पृथ्वी की प्यास बुझाने को पुरुषार्थ जरूरी है

16 Jul 2019
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पृथ्वी की प्यास बुझाने को पुरुषार्थ जरूरी है।
पृथ्वी की प्यास बुझाने को पुरुषार्थ जरूरी है।

तमाम विलासिताओं के लिए मनुष्य ने प्रकृति का शोषण किया है और यही कारण है कि प्रकृति हमारा साथ छोड़ रही है। प्रकृति में अब ज्यादा ऐसा कुछ भी नहीं बचा, जिसे हम आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में दे सकते हैं।

पृथ्वी को हमेशा से भारतीय संस्कृति में पूजनीय माना गया है। गायत्री मंत्र जिसे मंत्रों में सर्वोच्च दर्जा प्राप्त है -  ‘‘ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’’ का सीधा मतलब सूर्य व पृथ्वी की स्तुति के लाभों से ही है। शास्त्रों में उल्लेखित व सनातन धर्म में - ‘समुद्रवसने देवी पर्वतस्तनमण्डले, विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम् पादस्पर्श क्षमस्वे‘ में कहा गया है कि पृथ्वी ने अपने विशाल समुद्र में पर्वतों को संभाला है, मैं आपको प्रणाम करता हूं और आप पर पैर रखने से पहले क्षमा चाहता हूं। किसी भी प्रभु की अर्चना में पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश का ही स्मरण किया जाता है और बाद में अन्य ईष्ट व कुल देवी-देवताओं का। इसका सरल-सा कारण है कि जीवन साक्षात देवतुल्य प्रकृति के उत्पादों से जुड़ा है, जबकि अन्य आवश्यकताओं के लिए हम प्रभु का नमन करते हैं।

स्वार्थ का भुगतान

पृथ्वी प्रकृति के उत्पादों का ही दूसरा नाम है, मतलब पृथ्वी में उसका आवरण। पृथ्वी का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जीवन की उत्पत्ति हवा, पानी, मिट्टी के कारण ही संभव हुई है। इसकी अन्य आवश्यकताओं का बोझ भी इन्हीं पर पड़ा है। अपने जीवन को प्रभु की कृपा मान लें या प्रकृति की, बात एक ही है। पृथ्वी की पहली शिक्षा इसको समझने की ही है, जिसको समझने में हम पूरी तरह चूक चुके हैं। शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी 84 लाख योनियों का स्थान भी है। मतलब इसमें पेड़, पौधों से लेकर वन्य जीव व हर तरह के जीव जुड़े हैं, इसलिए पृथ्वी को मां का दर्जा प्राप्त है। इसकी कृपा में इतने जीव पलते हैं, जिसमें एक मनुष्य भी है। यह सतयुग, द्वापर युग की ही पीढ़ियां थीं जिन्होंने पृथ्वी के महत्व को समझते हुए शास्त्रों में पहले इसके महत्व और नमन की व्यवस्था रखी, ताकि जीवन की मूल आवश्यकताओं पर संकट न खड़ा हो। द्वापर युग के आते-आते मनुष्य का आधिपत्य बढ़ा और विपाशाएं दम तोड़ने लगीं, जिसका मूल्य प्रकृति को ही देना पड़ा। कलयुग के शुरुआती दौर से ही प्रकृति के प्रति हमारी श्रद्धा घटने लगी और पूरी सोच स्वयं पर केंद्रित हो गई। आवश्यकता से उठकर विलासिता ने बड़ा स्थान बना लिया। पृथ्वी पर मनुष्य ही एक ऐसा जीव पैदा हुआ जिसने प्रकृति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया और वही था जिसे प्रकृति और प्रभु ने सबसे बेहतर बुद्धि और कौशल प्रदान किया। इसने इन दोनों का ही उपयोग अपने हित में साधा। दुनिया के अन्य जीव अन्यथा अपने परिवेश को बेहतर रखने के लिए श्रम करते हैं। पक्षी हो या फिर अन्य जीव-जंतु इन सब ने अपनी तमाम क्रियाओं से प्रकृति को बांधा और बनाया है। यही कारण है कि प्रकृति हमारा साथ छोड़ रही है। प्रकृति में अब ज्यादा ऐसा कुछ भी नहीं बचा जिसे हम आने वाली पीढ़ी को विरासत के रूप में दे सकते है

भरपाई है प्रमुख सिद्धांत

असल में पृथ्वी पारिस्थितिकी तंत्र में जाती है, जिसमें सब की भूमिका है। वह चाहे कीड़े मकौड़े हों या वनों के जीव, पेड,़ पौधे, हवा, पानी सब एक सामंजस्य बनाकर पृथ्वी में रहते हैं। इनमें मनुष्य ही ऐसे जीव के रूप में प्रकट हुआ जिसने अपने हित में सब कुछ नियंत्रण करने की सोची। यह कहीं बेहतर जीवनशैली का हिस्सा भी माना जा सकता है कि हम अपने बुद्धि व कौशल से जीवन की आवश्यकता को जुटा पाएं, परंतु इन सबकी एक सीमा थी, जिसे प्रकृति ने तय कर रखा था। इनमें संख्या व गुणवत्ता का भी बराबर महत्व था और नियम यह था जो भोगे, उसे जोड़े भी वही। प्रकृति का सिद्धांत भरपाई है। अब इससे जो कुछ भी लें उसकी वापस भी तय करें और आज यही जुटाने व जोड़ने में हम मनुष्य असफल रहे हैं। आज पृथ्वी का व्यवहार हमारी इन्हीं चूक और नासमझी का परिणाम है, जिसे बिगड़ते पर्यावरण के रूप में देखा जा सकता है।

पानी लौटाने की पहल

पानी के बढ़ते अभाव में जब तालाब, नदियां, कुंए आदि सूखने की कगार पर पहुंच चुके हैं, तो इन्हें संरक्षित करने का दायित्व केवल सरकार ही नहीं बल्कि सभी का बनता है। उत्तराखंड के 4 जिले और जम्मू-कश्मीर के रियासी जिले के स्थानीय समुदाय ने खुद गदेरे और नदी में वर्षा के पानी को जोड़ने की रवायत शुरू की है। वर्षा को रोकने की उनकी पहल नायाब है। जगह-जगह जलछिद्र बनाकर पानी को पृथ्वी से सींचने के काम की शुरुआत हुई। इस पहल से करोड़ों लीटर बरसा पानी घटते जलस्तर को शीशे का और पृथ्वी के गर्भ में पानी की वापसी होगी, जो पृथ्वी से लिया उसे लौटाने की अद्भुत पहल की शुरुआत कुछ समुदायों ने की है।

 

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