राजस्थान में वानिकी विकास परियोजना ने खोले समृद्धि के द्वार

15 Nov 2015
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राजस्थान के 15 गैर-मरुस्थलीय जिलों में हरीतिमा संवर्धन के लिये जापान सरकार के आर्थिक सहयोग से आरम्भ की गई वानिकी विकास परियोजना न केवल निश्चित समयावधि में समाप्त की गई, अपितु उसने स्थानीय ग्रामवासियों की समृद्धि के द्वार ही खोल दिये। प्रस्तुत है परियोजना स्तर से कराये गये विभागीय सर्वेक्षण की एक रिपोर्ट।

एनीकटों के निर्माण-स्थल से समीपस्थ एवं निचले क्षेत्रों में स्थित कुँओं के जल-स्तर का भी अध्ययन किया गया है। प्रथम एनीकट टाइप के आस-पास के कुँओं में दो से छह फीट तक जल-स्तर में बढ़ोत्तरी पाई गई। द्वितीय टाइप एनीकटों के आस-पास के कुँओं में भी दो से आठ फीट तक एवं तृतीय टाइप में ढाई से दस फीट तक जल-स्तर में बढ़ोत्तरी ग्रामवासियों के द्वारा बताई गई है।

राजस्थान में हरीतिमा संवर्धन के लिये राज्य के गैर-मरुस्थलीय पन्द्रह जिलों में जापान सरकार के आर्थिक सहयोग से वर्ष 1995-96 में आरम्भ की गई वानिकी विकास परियोजना के उद्देश्यों एवं निर्धारित लक्ष्यों को निश्चित समयावधि में प्राप्त किया जाना परियोजना की सफलता का द्योतक है। परियोजना की वित्तीय संस्था ‘जापान बैंक फॉर इंटरनेशनल कोऑपरेशन’ (जेबीआईसी) के समीक्षा दल ने परियोजनांतर्गत कराये गये वन-विकास एवं वन-संरक्षण कार्यों तथा प्रयासों की मुक्त कंठ से सराहना की है।

परियोजना के तहत विभागीय स्तर पर एवं जनसहभागिता से कराये गये वृक्षारोपण कार्यों तथा जल एवं मृदा संरक्षण संरचनाओं-एनीकट व अर्दन डेम/चैक डेम आदि का निर्माण व अन्य प्रकार के वानिकी विकास कार्यों से साझा वन-प्रबंधन क्षमता में वृद्धि हुई है। ग्रामवासी अब अपने ग्रामों के समीपस्थ वन क्षेत्रों को अपनी धरोहर मानकर उनकी सुरक्षा के प्रति सचेत हुये हैं। ग्रामवासियों की सहभागिता से बनाई गई ग्राम्य वन-सुरक्षा समितियों तथा विभागीय स्तर से निर्मित जल एवं मृदा संरक्षण संरचनाओं ने ग्रामीणों की समृद्धि के द्वार ही खोल दिये हैं।

परियोजना के सभी पन्द्रह जिलों- जयपुर, दौसा, अजमेर, भीलवाड़ा, राजसमंद, डूंगरपुर, भरतपुर, धौलापुर, करौली, सवाईमाधोपुर, टोंक, कोटा, बूंदी, बारां एवं झालावाड़ के वन मंडलों तथा अभियांत्रिकी मंडल द्वारा निर्धारित लक्ष्य 530 की तुलना में 571 जल एवं मृदा संरक्षण संरचनाओं का निर्माण किया गया। जिनसे न केवल वन भूमि एवं वन सम्पदा को बल्कि निकटस्थ ग्रामवासियों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लाभ ही लाभ हुआ। इन जिलों में निर्मित एनीकटों में प्रथम टाइप के 103, द्वितीय टाइप के 153 एवं तृतीय टाइप के 112 एनीकट तथा 203 मिट्टी के बंध (अर्दन डेम चैक डेम आदि) बनाये गये।

वानिकी विकास परियोजना के तहत निर्मित जल एवं मृदा संरक्षण संरचनाओं के निर्माण से स्थानीय ग्रामवासियों को हुये लाभों एवं क्षेत्र में जल-संरक्षण आदि से हुये प्रभावों को जानने के लिये परियोजना स्तर से विभागीय सर्वेक्षण कराया गया। सर्वेक्षण कार्य हेतु फील्ड स्टाफ ने परियोजनांतर्गत विभिन्न क्षेत्रों में जाकर 63 एनीकटों का सर्वेक्षण/अध्ययन किया। सर्वेक्षण दलों ने ग्रामवासियों से रूबरू वार्तालाप के अलावा निर्धारित प्रपत्रों में जानकारी भी प्राप्त की। परियोजनांतर्गत इन कार्यों की सार्थकता निम्न तथ्यों से स्वतः सिद्ध है:

जल भराव क्षमता


परियोजना क्षेत्र के विभिन्न वन मंडलों में निर्मित एनीकटों में जिन 63 एनीकटों का नमूना सर्वेक्षण किया गया उनमें लगभग 10,517 हेक्टेयर वन एवं राजस्व क्षेत्र का जल संग्रहित हुआ है। साथ ही इन एनीकटों की भराव क्षमता में भी वृद्धि हुई है। सर्वेक्षित एनीकटों के निर्माण से इनके समीपस्थ 122 ग्रामों के ग्रामवासी एवं उनके मवेशी लाभान्वित हुये हैं। सर्वेक्षित एनीकटों में औसतन प्रति एनीकट 2.28 हेक्टेयर मीटर जल का भराव हुआ तथा औसतन दो ग्रामों के वाशिन्दे एवं उनका पशुधन लाभान्वित हुआ। इस प्रकार परियोजना के तहत निर्मित एनीकटों से 1302 हेक्टेयर मीटर भराव क्षमता में वृद्धि हुई है।

जल उपलब्धता


एनीकट निर्माण से पूर्व गाँव के जानवरों जैसे, गाय, भैंस, बकरी, घोड़ा, कुत्ता आदि मवेशियों के लिये नदी, कुँओं, बावड़ियों तथा बहते नालों से जल उपलब्ध होता था। एनीकट निर्माण के बाद इन जानवरों को अब अधिक समय तक पीने हेतु पानी उपलब्ध होने लगा है। जंगली जानवरों हेतु वन क्षेत्रों में रियासतकालीन जल-स्रोतों से जल उपलब्धता बहुत कम होती महसूस की गई। वानिकी विकास के अन्तर्गत विभिन्न वन मंडलों के वन्य जीव अभ्यरण्यों तथा शिकार-निषिद्ध क्षेत्रों में एनीकट निर्मित कराये गये जिससे इन क्षेत्रों में निवास/शरण लेने वाले वन्य प्राणियों को वन क्षेत्र में ही जल सुलभ होने लगा है। राजस्व क्षेत्र में निर्मित एनीकटों पर भी ग्रामवासियों द्वारा सियार, सूअर, हिरण, लोमड़ी, भालू, खरगोश, जरक एवं बघेरे इत्यादि जंगली जानवर पानी पीते देखे गये हैं। कुछ एनीकटों में जल-ठहराव की अवधि अधिक होने के कारण उनके आस-पास इस तरह का परिप्रेक्ष्य बन जाता है। जिससे कुछ जलीय जीव-जन्तु एवं पक्षी समूह उस एनीकट के आस-पास विचरण करते दिखाई देने लगते हैं। ऐसे स्थानों को ये जीव-जन्तु अपनी शरण स्थली भी बनाने लगे हैं अर्थात विभिन्न जिलों में निर्मित इन एनीकटों के भराव क्षेत्रों में वन्य प्राणियों एवं पशु-पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों तथा स्तनधारी एवं रेंगने वाले जीवों की कई प्रजातियों को उनके शरण-स्थलों के आस-पास ही जल उपलब्ध होने लगा है।

जल-स्तर में बढ़ोत्तरी


एनीकटों के निर्माण-स्थल से समीपस्थ एवं निचले क्षेत्रों में स्थित कुँओं के जल-स्तर का भी अध्ययन किया गया है। प्रथम एनीकट टाइप के आस-पास के कुँओं में दो से छह फीट तक जल-स्तर में बढ़ोत्तरी पाई गई। द्वितीय टाइप एनीकटों के आस-पास के कुँओं में भी दो से आठ फीट तक एवं तृतीय टाइप में ढाई से दस फीट तक जल-स्तर में बढ़ोत्तरी ग्रामवासियों के द्वारा बताई गई है। एनीकटों के समीपस्थ क्षेत्रों में भूमिगत जल-स्तर में बढ़ोत्तरी के कारण नलकूपों तथा हैण्डपम्पों में पानी की अधिक आवक एवं अधिक समय तक उपलब्धता महसूस की गई। इनका जल-स्तर भी बढ़ा हुआ पाया गया। सन 1998-99 एवं 1999-2000 में कम वर्षा के बावजूद कुल 33 एनीकटों (लगभग 49 प्रतिशत) के क्षेत्रों में स्थित कुँओं के जल-स्तर में दो से दस फीट तक की बढ़ोत्तरी पाई गई तथा भूमिगत जल-स्तर में व्यापक सुधार बताया गया।

उत्पादन वृद्धि


परियोजनांतर्गत किये गये सर्वेक्षण/अध्ययन से विदित हुआ कि अधिकतम एनीकटों का निर्माण वानिकी भूमि के कैचमेंट में किया गया है जिससे जलग्रहण क्षेत्र में पानी के रुकने से उस क्षेत्र के आस-पास पानी उपलब्ध हुआ है। उस एनीकट के पास जो पौधारोपण कार्य किया गया, उसमें सिंचाई हेतु यह पानी उपयोग में लाया गया जिससे उस जलग्रहण क्षेत्र के पौधों की वृद्धि एवं उनका विकास काफी उत्साहजनक रहा है। इसके अलावा जो एनीकट राजस्व एवं बंजर भूमि जलग्रहण क्षेत्र में बनाये गये उनमें 2492 बीघा जमीन पर प्रथम बार सिंचाई करके सिंचित रकबा बढ़ाया गया एवं 120 डीजल पम्पसेटों द्वारा सिंचाई का साधन ग्रामवासियों द्वारा अपनाया गया जिससे उनकी औसत उपज में करीब सवा पाँच क्विंटल प्रति हेक्टेयर की वृद्धि हुई एवं एक परिवार में 5200 रुपये तक की अतिरिक्त आय हुई, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत हुई।

नमी में वृद्धि


एनीकटों के आस-पास नमी की अवधि का अध्ययन करने पर विदित हुआ कि भूमि में नमी की अवधि विभिन्न क्षेत्रों की बरसात की स्थिति के अनुरूप रही है। जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा आदि क्षेत्रों में बरसात कम होने के कारण एनीकटों में जल ठहराव की अवधि कम रही। पर्याप्त बरसात वाले क्षेत्रों में जल-भराव की अवधि एवं भूमि में नमी की अवधि अधिक समय तक देखी गई। इन एनीकटों के अध्ययन से विदित हुआ कि 10 एनीकटों में भूमि में नमी की अवधि 30 दिन से कम रही। बीस एनीकटों में भूमि में नमी की अवधि 30 से 90 दिन रही। चौदह एनीकटों में 90 से 180 दिनों तक तथा 12 एनीकटों में 180 दिन से अधिक अवधि तक यह नमी ग्रामवासियों द्वारा देखी गई। उल्लेखनीय स्थिति यह रही कि जल के बहाव को रोकने पर एनीकटों के पीछे लम्बाई में अधिकतम 3000 मीटर तक तथा चौड़ाई में 112 मीटर तक पानी रुका हुआ पाया गया। इन संरचनाओं में औसतन 148 दिन तक तृतीय टाइप एनीकटों में, 129 दिन द्वितीय टाइप तथा 102 दिन प्रथम टाइप एनीकटों में भूमि में नमी रही। इस प्रकार एक एनीकट से भूमि में औसतन 131 दिन तक नमी रही।

विशेष योगदान


परियोजनान्तर्गत कराये गये इस सर्वेक्षण/अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि बरसात के पानी के समुचित दोहन हेतु निर्मित ये लघु जल एवं मृदा संरक्षण संरचनाएँ ग्रामीण जन-जीवन के सामाजिक एवं आर्थिक उन्नयन के साथ-साथ पारिस्थितिकीय विकास के लिये भी दीर्घकालिक स्थायी समाधान सिद्ध हो सकेंगी। विशेष रूप से राजस्थान जैसी विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्य में, जहाँ अकाल एक स्थायी समस्या के रूप में सदैव मौजूद रहता है, इस प्रकार की संरचनाओं का निर्माण योजनाबद्ध तरीके से व्यापक स्तर पर किया जाना चाहिये। निःसंदेह इन संरचनाओं को वानिकी विकास, पारिस्थितिकीय विकास, वन्य जीव संरक्षण तथा ग्रामीण जन एवं पशु सम्पदा के जीवनाधार संसाधन के रूप में स्वीकार कर वनारोपण परियोजनाओं में विशेष महत्व दिया जाना चाहिये तथा इनका अधिकाधिक निर्माण किया जाना चाहिये।

(लेखक भारतीय वन सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं।)

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