पुस्तक परिचय : महासागर से मिलने की शिक्षा

अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र

अनपुम मिश्र अपनी शैली में अपने पिता पं. भवानी प्रसाद मिश्र जी की सहजता, आम आदमी से संवाद करने के मानक को बनाए रखते हैं। यह यूँ ही तो नहीं हो सकता। इसके लिये जरूरी है कि समाज जैसा है वैसा ही समझें। उसके प्रतीकों, मानकों एवं बिम्बों में ही उसकी उलझनों, उनसे निपटने के तरीकों, प्रयासों तथा समाधान के सूत्रों को उनके बीच जाकर अनुभव भी करें, तभी तो संवाद हो सकेगा। श्री अनुपम मिश्र ने अपनी पूरी जिन्दगी ही इस संवाद में लगाई है। अनवरत प्रयास एवं धैर्य/प्रतीक्षा रूपी साधना से अर्जित इस अनुभवात्मक ज्ञानराशि को जब वे सहज शैली में परोसते हैं तब वह सहज सुपाच्य ही नहीं, देशी गन्ध से भर जाती है।

 

पुस्तकः महासागर से मिलने की शिक्षा
(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

सुनहरे अतीत से सुनहरे भविष्य तक

2

जड़ें

3

राज, समाज और पानी : एक

राज, समाज और पानी : दो

राज, समाज और पानी : तीन

राज, समाज और पानी : चार

राज, समाज और पानी : पाँच

राज, समाज और पानी : छः

4

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

5

तैरने वाला समाज डूब रहा है

6

ठंडो पाणी मेरा पहाड़ मा, न जा स्वामी परदेसा

7

अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल

8

रावण सुनाए रामायण

9

साध्य, साधन और साधना

10

दुनिया का खेला

11

शिक्षा: कितना सर्जन, कितना विसर्जन

 

इस शैली में निबन्धों/आलेखों के शीर्षक से ही आकर्षण पैदा हो जाता है। बाढ़, उसके कारण, समाधान के उपायों एवं उनसे और अधिक बिगड़ती स्थिति की गहराई में जाकर भी अनुपम मिश्र किसी के डर या प्रभाववश उसका पक्ष नहीं लेते चाहे वह सबसे बड़ा समाज ही क्यों न हो। इसीलिये वे दो टूक कह पाते हैं- ‘तैरने वाला समाज डूब रहा है’। यह शीर्षक आपको उस समाज की संरचना और असलियत में जाने को प्रेरित करता है कि जो तैरने वाला है, उसे बाढ़ से क्या डर और क्यों? फिर उसके डूबने सम्बन्धी विवरण बाकी सारी बातों को स्पष्ट कर देते हैं। ‘राज, समाज और पानी’ इनकी आन्तरिक जटिलता को सुबोध बिम्बों में प्रगट करता है। बात तो समझ में आ ही जाती है, चाहे आप उसे मानें या न मानें, आपकी मर्जी। यह आप पर निर्भर है कि आपका अधिक लगाव किससे है। यही विशेषता ‘नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार’ की भी है।

अनुपम जी अर्थ की गहराई और विस्तार का खयाल तो रखते ही हैं, शब्दों से खेलने का भी उन्हें शौक है। यह भारतीय अभिव्यक्ति की साधुशाही परम्परा वाली शैली है। फर्क इतना है कि अनुपम जी के वक्तव्य के अन्त में आपको अर्थ स्पष्ट हो जाएगा, उसे खोजने के लिये पूरा जीवन लगाने की शर्त नहीं है। फिर भी इस शैली में पाठक को अर्थ की पहेली बूझने के लिये थोड़ा धैर्य तो रखना ही पड़ेगा और इसी में तो मजा है। ‘जड़ें’ मानव की दुविधा को व्यक्त करता है और समाधान भी देता है कि कैसे जड़ों से तो जुड़े रहें लेकिन इस चक्कर में कहीं हमारी चेतना ही न जड़ हो जाये। हमें अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों से तालमेल बन कर जीना है।

अनुपम मिश्र की लम्बी चौड़ी मित्र मण्डली है और उसके एक खास सदस्य हैं- हिमालय में काम करने वाले श्री सच्चिदानन्द भारती। स्थानीय गाँव समाज के साथ हिमालय में वन संरक्षण और जल संधारण का इनका प्रयास अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सराहा गया है। उससे क्या? समाज की असली खुशी और उपलब्धि तो वह आत्मविश्वास है, जिसके बल पर गाँव की लड़कियाँ गा पाती हैं- ‘ना जा स्वामी परदेसा’ क्योंकि अब अपना देश ही भरा-पूरा है।

लोक परम्परा, उसके ज्ञान एवं आत्मविश्वास को राष्ट्रीय स्तर पर स्वर देने, उसकी कथा कहने की व्यास गद्दी अनुपम जी ने बनाई है। यह आलेख उस सफलता के गौरव की मधुर गाथा है। लेखक की दृष्टि विषय के चारों ओर घूमती है और आसमान तथा केन्द्र तक में झाँक लेती है। लगता है वह 180 नहीं, 360 डिग्री घूमती है। बाढ़ और अकाल की विभीषिका समाज को किस गहराई तक हानि पहुँचाती है, इस बात को समझने के लिये जरूरी है कि ‘अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल’ शीर्षक से उठाए गए मुद्दों पर गहराई से सोचा जाये।

नए समाज में नए किस्म की संस्थाएँ बनीं और विकसित हुई हैं। आज तो सामाजिक काम का नाम आते ही ऐसी संस्थाओं की ओर ध्यान जाता है। उनकी भी अपनी उलझनें और दुविधाएँ हैं। ‘साध्य, साधन और साधना’ गाँधीवादी शैली में एक कड़वी दवा के रूप में है, जिसे काफी लोग नापसन्द कर सकते हैं।

एक समाजसेवी और लेखक की सरसता को अनुभव करना हो तो जरूर पढ़ें ‘दुनिया का खेला’। इस गद्यकवि को रंगमंच से न जुड़ पाने की पीड़ा है लेकिन उसने तो अपने जीवन को ही रंगमंच बना लिया है और मजेदार यह कि किसी मोनोलाग नहीं एक यायावर व्यास की तरह अपने बहाने सबकी और सबके बहाने अपनी कथा कहने में कभी उपदेशक तो कभी आत्मविभोर रसिक लगता है। एक बड़े पैमाने पर सूत्रधार तो वह है ही, तभी तो सूत्रात्मक और विस्तृत दोनों ढंग से अपने भावों को व्यक्त कर पाता है।

और अन्तिम आलेख पर मैं भी अपने आप को तटस्थ नहीं रख पाता और मेरा भी मन कुछ अपनी बातें कहने को विवश हो जाता है- मेरा नाम भी केवल संयोग से रवीन्द्र नहीं है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद, विनोबा, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि केवल नाम नहीं हैं, वे विचार एवं प्रेरणा के स्रोत हैं। मेरे जन्म के बहुत पहले लेकिन उस पीढ़ी के बुजुर्गों के समकालीन हैं ये। मेरी शिक्षा के बारे में विधिवत बहस होती रही कि किस पद्धति से मुझे शिक्षा दी जाये? सबसे मजेदार मेरे लिये तब होता था जब इस बहस में मेरी पढ़ाई स्थगित या बन्द हो जाती थी। आप शिक्षक या शिक्षा शास्त्री हैं तो जरूर पढ़ें- ‘शिक्षा : कितना सर्जन कितना विसर्जन’। इसमें आप आधुनिक शिक्षा की विसंगतियों तथा पुराने जमाने की कई सच्चाइयों से रूबरू होंगे, जिसके बारे में आज के लोग सोच भी नहीं पाते।

इस संकलन के किस आलेख की बात करें? सभी के सभी एक से एक, अद्भुत और बहुमूल्य। मैं ही सब कहूँ? क्यों कहूँ? आगे आपको भी तो पढ़ना है इसलिये पर्याप्त रहस्य बचा रहना जरूरी है। इतना सब कुछ जो इस पुस्तक में है, वह एक महासागर से मिलने की ही तो शिक्षा है। वह महासागर बना है ज्ञान की उदधि, समाज रूपी सागर, भावों की सरिताओं एवं अनेक प्रयासों, अनुभवों के बिन्दुओं से बने सात ही नहीं अनेक सिंधुओं से।

मैं अनुपम भाई और उनके कामों को बहुत कम दिनों से जानता हूँ, महज 10-12 साल से लेकिन हर बार कुछ-न-कुछ महत्त्वपूर्ण मिल जाता है, बस यूँ ही बातचीत में या पढ़ने में, तो मेरा आपसे अनुरोध है कि अधिक सोच-विचार की जरूरत नहीं, बस उठाइए और पढ़ना शुरू कीजिए, मुझे विश्वास है बिना पूरा पढ़े हुए आपका मन मानेगा ही नहीं, तब बताइएगा मुझे और अनुपम भाई को भी कि कैसा लगा आपको?

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