रिसर्च : सतही जल निर्धारण एवं प्रबन्धन


सारांशः


सतही जल या धरातलीय जल का तात्पर्य पृथ्वी पर पाए जाने वाले जल निकायों जैसे- नदियों, झीलों, तालाबों, महासागरों और आर्द्रभूमियों (पानी से संतृप्त भूभाग) से है। पारिस्थितिकी तन्त्र के सन्तुलन की दृष्टि से ये सभी जल निकाय अतिसंवेदनशील है। सतही जल जीवधारियों एवं वनस्पतियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। आसानी से उपलब्धता होने के कारण वर्षों से इसका दोहन एवं प्रदूषण होता रहा है जिससे परिस्थितिकी तन्त्र का असन्तुलन, जैव-विविधता में कमी एवं जीवों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इस नकारात्मक प्रभाव को दूर करने के लिये हमें जल संसाधन का समुचित प्रबन्धन करना बहुत ही आवश्यक है। यद्यपि हम जानते हैं कि पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी में मीठे जल की कुल उपलब्धता लगभग 2.7 प्रतिशत ही है इसलिये हमें सभी पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित करते हुए सतही जल निकायों के प्रबन्धन पर जोर देना होगा। यह सार्वत्रिक सत्य है कि सम्पूर्ण पृथ्वी पर उपलब्ध जल गत्यात्मक है। क्योंकि प्रत्येक मानवीय गतिविधियाँ इस पर एक बड़े पैमाने पर प्रभाव डालती है। अतः हमें जल चक्र के गुणात्मक एवं मात्रात्मक बदलाव को रोकना होगा। इस प्रकार सतही जल के निर्धारण एवं उचित प्रबन्धन से कृषि कार्यों, औद्योगिक प्रक्रियाओं एवं घरेलू उपयोग आदि में जल की आवश्यकता को पूरा करने में मील का पत्थर साबित होंगी। वर्षाजल संचयन, भूजल पुनर्भरण प्रणाली व जल मितव्ययिता प्रविधि जल संरक्षण की अद्वितीय तकनीकियाँ हैं।

सरल शब्दों में सतही जल निर्धारण एवं प्रबन्धन सभी जल निकायों में एक समान जल आवंटित करने का अनूठा प्रयास है जो हमें वैश्विक स्तर पर संधारणीय विकास‎ की तरफ ले जाएगा।

महत्त्वपूर्ण बिन्दु-संधारणीय विकास‎, पारिस्थितिकी तन्त्र का सन्तुलन, स्वच्छ जल की संरक्षा एवं प्रबन्ध ,आदर्श जलचक्र की अवधारणा, जल मितव्ययिता प्रणाली।

Abstract:


Surface water means water bodies available on the Earth like oceans, rivers, lakes, ponds and wetlands (water-saturated terrain).These water entities are very sensitive in the nature. Surface water is extremely helpful for flora and fauna both. Over the years exploration and pollution of surface water has been occurs due to its easy availability. Proper management of surface water needed for the balancing of the ecosystem and reduction of biodiversity. We know that total availability of fresh water 2.7 % out of the total amount of water available on the earth. If we done incredible work in the assessment and management of surface water we will surely restrict climate change and other natural disasters.

Rain water harvesting and ground water recharging are vital technique in the conservation of water resources. In simple words assessment and management of Surface water bodies is process of allocation of water as per requirement. This is also a novel effort towards a global sustainable development.

Keywords: Sustainable development, balancing of ecosystem, safety and management of fresh water, Ideal Water cycle, Water conservation system.

1. प्रस्तावनाः


सृष्टि के सृजन के साथ ही उस परमसृष्टा ने अपनी श्रेष्ठ कृति के रूप में मानव का सृजन किया और तब से ही यह अद्वितीय ग्रह हमारा निवास स्थान है। हम इस ग्रह को धरती माँ, धरा, भूमि, धरित्री, रसा, रत्नगर्भा आदि नामों से भी पुकारते हैं। धरती हम सभी जीवधारियों एवं वनस्पतियों के लिये इतनी विशिष्ट एवं जीवनदायिनी इसलिए है क्योंकि इसके आँचल में ही पंचतत्वों से सृजित इस देह का तथा जीवन का पोषण करने वाले सभी तत्व स्वाभाविक रूप से मौजूद हैं। इन तत्वों में जल एक प्रधान तत्व है। जल के बारे में संस्कृत में एक सुक्ति हैः

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
(अर्थात इस पृथ्वी पर तीन रत्न हैं; जल, अन्न और सुभाषित।)

केवल वैदिक साहित्य में ही नहीं अपितु इसके पश्चात अस्तित्व में आए अन्य जीवन दर्शन भी इसे पूरी प्रामाणिकता के साथ स्वीकार करते हैं। पवित्र ग्रन्थ कुरान की 160 आयतों में जल की महत्ता का वर्णन प्राप्त होता है। बाइबिल में भी इसकी चर्चा हुई है। यहूदी धर्म में तो इसे लगभग हिन्दू जीवन-पद्धति जैसा ही स्थान प्राप्त हुआ है। सनातन जीवन दर्शन से प्रभावित जैन, बौद्ध एवं सिक्ख मतावलम्बी तो इसे सनातन परम्परा की तरह ही महत्व देते हैं। इन सभी दर्शनों में केवल जल के महत्व की ही चर्चा नहीं है बल्कि जल संसाधनों के उचित दोहन तथा उनके समुचित संरक्षण एवं संवर्धन पर विस्तार से बताया गया है। इसका महत्व पूरी तरह वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादित किया गया है।

वैज्ञानिक दृष्टि से हम कहते हैं कि समस्त जीवधारी और वायुमंडल दोनों अन्योन्याश्रय के सम्बन्ध द्वारा विकसित हो पाए हैं। जैसाकि हमने अध्ययन किया है और यह प्रामाणिक तथ्य भी है कि पृथ्वी के लगभग तीन चौथाई भाग पर जल है तथा शेष भाग पर जीवधारी निवास करते हैं। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल में मीठे जल की उपलब्धता मात्र 2.7 प्रतिशत ही है। बाकी 97.3 प्रतिशत जल महासागरों का है। पृथ्वी पर मौजूद समस्त जल निकायों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रभाव सभी वनस्पतियों एवं जीवधारियों पर पड़ता है। इससे हमें व्यापक रूप से विविधता देखने को मिलती है। सतही जल हमें प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है, अतः सतही जल पर हम प्रारम्भ से ही विशेष रूप से ध्यान देते रहे हैं। चूँकि पिछले कुछ समय में जनसंख्या असामान्य रूप से बढ़ी है तथा इसका सतही जल का दोहन बहुत अधिक हुआ है परन्तु इसके संरक्षण एवं संवर्धन हेतु जो प्रयास किए गए वे नाकाफी है और इसी कारण कई प्रतिकूलताएँ सामने आई हैं। इसका समाधान वही है जो हम सदियों से करते आ रहे हैं और जानते हैं-हमें सतही जल निर्धारण एवं प्रबन्धन पर विशेष ध्यान देना है।

2. भारत में जल की उपलब्धताः


भारत में वर्षाजल का लगभग 80 प्रतिशत भाग 3-4 महीने समस्त भूभाग पर प्राप्त होता है और एक अध्ययन के मुताबिक सतही जल का 60 प्रतिशत भाग हमारी प्रमुख नदियों में समाहित हो जाता है। सतही जल निर्धारण पर देश में काफी काम हुआ है और उपलब्ध आँकड़ों तथा दस्तावेजों के अनुसार सतही जल निर्धारण हेतु निम्न निकाय प्रमुख हैं।

1. देश के प्रमुख नदी थाले
2. देश के मध्यम नदी थाले
3. चालू वृहद, मध्यम सिंचाई परियोजनाएँ
4. शुद्ध सिंचाई क्षेत्र (एनआईए), शुद्ध बुआई क्षेत्र (एनएसए)

देश के प्रमुख नदी थाले (बेसिनों) का प्रवाह क्षेत्र 2528084 वर्ग किलोमीटर है जबकि देश के मध्यम नदी थाले (बेसिनों) का प्रवाह क्षेत्र 248505 वर्ग किलोमीटर है। कुल सिंचाई परियोजनाओं की संख्या 388 है जिनमें चालू वृहद एवं मध्यम सिंचाई परियोजनाओं की संख्या क्रमशः 169 व 219 है।

राष्ट्रीय जल संसाधन : एक दृष्टि में

3. भारत में जल के स्रोतः


लगभग 329 मिलियन हेक्टेयर में फैला हमारा भारत नदियों और पर्वतों का देश है। इसमें असंख्य छोटी-बड़ी नदियाँ हैं। किसी भी देश के जल संसाधनों को नदियों, नहरों, जलाशयों, कुंडों, तालाबों, आर्द्र भूमि और चापाकार झीलों, हिमखण्डों एवं खारे पानी के रुप में दृष्टिगोचर किया जाता है। जैसाकि हम जानते हैं कि हमारी समस्त नदियों एवं नहरों की कुल लम्बाई लगभग 31.2 हजार किलोमीटर तथा जलस्रोतों का कुल क्षेत्रफल लगभग 7 मिलियन हेक्टेयर है।

जल स्रोतबेसिन की दृष्टि से भारत में जल संसाधनों की उपलब्धता पर राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान द्वारा 1991 में जारी इस चित्र में भारत के भौगोलिक क्षेत्र में जलग्रहण क्षेत्र की प्रति हेक्टेयर जल की औसत वार्षिक वर्षा उपलब्धता दर्शाया गया है। जिससे यह बहुत स्पष्ट है कि पूरे देश में जल की उपलब्धता पर्याप्त है। जहाँ कहीं जल की उपलब्धता में कमी महसूस की जा रही है, वहाँ वास्तव में जल की कमी नहीं है बल्कि हम अपने उपलब्ध जल निकायों का उचित संरक्षण, संवर्धन तथा सही रूप में उनका उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। इसके लिये सतही जल के बेहतर प्रबन्धन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

4. प्राकृतिक जल का निर्धारण एवं जल चक्रः


जल चक्र एक ऐसी पारिस्थितिकीय संकल्पना है जिसके अन्तर्गत किसी पारिस्थतिकी तन्त्र में जल के चक्रण को प्रदर्शित किया जाता है। यह परितंत्र की कार्यशीलता का अभिन्न अंग तथा मौसम एवं जलवायु का प्रमुख घटक है।

जल चक्र, पृथ्वी पर मौजूद पानी का एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होने से एक जल भण्डार का दूसरे भण्डार की ओर गति करने की चक्रीय प्रक्रिया है। यह जल भण्डार जल के ठोस, द्रव अथवा गैस के रूप में हो सकता है। आदर्श जल चक्र में जल की मात्रा का ह्रास नहीं होता है बल्कि रूप एवं स्थान परिवर्तन होता है। जल चक्र ही जल संरक्षण के सिद्धान्त की व्याख्या करता है।

धरती के जल निकायों में पाया जाने वाला जल वाष्पीकृत बनकर वायुमण्डल में पहुँच जाता है। फिर जल का यह रूप संघनित होकर बादल बनता है। इसके पश्चात बादल बनकर ठोस (हिमपात) द्रव या वर्षा के रूप में बरसता है। जमा हुआ बर्फ पिघलकर पुनः द्रव में परिवर्तित हो जाता है। इस तरह पृथ्वी पर जल की कुल मात्रा सदैव स्थिर रहती है।

जल का निर्धारण एवं जल चक्र

5. सतही जल प्रबन्धन


सतही जल को धरातलीय जल भी कहते हैं। यह धरती की सतह पर पाया जाने वाला ऐसा जल है जो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से धरती की ढाल के अनुसार अपना रास्ता बनाता हुआ नदियों में प्रवाहित होता है और जल के विभिन्न भण्डारों जैसे-पोखरों, तालाबों, झीलों तथा आर्द्रभूमियों में वर्षाजल या हिमपात के माध्यम से जल ग्रहण करता है।

नदियों एवं अन्य जलभण्डारों में जल की कमी महासागरों में निर्वाह, जल के सतह से वाष्पीकरण और पृथ्वी के नीचे की ओर रिसाव (प्राकृतिक भूजल पुनर्भरण) से निरन्तर होती रहती है। हम सभी के लिये सतही जल स्वच्छ जलापूर्ति का मूल स्रोत है और इनका ऐसा प्रबन्धन आवश्यक है कि ये जल निकाय सदैव जल प्रदाय करते रहें। पारिस्थितिकी तन्त्र में जल का प्राकृतिक स्रोत वर्षा है। हम जानते हैं कि जल तन्त्र में जल का परिमाण निम्नलिखित कारकों पर भी निर्भर करता हैः

1. झील, तालाब एवं अन्य कृत्रिम जलाशयों की भण्डारण क्षमता।
2. जल निकायों के भौगोलिक क्षेत्र में पाए जाने वाली मिट्टी की पारगम्यता।
3. वार्षिक वर्षण की अवधि, तीव्रता एवं उसका परिमाण।
4. बेसिन के भीतर धरातलीय अपवाह के लक्षण।
5. स्थानीय जलवायु इत्यादि।

सतही जल प्रबंधन

6. हमारी जल संसाधन क्षमता


हमारे पास नदी घाटियों के जल संसाधन की अनुमानित क्षमता 1,869.00 घन कि.मी. है जोकि हमारी आवश्यकताओं को पूरा करने में पूरी तरह से समर्थ है। समस्या यह नहीं है कि जल संसाधन का अभाव है बल्कि इनका समुचित उपयोग हम नहीं कर पा रहे हैं। विभिन्न मानवीय गतिविधियाँ इन जल निकायों पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। इससे बेसिन की जल ग्रहण क्षमता में कमी आती है। वर्ष के प्रत्येक समय जल की आवश्यकता पर भी गौर करना जरूरी है। जैसे-गर्मियों में कृषि कार्यों के लिये अधिक जल की आवश्यकता होती है जबकि शीत ऋतु में कम। ठीक उसी प्रकार से उद्योगों एवं अन्य उपयोगों हेतु भिन्न-भिन्न अवधि में अलग-अलग मात्रा में जल की जरूरत पड़ती रहती है। इस समस्या से निपटने के लिये सतही जल निर्धारण के अन्तर्गत छोटे-छोटे जल भण्डारण निकायों की क्षमता में वृद्धि करनी होगी एवं बड़े जल निकायों में जल मितव्ययिता प्रणाली पर जोर देना होगा।

सतही जल की मात्रा को एक बेसिन क्षेत्र से दूसरे बेसिन क्षेत्र (जहाँ जल की आवश्यकता हो) से नहर या अन्य माध्यमों से जोड़कर सतही जल का प्रबन्धन किया जा सकता है। हालाँकि नदियों को जोड़ने की योजना इसका एक समाधान है परन्तु इस तथ्य को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि मनुष्य को अपनी आवश्यकता के लिये प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है, प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की नहीं।

सतही जल का प्रबन्धन इस प्रकार होना चाहिए जिससे सभी जगह सूखे की समस्या से निजात एवं स्वच्छ जल की कमी को जल के विभिन्न निकायों द्वारा ही पूरा किया जा सके। ब्राजील, रूस एवं कनाडा आदि देशों ने जल भंडारण तथा सतही जल प्रबंधन की दिशा में काफी अच्छा कार्य किया है, उनकी तकनीकों से भी लाभ उठाया जा सकता है।

7. जल मितव्ययिता प्रणाली एवं जल संरक्षणः


वर्षा जल को भिन्न-भिन्न विधियों से एकत्र करके, जल का दुरुपयोग रोककर एवं जल मितव्ययिता प्रणाली को प्रभावी करके ही सतही जल का प्रबन्धन किया जा सकता है। यह एक व्यापक विषय है फिर भी सामान्यतः निम्न परम्पारागत विधियों को व्यवहार में लाकर भी अच्छे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।

सामान्यतया सतही जल निर्धारण एवं प्रबन्ध प्रकृति स्वयं करती है परन्तु हम नयी एवं परम्परागत तकनीकों से सतही जल के निर्धारण एवं प्रबन्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जिसका क्रमवार विवरण निम्नलिखित हैं;

1. जल भण्डारण निकायों में वर्षाजल संचयन तकनीक की सहायता से संग्रहण क्षमता में वृद्धि कर।
2. छतों पर वर्षा संग्रहण तकनीक अपनाकर।
3. तालाबों में रिचार्ज वेल (इंजेक्शन वेल) खोद कर।
वर्षा जल संचयन और रिचार्ज वेल4. हरियाली योजनाः इस तकनीक के अन्तर्गत धरती के ऊपरी सतह की मिट्टी के कटाव को रोकने के लिये मेढ़ बंदी की जाती है। हरियाणा प्रदेश के रोहतक जिले में इसके उदाहरण देखे जा सकते हैं। जिन गाँवों एवं कस्बों में मिट्टी के टीले हैं। उन सभी टीलों पर मेढ़ बाँध दिया जाता है। यह जल संरक्षण के साथ ही मिट्टी का कटाव रोकने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

5. विपथक बंधः
जल प्रबंधन

8. शोध का परिणाम एवं सुझावः


कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘बिन पानी सब सून’। जल ही जीवन है तो हम जल पर नहीं जीवन पर चर्चा कर रहे हैं। हमें जल संसाधनों के परम्परागत जल भण्डारण निकायों के रख-रखाव में निम्न बिन्दुओं पर विशेष ध्यान देना चाहिएः

क. जल निकायों की निरन्तर साफ-सफाई।
ख. भण्डारण क्षमता बनाए रखने के लिये नियमित सिल्ट एवं कचरे का उन्मूलन।
ग. नहरों एवं छोटी जलप्रदाय तकनीकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अनुरक्षण।
घ. जल का दुरुपयोग रोकना और इस हेतु व्यापक जन-जागरण अभियान।

9. उपसंहारः


सतही जल निर्धारण एवं प्रबन्धन कोई अध्ययन नहीं बल्कि एक दर्शन है। दर्शन है हमारे भौतिक जीवन को स्वच्छ, स्वस्थ एवं शतायु रखने का। हमने देखा है कि जल प्रबन्धन हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है। हमारे सभी धर्मग्रन्थों में जल की महत्ता पर व्यापक चिन्तन हुआ है। भारत जैसे विविधताओं से भरे देश में सतही जल प्रबन्धन के कई तरीके विद्यमान हैं और कई जागरूकता के अभाव में विलुप्त हो रहे हैं। सतही जल प्रबन्धन एवं निर्धारण के बारे में हम सभी जानते हैं, समस्या यह है कि जो हम जानते हैं, उसे मानते नहीं हैं। हमारे इस स्वभाव के चलते सतही जल को बहुत नुकसान पहुँचा है हालाँकि अब भी इस नुकसान की काफी हद तक भरपाई करना सम्भव है। जरूरी है कि हम ‘‘जलं रक्षति रक्षित’’ के सूत्रवाक्य को अपने जीवन का हिस्सा बना लें। यह संधारणीय विकास की दिशा में भी एक प्रभावी कदम होगा।

प्रभु! विश्वास का ‘दीपक’ लिये खड़े हैं, कामना है सृष्टि के ‘मंगल’ की ।
हे परमसृष्टा! हर होंठ पर तेरे अमृत की बूँद हों और जल के लिये न युद्ध हो।।


9. सन्दर्भ सूचीः


1. हाइड्रोलॉजी एण्ड वॉटर रिर्सोस इन्फॉरमेशन सिस्टम फॉर इण्डिया-web : http://www.nih.ernet.in/rbis.html
2. hindi.indiawaterportal.org
3. दी मीनिस्ट्री ऑफ वाटर रिर्सोस-वेबसाइट ऑफ द गवर्नमेन्ट ऑफ इण्डिया
4.http://www.dreamtime.com/foto-image/water-pollution-carton.html
5. http://en.wikipedia.org/?title=surface_water
6. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी, रुड़की web- http://www.nih.ernet.in/index.html

सम्पर्क : भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, नागपुर, महाराष्ट्र पिनकोड-440001
ई-मेल-dkpandey@bhelpswr.co.in

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