पुनर्वास का सच : शर्म उनको मगर नहीं आती

26 Aug 2017
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सरदार सरोवर और दूसरे बड़े बाँधों की तरह विस्थापित का दुर्भाग्य है कि पुनर्वास नीति पर सर्वोच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय और नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण के आदेशों के बावजूद उनका पालन नहीं हो रहा है। आज भी नर्मदा बाँध बसाहट स्थलों की हालत दयनीय है, वहाँ सड़क, पानी, बिजली जैसी मूलभूत सुविधाएँ नहीं है। नर्मदा घाटी के हजारों लोग पुनर्वास से वंचित हैं। सवाल उठता है कि सवा चार लाख हेक्टेयर से कुछ ज्यादा में सिंचाई और 105 मेगावाट बिजली के लिये विस्थापन और 26 हजार 797 हेक्टेयर जमीन और घने जंगल डुबोने वाली मध्यप्रदेश सरकार ने पुनर्वास के नाम पर आखिर क्या किया? पुनर्वास स्थलों की हकीकत से रू-ब-रू कराता प्रस्तुत आलेख।- का.सं.

ये कहानी कभी पुरानी क्यों नहीं पड़ती? हर बार वही बेशर्म झूठ सच बनकर अदालतों को क्यों भा जाते हैं और क्यों हजारों उठे हुए हाथ, हज़ारों आँखों के आँसू, जिंदा लोग-सबकुछ उन्हें क्यों नहीं दिखता। पच्चीस साल से तो ख़ुद ही देख रहा हूँ कि कैसे किसी भी बाँध के जलाशय में पानी के निश्चित स्तर पर जितना डूब क्षेत्र बताया जाता है, डूब उससे ज्यादा अपने भीतर समा लेती है। उसके बाद मुआवजे की लड़ाई लड़ते रहो, कौन सुनता है।

इसी तरह क्या मजे का मारक गणित है जो ये बताता है कि आजू-बाजू खड़े दो घरों में से एक को तो डूब क्षेत्र में माना जा रहा है और दूसरे का नहीं। एक को मुआवजा मिलेगा और दूसरे का नहीं। पुनर्वास नीति न हुई, फूट डालो और राज करो की नीति हो गई ये तो।

फिर सिंचित जमीन का मुआवजा ज्यादा है और असिंचित जमीन का मुआवजा कम। तो इंदिरा सागर बाँध की जाँच के दौरान देखा कि जिसने भूअर्जन अधिकारी को रिश्वत खिलाई, उसकी जमीन सिंचित हो गई और जिसने नहीं खिलाई, उसकी जमीन असिंचित दर्ज कर दी गई। बाद में नर्मदा आंदोलन के लगातार ऐसे मामले उघाड़ने से 40-50 भूअर्जन अधिकारी निलंबित हुए लेकिन तब तक तो वो पीढ़ियों के लिये कमा गए।

इसी तरह जबलपुर के पास बने बरगी बाँध की योजना बनाते समय सरकार ने सोचा था कि 162 गाँव और 26 हजार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन डुबोकर 105 मेगावाट बिजली बनाएँगे और साढ़े चार लाख हेक्टेयर जमीन को सीचेंगे। वर्ष 1990 से बाँध बनकर तैयार खड़ा है। इन बीते 27 वर्षों में न तो 105 मेगावाट बिजली बन पाई और न ही 24-25 हजार हेक्टेयर से ज्यादा सिंचाई हो पायी। मतलब जितनी जमीन सरकार ने एक झटके में डुबो दी, उतनी जमीन भी सरकार बरगी बाँध से सिंचित नहीं कर सकी। उल्टे भूकम्प संवेदी पट्टी पर बाँध बनाकर, इतनी बड़ी मात्रा में पानी का वजन इकट्ठा करने से न जाने गाँव-शहर के कितने लाखों बाशिंदों को मौत के मुहाने पर छोड़ दिया।

शहर में रहने वालों को आबादी के घनत्व की वजह से पानी, बिजली की कमी के संकट से जूझना पड़ता है इसलिये उन्हें हमेशा ही बाँध का विचार विकास का विचार लगता रहा है। बाँध बनाने में करोड़ों-अरबों का निवेश करने वाले कॉर्पोरेट भी मीडिया की मदद से यही माहौल बनाते हैं कि बाँध का मतलब जादुई विकास और बाँध के विरोध का मतलब पिछड़ापन, देश के विकास में अवरोध, विदेशी साजिश होने लगता है। जबलपुर शहर में रहने वालों को वादा किया गया था कि 127 मिलियन गैलन पानी प्रतिदिन जबलपुर शहर को मिला करेगा जो कि अब तक एक सूखा हुआ वादा ही है।

यही हाल हरसूद को डुबोकर किया गया। इंदिरा सागर बाँध में 91 हजार हेक्टेयर जमीन डुबाकर वादा किया गया कि इससे 1 लाख 23 हजार हेक्टेयर जमीन सिंचित होगी। इसमें से 20 हजार हेक्टेयर से ज्यादा का क्षेत्र तो पहले से ही सिंचित था। और करीब 40 हजार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन इतने बड़े पानी के जलाशय से दलदल में बदल जाने वाली थी। मतलब ये हुआ कि 91 हजार हेक्टेयर जमीन डुबोकर, 40 हजार हेक्टेयर जमीन को बर्बाद करके यानी कुल 1 लाख 31 हजार हेक्टेयर जमीन का सत्यानाश करके 1 लाख 23 हजार हेक्टेयर जमीन सिंचित की और उसमें से भी 20 हजार हेक्टेयर जमीन पहले से सिंचित थी। तमाम आयोग आये, तमाम पढ़े लिखे लोगों ने, विद्वानों ने कोशिश की ये सीधा सा गणित समझाने की लेकिन बात वही है कि जिस व्यवस्था को पहले ही सबकुछ समझा हुआ हो, और जो जानबूझकर ये सब होने दे रही हो, उसे किसी भी तथ्य के प्रति अगर आँख नहीं खोलनी तो नहीं खोलनी।

इस बार जब चिखल्दा में जारी सत्याग्रह के दौरान 4 अगस्त, 2017 को नर्मदा घाटी में जाना हुआ तो फिर वही कहानी देखने को मिली। बमुश्किल डेढ़ सौ किलोमीटर दूर इंदौर में हम अखबारों में पढ़ रहे थे कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि न्यायालय के निर्देशानुसार सारा पुनर्वास का काम 31 जुलाई 2017 के पहले पूरा हो चुका है और अब बाँध को पूरी ऊँचाई तक भर दिया जाएगा। और चिखल्दा में अनशन पर बैठी मेधा पाटकर ने कहा पुनर्वास स्थल देखे बगैर नहीं जाना। दो लोग साथ हो लिये। नजदीक का कड़माल का अस्थायी पुनर्वास स्थल देखने जा पहुँचे। जो देखा, वो देखकर वापस बेहद गुस्से में आए और मेधा जी से मिलकर वापस जाने लगे। लेकिन फिर मेधा जी ने कहा-जो देखा, वो यहाँ के लोगों को सुना दीजिए।

मैंने लोगों से कहा कि इतने सुंदर पुनर्वास स्थल हैं फिर आप सब क्यों नहीं अपने घर-द्वार छोड़कर उनमें रहने चले जाते हैं। एक परिवार के लिये दस फीट गुणा दस फीट की टीन की खोली है। उसी में पूरा संयुक्त परिवार आ जाएगा और गाय-भैंस भी। खोली के सामने शानदार सड़क है जिसमें आधा पैर कीचड़ में धँस जाए। लाईट फिटिंग अभी चल रही है। जल्दबाजी के चक्कर में एक आदमी की मौत भी हो गई। लाईट फिटिंग का क्या है, हो जाएगी, इतनी जल्दी क्या है। मुख्यमंत्री के मुताबिक तो सब काम 31 जुलाई को ही ख़त्म हो चुके हैं। ऐसी तीन-चार सौ खोलियों के लिये सबसे आखिर में दुर्गम रास्ता पार करके संडास बनाये गए हैं। बताते हैं इन टीन-टप्परों के बनाने के ठेके का भी बड़ा गणित है।

रास्ते में एक पहाड़ी इलाके पर दूर-दूर बने चार-छः झोपड़े भी दिखे जहाँ के बारे में स्थानीय पत्रकार साथी ने बताया कि मध्य प्रदेश सरकार इस उजाड़ और निर्जन स्थल को ही आदर्श पुनर्बसाहट स्थल के रूप में प्रचारित करती हैं। वहीं एक पानी की टंकी भी बनी थी जिसके नीचे जाकर खड़े होने पर उस टंकी से पानी और सरकारी मंशा की असलियत टपक रही थी।

और सबसे बड़ा अपमानजनक रवैया ये कि मेधा जैसी महिला पर जिसने अपने जीवन के आधे से ज्यादा बरस इसी नर्मदा घाटी के और इसकी गोद में रहने वाले लोगों को न्याय दिलाने की लड़ाई को दे दिये, उसके लिये साल भर तक एक किस्म से जिलाबदर का फैसला सुना दिया जाए। मेधा पर या नर्मदा आंदोलन के अन्य कार्यकर्ताओं पर, जो अपने जीवन के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, उन पर हत्या के प्रयास, अशांति फैलाने या अपहरण करने जैसे फर्जी मुकदमे लगा दिये जाएँ, अव्वल तो ये अपने आप में ही नाकाबिले यकीन है, और उस पर भी न्यायालय या सरकार सिर्फ तारीख बढ़ाने के फेर में रहें, ये तो लोकतंत्र और संविधान का सरासर अपमान है। अब बस कहने भर को शासक वर्ग संविधान का नाम लेता है, वो भी इस फिराक में है कि कब नाम लेने के कर्मकांड से भी इन्हें मुक्ति मिल जाए।

देखा जाए तो नर्मदा घाटी में आंदोलनरत हज़ारों-लाखों लोगों ने इस देश के संविधान में और अहिंसा में 32 साल के संघर्ष के बाद भी, पराजयों और जीतों के बाद भी अपना भरोसा बनाये रखा है। इस नाते इस देश के और इसके संविधान के सबसे बड़े रक्षक वही हैं जिन पर हमारी सरकार अंग्रेज सरकार की तरह झूठे मुकदमे लादकर डराना-धमकाना चाह रही है। हम पूरे देश के अमनपसंद और इंसाफ पसंद लोग उनके संघर्ष को सलाम करते हैं। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री सहित उन सभी मीडिया और नौकरशाही वाले लोगों को इन पुनर्वास स्थलों में रहने की दावत दी जानी चाहिए, जिनके मुताबिक समय सीमा (31 जुलाई) तक पुनर्वास का काम पूरा हो चुका है, लेकिन भोपाल और दिल्ली में बैठे झूठ के सौदागरों को शर्म हरगिज नहीं आती।

श्री विनीत तिवारी प्रगतिशील लेखक संघ के मध्य प्रदेश महासचिव हैं।
 

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