फॉरेस्ट अफसर के साथ एक दिन

11 Oct 2011
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सुनीता सिंह
सुनीता ने अपना स्कूली जीवन किस प्रकार शुरू किया? स्कूल जाने से इंकार करके! इसलिये उनका प्राथमिक शिक्षण अन्य बच्चों की अपेक्षा काफी देरी से शुरू हुआ। उन्होंने स्कूल और कालेज की पढ़ाई दिल्ली से की और पर्यावरण विज्ञान की उच्च शिक्षा, गोविंद वल्लभ पंत विश्वविद्यालय से प्राप्त की। एमएससी की डिग्री करते समय ही वो इंडियन फॉरेस्ट सर्विस में उत्तीर्ण हुईं। फॉरेस्ट सर्विस में दाखिले के बाद सुनीता ने अनेकों क्षेत्रों में काम किया। वन संरक्षण कार्यों में महिलायों की सक्रिय भागीदारी के विषय में, सुनीता की विशेष रुचि रही है और उनका इसमें काफी योगदान भी रहा है। सुनीता आजकल पश्चिम नासिक, महाराष्ट्र में डिप्टी कंजरवेटर आफ फॉरेस्ट के पद पर आसीन हैं। यह एक ऐसा काम है जो उन्हें हमेशा चैबीसों घंटे, व्यस्त रखता है।

अपने बचपन के बारे में कुछ बतायें?


हम लोग मूल रूप से बिहार में छपरा जिले के हैं। क्योंकि मेरे पिता दिल्ली में कार्यरत थे इसलिये स्नातक तक की पढ़ाई मैंने दिल्ली में ही की। उसके बाद मैं पर्यावरण विज्ञान में एमएससी करने के लिये उत्तर प्रदेश के पंतनगर विश्वविद्यालय में चली गयी।

क्या आपमें बचपन से ही फॉरेस्ट अफसर बनने की इच्छा थी?


नहीं, शुरू से तो नहीं। असल में मेरे माता-पिता चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं (हंसती हैं) और बारहवीं कक्षा तक मैं भी वही बनना चाहती थी। जब मैं बीएससी के पहले साल में थी तब मुझे फॉरेस्ट सर्विस के बारे में मालूम चला। फिर मुझे ऐसा लगा कि ‘यह एक ऐसा पेशा है जिसे मैं अपनाना चाहूंगी!’

क्या किसी एक इंसान या संस्था ने आपको प्रेरित किया और इस दिशा में बढ़ने की ओर प्रोत्साहित किया?


नहीं, मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। मैं आईएफएस के ग्लैमर, उसकी मनमोहकता की ओर आकर्षित हुई। दूसरे पेशों से ये काफी अलग था। इसमें मुझे बाहर घूमने-फिरने का खूब मौका मिलता। मुझे पर्वतारोहण, चट्टानों पर चढ़ने आदि का शौक था। अक्सर लड़के ही ऐसे काम करते हैं। इसलिये भी मुझे यह पेशा काफी अच्छा लगा। इसके समतुल्य आईएएस और आईपीएस के पेशों में, इस प्रकार तकनीकी कुशलतओं और ग्लैमर का मेलजोल मुझे नहीं दिखा।

यह शायद 1980 के आसपास की बात होगी?


हां। उस समय तक पर्यावरण की समस्यायें अपना सिर उठाने लगीं थीं और हम लगातार उन्हें अखबारों में पढ़ते थे। मेरा दृढ़ विश्वास तब भी था और अब भी है कि अगर हमारे देश में एक-तिहाई क्षेत्रफल पर जंगल हों तो हमारी 80 प्रतिशत पर्यावरण संबंधी समस्यायें अपने आप हल हो जायेंगी। मुझे लगा कि आईएफएस की नौकरी द्वारा मैं देश की उचित रूप में सेवा कर पाऊंगी।

एक बार जब आपने अपना मन बना लिया तब क्या आपके परिवार और मित्रों ने आपको प्रोत्साहित किया?


शुरू में मां और पिता दोनों ने मुझे बहुत प्रोत्साहित किया। परंतु एक बार जब मैं परीक्षा में सफल हो गयी तो मां काफी परेशान हुईं। वो अचानक मेरे बारे में फिक्र करने लगीं। पिताजी ने उन्हें काफी समझाया कि अगर मैं इस नौकरी को सही प्रकार से नहीं निभा पायी तो मैं कोई दूसरी नौकरी ढूंढ लूंगी। मेरे माता-पिता ने शुरू से ही मेरा हौसला बढ़ाया। मेरी दो और बहनें हैं और हम तीनों ही नौकरियां करती हैं। माता-पिता ने हमें शादी करके घर बसाने के लिये कभी भी बाध्य नहीं किया। पिताजी ने हमेशा यही कहा कि हमें बड़े होकर व्यक्तिगत रूप में कुछ हासिल करना चाहिये। उनके प्रोत्साहन का मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

क्या आपको कभी कुछ डर लगा?


हां, कई बार। मुझे कई बार ऐसा लगा जैसे मैं खो गई हूँ। इतना स्पष्ट था कि मैं जिस काम में लगी थी उसे सामान्यतः मर्द ही संभालते थे। परंतु इसमें आपके अपने व्यक्तित्व का भी बहुत असर पड़ता है। शुरू-शुरू में ऐसा लगा – “चलो अब मैं फॉरेस्ट अफसर बन जाऊंगी। इसका मतलब होगा कि मैं जंगलों में जाऊंगी और उन्हें बचाने के लिये काम करूंगी।” परंतु जल्दी ही एक बात समझ में आ जाती है कि इसमें बहुत सारा प्रशासनिक काम भी होगा - निचले अधिकारियों से काम लेना होगा, अपनी टीम का सही प्रबंधन करना होगा और अन्य लोगों के साथ अच्छे संबंध् बनाने होंगे। असल में मुख्य काम तो ‘लोगों के प्रबंधन’ का ही है। मुझे इस बात का डर था कि लोग मुझे एक पेशेवर के रूप में स्वीकार करेंगे या नहीं।

क्या आपको स्वीकार किया गया?


हां, मुझे लगता है।

आईएफएस अफसर किस प्रकार बना जा सकता है?


आईएफएस की परीक्षा यूपीएससी परीक्षा से अलग होती है। इसमें कोई आरंभिक परीक्षा नहीं होती है। इस परीक्षा मंं केवल विज्ञान विषय के स्नातक छात्र ही बैठ सकते हैं। यह परीक्षा लगभग यूपीएससी की परीक्षा प्रणाली पर ही आधारित है। इसमें एक अंग्रेजी और एक सामान्य ज्ञान का भी पेपर होता है। तुल्नात्मक रूप में इस परीक्षा में भूगोल, भूविज्ञान, पर्यावरण विज्ञान आदि पर अधिक जोर होता है। परंतु इसका कोई पक्का नियम-कानून नहीं है। उसके बाद दो अन्य विशेष पेपर भी होते हैं जिनके लिये आप कई विषयों में से चुन सकते हैं जैसे वनस्पतिशास्त्र, प्राणिशास्त्र, कृषि, भूविज्ञान, सांख्यिकी और इंजिनियरिंग आदि। लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद कुछ विशेषज्ञ आपका साक्षात्कार लेंगे। आपसे जो प्रश्न पूछे जायेंगे वो बहुत कुछ आपके अपने बायोडेटा पर आधारित होंगे। उसके पश्चात आपका डाक्टरी परीक्षण होगा और अंत में एक शारीरिक परीक्षण होगा जोकि विशेष रूप से आईएफएस के लिये बना है। इसमें उत्तीर्ण होने के लिये न्यूनतम ऊंचाई, भार, सीने को फुला पाना और सामर्थ होना जरूरी है। इसमें महिलाओं को 16 किलोमीटर और आदमियों को 25 किलोमीटर चलना पड़ता है।

क्या यह सभी परीक्षण दिल्ली में ही होते हैं?


हां।

हमने सुना है कि एक बैच का यह परीक्षण मई के महीने में हुआ था और उसमें कई परीक्षार्थी बेहोश हो गये थे?


हां, दो-तीन बैचों को इस समस्या का सामना करना पड़ा था। साधरणतः ये परीक्षायें जुलाई के आसपास होती हैं और शारीरिक परीक्षण दिसंबर के आसपास। परंतु इन बैचों की क्योंकि लिखित परीक्षायें जनवरी में ली गयीं थी इसलिये उन्हें सामर्थ का परीक्षण दिल्ली में मई के मध्य में देना पड़ा!

अगर आप शारीरिक परीक्षण में भी पास हो जायें, तो आप चुन लिये जाते हैं?


हां। उसके बाद आपको पहले लाल बहादुर शास्त्री अकादमी, मसूरी में प्रशासनिक कुशलतायें हासिल करने के लिये भेजा जाता है। उसके बाद देहरादून में दो साल का प्रशिक्षण शुरू होता है, जो अब दो हिस्सों - पक्ष 1 और पक्ष 2 में बांट दिया गया है। यह बिल्कुल आईएएस जैसा ही है। डेढ़ साल के पक्ष 1 में तीस विषयों की पढ़ायी के साथ-साथ आपको सभी प्रकार की बातें और कुशलतायें सिखायी जायेंगी। इन विषयों में इंजिनियरिंग निर्माणकार्य, सड़क की सीध नापना, भूविज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, वर्गीकरण, सांख्यिकी आदि होंगे। पक्ष 2 में फील्ड में ठोस कामों पर अधिक जोर होगा। आपको प्रोजेक्ट करने होंगे और जिस राज्य के लिये आपको चुना गया है उसकी समस्याओं के लिये हल खोजने होंगे। आपको घुड़सवारी, हथियारों का इस्तेमाल, मोटर मकेनिक आदि की बुनियादी ट्रेनिंग भी दी जायेगी। इसके लिये देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री एकैडमी (आईएमए) की सहायता ली जाती है। इस ट्रेनिंग के पश्चात एक साल की परिवीक्षा (प्रोबेशन) होती है जिसमें प्रशिक्षार्थी को फॉरेस्ट सर्विस के विभिन्न विभागों से अवगत कराया जाता है। इसलिये आपको कुछ समय के लिये रेंज फॉरेस्ट अफसर का काम भी करना पड़ सकता है जिसमें बैंक जाकर पैसे निकालना, उन्हें मजदूरों में बांटना, और हिसाब-किताब रखना आदि शामिल हो सकता है। इसके पीछे समझ यह है कि आपको हर स्तर का हरेक काम आना चाहिये।

क्या पहली पोस्टिंग सीधे डिप्टी कंजरवेटर ऑफ फॉरेस्ट की पदवी से होती है?


आपको कुछ समय तक के लिये निचले स्तर पर काम करना पड़ता है। उसके बाद में आपको डीसीएफ की पोस्टिंग मिलती है। यह पदवी डीएफओ (डिस्ट्रिक्ट फॉरेस्ट आफिसर) के समतुल्य होती है। डीएफओ वो होते हैं जो प्रमोशन द्वारा इस पद तक पहुंचते हैं और वो आईएफएस के जरिये नियुक्त नहीं किये जाते हैं।

क्या महिला होने के नाते आपको कुछ विशेष समस्याओं का सामना करना पड़ा?


केवल 1980 से ही महिलाओं को आईएफएस में भर्ती होने का अवसर मिला है। मैं 1987 के बैच की हूं। आज भी, पूरे महाराष्ट्र में मुझे मिलाकर, केवल तीन महिला डीसीएफ ही हैं। सामान्य तौर पर तो हमें स्वीकार किया गया है परंतु हमारी ओर लोगों का व्यवहार और बर्ताव कुछ अलग होता है। एक अफसर ऐसा था जो हमेशा मेरी तरफदारी करता था। दूसरे ने मुझ से जमकर, कोल्हू के बैल की तरह काम लिया। गर्भवती हालत में भी उसने मुझे कोई भी छूट और रिआयत नहीं दी!

क्या आप अपने राज्य में पोस्टिंग ले सकती हैं?


नहीं, हरेक कोई ऐसा नहीं कर सकता है। केवल प्रवीणता-सूची के कुछ लोग ही अपने राज्य को चुन सकते हैं। एक-तिहाई पदवियों पर राज्य के अंदर वाले लोग और दो-तिहाई पर राज्य से बाहर के लोग होते हैं। इस अनुपात को कड़ाई से बनाये रखा जाता है। राज्य निश्चित होने के बाद आपको उस राज्य की भाषा की परीक्षा भी पास करनी होती है।

एक बार राज्य चुनने के बाद क्या आपको अपनी नौकरी का पूरा कार्यकाल वहीं बिताना होगा?


आप चाहें तो अपने राज्य से उधरी यानि डेप्यूटेशन पर किसी अन्य राज्य या विभाग में 4 मानक वर्ष और एक साल अधिक यानि, कुल 5 साल के लिये जा सकते हैं। परंतु उसके बाद आपको दुबारा फिर अपने ही राज्य में आना होगा।

नौ साल की नौकरी के दौरान आपने किन-किन प्रकल्पों पर काम किया है, उनके बारे में कुछ बतायें?


मेरी पहली पोस्टिंग 1989 में पुणे में हुई। प्रमोशन के बाद मुझे दुबारा पुणे की पोस्टिंग मिली। यह दोनों पोस्टिंग क्योंकि शहरी थीं इसलिये इनमें प्रशासनिक कार्य ही अधिक था। मेरी तीसरी पोस्टिंग, रायगढ़ जिले में डीसीएफ की हैसियत से हुई और वहां मैं सामाजिक वानिकी के काम की देखरेख करती थी। मेरा पहला काम था चालू स्कीमों की जानकारी को लोगों तक पहुंचाना क्योंकि, अधिकांश लोगों को उनके बारे में कुछ मालूम ही नहीं था। उसके बाद हमें उनके कई चहेते मिले। जहां तक नये प्रकल्पों की बात है मैंने परती जमीन के विकास के लिये कुछ अर्जियां भेजी हैं परंतु उन्हें अभी तक मंजूरी नहीं मिली है। एक प्रोजेक्ट जो मुझे बहुत प्रिय है वो है अलीबाग शहर के बाहर एक स्मृति-वन का विकास। इसके पीछे का विचार है कि कोई भी व्यक्ति अपने प्रियजन की याद में किसी भी किस्म का पेड़ इस भूमि पर लगा सकता है। उस पेड़ के रखरखाव के लिये उसे मात्र 500 रुपये ही देने होंगे। हमने मिट्टी की गुणवत्ता के अनुरूप वहां पर सैकड़ों पेड़ लगाये हैं। इससे हमें वहां पर बारिश के पानी को एकत्रित करने में सहायता भी मिली है। दो कुओं की खुदाई से उस इलाके को हरा-भरा रखने के लिये हमें पर्याप्त पानी मिला है। अभी यह पूरा प्रकल्प आरंभिक स्थित में है पर हमें उम्मीद है कि वो एक हरित-पट्टी के रूप में विकसित होगा, जिसकी इस क्षेत्र को बेहद जरूरत है। क्योंकि शहरवासियों ने ही उन पौधों को लगाया होगा इसलिये उनका इन पेड़ों से एक करीबी का भावनात्मक संबंध होगा।

अब जब आपका नासिक तबादला हो गया है तो कोई दूसरा व्यक्ति वहां आपके स्थान पर आयेगा। आपने वहां जो काम शुरू किया क्या उसे दूसरा व्यक्ति भी जारी रखेगा?


(हंसती हैं)। अगर आप यह सोचने लग जायें कि आपके प्रकल्पों का क्या होगा तो आप शायद उनके लिये कभी भी कुछ न करें। आपसे जितना संभव हो उतना अच्छी तरह करें और उस स्थिति में आने के बाद उसे छोड़ दें।

क्या अन्य सिविल सर्विस की नौकरियों की तरह यहां भी बहुत तबादले होते हैं?


हां। हमारे यहां हरेक तीन साल में तबादला होता है। यह लगभग अनिवार्य है।

आपकी नौकरी पर आपके पति की क्या प्रतिक्रिया है?


(हंसती हैं)। उनकी काफी मदद मिली है। हमारी शादी 1993 में हुई। उस समय तक मैं फॉरेस्ट अफसर बन चुकी थी। वो मेरे पेशे की प्रकृति से अच्छी तरह अवगत थे। उन्होंने पढ़ाने के पेशे को मनमर्जी से चुना है। शादी के समय मेरी पोस्टिंग पुणे में थी और इसलिये उन्होंने भारतीय विद्यापीठ इंजिनियरिंग कालेज, पुणे में नौकरी ले ली। जब मेरा तबादला अलीबाग में हुआ तो वो भी पेन इंजिनियरिंग कालेज में आ गये। यहीं सबसे करीब का विकल्प था। हर बार जब वो किसी नये कालेज में नौकरी लेते हैं तो एक साल तक उन्हें कोई भी छुट्टी नहीं मिलती है। इसलिये हर बार मेरे तबादले के साथ उन्हें अपनी छुट्टियां गंवानी पड़ती हैं। अभी तक हम भाग्यशाली रहे हैं कि जिन दोनों जगहों पर जहां मेरी पोस्टिंग हुई वहीं उन्हें आसपास कोई उपयुक्त नौकरी मिल गयी है। कुछ समय तक हमें एक-दूसरे से दूर रहना पड़े हम इस बात के लिये भी तैयार हैं। मेरे पति मेरी दिक्कतों को समझते हैं और मेरी सहायता भी करते हैं।

आपकी नौकरी के दबाव के कारण क्या आपके परिवार को कभी-कभी परेशानियां भी झेलनी पड़ती हैं?


नौकरी के बाद मुझे जो भी अतिरिक्त समय मिलता है मैं उसे पूरी तरह अपने परिवार के साथ बिताती हूं। मेरी एक चार बरस की बेटी है। जब वो छोटी थी तो उसके पास अधिक समय बिताना मेरे लिये बहुत मुश्किल हो जाता था। दौरे पर जाते समय अगर साथ में कोई बड़ा उच्च अधिकारी साथ नहीं होता तो मैं बेटी को भी अपने साथ ही लेकर जाती! कई बार उसे बीमार छोड़कर भी मुझे काम पर जाना पड़ा है। तब मेरी सास उसको मेरे आफिस में लेकर आतीं। अगर उस समय आप मेरे आफिस में आतीं तो आप मेरी बेटी को मेज पर एक ओर सोते हुये और मुझे दूसरी ओर काम करते हुये पातीं। कभी-कभी आपको इन परिस्थितियों से जूझना ही पड़ता है। सामाजिक वानिकी जैसे प्रकल्पों में, आफिस छोड़ने के बाद उस दिन के लिये आपका काम पूरी तरह खत्म हो जाता है। परंतु असली फॉरेस्ट विभाग में यह ड्यूटी, चैबीसों घंटे की होती है। कभी भी रात में या दिन में फोन बज सकता है और फिर आपको सर्वेक्षण के लिये जाना पड़ सकता है। इसलिये परिवार का सहयोग बेहद आवश्यक है, विशेषकर पति या पत्नी का।

वो कौन से आवश्यक गुण हैं जो एक फॉरेस्ट अफसर में होने चाहिये?


उसे घूमने/फिरने वाला होना चाहिये क्योंकि यात्रायें इस पेशे का एक अहम हिस्सा है। प्रशासनिक कुशलतायें भी जरूरी हैं क्योंकि आखिर आपको दूसरे लोगों से ही काम लेना होता है। तकनीकी ज्ञान भी जरूरी है क्योंकि तभी आप प्रकल्प को जल्दी से समझ पायेंगी। यह इसलिये होता है क्योंकि आपका प्रशिक्षण एक चीज में होता है और आपसे बिल्कुल दूसरे तरह का काम कराया जाता है।

क्या आप युवा पीढ़ी को आईएफएस में जाने की सलाह देंगी?


हां। जरूर। हमें ऐसे बहुत से ईमानदार लोगों की आवश्यकता है जो पर्यावरण संरक्षण के लिये समर्पित हों।

अलीबाग में श्री पार्थ बापट द्वारा लिये गये साक्षात्कार के कुछ अंश। उसके तुरंत बाद ही सुश्री सुनीता सिंह का डिप्टी कंजरवेटर आफ फॉरेस्ट की पद पर नासिक तबादला हो गया।

श्री पाथ बापट ‘द रीच’ नाम की एक पर्यावरण संस्था चलाते हैं।

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