गयी हैं:-

1. यह कानून राज्य प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड को नियंत्रण का अधिकार सौंपता है तथा यह बोर्ड फेक्ट्रियों द्वारा पानी में छोड़े गए प्रदूषित पदार्थों की मात्रा को सही मापदंड स्थापित करके नियंत्रित करता है। एक केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यही कार्य केन्द्रशासित प्रदेशों के लिये करता है व विभिन्न राजकीय बोर्डों के लिये न केवल नीतियाँ बनाता है बल्कि उनके विभिन्न प्रकार के कार्यकलापों में सहयोग भी करता है।

2. राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड वाहित मल व औद्योगिक बहिर्स्रावों के निकास का अनुमोदन, अस्वीकृति या कुछ शर्तों जब वे इनको विसर्जित करने पर अनुमति मांगते हैं, इत्यादि के माध्यम से नियंत्रित करता है।

3. यह कानून बोर्ड को अनुमति देता है कि वह कुछ कार्यों द्वारा इस कानून के अनुरूप चले, जैसे परीक्षण के लिये आये कार्य को सम्मिलित करके, उपकरणों का परीक्षण करके व किसी भी कुएँ, झरने, नाले से पानी का नमूना लेकर उसका विश्लेषण करने के माध्यम से।

4. 1988 में हुए इस संशोधन से पूर्व, जल कानून को तोड़ने वालों के खिलाफ अपराधी कार्यवाही की जाती थी व न्यायाधीशों द्वारा प्रदूषकों को नियंत्रण में लाने के निर्देश जारी होते थे। सन 1988 के संशोधन ने इस कानून को लागू करने के लिये काफी सख्ती से काम किया है। बोर्ड को यह अधिकार दिया गया कि वह गलत काम करने वाले उद्योग को बंद कर सकता है। या किसी प्रशासनिक निर्देश द्वारा पानी या ऊर्जा की आपूर्ति बंद कर सकता है। इसके अलावा इस बोर्ड द्वारा संचालित कार्यवाही को बहुत मुश्किल बना दिया गया है और आम नागरिक को भी प्रदूषण के खिलाफ कानूनी मामले दर्ज करने की अनुमति दी गई है।

(ii) सन 1977 का जल (प्रदूषण का बचाव व नियंत्रण) सेस (कर) कानून

जल सेस कानून को केंद्रीय व राज्य प्रदूषण बोर्डों ने मिलकर खर्च के लिये पैसा प्राप्त करने के उद्देश्य से पारित किया था। यह कानून प्रदूषण नियंत्रण के लिये आर्थिक स्तर का प्रेरक है और इसके तहत स्थानीय अधिकारियों व कुछ चुने हुए उद्योगों को पानी के लिये कर (सेस) देना पड़ता है। इस कर से प्राप्त आय को जल कानून के लागूकरण के लिये प्रयोग किया जाता है। एकत्रण के व्यय को काटने के पश्चात, केंद्रीय सरकार, केंद्रीय बोर्ड व राज्यों को जितना जरूरी हो, उतना पैसा देती है। प्रदूषण के नियंत्रण में पूँजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिये, यह कानून प्रदूषण फैलाने वाले को कर की मात्रा पर 70 % की छूट देती है। वह ऐसा तब करती है, जब प्रदूषण करने वाला प्रदूषकों के निकास के यंत्र उक्त स्थान पर स्थापित कर लेता है।

23.3.2 वायु (प्रदूषण का बचाव व नियंत्रण) कानून सन 1981 का व संशोधन, 1987
जून 1972 में स्टॉकहोम में हुए संयुक्त राष्ट्र के मानवीय पर्यावरण के सम्मेलन में लिये गए निर्णयों को लागू करने के लिये, संसद ने राष्ट्रव्यापी वायु कानून लागू किया। इस कानून के मुख्य उद्देश्य वायु की गुणवत्ता में सुधार व देश में वायु प्रदूषण से बचाव व उसका नियंत्रण एवं कम करना है। इस कानून की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को नीचे दिया गया हैः

1. वायु कानून का ढाँचा सन 1974 के जल कानून से मिलता-जुलता है। पर्यावरणीय समस्याओं के लिये एक समाग्रित रवैया अपनाने के लिये, वायु कानून व जल कानून के अधीन स्थापित किए गए केंद्रीय और राजकीय बोर्डों के अधिकारों को विस्तृत कर दिया। इसमें अब वायु प्रदूषण नियंत्रण भी शामिल होने लगा।

2. जिन राज्यों के जल प्रदूषण बोर्ड नहीं थे, उनके लिये वायु प्रदूषण बोर्डों की स्थापना अनिवार्य कर दी गई।

3. वायु कानून के अंतर्गत, वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्रों के अधीन कार्य करती सब उद्योगों के लिये राजकीय बोर्डों से अनुमति लेना आवश्यक हो गया।

4. आस-पास के पर्यावरण की वायु की गुणवत्ता को नोट करने के पश्चात और केन्द्रीय बोर्ड से सलाह करने के बाद, राज्यों को यह अधिकार दिया गया है कि वे उद्योगों व वाहनों के लिये प्रदूषित वायु का मापदंड सामने लाएँ।

5. कानून बनाने वालों ने बोर्ड को जिन बातों पर कार्य करने के लिये अधिकृत किया था, वे कार्य हैं : परीक्षण के लिये प्रवेश करने की सामर्थ्य, यंत्रों का परीक्षण व अन्य उद्देश्य भी। धुंएदान या चिमनियों से निकाले गए धुएँ, धूल या ऐसे ही किसी बाहरी साधन से होने वाले प्रदूषण के विश्लेषण के उद्देश्य से निकाले गए नमूने को लेने का अधिकार जैसा कि बताया गया है।

6. सन 1987 में उसके संशोधन से पूर्व, वायु कानून के उल्लंघन पर कानूनी कार्यवाही करने की विधि से संचालित होता था। सन 1987 का यह संशोधन लागू करने की प्रणाली को सशक्त बनाया गया और उल्लंघन की स्थिति में कड़ी कार्यवाही को भी करने का अधिकार प्राप्त किया। अब, बोर्डों को यह अधिकार है कि वे उल्लंघन करने वाले उद्योग को या तो बंद करा दे या बिजली व पानी की सप्लाई ही रोक दें।

बोर्ड को अब यह अधिकार भी है कि वे न्यायालय से आवेदन करें कि वह अधिकृत सीमाओं को पार करते प्रदूषण पर रोक लगा दे। विशेषकर, सन 1987 के संशोधन ने वायु कानून में न केवल एक नागरिक के मुकदमे दायर करने की कार्यवाही को भी शामिल कर लिया, बल्कि इस कानून में ध्वनि-प्रदूषण को शामिल कर, उसको विस्तृत रूप दे दिया।

23.3.3 पर्यावरण संबंधी कानून व नियम
पर्यावरण (बचाव) कानून, सन 1986, का कानून इस श्रेणी का सबसे महत्त्वपूर्ण कानून है। इस कानून के माध्यम में, केंद्र सरकार को पर्यावरण के स्तर के बचाव, नियंत्रण व प्रदूषण को कम करने की दिशा में कदम उठाने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। इस कानून की मुख्य विशेषताएँ नीचे दी गई हैं : -

(i) सन 1986 का पर्यावरण (बचाव) कानून
भोपाल गैस दुर्घटना के पश्चात, भारत सरकार ने सन 1986 में पर्यावरणीय (बचाव) कानून पारित किया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य सन 1972 में संयुक्त राष्ट्र मानवीय पर्यावरण के सम्मेलन में लिये गए निर्णयों को लागू करना था। जहाँ तक कि वे मानवीय पर्यावरण के संरक्षण व सुधारों तथा अन्य लोगों, जीव-जन्तुओं, पौधों और संपत्ति के संकटदायी परिस्थितियों के बचाव से संबंध हैं। यह कानून उन सब नियमों की एक प्रकार की ‘‘छतरी’’ है जिनके तहत केंद्रीय व राजकीय अधिकारियों के कार्यों में तालमेल होने पाये जैसे कि वायु कानून (एक्ट) व जल कानून।

इस कानून में, मुख्य रूप से ‘पर्यावरण’ पर जोर दिया गया है- जिसकी परिभाषा में न सिर्फ पानी, वायु और भूमि सम्मिलित हैं बल्कि हवा, पानी, भूमि, मनुष्यों, अन्य जीव-जन्तुओं, पौधों, जीवाणुओं व प्रकृति संपत्ति में आपस के संबंध भी शामिल हैं। ‘पर्यावरणीय प्रदूषण’ की परिभाषा इस प्रकार भी की जा सकती है-

यह किसी भी ठोस, द्रव अथवा गैसीय तत्व या प्रदूषक का ऐसी मात्रा में विद्यमान होना है जो कि पर्यावरण को हानि पहुँचा सकता है।

‘खतरनाक या संकटदायी तत्वों’ की श्रेणी में कोई भी ऐसा तत्व या फिर ऐसी कोई खतरनाक चीज शामिल है, जो कि मानव जाति को, अन्य जीव-जन्तुओं, पौधों, जीवाणुओं, संपत्ति, इत्यादि को नुकसान पहुँचा सकते हैं।

इस कानून के मुख्य प्रावधान नीचे दिए गए हैं :
1. इस कानून के सेक्शन 3(1) में ‘‘केन्द्र को उन सब कार्यों को करने के लिये सक्षम करना है जो न केवल पर्यावरण के संरक्षण में आवश्यक एवं सहायक हों बल्कि पर्यावरण के प्रदूषण के नियंत्रण, गुणवत्ता, बचाव एवं कम करने में भी सहायक हों।’’ विशेष रूप में, केन्द्र सरकार को निम्नलिखित बातों के लिये जिम्मेदारी दी गई है, जैसे पर्यावरण की गुणवत्ता (परिवेशी स्तर) के साथ-साथ नए राष्ट्रीय मापदंडों को स्थापित करना, प्रदूषकों के नियंत्रण के मापदंड स्थापित करना, औद्योगिक स्थलों का नियंत्रित संचालन, संकटदायी/खतरा पैदा करने वाले पदार्थों के नियंत्रण की विधियाँ, दुर्घटनाओं से बचाव की विधियाँ तथा पर्यावरणीय प्रदूषण से संबंधित जानकारी का संकलन करना है।

2. इस कानून की सहायता से केंद्रीय सरकार ने स्वयं को निम्नलिखित अधिकार दे दिए हैं- राज्य द्वारा कार्यों का तालमेल, राष्ट्रव्यापी कार्यक्रमों का नियोजन व लागूकरण, पर्यावरण स्तर के मापदंडों की स्थापना, विशेषकर वे जो कि पर्यावरण के प्रदूषकों को नियंत्रित करते हैं, उद्योगों के स्थलों पर आवश्यकतानुसार पाबंदी लगाना एवं अन्य इत्यादि।

3. इन अधिकारों में निम्नलिखत शामिल हैं- संकटदायी पदार्थों का निपटारा, पर्यावरणीय दुर्घटनाओं से बचाव, प्रदूषण नियंत्रित करने वाली वस्तुओं का निरीक्षण, अनुसंधान, अनुसंधानघरों की स्थापना, प्रयोगशाला की व्यवस्था करना, जानकारी का वितरण इत्यादि शामिल किए गए हैं।

4. पर्यावरणीय (बचाव) कानून वह पहला पर्यावरण संबंधी कानून था जिसने केंद्रीय सरकार को सीधे निर्देश देने को अधीकृत किया। इसमें निम्नलिखित शामिल हैं- उद्योग बंद करने का आदेश, किसी भी उद्योग पर रोक लगाने या नियंत्रण के आदेश अथवा किसी भी उद्योग, प्रक्रिया व कार्य के लिये प्रयोग में आ रही बिजली, पानी या अन्य सेवा को रोकने या नियंत्रित करने के आदेश। इसी के तहत केंद्रीय सरकार को एक और अधिकार दिया गया। उनमें परीक्षण के लिये आगमन की स्वीकृति/अस्वीकृति प्रदान करना, यंत्रों के परीक्षण व अन्य उद्देश्य तथा किसी भी स्थान के जल, वायु, भूमि या अन्य वस्तु के विश्लेषण करने का अधिकार शामिल है।

5. यह कानून नियोजित नियंत्रक मापदंडों से अधिक मात्रा के पर्यावरणीय प्रदूषकों के निष्कासन पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाता है। संकटदायी पदार्थों के उपयोग करने पर भी एक विशिष्ट प्रतिबंध है। इसके लिये भी कुछ नियंत्रक विधियाँ एवं मापदंड बनाये गए हैं, जिनका उल्लंघन गैर-कानूनी है। जो लोग आवश्यकता से अधिक बताए गये मानदंडों से अधिक प्रदूषकों का प्रवाह करता है तो उन्हें तुरंत अपने गलत काम के बारे में सरकारी अधिकारियों के सामने सफाई देनी होगी एवं स्वयं उस प्रदूषण को कम करने के लिये कारगार कदम उठाने चाहिए।

6. इस कानून के उल्लंघन की स्थिति में दंड भी निर्धारित किया गया है। कोई भी व्यक्ति जो इस कानून के अंतर्गत आने वाले निर्देशों व नियमों या दिशाओं (मानदंडों) का उल्लंघन करता है। वह सजा पाने के अधिकार में आ जाता है। हर ऐसे उल्लंघन के लिये, पाँच साल तक की जेल या फिर एक लाख रुपए तक का जुर्माना या दोनों को एक साथ भरना पड़ता है। यह कानून, इसके अलावा, निरंतर उल्लंघन की स्थिति में प्रतिदिन 5000 रुपए का अतिरिक्त जुर्माना भी लगाता है। पहले उल्लंघन के पश्चात, अगर कोई भी ऐसी गलती एक वर्ष के बाद दी गयी तिथि तक लगातार की जाती है, तब गलती करने वाले को सात साल की जेल भी हो सकती है।

7. पर्यावरणीय (बचाव) का यह कानून कुछ ऐसे प्रवर्तनों को भी अपने में सम्मिलित करता है जो किसी अन्य कानून-नियम में नहीं हैं। इससे इसका लागूकरण अधिक प्रभावशाली हो जाता है। सेक्शन 19 इस अधिकार को प्रदान करता है कि सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त कोई भी व्यक्ति किसी पर्यावरण-संबंधी उल्लंघन का न्यायालय में मुकदमा दायर कर सकता है। इस नागरिक अधिकार के अनुसार कोई भी व्यक्ति 60 दिन के नोटिस काल में उल्लंघन की शिकायत केंद्रीय सरकार या उपयुक्त अधिकारियों में कर सकता है। इस कानून के तहत, अधिकारी राज्यपत्र में अधिसूचना देने के माध्यम से, केंद्रीय सरकार इस कानून के लागूकरण के लिये नियम बना सकती है।

पाठगत प्रश्न 23.3
1. निम्नलिखित में उचित मिलान करें :

स्तम्भ

स्तम्भ

1. प्रदूषित निकास सामग्री के यंत्रों को स्थापना पर 70% कर पर कमी   

() 1974

2. वायु कानून

() 1986

3. पर्यावरणीय कानून

() जल सेस कानून, 1977

4. जल कानून

() 1981


23.4 जैविक विविधता से संबंधित कानून, अधिनियम
भारत उन कुछ देशों में से एक है जहाँ वन नीति 1984 से विद्यमान थी। वन व वन्य जीवन कानून दोनों नीचे दिए गये कानून के अन्तर्गत आते हैं :

23.4.1 वन्य जीवन (बचाव) (अधिनियम) कानून सन 1972 का और संशोधन, 1982
सन 1972 में संसद ने वन्य जीवन कानून (बचाव) को पारित किया। इस कानून में राज्य वन्यजीवन सलाहकार बोर्ड, जंगली पशुओं व पक्षियों के शिकार पर नियंत्रण, वन्य जीवन से भरपूर अभ्यारण्यों एवं नेशनल पार्कों की स्थापना, जंगली पशुओं के व्यापार पर नियंत्रण, पशु उत्पादन इत्यादि व कानून के उल्लंघन पर कानूनी सजा। कानून के शेड्यूल I में दी गई संकटापन्न जीवों की श्रेणी को हानि पहुँचाना, संपूर्ण भारत में प्रतिबंध आदि शामिल हैं। अनुज्ञापत्र द्वारा निम्नलिखित श्रेणियों का नियंत्रण किया जाता है शिकार के जीव-जन्तु विशेषकर वे जिन्हें संरक्षण की जरूरत है (शेड्यूल II) पीड़क जन्तु जैसी कुछ श्रेणियों को (शेड्यूल IV) बिना किसी प्रतिबंध के शिकार किया जा सकता है। कुछ प्रजातियों को वर्मिन (Vermin) की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है जिनका बिना किसी रोकटोक के शिकार किया जा सकता है। वन्य जीवन के संरक्षक व उनके अधिकारी इस कानून का जिम्मा उठाते हैं।

सन 1982 में हुए इस कानून में एक संशोधन ने पशुधन के वैज्ञानिक संचालन के उद्देश्य से जंगली पशुओं के पकड़ने व परिवहन की अनुमति दे दी।

भारत में खतरे में पड़ी पेड़-पौधों व जन्तु की श्रेणियों के अन्तरराष्ट्रीय व्यापार के समझौता का एक भागीदार है। (CITES, 1976) इस समझौते के मुताबिक संकटापन्न श्रेणियों व उनसे निकाले गए पदार्थों का आयात-निर्यात (Convention of International Trade in Endangered Species) इस समझौते में लिखी गई शर्तों के मुताबिक होना चाहिए। भारत सरकार ने भी निम्नलिखित कुछ संकटापन्न श्रेणियों के लिये संरक्षण योजनाओं का आरंभ कर दिया है।- हंगल (1970), शेर (1972), चीता (1973), मगरमच्छ (1974), भूरा हिरन (1981) और हाथी (1991-92)।

(II) सन 1980 का वन (संरक्षण) अधिनियम (कानून)
पहले वन अधिनियम (कानून) को सन 1927 में पारित किया गया था। यह अभी तक विद्यमान कई उपनिवेशीय कानूनों में से एक है। इसको पारित करने के तीन कारण थे- वनों से संबंधित कानूनों को सुदृढ़ करना, वन्य पदार्थों का परिवहन व लकड़ी और अन्य वन्य पदार्थों पर कर लगाने से संबंधित था। इसके पश्चात, सन 1980 में वन (संरक्षण) कानून को सन 1927 के पूर्व कानून का संशोधन करने के लिये पारित किया गया। सन 1927 का कानून वनों की चार श्रेणियों जिसमें संरक्षित वन, ग्राम वन, निजी वन व आरक्षित वन सम्मिलित किए गए हैं।

राज्य को अधिकार है कि वह वन्य भूमि अथवा बेकार पड़ी भूमि को आरक्षित वन का दर्जा देकर, इन वनों से निकले पदार्थों को बेच सके। आरक्षित वनों में अनधिकृत पेड़ों का काटना, पशुओं को चराना एवं शिकार पूरी तरह से आरक्षित है व इस नियम के उल्लंघन करने पर या तो जुर्माना देना पड़ता है या जेल हो जाती है। जिन आरक्षित वनों को ग्रामीण समुदाय को दिया गया है, उन्हें ग्राम वन के नाम से जाना जाता है।

राज्य सरकारों को वनों को संरक्षित वनों का दर्जा देने को अधिकृत किया गया है और उन्हें यह अधिकार है कि इन वनों से पेड़ों का काटना, उत्खनन व वन-पदार्थों के हटाने पर रोक लगा सकें। इन संरक्षित वनों का बचाव नियमों, अनुज्ञापनों (लाइसेंस लेकर) व कानूनी मुकदमों के माध्यम से होता है। वन कानून का वन अधिकारी व उनके कर्मचारी संचालन करते हैं। भारत के वन्य जीवन में आने वाली कमी और उसमें उत्पन्न पर्यावरणीय हानि से घबराकर, केन्द्र सरकार ने सन 1986 में वन (संरक्षण) अधिनियम पारित किया था।

इस नियम के अनुसार, इन वनों की संपदा का गैर-वन्य उद्देश्यों के प्रयोग के लिये अपवर्तन, केंद्रीय सरकार की पूर्ण अनुमति द्वारा होना चाहिए। इस कानून के अधीन बना सलाहकार आयोग केंद्र को इन स्वीकृतियों पर सलाह देता है।

23.4.2 जैविक विविधता अधिनियम (कानून) 2000
भारत की जैविक संसाधनों की प्रचुरता और उससे संबंधित स्थानीय ज्ञान की एक अच्छी जानकारी उपलब्ध है। अधिवेशन के समानांतर लाभ को वितरण के उद्देश्य की प्राप्ति के किसी सहायक यंत्र का संचालन, एक बड़ी चुनौती है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये एक विस्तृत विचार-विमर्श के पश्चात जैविक विविधता पर अधिनियम तैयार किया गया। इस कानून का उद्देश्य जैविक संसाधनों की उपलब्धि नियंत्रित कराना, जिससे उनके प्रयोग से उत्पन्न लाभ का समानान्तर वितरण हो सके। जैविक विविधता विधेयक, जो कि संसद में 15 मई, सन 2000 को प्रस्तावित हुआ था उसे निरीक्षण, इत्यादि के लिये संसद की विज्ञान, तकनीकी, पर्यावरण व वनों की समिति को भेज दिया गया था।

साक्षियों व सबूतों के परीक्षण के पश्चात, इसे स्थायी समिति (Standing Committee) ने इस विधेयक को कुछ संशोधनों के साथ पारित कर दिया था। इस आयोग द्वारा दिए गए सुझावों पर आधारित सरकारी प्रस्ताव को मंत्रलय (केबिनेट) ने स्वीकृति दी। जैविक विविधता विधेयक 2002 को लोकसभा ने सन 2 दिसम्बर 2002 को और राज्यसभा ने 11 दिसम्बर सन 2002 को पारित किया था।

जैवविविधता कानून की मुख्य विशेषताएँ
इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारत की प्रचुर जैवविविधता का संरक्षण व विदेशी व्यक्तियों व संगठनों द्वारा हमारी जानकारी का बिना अनुमति के प्रयोग को रोकना है। यह नीति जैविक संपदा की लूट को रोकने के लिये भी बनी है। यह कानून राष्ट्रीय जैवविविधता अधिकार बोर्ड (National Biodiversity Authority, NBA) राज्य जैवविविधता बोर्डों (State Biodiversity Bonds, SBBs) और जैवविविधता प्रबंधन कमेटियों (Biodiversity Management Committees, BMC) के स्थानीय आयोग में स्थापित करना है। जैविक संसाधनों व संबंधित ज्ञान के प्रयोग के निर्णयों में एन.बी.ए. और एस.बी.बी का बी.एम.सी. से सलाह करना आवश्यक है। बी.एम.सी. की भूमिका जैविक विविधता के आंकलन, संरक्षण व सम्पोषित प्रयोग करवाना है।

सब विदेशी नागरिकों व संगठनों के लिये यह अनिवार्य है कि जैविक संसाधनों के प्रयोग के लिये उन्हें एन. बी. ए. की पूर्व अनुमति लेनी पड़ेगी। भारतीय व्यक्तियों/संगठनों को भी यदि विदेशी व्यक्तियों या संगठनों के साथ या तो कोई अनुसंधान करता है अथवा कोई जैविक संसाधनों का आदान-प्रदान करता है, तो उन्हें एन.बी.ए. की अनुमति लेनी पडे़गी।

सहभागी अनुसंधान योजनाओं व ज्ञान और साधनों के आदान-प्रदान आमतौर से उस स्थिति में कर मुक्त होते हैं, जब उनकी कार्यशैली केंद्रीय सरकार के निर्देशों के अनुरूप हो या जब वे संरक्षण, सम्पोषित प्रयोग व लाभ के सही वितरण जैसे अच्छे उद्देश्य रखते हों। परन्तु भारतीय मूल के नागरिकों व स्थानीय व्यक्तियों की, इनमें वैद्य और हकीम भी शामिल हैं, भारत के अंदर जैविक साधनों के प्रयोग की पूरी स्वतंत्रता है- विशेषकर जब वह औषधीय व अनुसंधान के उद्देश्यों के लिये प्रयोग हो।

स्वीकृति देते समय, एन.बी.ए. उन शर्तों को सामने रखेगी जो कि लाभों का सही वितरण कर सके। भारत के अंदर या बाहर, किसी भी रूप में आई.पी.आर. (Intellectual Property Rights, बौद्धिक सम्पत्ति का अधिकार) के आवेदन अथवा किसी जैविक स्रोत पर आधारित नवीन यंत्र को प्राप्त करने के लिये, एन.बी.ए. की पूर्व अनुमति लेना आवश्यक है। पारंपरिक ज्ञान के बचाव के लिये इस कानून में एक प्रावधान है।

एन.बी.ए. द्वारा स्वीकृतियों के परिणामस्वरूप आर्थिक मुनाफे, फीस, इत्यादि को राष्ट्रीय जैवविविधता कोष (National Biodiversity Fund, NBF) में जमा किया जाता है, जहाँ से वह स्थानीय सरकार से सलाह करके उन क्षेत्रों के संरक्षण और विकास के लिये प्रयोग किया जाता है, जहाँ से यह संपदा खोजी गई थी।

स्थानीय सरकारों के राज्य सरकारों के गठबंधन के अंतर्गत, जैवविविधता के दृष्टिकोण से, राष्ट्रीय परंपरा स्थलों (National Heritage Sites) के अधिसूचना की पहचान की जाती है। इसके अलावा अन्य पदार्थों के अधिसूचना की भी व्यवस्था है, तथा कुछ क्षेत्रों में कर, इत्यादि की माफी भी है। इसका उद्देश्य सामान्यतया व्यापारिक पदार्थों को कर मुक्त करना है, ताकि वे व्यापार-प्रणाली में रुकावट न सिद्ध हो।

यह विधेयक केंद्रीय और राज्य बोर्डों और स्थानीय कमेटियों की तीन स्तर की व्यवस्था के माध्यम से न केवल जैविक संपदा की लूट को रोकने में सहायक है, बल्कि वह स्थानीय किसानों और जैविक विविधता का भी संरक्षण करता है। ये पौधों एवं पशुओं की जनन संसाधनों तक पहुँच को नियंत्रित करते हैं और लाभों का सही वितरण करते हैं। विदेशियों द्वारा पहुँच के सब मामले प्रस्तावित राष्ट्रीय जैविक विविधता अधिकार समिति द्वारा संबोधित होंगे।

भारत की किसी भी पारंपरिक जानकारी अथवा जैविक साधन पर आधारित नई रचना के बौद्धिक संपत्ति अधिकार को प्राप्त करने के लिये इस आयोग की आवश्यकता होगी। यह आयोग अन्य देशों में ऐसे अधिकार प्रदान करने का विरोध करेगा। एन.बी.ए. एक नागरिक अदालत की भूमिका निभायेगा। इसके अतिरिक्त केन्द्र उस स्थिति में राज्यों को निर्देश जारी करेगा, जहाँ उसे महसूस होता है कि प्राकृतिक रूप से सम्पन्न किसी क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा उपयोग के कारण खतरा उत्पन्न हो गया है।

पाठगत प्रश्न 23.4
1. किस देश की सन 1984 से वन्य नीति है?
2. पहला वन अधिनियम (कानून) किस वर्ष में पारित हुआ था?
3. निम्नलिखित का विस्तार बताइएः एन.बी.ए., एस. बी. बी., बी. एम. सी, और आई. पी. आर.।
4. उस संगठन का नाम लिखिए जिसकी पूर्व अनुमति उन विदेशियों के लिये आवश्यक है जो कि जैविक संसाधनों उससे जुड़े ज्ञान को पाना चाहते हैं।

23.5 अन्तरराष्ट्रीय कानून (INTERNATIONAL LEGISLATIONS)
फिलहाल किसी भी अन्तरराष्ट्रीय आयोग को यह अधिकार नहीं है कि वह राष्ट्रीय आयोगों द्वारा पारित नियमों के तरह नियम बना सके और न ही वैश्विक स्तर पर साधनों के नियंत्रण का अधिकार किसी अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी को प्राप्त हो। इसके परिणामस्वरूप, अन्तरराष्ट्रीय कानून-प्रणाली को सब समूहों की सहमति पर निर्भर होना पड़ता है। बहुद्देशीय स्तर के कुछ मुद्दों का संबोधन उन नीतियों, समझौतों व संधियों का मिला-जुला कार्य है जिन्हें हम आम तौर से अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण संबंधी कानून के नाम से जानते हैं।

अधिकतर अन्तरराष्ट्रीय पैमाने के कानून और नियम वे अन्तरराष्ट्रीय समझौते हैं जिनका सभी स्वेच्छा से पालन करते हैं। यह सहमति प्रायः अन्तरराष्ट्रीय समझौतों अथवा संधियों के माध्यम से पारित हुई हैं। जिन देशों ने इन समझौतों को मानने की सहमति दे दी है, उन्हें पार्टी के नाम से बुलाया जाता है। यह समझौता एक ढाँचे को प्रदान करता है जिसका आदर न केवल हर एक पार्टी को करना पड़ेगा, बल्कि हर पार्टी का यह कर्तव्य है कि वह खुद की राष्ट्रीय कानून-प्रणाली का निर्माण करके इस समझौते को अपने राष्ट्रीय स्तर पर लागू करें।

इन समझौतों का सहयोग देने के लिये, कुछ समय के प्रोटोकॉल भी निर्मित करने पड़ते हैं। ‘प्रोटोकॉल’ (Protocol) एक ऐसी अन्तरराष्ट्रीय सहमति है जो खुद अपने बल पर तो खड़ी होती है, परन्तु इसका मौजूदा समझौते के साथ गहरा संबंध भी है। इसका अर्थ यह हुआ कि जलवायु का प्रोटोकॉल जलवायु समझौते से संबंधित सिद्धांतों व मुद्दों में भागीदार है। प्रोटोकॉल समझौते में दी गई जानकारी पर नई आगे की नई-नई बातों को विकसित करता है। यह समझौते में दी गई जानकारी से अधिक सशक्त व काफी विस्तृत होती है।

23.5.1 आर्द्र भूमि समझौता (रामसर समझौता) (Wetland Conservation or Ramsar Convention)
यह एक अन्तरराष्ट्रीय समझौता सन 1975 में पारित हुआ था। यह समझौता आर्द्र भूमि के संरक्षण व सदुपयोग के लिये अन्तरराष्ट्रीय सहयोग का ढांचा प्रदान करता है। संयुक्त राष्ट्र की शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) इस समझौते की निवेशक की भूमिका में है तथा इसका मुख्य कार्यालय (रामसर ब्यूरो), ग्लाण्ड, स्विटजरलैंड में स्थित है। सन 1981 में भारत ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे।

इस समझौते के उद्देश्य जलीय भूमि की हानि को रोकना व पेड़-पौधों, पशुओं और उनसे संबंधित पर्यावरणीय प्रक्रियाओं का संरक्षण है। पार्टियों के कर्तव्यों में निम्नलिखित शामिल हैं:

1. एक या एक से अधिक आर्द्रभूमि वाले स्थलों को अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व के आर्द्रभूमि के स्थलों की सूची में सम्मिलित करना (उदाहरण: भारत के छह आर्द्रभूमि स्थल)।

2. आर्द्रभूमि वाले स्थलों जिनमें मैंग्रोव शामिल हैं के बुद्धिमता से किए प्रयोग को प्रोत्साहित करना।

3. प्राकृतिक संरक्षणों की स्थापना द्वारा आर्द्र क्षेत्रों के संरक्षण को प्रोत्साहन देना।

4. वाटर फाउल (Water foul) के लाभ के लिये जलीय क्षेत्रों का संचालन समझौते में उसके सूचना के अतिरिक्त।

5. जलीय क्षेत्रों के विषय में अनुसंधान व संचालन के प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करना।

6. समझौते के लागूकरण के लिये अन्य पार्टियों से सलाह-मशविरा विशेषकर दो या दो से अधिक देशों के बीच पड़ती आर्द्र भूमि, आपस में वितरित जल-व्यवस्थाएँ, प्रजातियों का भाग और आर्द्र क्षेत्रों की योजनाओं के विकास के संदर्भ में।

23.5.2 मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol)
सन 1977 से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरणीय कार्यक्रम (United Nations Environment Programme, यू.एन.ई.पी) को संबोधित कर रहा है। यू.एन.ई.पी. के तत्वाधान में विश्वभर के विभिन्न देशों ने वियना में सन 1985 में हुए ओजोन संरक्षण से संबंधित अधिवेशन में भाग लिया। इस अधिवेशन के माध्यम से, दुनिया के विभिन्न देशों ने खुद को ओजोन स्तर के बचाव के लिये बहस की। वे इस सहमति पर भी पहुँचे कि जलवायु की प्रक्रियाओं को समझने वाली वैज्ञानिक अनुसंधान में भी एक दूसरे का सहयोग करेंगे। यह अधिवेशन भविष्य के प्रोटोकॉलों व संशोधन की विशिष्ट प्रणालियों और आपसी मतभेद को सुलझाने के तरीकों को भी प्रदान करता है।

ओजोन पर्त के संरक्षण पर अधिवेशन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये सन 1987 में विभिन्न देशों ने पदार्थों के मॉट्रियल प्रोटोकॉल पर सहमति की। इसमें, तब से अब तक पाँच बार संशोधन हो चुका है। लंदन (1990), कोपनहेगन (1992), वियना (1995), मॉट्रियल (1997) और बीजिंग (1999) जैसे शहरों में यह प्रोटोकॉल बारी-बारी से पारित हुआ था तथा इसमें पाँच संशोधन करके इनको सशक्त किया गया था। प्रोटोकॉल का उद्देश्य मानव निर्मित उन पदार्थों के प्रयोग में कमी लाना था जिनसे ओजोन पर्त को हानि पहुँचाने वाले विकिरण निकलते हैं, को कम करना एवं समाप्त करना था। वियना बैठक एवं मॉट्रियल प्रोटोकॉल को सबसे अधिक प्रभावी मुहिम माना जाता है एवं संभवतः भविष्य में ओजोन के अपक्षय करने वाले रसायनों को वायुमंडल को विकरित होने से बचाएँ।

मॉट्रियल प्रोटोकॉल तीन प्रकार की बातों के प्रोटोकॉल के नियंत्रक के रूप में, आर्थिक प्रोत्साहन देने के काम आता है। (1) मांगों के क्षेत्र में प्रवेश (2) गैर-पार्टियों के साथ व्यापार पर नियंत्रण और (3) अनुसंधान व तकनीकों के स्थानान्तरण को प्रोत्साहित करता है। अतः वह विकासशील देशों का देश भर में स्थित 507 प्रबोधन केंद्रों (Monitoring Stations) के सहभागी होने के लिये प्रोत्साहित करता है। राष्ट्रीय परिवेशी वायु स्तर के मॉनिटर कार्यक्रम के अधीन, 90 शहरों/कस्बों में स्थित 290 केंद्र सी-पी-सी- वी- (केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण समिति) द्वारा मॉनीटर किये जा रहे हैं।

23.5.3 जलवायु अधिवेशन (Climate convention)
वैश्विक ऊष्मण (ग्रीनहाउस प्रभाव) पृथ्वी के भविष्य को शायद सबसे बड़ी चुनौती हैं। यह मुख्यतः बिजली, ऊष्मा व यातायात के लिये, जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल एवं गैस) के जलाने के माध्यम से औद्योगिक देशों द्वारा निष्कासित गैसों (कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, सी.एफ.सी., जल वाष्प) से है। क्योंकि पूर्व काल में लगातार हवा में इन गैसों के छोड़े जाने का कारण तथा अब तक हवा में गैस छोड़े जाने के कारण, जलवायु परिवर्तन को रोकना अब कुछ कठिन हो गया है। फिर भी, अगर हम अभी भी हवा में इन गैसों के उत्सर्जन को कम कर सकें, तब भी हम इसके सबसे अधिक दुष्प्रभावों से बच सकते हैं।

आजकल, जलवायु परिवर्तन से संबंधित जोखिमों को समझने का प्रयास किया जा रहा है तथा हर कदम पर कोई न कोई कार्य इन खतरों को कम करने की दिशा में हो रहे हैं। ग्रीन गैस के उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य में, कई देशों ने राष्ट्रीय योजनाओं को तैयार किया है व इस दिशा में नीतियों व कार्यक्रमों को बढ़ावा दे रहे हैं। वैश्विक स्तर पर, दुनिया भर के देशों ने संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन अधिवेशन के ढाँचे (UN Framework Convention on Climate Change, यू.एन.एफ.सी.सी.सी) के अन्तर्गत जलवायु परिवर्तन पर रोक लगाने के उद्देश्य से, अन्तरराष्ट्रीय कार्यों की तरफ कार्य करना आरम्भ किया है।

जून 1992 में रियो डी जेनेरियो में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण व विकास अधिवेशन की महत्त्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय संधि की पहल को जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन (UNFCCC) के नाम से जाना जाता है। यू-एन.एफ.सी.सी.सी. भागीदार देशों को इस बात के लिये बाध्य करता है कि वे मानव-जाति (अर्थात मानवजनित) द्वारा छोड़ी गई, ग्रीनहाउस प्रदूषकों को ऐसे स्तर तक संचालित रख सकें, जो कि पर्यावरण व्यवस्था के साथ ज्यादा हस्तक्षेप न करे। इस स्तर को उस समय तक प्राप्त करना होगा जिसमें पर्यावरण व्यवस्था जलवायु परिवर्तन के साथ सामान्य तालमेल स्थापित कर पाएँ और इस बात पर ध्यान दे सकें कि खाद्य पदार्थों का निर्यात जोखिम में न पड़ जाए व सम्पोषित ढंग से आर्थिक विकास हो पाए।

क्योटो, जापान में दिसम्बर 1997 में ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ पर सहमति हुई थी। यह जलवायु परिवर्तन के अधिवेशन के उद्देश्यों के अनुरूप था।

यह प्रोटोकॉल सभी पार्टियों को जिनमें विकसित देश और विकासशील देश दोनों शामिल हैं- सम्बोधित करता है व राष्ट्रीय और क्षेत्रीय कार्यक्रमों के निर्माण के लिये निम्नलिखित चरणों को निर्देशित करता है क्रियाओं के आंकड़ों, मॉडलों, ग्रीनहाउस गैस प्रदूषकों की नई राष्ट्रीय स्थापनाओं व जो पदार्थ इन गैसों को वायु से अलग करते हैं- इन स्थानीय प्रदूषक कारकों की बेहतरी करता है। सब पार्टियाँ जलवायु परिवर्तन के नियमों के निर्माण, प्रकाशन, इत्यादि के प्रति समर्पित है। पर्यावरणीय तकनीकों और जलवायु व्यवस्था की वैज्ञानिक व तकनीक अनुसंधान के प्रति स्थानान्तरण को प्रोत्साहित करते हैं।

कार्बन कर (Carbon Tax)

जीवाश्म ईंधन से निष्कासित पदार्थों के निकलने से ग्रीन हाउस गैस पर अब कई देश कर (टैक्स) लगाते हैं। ये कई उद्योगों को केवल अधिक प्रभावशाली बनाते हैं बल्कि कार्बन डाइऑक्साइड को एकत्र करने की तकनीकों को भी विकसित करते हैं।

कार्बन पृथ्क्करण (Carbon Sequestzation)

जीवाश्म ईंधन को जलाने से गाड़ियाँ, ऊर्जा संयंत्रों (बिजली घरों) और उद्योग अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं। इस प्रदूषण को कम करने के लिये, वनारोपण तथा कृषि प्रणाली में बेहतरी के माध्यम से वायु से CO2का पृथक्करण किया जा सकता है।


23.5.4 जैविक विविधता अधिवेशन (Biological Diversity Convention)
5 जून, सन 1992 को संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण एवं विकास पर हुए सम्मेलन (या पृथ्वी सम्मेलन) जो रियो डी जेनेरियो में हुआ था, के दौरान जैविक विविधता पर आधारित सम्मेलन को भी पारित किया गया था। सी.बी.डी. अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर जैविक विविधता के संरक्षण और राष्ट्रीय पैमाने पर उसके लागूकरण को उजागर करता है। 150 से अधिक देशों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और यह 29 दिसम्बर, सन 1993 को लागू हो गया। मई 1998 तक कुल मिलाकर 174 देशों ने इस समझौते की स्वीकृति दे दी थी। जिससे यह समझौता इस समय का सबसे अधिक स्वीकृत समझौता बन गया। भारत ने सन 1994 में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए।

सी.बी.डी. राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय-प्रक्रिया पर जोर डालता है। इसके 42 अनुच्छेद हैं।

पाठगत प्रश्न 23.5
1. अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरणीय कानूनों को परिभाषित कीजिए।
2. प्रोटोकॉल क्या है?
3. संक्षिप्त रूप में लिखे इन वर्णों का विस्तार रूप दीजिए। (1) सी.एफ.सी. (2) सी.बी.डी.
4. वैश्विक ऊष्मण के लिये कौन-सी गैसें जिम्मेदार हैं?

क्रियाकलाप
क्रियाकलाप - 1

पाठ के इस भाग में केवल केंद्रीय सरकार के कानूनों का ही विवरण दिया गया है। अपने राज्य व नगरनिगम क्षेत्र के पर्यावरणीय नियमों की सूची तैयार कीजिए।

क्रियाकलाप-2
अपने क्षेत्र या आस-पास के क्षेत्र की पर्यावरणीय गतिविधियों पर एक लेख लिखिए। उसकी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों को उजागर कीजिए।

आपने क्या सीखा
1. वे सभी राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय अधिनियम, जिनको पर्यावरणीय अवक्रमण को कम करने के लिये बनाया गया है।

2. भारत उन गिने चुने देशों में से एक है जिसने अपने संविधान में पर्यावरण के संरक्षण और सुधार करने के लिये विशिष्ट जगह बनाई है। पर्यावरण को विनाश से बचाने के उद्देश्य से केंद्र और राज्य सरकारों ने इस प्रावधान का प्रयोग करके कई अधिनियमों को पारित किया है।

3. वैश्विक पर्यावरणीय चुनौतियों को लागू करने में संयुक्त राष्ट्र का बहुत बड़ा योगदान है। संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम को लागू करने के उद्देश्य से, वैश्विक पैमाने पर विशेष अधिवेशनों प्रोटोकॉलों व बहुद्देशीय संधियों द्वारा पर्यावरणीय संरक्षण को उपलब्ध करने की दिशा में कदम उठाए गए हैं।

4. संतोषजनक अधिनियमों और प्रशासनिक ढाँचे के बावजूद, इन अधिनियमों का लागूकरण निम्नलिखित कारणों की वजह से मुश्किल है- प्रशासनिक ढाँचा, विशेषज्ञ जानकारी का अभाव, धन कोष की कमी और लागूकरण अधिकारियों की ओर से सही, गंभीर रवैये की कमी इत्यादि।

5. सन 1974 में पारित जल विधेयक का मुख्य उद्देश्य जल प्रदूषण के नियंत्रण, उपचार और जल की स्वच्छता व पेयता को कायम रखना है।

6. सन 1981 के वायु विधेयक के मुख्य उद्देश्य हैं- वायु के स्तर में बढ़ोतरी और देश में वायु प्रदूषण का सुधार, नियंत्रण और कमी।

7. पर्यावरणीय विधेयकों के माध्यम से केन्द्र सरकार को पर्यावरण के संरक्षण, पर्यावरण के स्तर में बढ़ोतरी व प्रदूषण के नियंत्रण जैसे कार्यों के लिये पूरा अधिकार प्राप्त होता है।

8. अधिकांश अन्तरराष्ट्रीय विधेयक वे अन्तरराष्ट्रीय स्तर की सहमति हैं, जिनका विभिन्न देश स्वेच्छा से पालन करते हैं।

9. एक ‘प्रोटोकॉल’ वह अन्तरराष्ट्रीय सहमति है जो खुद पर निर्भर होने के साथ-साथ किसी वर्तमान समझौते अथवा संधि से भी संबंधित हैं।

10. आर्द्र भूमि क्षेत्रों के अधिवेशन का उद्देश्य आर्द्र भूमि की हानि को रोकना है तथा पेड़- पौधों, पशुओं और पर्यावरणीय प्रक्रियाओं का संरक्षण करना है।

11. मॉट्रियल प्रोटोकॉल का उद्देश्य मानव द्वारा निर्मित ओजोन की पर्त को क्षीर्ण करने वाले पदार्थों की मात्रा को कम करना अथवा बिल्कुल समाप्त कर देना है।

पाठांत प्रश्न
1. पर्यावरणीय विधेयक क्या है और वे पर्यावरण के संरक्षण व बेहतरी के लिये कैसे महत्त्वपूर्ण है?
2. राष्ट्रीय विधेयक और अन्तरराष्ट्रीय विधेयक क्या है? वे एक दूसरे से कैसे भिन्न हैं?
3. संक्षिप्त में कुछ प्रदूषण संबंधी कार्यों का उल्लेख कीजिए।
4. रामसार अधिवेशन और मॉट्रियल प्रोटोकॉल क्या है? संक्षिप्त में विवरण दीजिए।
5. सन 1986 की पर्यावरण संरक्षण विधेयक का वर्णन कीजिए।
6. जैविक विविधता विधेयक का मुख्य लक्ष्य क्या है और उसकी मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
7. जलवायु अधिवेशन के मुख्य उद्देश्य क्या हैं?
8. निम्नलिखित पर संक्षिप्त नोट लिखिए- (1) जल विधेयक (2) वायु विधेयक (3) वन्य जीवन विधेयक (4) वन विधेयक

पाठगत प्रश्नों के उत्तर
23.1

1. पर्यावरण के दुरुपयोग और इसे अवक्रमित होने से बचाने के लिये कानून की आवश्यकता है।
2. पर्यावरणीय समस्या का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि उनके प्रभाव स्रोत क्षेत्र तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि दूर-दूर तक फैल जाते हैं।

23.2
1. मानवीय पर्यावरण
2. स्टॉकहॉम
3. 1986
4. सी.एन.जी. (CNG)

23.3
(1) ग (2) घ (3) ख (4) क

23.4
1. भारत
2. 1927
3. राष्ट्रीय जैवविविधता की अधिकार समिति, राज्य जैवविविधता बोर्ड, जैवविविधता संचालन आयोग, बौद्धिक संपत्ति हक (विधेयक)
4. राष्ट्रीय जैवविविधता आयोग (प्राधिकरण)

23.5
1. कुछ बहुद्देशीय स्तर के कुछ मुद्दों का नीतियों, सहमतियों व संधियों द्वारा संबोधन जिन्हें हम ‘अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरणीय विधेयक’ के नाम से जानते हैं।
2. ‘प्रोटोकॉल’ एक अन्तरराष्ट्रीय सहमति है जो न केवल स्वयं भू है वरन किसी वर्तमान समझौते से भी संबंधित है।
3. क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.), जैविक विविधता संबंधी समझौता
4. कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, सी.एफ.सी. तथा जलवाष्प।

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