राष्ट्रीय जलनीति 2012 का संशोधित मसौदा : थोड़ा ठीक हुआ, काफी कमियां बाकी

22 Aug 2012
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प्रस्तुति
राजीव चन्देल


यदि राज्य सरकारें व स्थानीय निकायें यह सुनिश्चित करें की नजीकरण को प्रोत्साहित किया जाना है। लेकिन एक तरफ तो निजीकरण कम करने की पहल की गई है, वहीं दूसरी तरफ यह कहा जा रहा है कि प्राइवेट सेक्टर को शर्तों के आधार पर सेवा प्रदाता बनाया जा सकता है, लेकिन इन नीतियों के बनिस्बत यह भी देखना है जो कि समान रूप से महत्वपूर्ण है। देश में जल प्रबंधन को निजी हाथों में अनुबंधित किये जाने के बाद प्रायः यह देखा गया कि वह सेवा प्रदाता व्यक्तिगत लाभार्थी के रूप में इस उद्देश्य से बदल गये जिससे निजी कंपनियों को मुनाफा हो।

राष्ट्रीय जल नीति का संशोधित मसौदा, जिसे हाल में ही सामने लाया गया है, उसमें पहले की अपेक्षा स्पष्ट तौर पर सुधार हैं। नये मसौदे से यह प्रतीत होता है कि ड्राफ्ट कमेटी ने पहले तैयार किये गये मसौदे (पूर्व योजना) में कई आपत्तियों को शामिल किया है। बावजूद इसके, इसे अंतिम नहीं मान लेना चाहिए। अभी इस पर अत्यधिक कार्य होना चाहिए। भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय ने 25 जुलाई 2012 को राष्ट्रीय जल नीति (2012) के संशोधित प्रारूप (Revised) को सार्वजनिक किया। पहले इस मसौदे को इसी साल जनवरी में जनता के समक्ष रख कर इस पर टिप्पणियां मांगी गई थी। लेकिन इस मसौदे के साथ भी वही कुछ हुआ, जो कि आम सहमति पर किये जाने वाले विकास योजनाओं के साथ होता आया है। कुछ को छोड़कर कई अन्य मामलों के अनुभव ऐसे हैं जिनमें सरकारें पहले लोगों से टिप्पणियां (comments) मांगती हैं, लेकिन मिल जाने पर प्रायः उन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।इस नए मसौदे को पढ़ने के बाद हालांकि यह स्पष्ट है कि इस पर आईं कई एक महत्वपूर्ण टिप्पणियों एवं कुछ आलोचनाओं को शामिल कर पहले की तुलना में उपयुक्त बदलाव किये गये हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, अभी भी देश के कई समस्याग्रस्त क्षेत्रों की घोर उपेक्षा की गई है, जिन्हें इसमें शामिल किया जाना बाकी है।

‘निजीकरण’ के दबाव को कम करने की पहल


पानी के निजीकरण के प्रस्ताव पर नए मसौदे में अपेक्षित संशोधन किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि पानी के निजीकरण की तीखी आलोचना के बाद इसे बार-बार दुहराने का दबाव कम हुआ है। पहले तैयार किये ड्राफ्ट में यह बड़े स्पष्ट तौर पर कहा गया था कि पानी वितरण को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (Public private partnership) के मॉडल पर जल प्रबंधन या वितरण को प्राइवेट सेक्टर को अन्य सेवा प्रदाताओं को दिया जाना चाहिए। हालांकि इसकी तीखी आलोचना हुई। इन बातों से ऐसा लगता है कि पानी को निजी हाथों में दिये जाने के पिछले दस सालों के अनुभवों से सरकार ने कुछ नहीं सीखा, जिसके परिणाम अनर्थकारी रहे हैं। संशोधित मसौदे में इससे संबंधित कुछ खंडों का प्रतिस्थापन किया गया है।

मसौदे का उपवाक्य 12.3


जल संसाधन परियोजनाओं एवं सेवा प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी होनी चाहिए। जहां पर भी यदि राज्य सरकारें या स्थानीय निकाय यह सुनिश्चित करती हैं तो निजी हाथों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल पर सेवा प्रदाता बनाया जा सकता है। इसके लिए सेवा प्रदाताओं के लिए सेवा की शर्तें निर्धारित हो, जिससे उनके फेल होने पर दंड का प्राविधान हो।

इस प्रकार, अब जल प्रबंधन योजनाओं में सामुदायिक भागीदारी प्रमुख है। यदि राज्य सरकारें व स्थानीय निकायें यह सुनिश्चित करें की निजीकरण को प्रोत्साहित किया जाना है। लेकिन एक तरफ तो निजीकरण कम करने की पहल की गई है, वहीं दूसरी तरफ यह कहा जा रहा है कि प्राइवेट सेक्टर को शर्तों के आधार पर सेवा प्रदाता बनाया जा सकता है, लेकिन इन नीतियों के बनिस्बत यह भी देखना है जो कि समान रूप से महत्वपूर्ण है। पहले भी प्राइवेट सेक्टर ने सेवा शर्तों की सहमति के आधार पर सरकारी प्रबंधन को निजी हाथों में लिया है, लेकिन फेल होने पर नियमानुसार उनसे की जाने वसूली नहीं हो पायी न तो उन्हें किसी प्रकार कोई दंड दिया गया। निजीकरण की यह एक पहचान है, हालांकि यह देर से पता चला। देश में जल प्रबंधन को निजी हाथों में अनुबंधित किये जाने के बाद प्रायः यह देखा गया कि वह सेवा प्रदाता व्यक्तिगत लाभार्थी के रूप में इस उद्देश्य से बदल गये कि जिससे निजी कंपनियों को मुनाफा हो। सेवा शर्तों की गुणवत्ता व उसके मानक के मुताबिक निजी कंपनियां विधिक रूप से जो अनुबंध करती है, उस दायित्व को पूरा नहीं करतीं।

बेशक, निजीकरण की तीव्रता को कम करने की पहल का स्वागत है। लेकिन पानी के निजीकरण का मामला अभी भी प्रतिक्षारत है और यह एक महत्वपूर्ण समस्यात्मक क्षेत्र है। जिससे यह स्पष्ट है कि उदारीकरण, निजीकरण का मॉडल, जिसमें कि निजी कंपनियां संसाधनों को अपने हाथों में लेकर अपना हित साधती हैं और जो अभी भी अच्छी तरह से आरोपित हैं। पिछले कुछ वर्षों के सबक हैं कि पानी की जरूरत जनता के अधिकार क्षेत्र में बनी हुई है बावजूद इसके उसकी लगतार अवहेलना की जा रही है।

यह भी अजीब है कि जब परियोजनाओं का प्रबंधन सामुदायिक भागीदारी के साथ किया जाना है तो क्या यह निजीकरण का निर्णय करने या नहीं करने के लिए समुदायों से विचार विमर्श करने की या कहने की आवश्यक प्रतीत नहीं होती। राज्य या लोकल सरकार इसे अपने दम पर कर सकती हैं।

प्राथमिकताओं का चिन्हीकरण:


शहरों में बढ़ रही जनसंख्या को पेयजल उपलब्ध कराने के लिए दूर के स्थानीय स्रोतों से पानी खींचने की परियोजनाएं बनती हैं लेकिन उस समय स्थानीय समुदायों और स्थानीय संसाधनों की पूरी तरह से उपेक्षा की जाती है। एक तरफ तो मसौदे में यह कहा जा रहा है कि जल के स्थानीय स्रोतों, उसके उपयोग पर समुदायों की भागदीरी होगी और दूसरी तरफ शहरों में पेयजल का समाधान भी नहीं सुझाया गया है। जिससे साफ जाहिर है कि लंबी दूरी पर स्थानीय स्रोतों से पानी खींचा जायेगा और ऐसे में स्थानीय समुदायों के जल संसाधनों का व्यापक पैमाने पर दोहन होगा।

संशोधित मसौदे में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण बदलाव यह है कि यह गरीबों की जीविका व खाद्य सुरक्षा के लिए उच्च प्राथमिकता के रूप में पानी के उपयोग की मान्यता देता है। मसौदे के मुताबिक जल के उपयोग को गरीबों की मूलभूत जीविकोपार्जन में सहयोग और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए उच्च प्राथमिकता देते हुए आर्थिक वस्तु के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए। साथ ही जल से अधिकतम लाभ प्राप्त करना निर्धारित किया जाना चाहिए। इससे यह निचोड़ निकल कर सामने आता है कि अधिकतम लाभ शुद्ध रूप से वित्तीय शर्तों को परिभाषित करता है। इस प्रकार उन लोगों के लिए जल धन पैदा करने की आवश्यता के रूप में होगा न कि लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए। संशोधित प्रारूप में अब इस बात को रखा गया है कि जल गरीबों की मूलभूत जीविकोपार्जन में सहयोग, खाद्य सुरक्षा के साथ जीवित रहने और पारिस्थतिकी प्रणाली को बनाए रखने के रूप में आवश्यक है। अर्थात मूल्यों के अंतर से इन सभी के सुरक्षित बनाये रखने की संभावना रहेगी। इसके उपयोगिता का प्राथमिकता के आधार पर पहचान करना एक महत्वपूर्ण कदम है।

वहीं नए ड्राफ्ट में पशुओं के लिए पानी की आवश्यकता की पहचान करना नए प्रारूप का दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु है। यह भी एक स्वागतयोग्य संयोजन है।

नदी जोड़ो का नाम बदलकर गुणगान:


पहले तैयार किये मसौदे की नीति में अंतर नदी घाटी स्थान्तरण का गुणगान किया गया है। मसौदे में कहा गया है कि अंतर नदी घाटी स्थान्तरण से न केवल उत्पादकता में वृद्धि होगी बल्कि मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करते हुए सामाजिक समानता और न्याय हासिल होगा। इसके अतिरिक्त बाढ़ क्षेत्रों का पानी सूखे इलाके में भेजकर उस इलाके में गिरते हुए भू-गर्भ क्षेत्र में वॉटर रिचार्ज को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यदि स्थान्तरण खुले से बंद घाटियों की तरफ होता है तो बढ़े हुए पानी का उपयोग होता है। ऐसे स्थान्तरणों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।

अंतर घाटी स्थान्तरण नदी जोड़ो परियोजना का दूसरा नाम है। इसलिए इस स्तर पर यह नीतियां महत्वपूर्ण हैं। पहले की नीतियों के कथन, जैसे कि उपर उद्धत किया गया है, नदी जोड़ो परियोजना की विशेषताओं की अत्यधिक आलोचना हुई थी, क्योंकि ऐसा कर पाना संभव ही नहीं है। इस धारण से यह भी आभास होता है कि यह जलसंसाधनों और नदियों के आधुनिक समझ के विपरीत है। विशेषकर नदियों के बहाव को बनाए रखना और घाटी आधारित विकास के विकल्पों की प्राकृतिक निधि के रूप में खोज करना मुश्किल है।

संशोधित मसौदे में अभी भी यह दावा किया गया है कि अंतर नदी घाटी स्थान्तरण से समानता और सामाजिक न्याय प्राप्त होगा। जो संदेहपूर्ण है। लेकिन यह कहने की बजाय कि अंतर घाटी स्थान्तरण को प्रोस्ताहित किया जाना चाहिए, पर्यावरणीय, अर्थिक व सामाजिक प्रभावों के मूल्यांकन के आधार पर ही अंतर घाटी स्थान्तरण पर विचार होना चाहिए।

यह एक सर्वमान्य बात है कि अंतर घाटी स्थान्तरण मूलभूत रूप से वांछनीय व लाभकारी नहीं है। इसकी उपयोगिता के बारे में जैसा बताया जा रहा है उसकी ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन काफी समझ बूझ कर इस बात का मूल्यांकन हो सकता है कि यह कहां-कहां पर वांछनीय और लाभकारी है। विशेषतया हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भ का अवलोकन करते हुए जिसमें सरकार से नदी जोड़ो परियोजना के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए कहा गया है।

यह एक तर्क दिया जा सकता है कि सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का मूल्यांकन अब पहले से भी अधिक आवश्यक है। हालांकि वर्तमान में इस ड्राफ्ट को विधिक प्रक्रिया कदम के रूप में आगे बढ़ाने के बजाय निर्णय लेने में इसे एक इनपुट की तरह लिया जा रहा है। जल नीति के मसौदे में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह अध्ययन प्रत्येक मामले के गुणों के आकलन का एक हिस्सा है और ऐसे ऐसेसमेंट व्यापक मूल्यांकन से बाहर ले जाने के बाद किया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में इसका अध्ययन निर्णय प्रक्रिया के एक भाग के रूप में किये जाने की आवश्यकता है कि अंतर बेसिन स्थान्तरण हो या नहीं।

नये मसौदे में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पानी की स्थानीय उपलब्धता व अनूकुलता के अनुसार पानी के उपयोग करने के लिए सबसे पहले समुदायों को अवगत कराते हुए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। दूर से पानी खींचकर फिर उसकी आपूर्ति करने की हमेशा से आलोचना हुई, बिल्कुल उसी तरह से जैसे नदी जोड़ो परियोजना का पूरे देश में विरोध किया गया। बावजूद इसके सरकारें ऐसी परियोजनाओं को अपने हिसाब से तैयार करती हैं और फिर उसे लागू करने की कोशिश करती हैं। शहरी जलापूर्ति के मामले में अक्सर यही होता है। लंबी दूरी से पानी लाकर उसे लोगों को उपलब्ध कराया जाता है। दूर किसी स्रोतों से पानी लाने की बड़ी-बड़ी योजनायें तैयार की जाती हैं, क्योंकि इसके अतिरिक्त सरकारों के पास कोई उपयुक्त समाधान नहीं। शहरों में बढ़ रही जनसंख्या को पेयजल उपलब्ध कराने के लिए दूर के स्थानीय स्रोतों से पानी खींचने की परियोजनाएं बनती हैं लेकिन उस समय स्थानीय समुदायों और स्थानीय संसाधनों की पूरी तरह से उपेक्षा की जाती है। जलनीति के मसौदे में इन बातों का कोई उल्लेख, आंकलन के मुताबिक क्यों नहीं किया गया कि आखिर साल दर साल बढ़ रहे शहरीकरण को देखते हुए पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए क्या स्रोत होने चाहिए। एक तरफ तो मसौदे में यह कहा जा रहा है कि जल के स्थानीय स्रोतों, उसके उपयोग पर समुदायों की भागदीरी होगी और दूसरी तरफ शहरों में पेयजल का समाधान भी नहीं सुझाया गया है। जिससे साफ जाहिर है कि लंबी दूरी पर स्थानीय स्रोतों से पानी खींचा जायेगा और ऐसे में स्थानीय समुदायों के जल संसाधनों का व्यापक पैमाने पर दोहन होगा।

शेष कई और गंभीर कमियां


कई उपयोगी बदलावों के बावजूद संशोधित नीतियों में गंभीर खामियां यथावत हैं। इनमें कुछ समस्याओं का उल्लेख इसके पहले किया जा चुका है। पानी को मौलिक अधिकार बनाने की नीति को स्पष्ट रूप से घोषित न किया जाना संशोधित नीति की एक सबसे बड़ी खामी है। जिससे संशोधित मसौदा दो कदम और पीछे चला गया लगता है। इसके अलावां कई अन्य खामियां भी संशोधित ड्राफ्ट में विद्यमान हैं। जैसे सभी जल संसाधन परियोजनाओं को बहुआयामी न बनाया जाना, खासकर बड़े बांधों में वॉटर स्टोरेज के बारे में कोई स्पष्ट नीति का न होने के साथ ही सभी राज्यों में अयोग्य पानी नियामक संस्थाओं को सपोर्ट करने आदि जैसे कई बड़ी कमियां हैं। इस ड्राफ्ट में रिवराइन समुदाय की भूमिका की कमी बरकार है।

बगैर तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचे, मसौदा अंतिम चरण की ओर


7 जून 2012 से राष्ट्रीय जल बोर्ड की हुई कुल 14 बैठक के बाद हाल में इस मसौदे की सिफारिश की गई। इसके बाद आगे कोई टिप्पणी नहीं मांगी गई है। इसका मतलब यह है कि संभवतः अब अंतिम मुहर लगाने के लिए यह ड्राफ्ट यहां से जलसंसाधन परिषद को चला जायगा। लेकिन यह एक गंभीर भूल होगी, क्योंकि इस ड्राफ्ट में अभी कई गंभीर मुद्दे छूटे हुए हैं। पानी जैसे संवेदनशील व जीवन से जुड़ी नीतियों को अत्यधिक परदर्शी बनाने के लिए मंत्रालय को अभी एक बार और टिप्पणियां आमंत्रित करनी चाहिए। मंत्रालय को चाहिए कि वह अभी इस और विचार करने के लिए ड्राफ्ट को जनता के समक्ष प्रस्तुत करे जिससे इस पर राष्ट्रीय जल बोर्ड में गंभीरता के साथ मंथन हो और टिप्पणियां आएं। इसलिए कि जनता के पास भी एक अच्छा विवेक है जिससे वह जान सकती है कि इस संशोधित मसौदे की नीतियों में अभी क्या खामियां हैं और क्यो जोड़ना जरूरी है।

कुछ जरूरी टिप्पणियों को ड्राफ्ट में शामिल करने के बाद ड्राफ्ट तैयार करने में मंत्रालय ने एक अच्छा कदम उठाया है। लेकिन अभी मसौदे की कुछ प्रमुख समस्यात्मक चीजों को ध्यान में रखते हुए तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचने की आवश्यकता है।

संशोधित राष्ट्रीय जलनीति 2012 का मसौदा यहां हिंदी में संलग्न है।
See Attachment for Revised Draft National Water Policy (2012) Document



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