पुरोवाक्

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जब वाचिक परम्परा अतीत की चीज होती चली जा रही हो तब सीमित दायरे में ही सही, इस तरह वाचिक इतिहास की रचना का महत्त्व और बढ़ जाता है। शोध को पढ़ते वक्त कई जानकारियाँ मुझे जैसे पहली बार मालूम हुई। एक खास जानकारी इसमें यह थी कि बीकानेर में सौ से अधिक जो तालाब रहे उनमें से दस तालाब भी रियासत के खर्च पर नहीं बने थे। जल संरक्षण की संस्कृति के निर्माण में लोक की भूमिका इससे बढ़कर क्या हो सकती है? पानी के साथ जीवन का रिश्ता एक होता है, लेकिन सब जगह वह एक-सा नहीं होता। रेगिस्तान में पानी की महिमा सबसे निराली है। जब नहरों का सहारा नहीं था, रेगिस्तान के हर बाशिन्दें की नजरें चौमासे में आसमान पर टिकी रहती थीं। बादल से बरसी एक-एक बूँद को सहेजने-सम्भालने और बरतने का एक अनूठा कायदा समाज ने रचा था। इस तरह एक सरोवर संस्कृति बनी, जिसका अध्ययन अजीत फाउंडेशन की फेलोशिप के तहत ब्रजरतन जोशी ने किया है।

जल और समाज शहर के तालाबों का निरा लेखा-जोखा नहीं है। यह बीकानेर के सांस्कृतिक इतिहास के सुनहरे पहलू को उजागर करने वाला काम है। जो इतिहास हमें अमूमन उपलब्ध होता है वह सामाजिक-सांस्कृतिक तो दूर-दूर तक नहीं होता, वह राजनीतिक इतिहास भी नहीं होता, सही मायनों में वह शासन का इतिहास होता है। इसलिये उसकी प्राथमिकता भी सन्दिग्ध होती है।

असल में इतिहास लोकजीवन की स्मृति का हिस्सा होता है। मगर विडम्बना है कि उसकी पड़ताल का काम अक्सर इतिहास के घेरे से बाहर समझा जाता है। ब्रजरतन जोशी ने पौराणिक आख्यानों के अध्ययन के साथ बीकानेर के लोक मानस का साक्षात्कार कर नगर के तालाबों के बहाने नगर की पारम्परिक जीवनशैली, यहाँ की लोक संस्कृति के रंग के साथ देशज वास्तुकला और तकनीक के विवेक जैसे अनेक पहलुओं को अपने शोध में बखूबी छुआ है, जो आधुनिक जीवन की पकड़ से बिल्कुल दूर हो चुके हैं।

जब वाचिक परम्परा अतीत की चीज होती चली जा रही हो तब सीमित दायरे में ही सही, इस तरह वाचिक इतिहास की रचना का महत्त्व और बढ़ जाता है। शोध को पढ़ते वक्त कई जानकारियाँ मुझे जैसे पहली बार मालूम हुई। एक खास जानकारी इसमें यह थी कि बीकानेर में सौ से अधिक जो तालाब रहे उनमें से दस तालाब भी रियासत के खर्च पर नहीं बने थे। जल संरक्षण की संस्कृति के निर्माण में लोक की भूमिका इससे बढ़कर क्या हो सकती है?

अजित फाउंडेशन के जरिए इस काम को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। विश्वास और मान्यताओं में स्थित तथ्यों के जरिए शोधार्थी और अधिक प्रमाण जुटा सकते हैं। यह मुश्किल काम है, पर असम्भव नहीं। तालाबों के निर्माण में भूमि के चयन से लेकर औजारों और चिनाई की व्यापक जानकारियाँ इस शोध में सामने आ गई हैं। इन पर और काम हो सकता है।

इस तरह की विधिवत और वैज्ञानिक निर्माण पद्धति की जानकारी आज के इंजीनियरों की आँखें भी खोलेंगी। पत्रकारिता की शैली और मुहावरों से बचते हुए सीधे तथ्यों और प्रमाणों पर आधारित शोध को आगे बढ़ाया गया तो यह बीकानेर के ऐतिहासिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य में ही नहीं, देश के बौद्धिक पटल पर भी अपनी छाप छोड़ने वाला काम साबित होगा।

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