राष्ट्रीय पर्यावरणीय मुद्दे

5 Apr 2018
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भारत का भौगोलिक मानचित्र
भारत का भौगोलिक मानचित्र


अब तक आप पर्यावरण शब्द से परिचित हैं। आपको यह भी जानकारी है कि पर्यावरण की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। पर्यावरण की जो भी हानि किसी एक स्थान पर होती है, उसका प्रभाव पास या दूर के स्थानों पर भी पड़ता है। ये प्रभाव तुरंत या धीरे-धीरे दिखाई पड़ते हैं।

जनसंख्या की विस्फोटक वृद्धि के साथ मानव की बढ़ती अपेक्षाओं में बढ़ोत्तरी और जीवन स्तर में भी सुधार हुआ है। अधिक भोजन, अधिक मकान, अधिक परिवहन, अधिक ऊर्जा आदि सब वस्तुओं की और आवश्यकता हो गई है। मानव की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों में कमी आयी है, वनों की कटाई (वनोन्मूलन), जैव विविधता की क्षति, जल और ऊर्जा की कमी, खनिज संसाधनों का दोहन (नुकसान) आदि हुए हैं। इनसे पर्यावरण का अवक्रमण हुआ है। अब यह आवश्यक हो जाता है कि इन महत्त्वपूर्ण मुद्दों को पहचानते हुए संबोधित करें और संरक्षण में वृद्धि करें और पर्यावरण में सुधार लायें। इस पाठ में कुछ प्रमुख राष्ट्रीय पर्यावरणीय समस्याओं जैसे भूमि और वन-प्रबंधन, जल की कमी, ऊर्जा, प्राकृतिक संसाधनों में तेजी से होती हुई कमी तथा कई अन्य विषयों के बारे में जानकारी इस पाठ के माध्यम से प्राप्त करेंगे।

 

 

उद्देश्य


इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात, आपः
- भारत देश की भूमि और वनों के आंकड़े उपलब्ध करा पायेंगे;
- विकास को परिभाषित करें और जनसंख्या वृद्धि में परिवर्तन का विश्लेषण कर सकेंगे;
- जनसांख्यिकी कारक जो मानव जनसंख्या में परिवर्तन लाते हैं, उनके प्रभाव का विश्लेषण कर पायेंगे;
- मानव आबादी की वृद्धि प्रारूप (पैटर्न) का पता लगा पायेंगे;
- पर्यावरण पर मानव जनसंख्या में वृद्धि के प्रभाव की व्याख्या कर सकेंगे;
- पर्यावरण के बदलते प्रारूप (पैटर्न) के साथ शहरीकरण के मध्य संबंध बता सकेंगे;
- मरुस्थलीकरण, वनोन्मूलन, मृदा-क्षरण (अपक्षीर्णन) तथा जैव विविधता से संबंधित प्राकृतिक संसाधनों के क्षति का संक्षिप्त वर्णन कर पायेंगे।

 

 

 

 

13.1 भूमि तथा भारत के वन


हमारा देश दक्षिण मध्य एशिया के प्रायद्वीप पर है। भारत देश में मुख्य भूमि तथा द्वीपों के दो समूह बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार तथा अरब सागर में लक्षद्वीप शामिल हैं। भारत के भौगोलिक मानचित्र में (चित्र 13.1) रिलीफ (भौतिक लक्षणों) और भारत के समुद्र तट का पता चलता है। भारत की कुल भूमि 32,87,263 वर्ग किलोमीटर है और इसमें 7500 वर्ग किमी से अधिक समुद्र तट हैं। पूरी तरह से भूमध्य रेखा के उत्तर में स्थित होने के कारण, भारत उत्तरी गोलार्द्ध में है। यद्यपि भारत विश्व का सातवां सबसे बड़ा देश है, तथापि यह दुनिया के कुल क्षेत्र का केवल 2.42% भाग है।

चित्र 13.1 भारत का भौगोलिक मानचित्र

 

 

13.1.1 भूमि


भारत में भौतिक विविधताओं की महान विशेषता पाई जाती है। उत्तर में एक विशाल विस्तार है जिसमें अवसादी और रूपांतरित चट्टानें, पहाड़ों की चोटियों की ऊँची-ऊँची श्रृंखलाएं, पठारों से घिरे हुए क्षेत्र, गहरी और संकरी घाटियाँ शामिल हैं।

सिंधु नदी, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के विस्तार के साथ उत्तर भारत की ऊपरी सतह जलोढ़ मिट्टी से बनी है। उत्तरी मैदान देश के अनाज का भंडार है। दक्षिण में प्रायद्वीप पठार आग्नेय तथा रूपांतरित चट्टानों के मैदानों से निर्मित है। यह प्रायद्वीपीय पठार खनिजों से समृद्ध है और खनिजों का भंडार है। प्रायद्वीपीय पठार खनिजों का गोदाम है। तटीय क्षेत्र तथा द्वीप, मछली पकड़ने के लिये बंदरगाह तथा समुद्री गतिविधियों के लिये संपदा प्रदान करते हैं। इसके अतिरिक्त द्वीपों के समूह में मूंगों का विशाल भंडार है। इनमें समृद्ध जैव विविधता है तथा रक्षा उद्देश्यों के लिये ये बड़े सामरिक महत्त्व के हैं।

 

 

13.1.2 वन


किसी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में वन पेड़ या पौधों और संबंधित जीवों के पैदा होने वाला एक कवर क्षेत्र है। वन सूर्य के प्रकाश का उपयोग, वायु, जल और मिट्टी से ली गई सामग्री का उपयोग स्वयं को विकसित करने के लिये करते हैं। वन हमें (मानव को) लकड़ी के बांस, गोंद, रेजिन, रंग, टेनिन, रेशे, औषधियां तथा भोजन उपलब्ध कराते हैं।

 

 

 

 

पादपजात और प्राणीजात


भारत में अनेकों प्रकार की वनस्पतियाँ और जीव-जन्तु पाये जाते हैं। यह लगभग 8,100 जन्तु प्रजातियों और 49,000 प्रजातियों के पौधों, जिनमें 15000 पुष्पी पौधे शामिल हैं, का घर है। हिमालय तथा प्रायद्वीपीय क्षेत्रों का अधिकतर भाग देसी वनस्पतियों से घिरा हुआ है। उनमें से कुछ स्थानिक (स्थानीय, अन्य कहीं नहीं मिलने वाले) हैं। इसलिये वनों और वनस्पतियों का वर्गीकरण जलवायवीय कारकों जैसे तापमान, गर्मी, वर्षा, मिट्टी, जल निकासी आदि द्वारा निर्धारित किया जाता है। भारत में निम्नलिखित प्रकार के प्रमुख वनों की पहचान की जा सकती है।

i. उष्णकटिबंधीय वर्षा वन
ii. उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन
iii. शीतोष्ण चौड़ी पत्ती वाले वन
iv. शीतोष्ण सुई-पत्ती या शंकुधारी वन
v. अल्पाइन और टुंड्रा वनस्पति

आप पहले ही वनों के विभिन्न प्रकार के बारे में अध्ययन कर चुके हैं। तालिका 13.1 विभिन्न प्रकार के वनों के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों के आंकड़े प्रदान करती है।

तालिका 13.1 : भारत के वन क्षेत्रवनों के प्रकारक्षेत्र वर्ग किमी मेंभौगोलिक क्षेत्र का प्रतिशतघने वन3,77,35811.48खुले वन2,55,064 7.76सदाबहार (मैंग्रोव)4871 0.15सफाई (स्क्रव) 51,8961.58वन-रहित25,98,07479.03कुल32,87,623100.001999 में किये गये सर्वे के आंकड़े आई आर एस-1B (IRS-1B) आई आर एस-1C (IRS-1C) और आई आर एस-1D (IRS-1D) से प्राप्त चित्रों की सहायता से किये गये आकलन के अनुसार।

भारत के वनों से घिरे कुल क्षेत्रों में, सात पूर्वोत्तर राज्यों में 25.7%, उसके बाद मध्य प्रदेश में 20.68% तथा अरुणाचल प्रदेश में 10.8% भाग हैं।

 

 

 

 

पाठगत प्रश्न 13.1


1. इस वाक्य ‘कुछ भारतीय वनस्पतियाँ और पशुवर्ग स्थानिक हैं।’ का क्या अर्थ है?
2. भारत का कौन सा भाग ‘अनाज का भंडार’ और कौन सा भाग ‘खनिज भंडार’ है?
3. भारत के पाँच प्रमुख प्रकार के वनों की सूची बनाइये।
4. वनों से प्राप्त होने वाली तीन पदार्थों के नाम लिखिये।

 

 

 

 

13.2 जनसंख्या वृद्धि


मानव की बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या पर्यावरण की सबसे महत्त्वपूर्ण समस्याओं में से एक है। मानव जनसंख्या दो मुख्य कारणों से पर्यावरण पर खतरा पैदा करती हैः (1) लोगों की संख्या (2) पर्यावरण पर प्रत्येक व्यक्ति का प्रभाव। आप जानते हो कि पिछले चालीस वर्षों में मानव आबादी 2.5 अरब से दोगुनी होकर 6 अरब से भी अधिक हो गई है। इसी अवधि में हमारे देश में यह 431 करोड़ से 1027 करोड़ (एक अरब से भी अधिक) हो गई है।

जनसंख्या को इस तरह से परिभाषित कर सकते हैं कि ऐसे व्यक्तियों का समूह जो एक ही क्षेत्र में रहता हो और संकरण (प्रजनन) और आनुवांशिक पदार्थ को आपस में प्रयुक्त करने में सक्षम हो।

जनसंख्या अध्ययन (Demography) क्यों?
आर्थिक दृष्टि से जनसंख्या उपभोक्ताओं और निर्माताओं (उत्पादकों) से मिलकर बनती है। इसका अध्ययन हमें सहायता करता हैः-

- वर्तमान और भविष्य में उपलब्ध मानव-शक्ति के आंकड़े प्रदान करने में;
- वर्तमान और भविष्य में वस्तुओं या सेवाओं की अपेक्षित कुल मात्र का अनुमान;
- सांस्कृतिक/क्षेत्रीय/भाषायी सौहार्द को बढ़ावा देने के लिये।

 

 

 

 

13.2.1 मानव जनसंख्या वृद्धि के मुख्य आवर्त (मुख्य काल)


इतिहास के माध्यम से विश्व भर की जनसंख्या विकास के काल (समय) का पता चल सकता हैः

(1) शिकारी और संग्राहक की एक प्रारंभिक अवधिः उस समय कुल जनसंख्या एक लाख से कुछ कम थी।

(2) कृषि क्षेत्र में वृद्धि की अवधिः इस काल में लोगों के जनसंख्या घनत्व में काफी वृद्धि हुयी और मानव जनसंख्या में पहली बार इतनी बढ़ोत्तरी पायी गयी।

(3) औद्योगिक क्रांतिः इसके कारण अच्छी भोजन आपूर्ति, सुधारित स्वास्थ्य संबंधी सुविधायें जिनके कारण जनसंख्या वृद्धि में अचानक बढ़ोत्तरी होती गयी।

(4) वर्तमान में : जबकि देश की जनसंख्या, घनी और औद्योगिक देशों में नीचे गिरती जा रही है, वहीं पर यह निर्धन, विकासशील तथा अविकसित देशों में तेजी से बढ़ती जा रही है।

आर्थिक पैमाने से जनसंख्या को निम्नलिखित रूप से वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि किसी क्षेत्र के संसाधन लोगों के लिये पर्याप्त मात्रा से अधिक हैं तो वह क्षेत्र (1) आबादी के कम जनसंख्या के क्षेत्र के अंतर्गत है। यदि संसाधन केवल काफी हैं, तो ऐसे क्षेत्र को द्वितीय जनसंख्या वाला या चरम सीमा वाला क्षेत्र कहा जाता है। यदि संसाधनों का अति दोहन होता है तथा इस क्षेत्र के प्रत्येक व्यक्ति के लिये समान वस्तुएँ अथवा सेवाओं का उत्पादन नहीं हो पाता, तो वह क्षेत्र अति जनसंख्या वाला क्षेत्र कहलाता है।

इसीलिये व्यक्तियों की न केवल संख्या वरन प्रत्येक क्षेत्र में जीवन की गुणवत्ता बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रायः गुणों में ऐसी असमानताएँ सामाजिक तनाव/असंतुलन पैदा करने का कारण बनती हैं।

 

 

 

 

13.2.2 जनसांख्यिकीय विशेषताएँ


आबादी के विभिन्न पहलुओं के अध्ययन को जनसांख्यिकीय (Demography) कहते हैं। जनसांख्यिकी के अध्ययन के लिये प्रमुख मापदंड आकार, विकास, आयु-संरचना, जनसांख्यिकी लेनदेन, प्रजनन, जन्म दर, मृत्यु दर, जीवन का स्तर तथा वृद्धि और प्रवास के मानक होते हैं।

 

 

 

 

(i) आकार


जनसंख्या का आकार एक क्षेत्र/देश के व्यक्तियों की संख्या से मापा जा सकता है। 2001 में जनगणना द्वारा की गई जनसंख्या की गणना, जो भारत के रजिस्ट्रार जनरल (Registrar General of India) द्वारा की गई थी, पता चलता है कि भारत की जनसंख्या 102 करोड़ है। पिछले दशक 1991-2001 तक 18 करोड़ से भी अधिक पूर्ण वृद्धि हुई है। इसकी तुलना में 1901-1911 के दशक में पूर्ण वृद्धि केवल 1.36 करोड़ जनसंख्या की थी।

क्या हम एक राष्ट्र के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यक वस्तुएँ/सुविधायें उपलब्ध करा रहे हैं? पर्यावरण से संबंधित यह एक महत्त्वपूर्ण विषय (मुद्दा) है जो आज हमारे देश के सामने उपस्थित है।

 

 

 

 

(ii) जनसंख्या का विकास


अलग-अलग समय में जनसंख्या की वृद्धि, वृद्धि दर के रूप में व्यक्त की जा सकती है। वृद्धि दर, जो कि 1000 व्यक्तियों के अनुसार परिवर्तन की दर है, जनसंख्या में परिवर्तनों को निर्धारित करती है।

 

 

 

 

जनसंख्या की वृद्धि दर की गणना


विकास दर की गणना के लिये हमें पहले जन्म दर और मृत्यु दर की गणना करनी पड़ेगी।

हम उसको इस रूप में गणना कर सकते हैंः

जन्म दरः ऐसी दर जिसमें आबादी में होने वाले जन्म का हिसाब रखा जाता है।
आइये N = जनसंख्या में उपस्थित कुल व्यक्तियों की संख्या, B = प्रति यूनिट जन्मों की संख्या।
पूरी जनसंख्या में ‘N’ b = जन्म दर।
तब b = जन्म दर अथवा जनसंख्या में जुड़ने वाले प्रत्येक व्यक्ति की संख्या, N = सम्पूर्ण जनसंख्या में एक निर्धारित समय पर जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या।

B = B/N

मृत्यु दरः ऐसी दर जिसमें जनसंख्या में पाये जाने वाली मृत्यु की कुल जनसंख्या का पाया जाना शामिल है।

आइये N = ऐसी दर जिसमें जनसंख्या में कुल व्यक्तियों की संख्या।
D = N जनसंख्या में प्रति यूनिट होने वाली मौतों की कुल संख्या।
d = मृत्यु दर।
तब D = जनसंख्या में कुल व्यक्तियों की मृत्यु दर।
N = जनसंख्या में प्रति इकाई होने वाली मौतें।
D = D/N

 

 

 

 

(iii) विकास दर (वृद्धि दर)


विकास दर (g) जन्मों की संख्या में से होने वाली प्रति यूनिट होने वाली मौतों को उसमें से घटाकर जनसंख्या में लोगों की कुल संख्या से विभाजित करने के परिणामस्वरूप निकले, उसको विकास दर कहते हैं।

विकास दर की गणना के लिये-
आइये B = प्रति यूनिट समय में जन्मों की कुल संख्या
D = प्रति इकाई समय में कुल मौतों की संख्या
G = प्रति यूनिट समय में व्यक्तियों की कुल जन्मों और मौतों की संख्या के बीच का अंतर
N = जनसंख्या में व्यक्तियों की कुल संख्या
g = प्रति यूनिट समय के लिये वृद्धि दर
फिर g = (B-D)/N अर्थत g = G/N

इसका अर्थ है कि g = G/N या प्रति यूनिट व्यक्तियों के कुल जन्म और मृत्यु के समय के बीच अंतर होता है। यह जनसंख्या में व्यक्तियों की कुल संख्या होती है।

 

 

 

 

(iv) मृत्यु


मृत्यु व्यक्तियों के मरने को संदर्भित करता है। जनसंख्या में सदस्यों की मृत्यु कई कारणों, जैसे कि कुपोषण, रोग, बुढ़ापा, दुर्घटनाओं, प्राकृतिक आपदाओं और युद्ध इत्यादि से होती है। यह मृत्यु दर के बराबर है।

 

 

 

 

(v) जन्म


जनसंख्या में नये व्यक्तियों के जुड़ने की अभिव्यक्ति जन्म होती है। यह जन्म दर के बराबर होती है।

 

 

 

 

(vi) प्रवासन


जनसंख्या में व्यक्तियों के इधर-उधर जाने को प्रवासन (Migration) कहते हैं। व्यक्तियों का अपने देश से बाहर जाने को उत्प्रवास (emigration) कहते हैं। उत्प्रवास विभिन्न कारणों से होता है- जैसे कि नौकरी के कहीं और बेहतर अवसर होना, कहीं बेहतर शिक्षा सुविधाएँ होना, अवैध हस्तांतरण, युद्ध, प्राकृतिक आपदाएँ अथवा आंतरिक गड़बड़ी आदि। उदाहरण के लिये हमारे देश के युवाओं का संयुक्त राज्य अमेरिका, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों की ओर उत्प्रवास करना। किसी व्यक्ति का अपने ही देश में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र पर जाना आंतरिक अप्रवास (Internal immigration) कहलाता है। क्या आंतरिक अप्रवास देश की जनसंख्या के आकार को प्रभावित करता है?

तालिका 13.2: पलायन के कारणों का वितरण (प्रतिशत में)19811991कारण पुरुष स्त्री पुरुष स्त्रीरोजगार1.9 31.8 1.8 27.0शिक्षा 1.0 5.1 0.8 4.8प्रभावित परिवार14.3 30.3 11.0 26.6विवाह 73.43.3 76.14.0अन्य कारण 9.4 29.5 10.3 37.6कुल प्रवासन (करोड़ में)14.52 62.5 16.78 64.3आंतरिक प्रवास (तालिका 13.2 को देखें) देश के अंदर का आंतरिक पलायन अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर होता है। ग्रामीण जनसंख्या में शहरी क्षेत्रों की तुलना में तेजी से वृद्धि होती है। कृषि के लिये श्रम की मांग में कमी, शहरों में बेहतर रोजगार के अवसर, शहरों में शिक्षा की बेहतर सुविधाएँ, स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल, बेहतर जीवन स्थिति आदि ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर आंतरिक पलायन करने के मुख्य कारण हैं। आप क्यों सोचते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों में आंतरिक उत्प्रवास होना, चिंता का एक बहुत महत्त्वपूर्ण विषय है। (संकेतः आवश्यक संसाधनों पर दबाव, मलिन बस्तियाँ (झुग्गी-झोपड़ियाँ)।

 

 

 

 

घातीय वृद्धि वक्र (Exponential growth curve)


जब भी किसी चीज की वृद्धि इस प्रकार होती है कि वृद्धि का अपना आकार किसी भी समय निर्धारित अनुपात में कुछ बढ़ जाता है, उसे घातीय वृद्धि (Exponential) कहते हैं।

मानव जनसंख्या वृद्धि का नमूना भी वैसा ही होता है जैसा कि बैक्टीरिया का। आप पायेंगे कि मानव विकास दर में और बैक्टीरिया में एक ही प्रकार के J आकार के वक्र बनाते हैं। आप यह भी पायेंगे कि प्रत्येक अतिरिक्त करोड़ मानवों के जनसंख्या में शामिल होने में समय कम लगा है। दो करोड़ तक पहुँचने में 130 वर्ष लगे, तीन करोड़ तक पहुँचने में केवल तीस साल तथा अगले एक करोड़ के शामिल होने में केवल ग्यारह वर्ष लगे। जब जनसंख्या पूर्ण क्षमता रखने योग्य पहुँच जाती है (क्षमता ही संतुलन बनाये रखती है), विकास दर घट जाती है और दर J आकार से बदलकर S आकार की हो जाती है।

चित्र 13.2 बैक्टीरिया में घातीय वृद्धियदि हम वर्षों की वृद्धि दर को प्रतिशतता में जानना चाहेंगे तो हम आसानी से समय 't' की गणना या भविष्यवाणी कर जनसंख्या दोगुनी होने के लिये सूत्र का प्रयोग कर सकते हैं।

T = 70/वार्षिक वृद्धि दर प्रतिशतता में
उदाहरण के लियेः यदि जनसंख्या 2% वार्षिक दर से बढ़ रही है तो जनसंख्या 70/2 = 35 सालों में दोगुनी होगी।

चित्र 13.3 मानव जनसंख्या में नये पाषाण युग से वर्तमान युग तक घातांक वृद्धि ग्राफ

 

 

पाठगत प्रश्न 13.2


1. जनसंख्या को परिभाषित कीजिए।
2. मानव जनसंख्या वृद्धि के चार प्रमुख कालों (समय) की सूची बनायें।
3. जनसांख्यिकी सूची के अध्ययन के लिये प्रमुख मापदंड दीजिए।
4. घातीय वृद्धि को परिभाषित कीजिए।
5. देश के भीतर होने वाला आंतरिक अप्रवास अपनी कुल जनसंख्या के आकार को क्यों प्रभावित नहीं करता? किस तरह का प्रवास देश की कुल जनसंख्या के आकार को प्रभावित करता है?

 

 

13.3 जनसंख्या संरचना (STRUCTURE OF POPULATION)


जनसंख्या अध्ययन के दौरान मालूम होता है कि जनसंख्या की संरचना कुछ विशेषताओं जैसे घनत्व, प्रसार, आयु संरचना और लिंग अनुपात पर निर्धारित होती है। आइए, हम इन शब्दों को समझें:

 

 

 

 

13.3.1 घनत्व (Density)


घनत्व एक इकाई क्षेत्र में प्रजातियों के व्यक्तियों की संख्या का प्रतिनिधित्व करता है। यह किसी जनसंख्या की सफलता को दर्शाता है। किसी क्षेत्र के पूरे लोगों की गिनती को जनगणना (Census) कहते हैं। ऐसी (जनगणनाएँ) नियमित रूप से हमारे देश में आयोजित की जाती हैं। पिछली जनगणना वर्ष 2001 में पूरी की गई। भारत का घनत्व मानचित्र 13.4 में दिखाया गया है। भारत से अधिक घनत्व वाले कुछ देश और भी हैं: जैसे कि जापान (332 वर्ग किमी-2), नीदरलैंड या हालैण्ड (456 वर्ग किमी-2), बांग्लादेश (915 वर्ग किमी-2), माल्टा के द्वीप (1163 वर्ग किमी-2)। जनसंख्या घनत्व हमारे लिये चिंता का विषय क्यों होना चाहिए?

 

 

 

 

बॉक्स 13.2


जनसंख्या घनत्व में वृद्धि से उत्पन्न समस्याएँ काफी गंभीर हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैः

- प्रति व्यक्ति आय घट जाती है;
- जीवन की बुनियादी आवश्यकताएँ सीमित हो सकती हैं;
- प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, भूमि, ईंधन आदि की उपलब्धता घट जाती है;
- आवश्यक वस्तुओं की कमी के परिणामस्वरूप कीमतों में वृद्धि हो जाती है;
- आवश्यक वस्तुओं की कमी के कारण असमानता को बढ़ा देती है;
- कृषि योग्य भूमि कम हो जाती है;
- कृषि उत्पादन में कमी तथा वनों का आवरण भी घट जाता है;
- परिवार के सभी सदस्यों को संतुलित आहार की कमी, कुपोषण के लिये जिम्मेदार, कार्य कुशलता की कमी, रोगों के लिये संवेदनशीलता का खतरा बढ़ जाता है;
- स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि की मांग हो जाती है;
- नौकरियों के अनुपात में गिरावट, अशांति का कारण बन जाती है;
- पर्याप्त शैक्षिक सुविधाओं की कमी, उसका स्तर निम्न होना, अशिक्षित लोगों की संख्या में वृद्धि होना;
- वायु, जल तथा मिट्टी के प्रदूषण से बढ़ता स्वच्छता पर दबाव;
- मानव स्वास्थ्य पर कुल हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं।

चित्र 13.4 वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में जनसंख्या का घनत्व

 

 

13.3.2 फैलाव (Dispersion)


जनसंख्या के फैलाव का पैटर्न (तरीका) अपने व्यक्तिगत सदस्यों का एक क्षेत्र के सापेक्ष फैलाव है। उदाहरण के लिये मानव जनसंख्या समान रूप से वितरित नहीं है। कुल भूमि का केवल एक तिहाई भाग मनुष्यों द्वारा आबाद है। इस एक तिहाई क्षेत्र में से भी, कुछ भूमि क्षेत्रों में कम तथा अन्य भूमि क्षेत्रों में घनी आबादी है।

वितरण बदलाव जीवन की आवश्यकताओं की उपलब्धता पर निर्भर करता है। विश्व की जनसंख्या का लगभग 56 प्रतिशत एशिया में रहता है। अपने इलाके के लिये एक फैलाव मानचित्र तैयार करो। (इस क्रियाकलाप का विस्तार करो)

चित्र 13.5 जनसंख्या में फैलाव पैटर्न गुच्छन

13.3.3 आयु संरचना


किसी (एक) जनसंख्या में लोग अलग-अलग आयु के होते हैं। हर आयु वर्ग के व्यक्तियों के अनुपात को उस जनसंख्या की आयु संरचना (Age-structure) कहा जाता है।

तालिका 13.3: चयनित समूह द्वारा जनसंख्या की आयु संरचनासमूहआयु समूह1911192119311961197119811991बच्चे 0-14 38.8 39.238.341.0 41.4 39.7 36.5वयस्क 15-60 60.2 59.6 60.2 53.3 54.4 54.1 57.1वृद्धि60+1.01.21.55.75.26.26.4बॉक्स 13.3 जानकारी प्रदान करता है कि आयु के विषय में अध्ययन करना इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?

आयु संरचना की जानकारी जरूरी है क्योंकि वह हमें देती हैः
- आयु रूपरेखा (Profile) की वर्तमान और भविष्य की स्थिति;
- पर्यावरण पर संभावित प्रभाव;
- जनसंख्या के इतिहास की पूरी जानकारी;
- उपलब्ध और भविष्य कार्य बल (15-59 वर्ष)/ मानव शक्ति;
- उन वृद्ध लोगों की स्थिति जिनको अब भविष्य में सामाजिक सहायता की आवश्यकता है;
- वर्तमान और भविष्य में शिक्षा संबंधी आवश्यकताओं का प्रक्षेप;
- नौकरी संबंधी आवश्यकताओं का प्रक्षेप;
- चिकित्सा/सामाजिक/आवास संबंधी/स्वास्थ्य संबंधी प्रक्षेप;
- आवश्यकताओं का प्रक्षेप;
- समाज का आर्थिक स्तर।

चित्र 13.6 भारतीय जनसंख्या की आयु संरचना

13.3.4 लिंग अनुपात


आदर्श रूप से किसी जनसंख्या में पुरुष और महिलाओं की संख्या में संतुलन होना चाहिए। फिर भी, प्राकृतिक रूप से मादा (लड़की) के जन्म से अधिक नर (लड़के) जन्म लेते हैं। यदि समाज लिंग के विषय में कोई भेदभाव नहीं रखता, तो जनसंख्या का लिंग अनुपात स्थिर या फिर कम या संतुलित होना चाहिए। इस विषय में जनसंख्या में कोई भी विचलन वांछनीय नहीं है। हमारे देश में, प्रत्येक 1000 पुरुषों पर (अर्थात लिंग अनुपात 972) 1901 के अनुसार 972 महिलायें थी। 2001 तक लिंग अनुपात 933 से प्रत्येक 1000 पुरुषों के लिये गिर गया है। हालाँकि अभी भी बहुत ज्यादा क्षेत्रीय भेद हैं। उदाहरण के लिये केरल और पांडेचेरी में लिंग अनुपात क्रमशः 1058 और 1001 है। बल्कि यह दिल्ली में (821), हरियाणा में (861), पंजाब में (874), चंडीगढ़ में (773) बहुत कम हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं का लिंग अनुपात में कम होना क्या बताता है? (सुझावः महिला बच्चे के खिलाफ भेदभाव होना, सामाजिक तनाव, कन्या भ्रूण हत्या आदि)।

तालिका 13.4: पिछली शताब्दी के दौरान भारतीय जनसंख्या का लिंग अनुपातवर्ष19011911192119311941195119611971198119912001लिंग अनुपात972 964 955 950 945 946 941 930 934 927 933

पाठगत प्रश्न 13.3


1. कम से कम तीन देशों के नाम बताइये जिनमें भारत से अधिक जनसंख्या घनत्व पाया जाता है।
2. अपने क्षेत्र का फैलाव मानचित्र तैयार कीजिये।
3. किसी आबादी की आयु संरचना का आंकड़ा क्यों महत्त्वपूर्ण है?
4. किसी राज्य/देश का असंतुलित लिंग अनुपात क्या सूचित करता है?

 

 

13.4 मानव जनसंख्या और पर्यावरण


मानव जाति पर्यावरण के भाग हैं तथा जैव मंडल का एक महत्त्वपूर्ण घटक हैं। किसी भी अन्य जीवित जीव की तरह मनुष्य भी अपने वातावरण से पदार्थों का लेन-देन करते हैं। सिर्फ पर्यावरण से लेन-देन करने के अलावा भी अन्य जीव प्रकारों पर मानव प्रभाव तथा कुछ सीमा तक पर्यावरण में परिवर्तन और नियंत्रण करने की क्षमता ने वैश्विक पर्यावरण को काफी प्रभावित किया है। अतः हम कह सकते हैं कि मानव जनसंख्या और मानव गतिविधि का पर्यावरण पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

 

 

 

 

13.4.1 पर्यावरण पर प्रभाव


मानव गतिविधियों का पर्यावरण पर स्थायी प्रभाव (कभी न खत्म होने वाला) पड़ा है। उनमें से कई ऐसी गतिविधियाँ जिन्होंने पर्यावरण को रूपांतरित किया है या अवक्रमित किया हैः-

- कृषि के माध्यम से खाद्य उत्पादन की क्षमता।
- भोजन की कमी के क्षेत्रों के लिये अतिरिक्त भोजन का हस्तांतरण।
- अतिरिक्त भोजन को गोदामों में, शीत भंडारों और डिब्बाबंदी (cannerries) में संग्रहित करें जिससे भोजन खराब न हो।
- प्रभावशाली और नवीनतम क्षमता के ऊर्जा उपयोग जो लकड़ी की ऊर्जा से जीवाश्म ऊर्जा में, फिर विद्युत ऊर्जा में, फिर परमाणु ऊर्जा में बदलते रहने के कारण हैं।
- अपने (स्वयं) लिये, बुजुर्गों के लिये तथा युवाओं के लिये आवास (आश्रय) प्रदान करने की क्षमता, प्रतिकूल मौसम या शत्रुओं के खिलाफ संरक्षण।
- शत्रु पशुओं जैसे शेर, चीते, भेड़िये, साँप, चूहे आदि को नष्ट करने की क्षमता।
- फसलों और पशुधन को अन्य जानवरों से प्रतिस्पर्धा कम करने के लिये बाड़ (fencing) लगाने की योग्यता।
- उचित सफाई, दवा-दारू, टीकाकरण आदि माध्यम से रोगों को नियंत्रित करके मृत्यु दर को कम करना।

उपर्युक्त कारणों की इतनी अच्छी जानकारी होने के बाद भी, मनुष्य पूरी तरह वातावरण पर विजय प्राप्त नहीं कर पाया है। विभिन्न समय में, प्राकृतिक और साथ ही मानव निर्मित रूपान्तरणों (बदलावों) ने पर्यावरण में मानव आबादी पर कई घातक प्रहार किये हैं। हमें कुछ ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा हैः-

1. खाद्य की कमी अथवा अकालः यह इसलिये होता है क्योंकि कृषि उत्पादन कम हो सकता है, उपयोग के लिये कृषि भूमि में हस्तांतरण, अनुचित और अपर्याप्त भंडारण, परिवहन सुविधाओं, भोजन की खरीद के लिये आर्थिक गरीबी आदि।

2. अपर्याप्त आश्रय (शेल्टर): प्रत्येक व्यक्ति के पास सुरक्षित आश्रय नहीं है। वह वातावरण के अत्यंत गर्म और ठंडे तापमान को झेलता है तथा बाघ, शेर, भेड़ियों, तेंदुओं, चूहों, साँप आदि का शिकार हो जाता है।

3. रोगः जवान और वृद्धों में कुपोषण, अपर्याप्त सफाई, चिकित्सा सुविधाओं का अभाव, रोग का खतरा बढ़ जाना, रोगजनकों का आक्रमण और उत्परिवर्तन, महामारी/वुबोनिक प्लेग, पीलिया, टाइफाइड, क्षय रोग के घातक हमले, एच-आई-वी--एड्स, डेंग्यू, इन्फ्रलूऐन्जा आदि शामिल हैं।

4. आपदाएँ: प्राकृतिक आपदाएँ जैसे बाढ़, तूफान (चक्रवात), भूकम्प, ज्वालामुखी, सुनामी के रूप में और हिमस्खलन आदि मानव बस्तियों को उखाड़ कर संपत्ति की क्षति कर देते हैं।

5. विविधः अधिकतर मानव-निर्मित विभिन्न प्रकार के विस्फोटक, दुर्घटनाएँ, आग लगना, प्रदूषण, जहाजों का डूबना, हवाई और सड़क दुर्घटनाओं के कारण जीवन चला जाता है।

अतः आप कल्पना कर सकते हैं कि मानव और पर्यावरण के बीच खींचतान चल रही है। पर्यावरण भी किसी न किसी रूप में मानव पर अपना रोष प्रकट (प्रहार) कर रहा है। यदि मानव विवेकपूर्ण ढंग से पर्यावरण से व्यवहार करे तो वह पर्यावरण-अनुकूल जीवन व्यतीत कर सकता है।

 

 

 

 

13.4.2 जीवन स्तर के मानक


एक समष्टि की विशिष्टताओं को कुछ मानदंडों द्वारा बताया जा सकता है, जैसे-

- जीवन की उम्मीद (अधिक) होनी चाहिए।
- शिशु मृत्यु दर (कम किया जाना चाहिए)।
- प्रति व्यक्ति आय (अधिक होनी चाहिए)।
- साक्षरता अधिकतम व्यक्तियों में (अधिक होनी चाहिए)।
- भोजन और प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग में (संतुलन किया जाना चाहिए)।
- पर्यावरण के अनुकूल ऊर्जा के प्रकार प्रयोग में लाइये।
- पर्यावरण के अनुकूल (मित्रवत) गतिविधि।

इन मानकों से किसी जनसंख्या के जीवन स्तर के मानक तय होते हैं। विकसित धनी देशों का जीवन-स्तर बेहतर होता है तथा अविकसित निर्धन देशों का जीवन-मानक कम होता है।

 

 

 

 

पाठगत प्रश्न 13.4


1. कम से कम तीन मानक गतिविधियों के विषय में बताएँ जिनका पर्यावरण पर स्थायी प्रभाव रहता है।
2. किन्हीं तीन मानकों की सूची बनाएँ जो आबादी के रहने के स्तर की विशेषताएँ बताती हों।
3. जब हम पर्यावरण में बदलाव करते हैं तो प्रायः हमें कौन-कौन सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

 

 

 

 

13.5 शहरीकरण और पर्यावरण संबंधी समस्याएँ


आर्थिक विकास के साथ आता है शहरीकरण और शहरीकरण के साथ पर्यावरण का विनाश होता है। क्या होता है जब शहरों को विकास होता है?

शहरीकरण पर्यावरण और सामाजिक क्रांति का कारण बनता है। उनमें से कुछ बॉक्स 13.4 और 13.5 में सूचीबद्ध हैं।

 

 

 

 

बॉक्स 13.4 शहरीकरण और पर्यावरणीय अवक्रमण


- जबकि शहर नदियों के पास स्थित हैं, समुद्र तट के साथ-साथ होते हैं, विस्तारित शहरी निवासी प्रायः अच्छी कृषि योग्य भूमि को आवास और उद्योग आदि के लिये ले लेते हैं।
- ऐसे महत्त्वपूर्ण और नाजुक पर्यावासों की कमी का प्रभाव कई दुर्लभ और विलुप्तप्राय प्रजाति जीवों पर पड़ता है।
- वन काटे जा रहे हैं।
- आर्द्र भूमि (Wet land) को मिट्टी से भर (पाट) रहे हैं।
- मिट्टी को उत्पादक उपयोग से हटा दिया है।
- कई संकटदायी (खतरनाक) सामग्रियाँ परिवेश में फैल रही हैं।
- वायु, जल और मृदा प्रदूषित हो रहे हैं।

 

 

 

 

बॉक्स 13.5 शहरीकरण और सामाजिक आर्थिक कारण


- जनसंख्या पुनः वितरित हो गई है।
- किसान समुदाय का परिवर्तन कारखानों/ व्यापार निर्भर समुदाय में हो गया है।
- ऑटोमोबाइल/उद्योगों से प्रदूषित होती।
- नागरिक सुविधाएँ मल निपटान में हुई वृद्धि का सामना करने में असमर्थ।
- खराब स्वास्थ्य सुविधाओं से जल और मिट्टी का प्रदूषण हो रहा है।
- खराब साफ-सफाई की सुविधाओं से रोगजनक पनपते हैं। वाहकों (vectors) की संख्या में वृद्धि होने के कारण संक्रामक रोग फैलते हैं।
- भीड़ और बेरोजगारी से शहरी जीवन असंतुलित हो जाता है, जिसके कारण सामाजिक कुरीतियाँ पैदा हो जाती हैं।

हमारे देश की शहरों की आबादी पिछली सदी से 11.1 गुना अधिक हो गई है। 1901 में जनसंख्या 254 लाख से 2001 में 2850 लाख हो गई है। सापेक्ष दृष्टि से ग्रामीण और शहरी जनसंख्या के अनुपात में 8.1: 1 से लेकर 2.6: 1 की कमी आई है। इस अवधि के दौरान, वर्तमान में, 27.8 प्रतिशत शहरी हैं। 1991-2001 की अवधि में 678 लाख लोग शहरी जनसंख्या में बढ़े (2001 भारत की जनगणना में जम्मू-कश्मीर और असम के आंकड़े नहीं जोड़े गये।)

 

 

 

 

13.5.1 शहरीकरण और सीमित ऊर्जा संसाधन


ऊर्जा एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जो अधिकांश उत्पादन विधियों और खपत क्रियाओं के लिये महत्त्वपूर्ण निवेश है। शहरीकरण के साथ ऊर्जा स्रोतों की खपत बढ़ जाती है। पिछले पचास वर्षों में कुल ऊर्जा के प्रयोग में चार गुना से अधिक वृद्धि आबादी के एक तिहाई वृद्धि से भी कम के लिये हुई है। तथापि इसी अवधि के दौरान व्यावसायिक गतिविधियों में दस गुना वृद्धि हुई है। इससे पता चलता है कि गैर वाणिज्यिक ऊर्जा का उपयोग थोक में वाणिज्यिक उपयोग के लिये स्थानांतरित कर दिया है (अधिकतर शहरीकरण के कारण)। विभिन्न क्षेत्रों में जो वाणिज्यिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं, उनमें से 70-75% उद्योग और परिवहन में इस्तेमाल हो जाता है।

हमारे देश में उत्पादन संयंत्रों के तीन मुख्य प्रकार हैं: पनबिजली, ताप और परमाणु। वे हमारी ऊर्जा आवश्यकता की 21%, 75% और 4% की पूर्ति में योगदान करते हैं। आजकल गैर पारंपरिक ऊर्जा के स्रोतों जैसे कि सौर ऊर्जा, कचरा (अपशिष्ट), वायु नगण्य तथा महत्त्वहीन हो गये हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या तथा शहरों में ग्रामीण पलायन के बढ़ने के साथ-साथ हमारे देश को बढ़ती हुई ऊर्जा आवश्यकताओं को सामना करना पड़ेगा। ऊर्जा का उत्पादन बहुत महँगा है। व्यक्तिगत स्तर पर ऊर्जा के व्यर्थ खर्च को रोकने से हम राष्ट्रीय कारण में योगदान कर सकते हैं।

भारत संसार का छठवां सबसे बड़ा ऊर्जा की खपत करने वाला देश है, जिसमें विश्व की 3.4% ऊर्जा खपत होने का लेखांकन मिलता है। पिछले 30 वर्षों से यह मांग औसतन प्रतिवर्ष 3.6% बढ़ रही है।

यद्यपि भारत ने वर्ष 2006 में बिजली के 680 बिलियन Kwh उत्पादित किये हैं, तथापि लगभग 5000 करोड़ भारतीयों के पास अभी तक बिजली नहीं पहुँच पायी है। संसार की 2200 Kwh प्रति व्यक्ति औसतन बिजली खपत की तुलना में, हमारे देश में प्रति व्यक्ति औसतन बिजली खपत केवल 612 Kwh है। वर्ष 2030 तक भारत में बिजली की कुल मांग 9,50,000 मेगावाट पार कर जायेगी।

यदि हमें एक राष्ट्र के रूप में सफल होना है तो हमें अन्य विकसित तथा औद्योगिक देशों की तरह प्रति व्यक्ति बिजली को या तो उत्पन्न करने की अथवा खरीदने की क्षमता पैदा करनी होगी। इसी बीच हमें उपलब्ध ऊर्जा का अनुकूल उपयोग करना होगा और व्यर्थ व्यय कम करना होगा। आप ऊर्जा के व्यर्थ खर्च को बचाने के लिये क्या सुझाव देंगे?

 

 

 

 

13.5.2 शहरीकरण और जल की कमी


धरती पर पानी की नियमित आपूर्ति वायुमंडल में अपने परिसंचरण (परिचालन) के माध्यम से बनाये रखते हैं। वर्षा, बर्फ, ओस, ओलों आदि के रूप में जल में मौजूद वाष्प कण पर्यावरण में पाये जाने वाले जल के मुख्य स्रोत हैं। वातावरण में स्थित जल कण (बादलों में) झीलों, नदियों, समुद्रों, तालाबों, नमी आदि जल निकायों से आते हैं।

धरती के कुल जल का 97% जल समुद्रों में पाया जाता है और केवल 3% अलवण जल के रूप में उपलब्ध है।

पृथ्वी पर पाया जाने वाला जल निम्नलिखित तीन प्रकारों में वर्गीकृत हैः
क) अलवणीय जलः यह भूमि पर पाया जाने वाला जल है और नमक सामग्री 5 ppt या 0.5% से कम है।

ख) समुद्री जलः यह पानी समुद्रों या महासागरों में होता है और इसमें नमक तत्व 35 ppt या 3.5% से अधिक है।

ग) खारा जलः इसकी नमक सामग्री 5 ppt से अधिक परन्तु 35 ppt से कम होती है। यह ज्वारनद (Estuary), नमकयुक्त दलदल और नमक वाली झीलों में पाया जाता है। पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात में काफी मात्र में भूमिगत जल खारा है।

तेजी से होती हुई जनसंख्या वृद्धि और गाँवों से शहरों की ओर बढ़ता पलायन, बेहतर जीवन की आशा आदि से हमारी पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधन और भी बढ़ते दबाव का सामना कर रहे हैं। वायु और भूमि के साथ-साथ हमें अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिये जल- विशेष रूप से अलवणीय जल संसाधनों का संरक्षण करना चाहिए। 3% अलवणीय जल संसाधनों में से, हिमनदों, और बर्फ की टोपियों में 2% अलवण जल पृथ्वी की सतह के नीचे है। नदियों और झीलों में 1/5 भाग जो धरती के ताजे जल का 1% भाग होता है। (इसका अर्थ है लगभग 37 मिलियन किमी3)

इस जल का प्रमुख स्रोत वर्षा है। भारत में प्रतिवर्ष लगभग 2750 किमी3 वर्षा होती है। लगभग 600 किमी3 वर्षा भूमि के अंदर रिस कर जाती है और लगभग 900 किमी3 वातावरण में वाष्प बनकर वापिस चली जाती है। क्या आप सोच सकते हो कि हमारे अलवणीय जल संसाधन कितने मूल्यवान हैं।

2001 जनगणना के अनुसार, भारत की जनसंख्या 1027 लाख है। ऐसा संभावित है कि वर्ष 2050 तक यह वृद्धि 1640 करोड़ के आस-पास तक हो जायेगी। अनुमान लगाया जाता है कि वर्ष 2050 के लगभग हमारे देश की विभिन्न गतिविधियों के लिये जल की कुल आवश्यकता लगभग 1459/किमी3 /वर्ष हो जायेगी। वर्तमान उपलब्धता लगभग 500 किमी3 /वर्ष है। यह स्पष्ट है कि वर्ष 2050 तक हमें जल की उपलब्धता को तिगुना करना होगा।

 

 

 

 

शहरों में जल की कमी के कारणः


1. लापरवाहीपूर्ण रवैयाः असंसाधित मल-जल तथा अन्य दूषित जलों को नदियों और झीलों में छोड़ना।

2. जल के स्तर का कम होनाः भूमिगत जल का अत्यधिक पंपिंग (दोहन) के कारण।

3. कृषि क्षेत्र में अपशिष्टः पानी का सिंचाई के कारण रिसाव या वाष्पीकरण के कारण और खराब जल प्रबंधनों की प्रथाओं से होता है।

4. पानी की मांग में वृद्धि: बढ़ता हुआ शहरीकरण तथा जनसंख्या में वृद्धि और प्रति व्यक्ति पानी की खपत में वृद्धि के कारण हैं।

5. जल प्रदूषणः नाइट्रेट, उर्वरकों, विषैले रसायनों, वाहित मल, औद्योगिक बर्हि:स्राव (affluents), घरेलू कचरे आदि से भूमिगत जल प्रदूषित होता है।

जल की बढ़ती हुई आवश्यकता की पूर्ति करने के लिये केवल यह आवश्यक नहीं है कि नये संसाधनों को विकसित किया जाये किन्तु जब भी और जहाँ भी हो, उनका संरक्षण, जल का पुनः चक्रण (Recycling) और जल का पुनः उपयोग (Reuse) किया जाये। यह भी दिखाया गया है कि वर्षाजल संचयन तथा कृत्रिम भूजल माध्यम से लगभग 125 किमी3/वर्ष अधिक जल संरक्षण कर सकते हैं। समुद्र के जल के गंतव्य के माध्यम से वर्तमान जल आपूर्ति को बढ़ाना एक और संभावना हो सकती है।

इसी प्रकार नगर निगम और औद्योगिक अपशिष्ट जल का पुनः उपयोग करके 177 किमी3 /वर्ष जल को पुनः चक्रित कर सकते हैं।

पानी कैसे प्रदूषित हो जाता है? क्या आप कल्पना कर सकते हो? पीने, नहाने, तैराकी, मनोरंजन, सिंचाई- इन सबके लिये अच्छा, स्वच्छ और पीने योग्य पानी चाहिये। घरेलू बहिर्स्राव से भी जल दूषित हो जाता है। इससे अपने आस-पास दुर्गन्ध और स्वास्थ्य को हानि पहुँचाने वाले हालात पैदा हो जाते हैं। ये हमारे स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं। हमारे अधिकतर शहरों तथा नगरों में रोज रसोई, स्नानघर और शौचालय में उत्पादित होने वाले तरह-तरह के अपशिष्ट-सीधे अथवा परोक्ष रूप से, किसी भी उपचार के बिना, नदियों या जल निकायों में पहुँच जाता है।

यहाँ तक कि हमारे शहरों में भी जनसंख्या का केवल आधा मलजल तंत्र तक पहुँच पाया है। अतः कच्चा मलजल स्वच्छ अलवणीय जल निकायों में पहुँच रहा है। गाँवों की हालत भी कुछ बेहतर नहीं है।

इस प्रकार के घरेलू अपशिष्ट में रोगजनक होते हैं जिनसे विभिन्न विषाणु, बैक्टीरिया तथा अन्य परजीवी रोग उत्पन्न हो सकते हैं। हैजा, पेचिश, टाइफाइड, पीलिया, कृमि से सम्बन्धित रोग जनसंख्या के स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं।

घरेलू अपशिष्टों में नाइट्रेट और फॉस्फेट (कपड़े धोने के डिटर्जेन्टों से निकले) होते हैं। ये भी पानी की गुणवत्ता कम कर देते हैं और जलीय जीवों की वृद्धि को बढ़ावा देते हैं जिससे यह जल मानव उपयोग के लिये अयोग्य हो जाता है।

अतः एक राष्ट्र के रूप में, भारत को अपने जल संसाधनों के विकास के लिये सभी मोर्चों पर कार्यवाही शुरू कर देनी चाहिये। क्या आप इस चुनौती को पूरा नहीं करने के परिणाम की कल्पना कर सकते हैं? हमारी भलाई देश के सभी नागरिकों के संयुक्त प्रयासों पर निर्भर करती है।

 

 

 

 

13.5.3 बाढ़ और सूखा


बाढ़ और सूखा भी महत्त्वपूर्ण रूप से जल से जुड़े हुए हैं जो हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं।

बाढः बाढ़ पानी का एक निकाय है जो सामान्य शुष्क भूमि को ढक लेता है। अधिकतर बाढ़ के परिणाम इस प्रकार हैं। वेः

- घर और मूल्यवान संपत्ति नष्ट हो जाती है।
- शीर्ष उपजाऊ भूमि ले जाती है, बंजर भूमि छोड़ दी जाती है।
- भोजन और नकदी फसलों दोनों को नष्ट कर देती हैं।
- मानव जीवन और मवेशियों को भारी नुकसान होता है।
- पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन का कारण होती है।
- बाँध फटने का कारण होती है।

बाढ़ कैसे आती है? जब बहुत वर्षा होती है, तब बाढ़ आती है। भारी वर्षा से आकस्मिक बाढ़ (Flash Flood) आती है। बर्फ के अचानक पिघलने का परिणाम भी बाढ़ होती है। रेगिस्तान में बिजली के गरजने से भी बाढ़ आती है। कुछ मानव गतिविधियों से जैसे कि वनों की कटाई और अधिक गहन खेती भी बाढ़ के कारण हो सकते हैं।

समुद्री तटों के साथ-साथ वातावरण में तूफान, चक्रवात या कम दबाव वाले क्षेत्रों के विकास से बाढ़ उत्पन्न हो जाती है। बाढ़ों को नियंत्रित किया जा सकता है, यदि पानी को जमा करने के लिये बांधों का निर्माण करें, अपरदित जमीन पर वृक्ष लगायें और बांधों (Dykes) का निर्माण करें, बाढ़-दीवार, तूफान रोधक, तट रेखा समुद्र तट के साथ-साथ लगाएँ।

यद्यपि बाढ़ को उचित योजना द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है जिसमें क) पानी का भंडारण जब वह प्रचुर मात्रा में हो, ख) प्रभावित क्षेत्रों से लोगों का पलायन, ग) अच्छे समय के दौरान भोजन और चारे का उचित भंडारण, घ) क्लाउड सीडिंग (Cloud seeding), च) उचित और जल भराव क्षेत्र (water shedding catchment) या प्रभावी क्षेत्र-प्रबंधन, छ) वनीकरण आदि।

 

 

 

 

सूखा


सूखे की स्थिति तब होती है जब किसी क्षेत्र की औसत वर्षा एक लंबे समय के लिये सामान्य राशि से नीचे चली जाती है। सूखे के परिणाम हैं:-

- नदी/तालाब/कुएँ सूख जाते हैं।
- कृषि, उद्योग, निजी इस्तेमाल के लिये पानी की काफी आपूर्ति।
- ऊपर की शुष्क सतह शुष्क, शीर्ष हवाओं से उड़ जाती है।
- पशुओं की मृत्यु।
- कमजोर लोगों में रोगों की वृद्धि विशेष रूप से दस्त।

 

 

 

 

13.6.3 शहरीकरण और प्रदूषण


शहरीकरण से आबादी असमान रूप से बिखर जाती है। परिणामस्वरूप संसाधनों के लिये असंतुलित मांग हो जाती है तथा हानिकारक पदार्थ वातावरण में बिखर जाते हैं। ऐसी हानिकारक और प्रायः खतरनाक सामग्री औद्योगिक, घरेलू, परिवहन और वाहन आदि के निष्कासन से आते हैं। जब वे निष्काषित होते हैं, तब वे गंभीर रूप से भूमि, जल और वायु को प्रभावित करते हैं। प्रदूषकों के प्रबंधन की चर्चा पाठ 10 मे विस्तार से हुई है। प्रदूषक मनुष्यों तथा अन्य जीवों के लिये खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं।

 

 

 

 

13.7 प्राकृतिक संसाधनों में गिरावट


वनोन्मूलन, मरुस्थलीकरण, मृदा अपरदन और जैव विविधता के नुकसान सब मिलकर संबंधित घटनायें हैं। शहरीकरण तथा असतत विकास मुख्यतः इन घटनाओं के लिये जिम्मेदार है। उनके इन विविध पहलुओं को विस्तार से अगले पाठ में चर्चा कर रहे हैं।

 

 

 

 

पाठगत प्रश्न 13.5


1. हम जल को किस प्रकार वर्गीकृत करते हैं: ताजा, खारा या समुद्री?
2. उन चार मुख्य कारणों की सूची बनायें जिसके परिणामस्वरूप शहरी क्षेत्रों में ताजे पानी की कमी हो जाती है?
3. शहरों में अनुचित मलजल तंत्र पानी की गुणवत्ता को कैसे प्रभावित करता है?
4. बाढ़ को परिभाषित कीजिए। यह मानव जीवन को कैसे प्रभावित करता है?
5. तीन निरोधक तरीकों की सूची बनायें जिससे बाढ़ से होने वाले कष्टों का सामना कर सकते हैं।
6. हमारे देश में तीन मुख्य प्रकार के ऊर्जा उत्पादन संस्थानों के नाम लिखो। हमारी बिजली ऊर्जा संबंधित आवश्यकताओं के प्रति क्या योगदान है?
7. उन उपायों की सूची बनाइये जिनके प्रयोग से आप अपने घर में विद्युत ऊर्जा का व्यर्थ खर्च रोक पायेंगे?
8. शहरीकरण किस प्रकार प्रदूषण को बढ़ावा देता है?

 

 

 

 

आपने क्या सीखा


- भारत भू-आकृतियों (relief) तथा भौतिक सुविधाओं की महान विविधता को दर्शाता है। यहाँ के लोगों, भूमि, वन, सागर सब मिलकर प्रचुर मात्र में प्राकृतिक संसाधन हैं।

- मानव जनसंख्या का अध्ययन (एक उपभोक्ता तथा निर्माता के रूप में), आर्थिक नियोजन का आंकड़े, प्रकृति का संरक्षण तथा सांस्कृतिक, क्षेत्रीय और भाषा विज्ञान सद्भाव बढ़ाने में सहायता करती है।

- जनसंख्या के अध्ययन को जनसांख्यिकी कहा जाता है। जनसांख्यिकी द्वारा हम आकार, विकास दर, मृत्यु दर, जन्म दर, प्रवास पैटर्न, घनत्व, फैलाव तथा जनसंख्या की आयु संरचना के विषय में जान सकते हैं।

- लोग ग्रामीण क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों की ओर बेहतर शिक्षा, समृद्धि, स्वास्थ्य की बेहतर देखभाल तथा जीवनस्तर में वृद्धि के लिये जाते हैं। किन्तु शहरीकरण के परिणामस्वरूप बड़े स्तर पर पर्यावरणीय नुकसान जैसे कि नदियों के तट पर बाढ़, तटीय आर्द्र भूमि, परिणामस्वरूप नाजुक आवासों की हानि, वनों की कटाई, रेगिस्तान, जैव विविधता के नुकसान, हवा, मिट्टी, पानी के प्रदूषण को बढ़ाते हैं जिससे पानी और ऊर्जा खपत कम हो जाती है।

- हम सबको चाहिये कि हम अपने नाजुक पर्यावरण की रक्षा करें और उसमें सुधार लाने का प्रयत्न करें।

 

 

 

 

पाठांत प्रश्न


1. पर्यावरण की कोई भौगोलिक सीमाएँ नहीं हैं- व्याख्या कीजिए।
2. जनसंख्या की वृद्धि किस प्रकार प्राकृतिक संसाधनों में कमी करती है तथा प्राकृतिक संसाधनों के अवक्रमण की ओर ले जाती है?
3. हमें पर्यावरण के किन मुख्य मुद्दों का सामना करना पड़ता है, उनकी सूची बनाइए।
4. जलवायु के विभिन्न कारकों को बतायें, जिनसे निर्धारित क्षेत्र की वनस्पति प्रभावित होती है?
5. चित्र 13.2 को देखकर निम्नलितखित प्रश्नों के उत्तर दीजियेः
क) पश्चिमी भारत में किस प्रकार के वन प्रमुख होते हैं?
ख) हमारे देश के किस क्षेत्र में अल्पाइन और टुण्ड्रा वनस्पति होती है?
ग) वनों के कौन से प्रकार ज्यादा से ज्यादा भारत में वितरित किये जाते हैं?
घ) देश के किस भाग में उष्णकटिबंधीय वर्षा वन पाये जाते हैं?
6. परिभाषित कीजिएः मृत्यु दर, जन्म दर, जन्म, मरण, वृद्धि दर, अप्रवास।
7. कोई क्षेत्र अति जनसंख्या वाला क्षेत्र कब कहलायेगा?
8. जनसंख्या वक्र चित्रित कीजिए और इस वक्र के विभिन्न पहलुओं को समझाइये।
9. जनगणना को परिभाषित करें। इससे किसी देश को कैसे मदद मिल सकती है?
10. किसी जनसंख्या में लिंग-दर का संतुलन रहना क्यों आवश्यक है?
11. शहरीकरण तथा सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर चर्चा करें।
12. अपने मुहल्ले में अलग-अलग परिवारों में जाकर a) लोगों से बातचीत कीजिए। उनका साक्षात्कार लीजिए तथा उनकी ऊर्जा, जल की आवश्यकता/उपयोग तथा उपलब्धता के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिए। b) आप स्थानीय स्तर पर क्या कदम उठायेंगे जिनसे ऊर्जा तथा जल का व्यर्थ इस्तेमाल रोका जा सके।

13. (क) अपने मुहल्ले में विभिन्न स्रोतों से एकत्रित होने वाले हानिकारक पदार्थों की सूची बनाइये।
(ख) अपने मुहल्ले से इस प्रकार के प्रदूषण की रोकथाम के लिये उपाय भी बताइये।
14. बाढ़ तथा सूखे में अन्तर बताइये।
15. किन्हीं चार रोगों के बारे में बताइये जो घरों से बाहर बहने वाले दूषित जल से पैदा होते हैं।
16. पृथ्वी पर पानी की सामान्य आपूर्ति किस प्रकार बनाये रखते हैं?

 

 

 

 

पाठगत प्रश्नों के उत्तर


13.1
1. उन पौधों और जानवरों की प्रजातियाँ जो स्थानीय हैं अर्थात और कहीं नहीं पायी जाती।
2. उत्तरी मैदान (अनाज का भंडार) और प्रायद्वीपीय पठार (खनिजों से समृद्ध)
3. उष्णकटिबंधीय वर्षा वन, उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन, शीतोष्ण चौड़ी पत्ती वाले वन, शीतोष्ण सुई-पत्ती या शंकुधारी वन, अल्पाइन और टुंड्रा वनस्पति
4. लकड़ी, गोंद, रंग, टेनिन (कोई तीन)

13.2
1. मनुष्यों का समूह जो एक क्षेत्र में रहता है और जिनमें प्रजनन और आनुवंशिक सामग्री सांझा करने की क्षमता हो।
2. 13.2.1 देखें।
3. आकार, विकास, आयु संरचना, प्रजनन, जन्म दर, मृत्यु दर, जीवन के मानक, प्रवासन आदि।
4. प्रति यूनिट की वृद्धि दर में लगातार वृद्धि घातक वृद्धि कहलाती है।
5. क्योंकि यह देश के भीतर ही है, यह उत्प्रवास और अप्रवास है।

13.3
1. जापान, नीदरलैंड, बांग्लादेश, माल्टा के द्वीप
2. बॉक्स 13.2
3. सुझाव 13.3.2
4. मादा बच्चों (कन्याओं) के प्रति भेदभाव, सामाजिक दबाव, कन्या भ्रूण हत्या आदि।

13.4
1. देखें 13.4.1
2. देखें 13.4.2
3. विश्लेषणात्मक उत्तर दें।
4. विश्लेषणात्मक उत्तर दें।
5. विश्लेषणात्मक उत्तर दें।

13.5
1. नमक सामग्री <5ppt: ताजा पानी
नमक सामग्री >5ppt: किन्तु <35ppt: खारे पानी से अधिक
नमक सामग्री >35ppt: समुद्री पानी
2. लापरवाह रवैयाः कृषि पानी तालिका में बर्बादी के कारण कमी।
3. सुझाव क) घरेलू बहिःस्रावों में रोगजनक पाये जाते हैं जिनसे रोग पैदा होते हैं।
ख) बहिःस्राव में नाइट्रेट और फास्फेट होते हैं। इनकी सहायता से जलीय जीवों का विकास होता है। मानव उपयोग के लिये पीने के अयोग्य हो जाता है।
4. सुझावः सैक्शन 13.5.3 देखिए।
5. i) खराब पानी, भंडारण क्षमता।
ii) सुरक्षित स्थानों पर लोग पलायन करें।
iii) अच्छे समय में पर्याप्त उपकरण और चारा जमा करें।
iv) वनारोपण।
v) प्रभावी/उचित जल शेड/क्षेत्र का प्रबंध
6. जलविद्युत (21%), थर्मल (75%), नाभिकीय (3%)
7. पाठ को देखें।
8. सुझावः 13.6 अनुभाग देखें।

 

 

 

 

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