पूरी पीढ़ी के लिए प्रेरणा

5 Oct 2011
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सलीम अली

सलीम अली को अक्सर ‘बर्ड मैन ऑफ इंडिया’ के लोकप्रिय नाम से जाना जाता है। वो भारत के सबसे जाने-माने पक्षी-विज्ञानी थे। उनका जन्म मुंबई में 1896 में हुआ। उनकी चिडि़यों और पक्षी-निरीक्षण में रुचि तब शुरू हुयी जब वे केवल आठ साल के थे। सलीम अली में, पक्षियों के अथाह ज्ञान के साथ-साथ, उनके बारे में सहजता से लिखने का भी एक विशेष गुण था। उन्होंने बहुत सारी पुस्तकें लिखीं जिसमें एक, “द बुक ऑफ इंडियन बर्डस” भी है। यह पुस्तक, पक्षी-निरीक्षकों के लिए निहायत जरूरी और एकदम अनिवार्य समझी जाती है। सलीम अली ने अपनी आत्मकथा “द फाल ऑफ ए स्पैरो” जब लिखी, तब उनकी उम्र 87 साल की थी। 91 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया।

सलीम अली के अपने शब्दों में, “जब मुझे पक्षी-निरीक्षण का रोग लगा तब यह बीमारी भारतीयों से लगभग अछूती थी। उस समय पर्यावरण संरक्षण जैसे शब्द भी कभी-कभार ही सुनने को मिलते थे।” माता-पिता के देहांत के समय सलीम अली की उम्र बहुत कम थी। उनका लालन-पालन बड़े प्यार भरे माहौल में हुआ। उनके संयुक्त परिवार में बहुत से चाचा-ताऊ, भाई-बहन तथा अन्य रिश्तेदार और मित्र भी थे। उनका घर खेतबारी में स्थित था, जो आजकल मुंबई में, चर्नी रोड का एक भीड़ वाला इलाका है। परिवार के किसी भी सदस्य की पक्षियों में रुचि नहीं थी - पक्षियों में अगर परिवार की कोई रुचि थी तो वो थी उन्हें खाने में! चाचा-ताऊ के बच्चों को अगर किसी चीज में सबसे ज्यादा मजा आता था तो वो था आसपास के देहात में छोटे पक्षियों को ऍअर-गन से मारने में। वो संरक्षण का जमाना नहीं था, हमें यह बात नहीं भूलना चाहिये। उस समय शिकार करना एक ‘मर्दाना’ खेल समझा जाता था।

नौ साल की उम्र में सलीम अली के चाचा ने उन्हें एक ऍअर-गन भेंट की। बंदूक, सलीम अली का सबसे बेशकीमती खजाना थी। वो हर किसी को अपनी नयी बंदूक दिखाते। धीरे-धीरे वो बंदूक चलाने में उस्ताद हो गये।

बच्चे अपनी अचूक निशानेबाजी की शान जताने के लिए अक्सर घर के अंदर की गौरैयों को भी अपनी बंदूक का निशाना बनाते। एक बार जब घर में इस प्रकार का शिकार चल रहा था तो सलीम अली ने एक मादा गौरैया को ध्यान से देखा और उसके बारे में कुछ जानकारियां दर्ज करी। इस गौरैया ने उनकी अस्तबल के एक झरोखे में अपना घोंसला बनाया था।

उन्होंने गौरैया के बारे में यह जानकारी लिखी थी: “1906/7 नर गौरैया घोसले के छेद के बाहर सींखचे पर बैठा जबकि मादा अंदर अंडों पर बैठी रही। मैंने उनपर घोड़ा-गाड़ी के पीछे से आक्रमण किया और नर को गोली से मार दिया। कुछ ही समय के बाद उस मादा को एक और नर मिल गया जो भी बाहर सींखचे पर बैठा ‘रखवाली’ करने लगा। मैंने इस नर को भी मार दिया। परंतु इसके कुछ ही देर बाद उस मादा की रखवाली करने के लिए एक अन्य नर आ गया। अगले सात दिनों में मैंने सींखचे पर बैठी आठ नर गौरैयों को मारा। हर बार मादा के पास कोई नया नर आ जाता जैसे कि वो बस उसके पति के मरने का इंतजार कर रहा हो।”

उस समय सलीम ने जो कुछ भी लिखा वो एक शिकारी की हैसियत से लिखा, न कि एक पक्षी-निरीक्षक की हैसियत से। परंतु इस नौ वर्ष के बालक की अवलोकन शक्ति इतनी प्रखर थी कि साठ साल बाद, इसी विवरण को न्यूजलेटर फॉर बर्डवाचर्स नाम की पत्रिका में लगभग उसके मूलरूप में ही प्रकाशित किया।

गर्मियों की छुट्टियों में उनका पूरा परिवार घर बदल कर चेंबूर में आया जो आज मुंबई का एक बहुत व्यस्त इलाका है। परंतु उन दिनों वहां पश्चिमी घाट की पहाडि़यों पर काफी घने जंगल थे। वहां तमाम किस्म के पेड़-पौधे और प्राणी थे - विशेषकर वहां बहुत सारी चिडि़ए थीं। गर्मियों की छुट्टियों में सुबह बिस्तर में लेटे-लेटे सलीम अली को दईया (मैगपाई राबिन) का गाना बेहद पसंद आता था। यह एक ऐसी याद है जिसे वे पूरे जीवन भर नहीं भूले। उस गाने को दुबारा सुनने पर उन्हें फौरन अपने बचपन के वही मुक्त क्षण याद आ जाते थे।

1900 के बिल्कुल प्रारंभ में, सलीम अली लगभग सभी स्कूली विषयों में सामान्य थे। उन्हें यह भी याद है कि वो गणित में खासतौर पर कमजोर थे। उन्हें हॉकी, टेनिस, बैडमिंटन और कभी-कभी क्रिकेट खेलना पसंद थे। उनका मुख्य शौक था खेल-खेल में चिडि़यों का शिकार करना। इस खेल में वो अपने आपको दूसरों से बेहतर मानते थे।

युवा सलीम ने प्राणिशास्त्र का विषय पढ़ने और बड़े होकर पक्षी-वैज्ञानिक बनने की सोची। उनका सपना एक बड़े खोजी और शिकारी बनने का था। वो प्राकृतिक विज्ञान, पक्षियों, सैर, खोज-यात्राओं, और शिकार से संबंधित पुस्तकेंपढ़ते। उन्हें बड़े शिकार के रोमांचक और साहसी कारनामों में खास मजा आता था।

एक बार जब उनका परिवार गर्मियों की छुट्टियों में शिकार कर रहा था तब एक ऐसी घटना घटी जिससे उनकी पक्षियों में वैज्ञानिक रुचि जगी। यही रुचि बाद में विकसित होकर उनके जीवन का सबसे गहरा प्रेम बनी।

चिडि़यों पर निशाना साधने के दौरान 10 साल के सलीम ने एक गौरैया का शिकार किया। शिकार का स्वादिष्ट भोजन पकाने से पहले सलीम को गौरैया की गर्दन पर एक असाधरण रंग का पीला चकत्ता दिखायी दिया। वो देखने में बिल्कुल “कढ़ी के धब्बे” जैसा था। सलीम का कौतुहल जागा और वो मरी चिड़िया को परिवार के शिकारी - अपने चचाजान को दिखाने ले गये।

उनके चचाजान, बांबे नैचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) के एक सक्रिय सदस्य थे। वो इस संस्था के इने-गिने भारतीय सदस्यों में से एक थे। उन्हें भी गौरैया कुछ असाधरण लगी। गौरैया के बारे में और जानने में उन्होंने भी रुचि दिखायी। उन्होंने बीएनएचएस संस्था के अवैतनिक सचिव - मिस्टर मिलार्ड को एक परिचय पत्र लिखा और सलीम से उनके पास चिडि़या को ले जाने को कहा। यह 1908 की बात है। सलीम अली का बीएनएचएस के साथ यह पहला संपर्क था। बाद में इस संस्था ने उनके जीवन और पेशे को ढालने में एक अहम रोल निभाया।

उन दिनों गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों और स्थानीय भारतीयों के बीच बहुत कम ही मिलना-जुलना होता था। सलीम अली को किसी विदेशी से मुंह-दर-मुंह मिलने में काफी घबराहट हो रही थी। खैर, उन्होंने मरे पक्षी को एक कागज के थैले में डाला और फिर बीएनएचएस के कमरों में से होते हुए अंदर दाखिल हुये। ये कमरे लुभावने प्राकृतिक नमूनों और जीवों के नमूनों (स्पेसिमेन) से भरे हुये थे।

मिस्टर मिलार्ड से मिलने के बाद सलीम की घबराहट एकदम दूर हो गयी। इस भले और दयालु इंसान ने न केवल इस पीली गर्दन वाली गौरैया (यैलो थ्रोटिड स्पैरो) को पहचाना परंतु उसने अपने संकलन में से सलीम को उसी प्रकार की चिडि़यों के कई और नमूने भी दिखाये। मिस्टर मिलार्ड ने सलीम को कुछ पुस्तकें भी पढ़ने को दीं। पक्षियों से संबंधित इन किताबों को सलीम अली ने अगले साठ सालों में बार-बार पढ़ा।

मिस्टर मिलार्ड ने सलीम का परिचय बीएनएचएस में अन्य लोगों से भी कराया। उन्होंने सलीम को अध्ययन के लिए पक्षी संकलन करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने पक्षियों को संभालकर, संजोकर रखने की ट्रेनिंग दिलवाने का वादा किया और सलीम को सही प्रकार से पक्षियों का विवरण लिखना भी सिखाया।

पीली गर्दन वाली गौरैया ने सलीम अली के जीवन में एक नया संसार ही खोल दिया। सलीम अली अब प्रकृति पर ढेरों पुस्तकें पढ़ने लगे - खासकर पक्षियों के बारे में। उन दिनों भारतीय पक्षियों पर कोई भी सचित्र पुस्तक नहीं थी और इस वजह से किसी भी नौसिखिये के लिए पक्षियों को पहचानना बहुत कठिन होता था। परंतु इस नौजवान की इसमें रुचि बढ़ती ही गयी और अंत में पक्षी ही उसका जीवन बन गये।

बाद में जब पक्षी-विशेषज्ञ के रूप में उनकी ख्याति बढ़ी तब सलीम अली से अक्सर पक्षी-निरीक्षण के बारे में उनके अनुभव सुनाने को कहा जाता। वो पक्षी-निरीक्षक के पेशे को एक बहुत शांतिप्रिय पेशा मानते थे। परंतु इसमें सबसे अधिक आनंद सुरागों को खोजने में आता है। इस प्रकार आप तार्किक रूप से या तो अपनी मान्यता को सिद्ध कर सकते हैं या फिर उसे नकार सकते हैं।

इसी मनोवृत्ति के कारण ही शायद सलीम अली, बया पक्षी के जनने संबंधी जीववैज्ञानिक गुत्थी की पहली बार सही व्याख्या करने में सफल हुये।

समुद्र के पास के छोटे घर में रहते हुये एक बार सलीम अली ने हफ्रतों तक, हर रोज कई घंटे एक गुप्त स्थान के पीछे छिप कर बिताये। यह जगह जमीन से कोई दस फीट उपर थी। इस प्रकार उन्होंने बया पक्षियों के व्यवहार का विस्तृत विवरण लिखा और उनके चित्र बनाये। उन्होंने बारीक अध्ययन के बाद पाया कि जब नर बया पक्षी अपने घोंसलों को आध बना लेते हैं तब मादा बया पक्षियों का एक झुंड सभी घोंसलों का निरीक्षण करने आता है। मादा को जो भी आध बना घोंसला पसंद आता है वो उसमें रहने लगती है और उस नर को अपने साथी के रूप में स्वीकार करती है। नर उस घोंसले को पूरा करता है और फिर मादा को अंडे देने और सेने के लिए छोड़कर पास ही में एक नया घोंसला बनाना शुरू कर देता है। वो दुबारा इसी नमूने को दोहराता है और इस तरह एक और मादा बया, नये घोंसले में आकर बसती है। धीरे-धीरे बया पक्षियों के घोंसले सक कॉलोनी का रूप लेते हैं।

यह अवलोकन आज भी बया पक्षी के व्यवहार में एक क्रांतिकारी खोज के रूप में स्वीकारे जाते हैं। सलीम अली को उस समय क्या महसूस हुआ उसी का एक उदाहरण, “भारत में पक्षियों की इतनी प्रजातियां हैं और उनमें इतनीविविधता है कि इस प्रकार की अन्य कितनी ही खोजें, उत्साही और लगनशील पक्षी-निरीक्षकों का इंतजार कर रहीहैं।”

सलीम अली केवल एक महान पक्षीविज्ञानी ही नहीं थे। प्रकृति में उनकी गहरी रुचि थी और उनके जीवन ने भारत में एक पूरी पीढ़ी को पर्यावरण संरक्षण की ओर प्रेरित किया है।

(सलीम अली की पुस्तक ‘द फाल ऑफ ए स्पैरो’ पर आधरित, आक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, 1985)

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