पूर्वी तटबन्ध पर भी लोग तटबन्ध के बाहर रहना चाहते हैं

जब पूरब और पश्चिम वाले दोनों तटबन्धों के बीच सामूहिक पंचलत्ती पड़ने के कारण फासले कम होने लगे तो उनके बीच फंसे वह गाँव जिनके बाहर निकल पाने की कोई गुंजाइश नहीं थी कुंठा और हताशा के गर्त में गिरे और वहाँ विक्षोभ पनपने लगा। 1956 समाप्त होते-होते इन लोगों ने अपने विरुद्ध हुये अन्याय के खिलाफ खुद को संगठित करना शुरू किया।

जब पश्चिमी तटबन्ध को पूरब की ओर ठेला जा रहा था तब पूर्वी तटबन्ध के इर्द-गिर्द लोगों के कान खड़े हुये क्योंकि इससे पानी का प्रवाह मार्ग घटने वाला था और नदी का पानी अब पूर्वी तटबन्ध पर ही सीधी चोट करता और अगर नदी और पश्चिमी तटबन्ध के बीच फंसे गाँवों ने सफलतापूर्वक तटबन्ध का अलाइनमेन्ट बदलवा लिया और उनमें से बहुत से गाँव अब तटबन्धों के बाहर थे तो यही बात पूर्वी तटबन्ध पर क्यों नहीं लागू होगी? सहरसा के धरहरा थाने के बाशिन्दों ने मांग की कि बराही के दो किलोमीटर नीचे बड़हर, परताहा और गोबिन्दपुर गाँव को बचाने के लिए पूर्वी तटबन्ध के अलाइनमेन्ट को नदी की ओर पश्चिम में ठेल दिया जाना चाहिये। यही बात महिषी और बनगाँव के निवासियों को भी जंच गई और उन्होंने भी आन्दोलन करके पूर्वी तटबन्ध का अलाइनमेन्ट बदलवा लिया और अन्ततः तटबन्धों के बाहर आने में सफल हुये।

इस बीच पश्चिमी तटबन्ध की रूपरेखा तय कर दी गई और अब इसे पौनी, सिकरिया और तरडीहा के पूरब होते हुये बेलहा से भेजा तक जाना था। भेजा के नीचे इसका विस्तार दरभंगा में जमालपुर तक किया जाना था। पश्चिमी तटबन्ध के इस नये अलाइनमेन्ट से जाहिरतौर पर बहुत से गाँव तटबन्ध के बाहर आ गये थे और कथित रूप से कोसी की बाढ़ से सुरक्षित हो गये। बिरौल और सिंघिया थाने भी अब कोसी तटबन्ध के बाहर थे। इन सभी इलाकों में कोसी तटबन्ध का अलाइनमेन्ट बदल देने की सफलता पर उत्सव का माहौल था। पूर्वी तटबन्ध से लगे सुपौल के पास के गाँव हाटी और बराही वालों ने, जो कि तटबन्धों के बीच फंसने जा रहे थे, भारत सेवक समाज से सम्पर्क साधा कि वह किसी तरह से पूर्वी तटबन्ध के अलाइनमेन्ट को बदलवा दें जिससे उनका गाँव तटबन्ध के बाहर आ गये। स्थानीय प्रशासन ने गाँव वालों को आश्वस्त किया कि उनकी समस्या पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जायेगा। देखें बॉक्स-सब भिखारी बन गये- फूलेश्वर झा।

तटबन्धों के बीच फंसने वाले गाँव चाहते थे कि तटबन्धों के बीच का फासला ज्यादा हो


जब पूरब और पश्चिम वाले दोनों तटबन्धों के बीच सामूहिक पंचलत्ती पड़ने के कारण फासले कम होने लगे तो उनके बीच फंसे वह गाँव जिनके बाहर निकल पाने की कोई गुंजाइश नहीं थी कुंठा और हताशा के गर्त में गिरे और वहाँ विक्षोभ पनपने लगा। 1956 समाप्त होते-होते इन लोगों ने अपने विरुद्ध हुये अन्याय के खिलाफ खुद को संगठित करना शुरू किया। इन लोगों ने बरसात में हुये नुकसान का मुआवजा मांगा और बाढ़ के मौसम में वैकल्पिक आवास की मांग की। उनकी सबसे खास मांग थी कि तटबन्धों के बीच फासला जितना ज्यादा होगा, नदी के पानी को बहने के लिये उतनी ही ज्यादा जगह मिलेगी और बाढ़ का असर उनके ऊपर उतना ही कम पडे़गा।

उनका कहना था कि सरकार हमेशा के लिए उनको आने वाले समय में एक अन्धे कुएं में ढकेल देने पर तुली हुई है और अगर उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो उनके पास सत्याग्रह के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचेगा। सरकारी उपेक्षा से यह लोग इतने निराश हो चुके थे कि उन्होंने 31 दिसम्बर 1956 को अलोला के पास पश्चिमी तटबन्ध को काटने की भी कोशिश की क्यों कि यह लोग चाहते थे कि सरकार मझारीधार का मुंह बन्द कर दे मगर फिर कुछ सोच कर यह अनुष्ठान छोड़ दिया कि सरकार को संभलने का और कुछ करने का एक और अवसर दे सकें।

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