रेत के धोरों में सब्ज़ियों की खेती

10 Jul 2009
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आज जहां बंजर भूमि के क्षेत्र में लगातार हो रही बढ़ोतरी ने पर्यावरण और कृषि विशेषज्ञों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं, वहीं अरावली पर्वत की तलहटी में बसे गांवों के बालू के धोरों में उगती सब्ज़ियां मन में एक खुशनुमा अहसास जगाती हैं। हरियाणा के मेवात ज़िले के गांव नांदल, खेडी बलई, शहजादपुर, वाजिदपुर, शकरपुरी और सारावडी आदि गांवों की बेकार पड़ी रेतीली ज़मीन पर उत्तर प्रदेश के किसान सब्ज़ियों की काश्त कर रहे हैं। अपने इस सराहनीय कार्य के चलते ये किसान हरियाणा के अन्य किसानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बने हुए हैं।

सिंचाई जल की कमी और बालू होने के कारण कभी यहां के किसान अपनी इस ज़मीन की तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखते थे। मगर अब यही जमीन उनकी आमदनी का एक बेहतर जरिया बन गई है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश से आए भूमिहीन किसान भी इस रेतीली ज़मीन पर सब्ज़ियों की काश्त कर जीविकोपार्जन कर रहे हैं। नांगल गांव में खेती कर रहे अब्दुल हमीद करीब पांच साल पहले यहां आए हैं। उत्तर प्रदेश के फर्रूखाबाद के बाशिंदे अब्दुल हमीद बताते हैं कि इससे पहले वे राजस्थान के अलवर में खेतीबाड़ी क़ा काम करते थे, मगर जब वहां के ज़मींदारों ने उनसे ज़मीन के ज़्यादा पैसे वसूलने शुरू कर दिए तो वे हरियाणा आ गए। उनका सब्ज़ियों की काश्त करने का अपना विशेष तरीका है।

वे कहते हैं कि इस विधि में मेहनत तो ज़्यादा लगती है, लेकिन पैदावार अच्छी होती है। इन किसानों को मेवात में ज़मींदार से नौ से दस हज़ार रुपये प्रति एकड़ क़े हिसाब से छह महीने के लिए ज़मीन मिल जाती है। इस रेतीली ज़मीन पर कांटेदार झाड़ियाँ उगी होती हैं। किसानों का आगे का काम इस ज़मीन की साफ़-सफ़ाई से ही शुरू होता है। पहले इस ज़मीन को समतल बनाया जाता है और फिर इसके बाद खेत में तीन गुना तीस फुट के आकार की डेढ से दो फुट गहरी बड़ी-बड़ी नालियां बनाई जाती हैं। इन नालियों में एक तरफ़ बीज बो दिए जाते हैं। नन्हे पौधों को तेज़ धूप या पाले से बचाने के लिए बीजों की तरफ़ वाली नालियों की दिशा में पूलें लगा दी जाती हैं।

जब बेलें बड़ी हो जाती हैं तो इन्हें पूलों के ऊपर फैला दिया जाता है। बेलों में फल लगने के समय पूलों को जमीन में बिछाकर उन पर करीने से बेलों को फैलाया जाता है, ताकि फल को कोई नुकसान न पहुंचे। ऐसा करने से फल साफ भी रहते हैं। इस विधि में सिंचाई के पानी की कम खपत होती है, क्योंकि सिंचाई पूरे खेत की न करके केवल पौधों की ही की जाती है। इसके अलावा खाद और कीटनाशक भी अपेक्षाकृत कम खर्च होते हैं, जिससे कृषि लागत घटती है और किसानों को ज़्यादा मुनाफ़ा होता है।

शुरू से ही उचित देखरेख होने की वजह से पैदावार अच्छी होती है। एक पौधे से 50 से 100 फल तक मिल जाते हैं। हर पौधे से तीन दिन के बाद फल तोडे ज़ाते हैं। उत्तर प्रदेश के ये किसान तरबूज, खरबूजा, लौकी, तोरई और करेला जैसी बेल वाली सब्जियों की ही काश्त करते हैं। इसके बारे में उनका कहना है कि गाजर, मूली या इसी तरह की अन्य सब्ज़ियों के मुकाबले बेल वाली सब्ज़ियों में उन्हें ज़्यादा फ़ायदा होता है। इसलिए वे इन्हीं की काश्त करते हैं। खेतीबाड़ी क़े काम में परिवार के सभी सदस्य हाथ बंटाते हैं। यहां तक कि महिलाएं भी दिनभर खेत में काम करती हैं।

अनवारुन्निसा, शमीम बानो और आमना कहतीं हैं कि वे सुबह घर का काम निपटाकर खेतों में आ जाती हैं और फिर दिनभर खेतीबाड़ी क़े काम में जुटी रहती हैं। ये महिलाएं खेत में बीज बोने, पूलें लगाने और फल तोड़ने आदि के कार्य को बेहतर तरीके से करतीं हैं। मेवात के इन गांवों की सब्ज़ियों को गुडग़ांव, फरीदाबाद और देश की राजधानी दिल्ली में ले जाकर बेचा जाता है। दिल्ली में सब्जियों की ज्यादा मांग होने के कारण किसानों को फ़सल के यहां वाजिब दाम मिल जाते हैं। इस्माईल, हमीदुर्रहमान और जलालुद्दीन बताते हैं कि उनकी देखादेखी अब मेवात के किसानों ने भी उन्हीं की तरह खेती करनी शुरू कर दी है।

उत्तर प्रदेश के बरेली, शहजादपुर, पीलीभीत और फर्रूखाबाद के करीब 70 परिवार अकेले नगीना तहसील में आकर बस गए हैं। उत्तर प्रदेश के किसान, पंजाब, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में जाकर भी सब्ज़ियों की काश्त करते हैं। इन किसानों का कहना है कि अगर सरकार बेकार पड़ी ज़मीन उन्हें कम दामों पर काश्त करने के लिए दे दे तो इससे जहां उन्हें ज़्यादा कीमत देकर भूमि नहीं लेनी पडेग़ी, वहीं रेतीली सरकारी ज़मीन भी कृषि क्षेत्र में शामिल हो सकेगी।चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि बालू रेत में इस तरह सब्जियों की काश्त करना वाकई सराहनीय कार्य है। उपजाऊ क्षमता के लगातार ह्रास से ज़मीन के बंजर होने की समस्या आज देश ही नहीं विश्व के सामने चुनौती बनकर उभरी है। गौरतलब है कि अकेले भारत में हर साल छह सौ करोड़ टन मिट्टी कटाव के कारण बह जाती है, जबकि अच्छी पैदावार योग्य मिट्टी की एक सेंटीमीटर मोटी परत बनने में तीन सौ साल लगते हैं। उपजाऊ मिट्टी की बर्बादी का अंदाजा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि हर साल 84 लाख टन पोषक तत्व बाढ़ आदि के कारण बह जाते हैं।

इसके अलावा कीटनाशकों के अंधाधुध इस्तेमाल के कारण हर साल एक करोड़ चार लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की उपजाऊ शक्ति नष्ट हो रही है। बाढ, लवणीयता और क्षारपन आदि के कारण भी हर साल 270 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का बंजर होना भी निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय है। अत्यधिक दोहन के कारण भी भू-जल स्तर में गिरावट आने से भभी बंजर भूमि के क्षेत्र में बढ़ोतरी हो रही है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में पिछले पांच दशकों में भू-जल स्तर के इस्तेमाल में 125 गुना बढ़ोतरी हुई है। पहले एक तिहाई खेतों की सिंचाई भू-जल से होती थी, लेकिन अब करीब आधी कृषि भूमि की सिंचाई के लिए किसान भू-जल पर ही निर्भर हैं।

वर्ष 1947 में देश में एक हजार ट्यूबवेल थे, जो 1960 में बढक़र एक लाख हो गए थे। समय के साथ-साथ इनकी संख्या में में वृध्दि होती गई। नतीजतन देश के देश के विभिन्न प्रदेशों के 360 ज़िलों के भू-जल स्तर में खतरनाक गिरावट आई है। हालत यह है कि 7928 जल मूल्यांकन इकाइयों में से 425 काली सूची में आ चुकी हैं और 673 मूल्यांकन इकाइयां अति संवेदनशील घोषित की गई हैं।लिहाज़ा, बंजर भूमि को खेती के लिए इस्तेमाल करने वाले किसानों को पर्याप्य प्रोत्साहन मिलना और भी ज़रूरी हो जाता है।
 

 

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