पृथक उत्तराखण्ड का आधार

कश्मीर तथा हिमाचल अपने हैंडीक्राफ्ट के कारण प्रसिद्धि पा रहे हैं, जबकि उत्तराखण्ड के कुटीर उद्योग धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में जा रहे हैं, दिखावे के लिये थोड़ा बहुत हो रहा है, लेकिन जब तक इनका लाभ आम आदमी को नहीं मिलता, इनका होना व्यर्थ है, यह आशा करना निर्मूल नहीं कि पृथक राज्य बन जाने के बाद इन सब मुद्दों पर गम्भीरता से सोचा जाएगा तथा अमल किया जाएगा। पर्वतीय राज्य की माँग जब-जब भी उठी है एक आशंका भी सर उठाती रही है कि क्या इस तरह का कोई राज्य आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा।

विचारने पर ज्ञात होता है कि पर्वतीय राज्य के बारे में इस तरह की शंका करना निर्मूल है, पहाड़ों में साधनों का अभाव कतई नहीं है, दिक्कत यह है कि प्रदेश का, बल्कि देश का अधिकांश भाग मैदानी है और योजनाएँ बनाते समय इस पर अधिक गौर नहीं किया जाता कि पहाड़ों के लिये विशिष्ट रूप से सोचे जाने की आवश्यकता है।

वनाधारित उद्योग पर्वतीय अर्थव्यवस्था की धुरी हैं, इस क्षेत्र में अभी व्यापक शोध कार्य की आवश्यकता है, वन-उपज कई रूपों में उपयोगी तथा आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो सकते हैं, अभी ही यदि वन-सम्पदा का कच्चे माल के रूप में निर्यात बन्द किया जा सके तो पर्वतीय क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ सकते हैं, वनों के साथ-साथ औषधियाँ तथा अन्य खनिज हैं, जो कच्चे माल के रूप में बाहर जाते हैं, ये सभी प्राकृतिक साधन प्रस्तावित राज्य के लिये सुदृढ़ आर्थिक आधार तैयार करते हैं।

पर्यटन एक और विषय है, जिसकी सम्भावनाओं पर कभी गम्भीरता से नहीं सोचा गया। मसूरी और नैनीताल जैसे दो-एक पर्यटक स्थल विकसित करने से उन सुदूर क्षेत्रों को क्या लाभ मिल सकेगा जो प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से समृद्ध होने पर अभी सुविधाविहीन और दुर्गम हैं? पर्यटन का क्षेत्र व्यापक करने से इसका लाभ उत्तराखण्ड के कोने-कोने में फैल सकेगा।

स्वतंत्रता के तीस वर्ष पश्चात् भी, अभी भी पहाड़ों के हजारों गाँवों में पेयजल ही उपलब्ध नहीं है, सिंचाई की सुविधा तो दूर की बात है, अतः उर्वरा भूमि होने के बावजूद पहाड़ों में कृषि की अवस्था निराशाजनक है, छोटे पैमाने पर अधिकांश किसान फल लगाने के लिये अनिच्छुक हैं, इसके बावजूद करोड़ों रुपए के फल होते हैं और विपणन की उपयुक्त व्यवस्था के अभाव में सड़ते हैं, विपणन की समस्या सुलझ जाने पर मशरूम का उत्पादन भी पर्याप्त लाभकारी हो सकता है।

पहाड़ों की तीव्र प्रवाहिनी नदियाँ तथा जलाशय कई प्रकार से महत्त्वपूर्ण हैं। मत्स्य विभाग ने बहुत कम ध्यान इस ओर दिया है, अन्यथा इन नदियों में मत्स्य पालन से काफी धन अर्जित किया जा सकता है, इसके अतिरिक्त यदि छोटे स्तर पर विद्युत ऊर्जा के उत्पादन पर जोर दिया जाये तो न केवल पहाड़ों के लिये, बल्कि आसपास के कई प्रदेशों के लिये पर्याप्त विद्युत ऊर्जा का उत्पादन इन नदियों से हो सकता है।

कश्मीर तथा हिमाचल अपने हैंडीक्राफ्ट के कारण प्रसिद्धि पा रहे हैं, जबकि उत्तराखण्ड के कुटीर उद्योग धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में जा रहे हैं, दिखावे के लिये थोड़ा बहुत हो रहा है, लेकिन जब तक इनका लाभ आम आदमी को नहीं मिलता, इनका होना व्यर्थ है, यह आशा करना निर्मूल नहीं कि पृथक राज्य बन जाने के बाद इन सब मुद्दों पर गम्भीरता से सोचा जाएगा तथा अमल किया जाएगा।

अभी तो आर्थिक मामलों के कुछ जानकारों का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्र से राजस्व प्राप्ति की तुलना में निवेश कम हो रहा है।

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