राजस्थान में घुमंतू

रूखी आबोहवा में पशुपालन ही सबसे ज्यादा सुरक्षित धंधा है। किसी साल सूखा पड़ता है तो हो सकता है खेती में अच्छे मौसम की तुलना में 10 प्रतिशत से भी कम पैदावार हो, लेकिन दूध और ऊन की पैदावार में 50 प्रतिशत से ज्यादा ही पैदावार रहती है।

सामान्य वर्षों में जब अच्छी बारिश होती है और काफी मात्रा में घास का मिलना निश्चित हो जाता है, तो पशु गांव के आसपास या 25 से 30 किलोमीटर व्यास के क्षेत्र में चरने जाते हैं। लेकिन सूखे के सालों में चरवाहे पंजाब, गुजरात और उत्तर प्रदेश तक चले जाते हैं। कई परिवारों के समूह इकट्ठे मिलकर ऐसे काफिलों में यात्रा करते हैं। ये लोग उन्हीं रास्तों से जाते हैं जिनसे इनके पुरखे जाते थे, लेकिन अब इनके सामने कठिनाइयां ज्यादा आती हैं। इन यात्रियों की मंजिल मध्य प्रदेश का मालवा और राजस्थान व उत्तर प्रदेश की सीमा होती है-जैसे कोटा, आगरा, हाथरस, अलीगढ़ आदि।

सूखे क्षेत्र के घुमंतू कोई अलग समाज नहीं है। इनके और स्थायी निवासियों के बीच आदान-प्रदान के गहरे संबंध चले आए हैं। राजस्थान के सूखे इलाके के घुमंतू चार तरह की जीविकाएं अपनाते रहे हैं। राइका, सिंधी, पडिहार, बिलोच आदि चराई के काम में लगते हैं। बंजारे घटवाल जोगी और गवरिया व्यापार करते हैं। गडिया लोहार, सांसी और सत्तिया धातु के उद्योग अपनाते हैं और नट, कालबेलिया जोगी आदि कला की परंपरा को बढ़ाते हैं।

घुमंतू का कहना है पिछले 30 सालों में बड़ी तेजी से परिवर्तन आया है। पहले गांव के किसान खुद कहते थे कि हमारे खेतों में मवेशी को बिठाओ, क्योंकि उससे उन्हें खाद मिलती थी। हर रात के हिसाब से कुछ पैसे भी देते थे। कभी-कभी खाद के बदले में किसान अनाज भी देते थे लेकिन वह प्रथा अब टूटने लगी है।

हाल के वर्षों में गांव के स्थायी निवासी इन घुमंतुओं को मुसीबत मानने लगे हैं। ये घुमंतू पहले जो चीजें बनाते थे, उनके लिए अब गांव वाले इन लोगों पर निर्भर नहीं हैं। अब तो बड़ी संख्या में पशु पालने वाले राइका, सिंधी आदि घुमंतू और अंग्रेजों के समय से चोर-उच्चकों में गिने जाने वाले सांसी, नट और सत्तिया जैसे घुमंतुओं का गांवों में आना लोगों को बड़ा खलने लगा है। लोग उनका कड़ा विरोध करते हैं। लेकिन गवरिया, घटवाल जोगी, आसर गाड़िया लोहारों के प्रति वैसा विरोध नहीं है।

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