रंग-बिरंगे पहाड़ों के बीच हरी-भरी घाटियां

सुरू नदी फिर एक तिकोने फैले हुए पाट में पहुंचती है। यहां भी हरियाली बनी है। इस गांव को पानीखर के नाम से पुकारा जाता है। इसके पास ही चिलांग नदी आ मिलती है। यहां से लगभग 10 किलोमीटर आगे टिगोचे गांव के पास 3400 मीटर की ऊंचाई पर वन विभाग ने इसी वर्ष विलो का प्लांटेशन किया है। विलो की 6-7 फीट ऊंची टहनियां रोपी गई हैं। अधिकांश पर कलमें फूट गई हैं। पास की हिमानी से रिसने वाले जल से इन्हें पानी दिया जा रहा है। ऊपर की ओर एक ढालदार मैदान में गांव बसा है। गांव वालों ने अपने खेतों के बाहर विलो की कलमे रोपी हैं, जिनकी कलियां फूट गई हैं।

जोजिला के पहाड़ कश्मीर घाटी और लद्दाख के विभाजक हैं। एक प्रकार से ये पहाड़ हरियाली और पानी से भरी कश्मीर घाटी और उच्च क्षेत्र के रेगिस्तान लद्दाख को साथ-साथ देखते हैं और दोनों ओर को अपने ग्लेशियरों का पानी छोड़ते हैं। जोजिला के पास हिमालय का एक अनोखा रूप सामने आता है, जो किसी भी अन्य रूप से एकदम अलग और असाधारण है। जोजिला से द्रास नदी की एक शाखा के साथ नीचे उतरना होता है और अनेक धाराएं द्रास को बढ़ाती चली जाती हैं। गुमटी से पूर्व की ओर एक सुंदर घाटी दिखती है, जहां कुछ दूरी पर एक ग्लेशियर दिखाई देता है। इसका जल भी द्रास को बढ़ाता है। आगे कारगिल के रंग-बिरंगे पहाड़ों के दर्शन होते हैं। दूर-दूर तक, जहां तक आंखों की पकड़ है, विहंगम दृश्य दिखाई देता है। इसके बाद नीचे उतरना पड़ता है। आस-पास वृक्षों का नाम नहीं है। थोड़े ही आगे मीनीमर्ग में 3270 मीटर की ऊंचाई पर सुख नदी के किनार वृक्षारोपण किया गया है, जो कि इसी वर्ष का है। इनकी कलमे फूट चुकी हैं और पौधों का जीवित प्रतिशत बहुत अच्छा लग रहा है। पहली बार मैंने इतनी ऊंचाई पर वृक्षारोपण देखा। पहले तो विश्वास ही नहीं होता था। फिर 3160 मीटर की ऊंचाई पर पान द्रास में भी पुराना वृक्षारोपण देखने को मिला। इस ऊंचाई पर पौधों की बढ़वार बहुत धीमी है, पर ग्लेशियरों के पास पौधों का रोपण कर उन्हें जीवित रखना महत्वपूर्ण बात है। पान द्रास लगता है कि कभी तालाब रहा होगा।

द्रास नदी रास्ते में अपने छोटे-बड़े तीन नालों का पानी समेटती हुई द्रास गांव के पास पहुँचती है। एक बड़ा नाला मूसखों भी द्रास से पूर्व में मिलता है। लम्बे-चौड़े ढालदार मैदान के दोनों ओर छोटी-छोटी बस्तियां हैं। मिट्टी को पाथकर बनाए गए मकान हैं। ऊपर से छत भी मिट्टी से ही ढकी गई है। जौ एक किसदार गेहूं के अलावा ओगल, फाफर की फसल यहां दिखाई देती है। बस्ती के आसपास विलो का प्लांटेशन है। कुछ वन विभाग द्वारा रोपे गए पौधे भी दिखाई दिए। पुराने पेड़, तो बहतु कम ही दिखाई दिए। बताते हैं कि 40 वर्ष पूर्व यहां पेड़ नाममात्र को भी नहीं थे। इन वर्षों में वृक्षावली बढ़ी है। बड़े बूढ़े बताते हैं कि इस इलाके में पहले पेड़ थे ही नहीं। इधर दो सौ गुणा पेड़ लगे हैं। पानी की कमी के कारण बीच-बीच में प्लांटेशन नहीं हुआ। थंगम तक दो और नाले द्रास नदी में जा मिलते हैं।

इसके आगे का इलाका सूखा दिखता है। आगे खरबू के आस-पास भी हरियाली है। बताते हैं कि इधर इस वर्ष के आरंभ में हिमस्खलन से कई लोग मारे गए थे। जिसके बाद प्रधानमंत्री भी वहां पहुँचे। एक दर्जन छोटे बड़े नालों का जल समेटती हुई सिनगो नदी द्रास में मिलती है और आगे इसे सिनगों के नाम से जाना जाता है। इधर पहाड़ सीधे खड़े हैं। कहीं-कहीं झंडे दिखाई देते हैं। हिमस्खलन एवं भूक्षरण इधर भी तेजी से हो रहा है। कुछ ही आगे सुरू नदी भी सिनगों में आ मिलती है। यहां से सिनगो बड़ा रूप धारण कर सिंधु में समाहित होने के लिए पश्चिम की ओर भागती है।

सिनगो और सूरू के संगम से कुछ पहले से कारगिल तक के दस-बारह किलोमीटर का नदी का तटीय क्षेत्र हरा-भरा है। दोनों ओर खुमानी, विलो और पोपूलस की वृक्षावली है। बीच-बीच में बस्ती भी हैं। वृक्षावली, नदी से सटकर है। ऐसा लगता है कि नदी को बांधने के लिए यह वृक्ष रोपे गए हैं। पर असल बात यह है कि जहां-तहां पानी उपलब्ध हुआ, वहां पिछले दो-तीन दशकों से पेड़ों का रोपण किया गया। कारगिल एक महत्वपूर्ण नाम है। इस नाम के पीछे हमारे पिछले चार दशकों में कई बार की सामरिक घटनाओं की स्मृतियां जुड़ी हुई हैं।

सुरू नदी के किनारे पर बसे 3050 मीटर ऊंचाई पर कारगिल नगर को सन् 1979 में जिले का दर्जा दिया गया। इससे पूर्व यह लद्दाख जनपद का परगना था। कारगिल नगर के ऊपरी भाग में ढालदार पहाड़ की श्रृंखला है। सूरू के दूसरी ओर सीढ़ीनुमा दो लम्बे चौड़े रेतीले मैदान हैं। नए-नए दफ्तरों के लिए सीमेंट के मकान खड़े किए जा रहे हैं। इन्हीं नई कॉलोनियों के बीच-बीच में पुरानी बस्ती की पहचान अलग से हो जाती है। यहां पर सुरू नदी में एक लघु जलविद्युत परियोजना का कार्य भी आरंभ हुआ है। निचले भाग में पर्याप्त हरियाली है। यह हरियाली तीन कोणों में फैली हुई है। नदी पार के इलाके के पैंचों में लोगों ने चारे की घास भी विकसित की है। यह इस इलाके का मुख्य बाजार भी है। श्रीनगर से लेह आने वाले वाहनों का पहला पड़ाव भी है। यहां पर गांवों से लाई गई सूखी खुमानी, अंगूर आदि भी मिलता है। यहां सहकारिता के आधार पर स्थानीय फलों से जेम जेली भी बनायी जाती है। स्थानीय ऊनी वस्त्र भी मिल जाते हैं। कारगिल के बाजार का व्यापार अन्यत्र से आए हुए लोगों के हाथ में मुख्य रूप से है।

कारगिल से लेह जाने के लिए मोटर मार्ग फोतुला होते हुए खालसी पहुंचता है। जन्सकार के लिए रास्ता कारगिल से सुरू नदी के किनारे-किनारे है। कारगिल से सुरू नदी के किनारे-किनारे हरियाली बढ़ती जाती है। ग्राम थंग के 72 वर्षीय गुलाम हैदर बताते हैं कि 30 वर्ष पहले उनके गांव में 40-50 से अधिक पेड़ नहीं थे। अब हजारों पेड़ हो गए हैं। पहले लोगों को पता नहीं था, जानकारी नहीं थी। सरकार वालों ने कहा- पेड़ लगाओ, जंगलात वालों ने भी लगाए और हमने अपने बाड़ों में लगाए। आज एक सौ से अधिक पेड़ हैदर के अपने हैं। इसी प्रकार हाजी ईशा के भी 3000 पेड़ विलो और पोपूलस के हैं। हाजी ईशा हमें समझाता है कि पेड़ से बहुत लाभ हैं। पत्ते मिलते हैं, भेड़ बकरियों को खिलाने के लिए। वालन (जलौनी) मिलता है। मकान बनाने के लिए लकड़ी मिलती है और इन्हें बेचकर पैसा भी मिलता है।

पहले इस इलाके में बारिश नहीं होती थी। अब दरख्तों के कारण उनके यहां बारिश भी होने लग गई है। वे बताते हैं कि जब तक पेड़ नहीं थे, वे गांव के ऊपर की पहाड़ी से जुनिपर की जड़ों को उखाड़ कर जलाते थे। वह अब तो समाप्त हो गया है। यह पूछने पर कि जूनियर तब क्यों समाप्त हो गया था। वे सीधा सा जवाब देते हैं कि तब वहां पर बहुत कम लोग थे। परिवार इधर परिवार इधर बढ़ गए हैं पर नया रास्ता पेड़ लगाने का भी ठीक समय पर सूझा है। इस नंगी पहाड़ी पर पेड़ क्यों नहीं लगाते हैं? इस काम को तो सरकार को करना चाहिए। हम तो पेड़ तभी लगा सकते हैं जब पानी होगा। जहां तक पानी मिलता है, वहां हमने पेड़ लगा दिए हैं। सरकार को भी तो पेड़ लगाने के लिए पानी चाहिए? यह तो सच है थंग ग्राम में प्राइमरी स्कूल है। दो अध्यापक नियुक्त हैं किन्तु एक ही अध्यापक नियमित रूप से आती है। जाड़ों में तो एक अध्यापक भी नहीं आता। गांव वाले कहते हैं कि सर्दियों में भी उनके गांव में अध्यापक रहना चाहिए, जिसमें बच्चों की पढ़ाई ठीक से हो सके। पास से ही हाई स्कूल भी है और अस्पताल भी खुला है। गांव में हर परिवार के पास 4 से 10 कनाल तक खेती है। जौ, गेहूं, सरसो, ओगल और फाफर पैदा हो जाता है। हर परिवार के पास 15 से अधिक भेड़-बकरियां है। पूरे गांव के परिवार बारी-बारी से प्रतिदिन इन्हें चराई के लिए ले जाते हैं। जाड़ों में कम से कम 4 फीट बर्फ गिरती है। इन दिनों पशुओं को पालना बहुत ही कठिन काम हैं। चारा सुखाकर सुरक्षित रखना पड़ता है। जौ-गेहूं का तना संभाला रहता है।

इससे आगे कत्थई रंग की चट्टानें दिखती हैं। इसके निचले भाग में बड़े-बड़े शिलाखंड बिखरे पड़े हैं। लगता है कि ऋतुक्रिया के कारण ऐसा होता रहता है। यहां पर हमें एक नहर भी खोदी हुई दिखाई दी। इन छोटी नहरों को चट्टानों और पहाड़ों से आने वाले मलवे से सुरक्षित रखना काफी पेचीदा काम है। इसको लांघकर जैसे ही आगे बढ़ते हैं, एक मनोहारी दृश्य इन कत्थई रंग के पहाड़ों के बीच का उभरता है। यहा सांकू गांव है। यह घाटी काफी फैली हुई है। विलो और पोपूलस से भरी हुई। इस गांव के बीचों-बीच सुरू नदी बह रही है। वह अपने मनचाहे ढंग से अलग-अलग धाराओं में प्रवाहित होती है। बीच-बीच में विलो आदि के झुरमुट खड़े हैं। जौं, सरसों के पीले फूलों के खेत सजे हुए हैं। घास का भी प्रबंध है पानी का अधिकतम उपयोग किया गया है। सुरू नदी के अलावा गांव के दाएं-बाएं हिमानियां हैं। उनसे रिस-रिस कर आने वाले जल का उपयोग भी हरियाली लाने में किया गया है। खेतों से अधिक चारागाह की ओर ध्यान दिया गया है। कई खेतों में भी चारा उगाया गया है।

टूट-फूट से मोटर सड़क भी नष्ट हुई। शंकर चिकतन गांव में एक परिवार का मकान भी क्षतिग्रस्त हुआ। जानवर भी बहे और जमीन भी नष्ट हुई। फरम्यू समए गांव में भी जमीन नष्ट हुई। पेड़ भी नष्ट हुए। नहरें भी नष्ट हुई। उनमें साद भर गया। खांकराल गांव के गुलाम ने जानकारी दी कि खांकराल एवं तबथै की नहर भी टूट गई। पानी एकत्रित करने के लिए तालाब बनाए थे, वे भी साद से भर गए हैं। सैलाब चार पांच साल पहले भी आया था। पर इतना नहीं। नुकसान भी कम हुआ था। मैदी बताते हैं कि उनके यहां पहले से कहीं अधिक पेड़ हैं, पर इधर इलाके में हरियाली कुछ कम दिखती है।

सांकू के आसपास सुरू में बरसू नाला और असतागयों का नाला भी मिलता है। इसके आगे सुरू नदी का फैलाव बढ़ता जाता है। आसपास के पहाड़ भूरे, काले और बादामी रंग के हैं। एक जगह दूर स्फटिक सा चमकता पहाड़ भी दिखाई दिया अधिकांश पहाड़ जर्जर से दिखाई देते है। रोड़े भी आए हुए हैं। कई गांव पुराने हिमोड़ एवं भूस्खलन के मलबे में बसे लगते हैं। यहां यदा-कदा हिमस्खलन होता रहता है। कभी कभार गांवों का नुकसान भी होता रहता है। इस वर्ष के आरंभ में गैलिन गांव में हिमस्खलन से 6 लोग मारे गए। गैलिन गांव नदी पर बसा है। हिमस्खलन दूसरी ओर बसे संग्रा गांव के ऊपर के पहाड़ से आरंभ होकर सुरू नदी को पार करता हुआ गैलिन गांव के किनारे के मकानों को तहस-नहस कर गया था। गांव के लोग बताते हैं कि इस घटना के बाद प्रधानमंत्री इस इलाके में हैलिकाप्टर से आए थे पर उनका हैलिकाप्टर अधिक बर्फ के कारण उतर नहीं सका।

इधर से निकलने वाली नदियों का जल हिमानियों से ही मिलता है। इसलिए नदियां भरी हुई हैं। जाड़ों में तो ऊपर के कई स्थान बर्फ से पट जाते हैं। आगे एक जगह सुरू घाटी खिल उठती है। यहां घाटी का आकार कमल की तरह बन गया है। 3090 मीटर पर पुरूकिले गांव बसा है। यहां पर हरियाली तो है पर साथ ही सरसों के पीले फूल भी खिले हैं। जौ से भरे खेत हैं। उसके ऊपर जर्जर पहाड़ों की ओट से भी हिम से आच्छादित नुन (7133 मी.) तथा कुन (7085) का भव्य दृश्य है। ये दोनों हिमराज स्थिर भाव से खड़े हैं। इनके सामने सभी पहाड़ बौने लगते हैं। हमारे बौनेपन का तो कहना ही क्या? हम आगे बढ़ते जाते हैं। नुन-कुन पर्तव शिखर कभी निकट आते लगते हैं, कभी ओझल हो जाते हैं। नुन-कुन अपनी भव्यता और महानता का बोध करते रहते हैं।

सुरू नदी फिर एक तिकोने फैले हुए पाट में पहुंचती है। यहां भी हरियाली बनी है। इस गांव को पानीखर के नाम से पुकारा जाता है। इसके पास ही चिलांग नदी आ मिलती है। यहां से लगभग 10 किलोमीटर आगे टिगोचे गांव के पास 3400 मीटर की ऊंचाई पर वन विभाग ने इसी वर्ष विलो का प्लांटेशन किया है। विलो की 6-7 फीट ऊंची टहनियां रोपी गई हैं। अधिकांश पर कलमें फूट गई हैं। पास की हिमानी से रिसने वाले जल से इन्हें पानी दिया जा रहा है। ऊपर की ओर एक ढालदार मैदान में गांव बसा है। गांव वालों ने अपने खेतों के बाहर विलो की कलमे रोपी हैं, जिनकी कलियां फूट गई हैं। इनके तनों को पुराने कपड़ों के चिथड़ों से लपेटा गया है। एक नहीं अधिकांश कलमों को इसी तरह संवारा गया है। बताते हैं कि पशुओं से इनकी खाल की रक्षा के लिए यह उपाय किया गया है। यहां से नदी एक घुमाव वाला मोड़ लेते हुए फिर नुन-कुन के आगे पसरी है। बताते हैं कि इसके आगे रिंगहोम गोम्पा है एवं जन्सकार के पर्वत एवं उनसे बनी सुंदर घाटियां हैं।

कारगिल जनपद की बीहड़ता को समझना आसान नहीं है। प्रकृति के प्रतिकूल व्यवहार के बावजूद यहां पर मानव बस्तियां बारहों महीने वाली है। इन बस्तियों में 15-15 फीट मोटी बर्फ जम जाती है। लोग अपने तथा अपने पशुओं को कैसे सुरक्षित रखते हैं? यह हमारे लिए पहेली ही थी। बताते हैं कि उन दिनों इतनी सर्द और तीखी हवा चलती है कि चेहरे को ऊन लगाकर ढक देना पड़ता है। मात्र आंखें खुली रखते हैं। लोग प्रकृति के विपरीत प्रभावों से जूझने के आदी हो गए हैं। हर वर्ष सर्दी के मौसम के आने से पहले अपने तथा पशुओं के आवास-भोजन आदि का समुचित प्रबंध करके रखना पड़ता है। फिर चार-पांच माह तो बर्फ के अंदर ही रहना पड़ता है। तब बाहर से संपर्क बिल्कूल टूट जाता है। कहां क्या हो रहा है, इसकी एक दूसरे को जानकारी भी नहीं होती। सभी व्यवस्थाएं ठप्प हो जाती हैं। बर्फ के पिघलने के बाद फिर वही जाड़ों के लिए तैयारी में जुट जाते हैं। इस सबसे बावजूद गांव के लोग प्रसन्न हैं। वे स्वस्थ्य हैं और इसके आदी हो चुके हैं। सर्वत्र एक नीरस शांति पसरी रहती है।

कश्मीर सरकार अपने कर्मचारियों को कुछ विशेष सुविधा यहां पर देती है। गर्मियों में तीन सौ रुपया एवं जाड़ों में साढ़े चार सौ रुपया मासिक अतिरिक्त भत्ता देती है, जो कि यहां की भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए न्यून ही लगता है। यह जानकारी मुझे अध्यापकों एवं अन्य राज्य कर्मचारियों से मिली। कारगिल के युवा जिला अधिकारी फीरोज खान कुछ करना चाहते हैं। वह इस पूरे इलाके के लोगों और धरती के प्रति संवेदनशील हैं। लोगों में काफी लोकप्रिय हैं। मानते हैं कि यहां की विशेष परिस्थितियों को देखते हुए मानकों में परिवर्तन होना चाहिए। तभी विकास का सही-सही लाभ लोगों को मिल सकता है। पेड़ों के प्रति उनका बहुत लगाव है। जिले में हरियाली को और बढ़ाना चाहते हैं। उनका मानना है कि सामाजिक वानिकी के अंतर्गत प्रति पौधा दो रुपया खर्चा आंका गया है जबकि इस क्षेत्र में दुगुना पड़ता है। इसलिए इस प्रकार के परिवर्तन की छूट इसमें होनी चाहिए।

वह बताते हैं कि जाड़ों में श्रीनगर से जोजिला होते हुए यातायात बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति में हमें श्रीनगर जाने के लिए पहले लेह जाना पड़ता है। वहां से जहाज द्वारा श्रीनगर जाना पड़ता है। जाड़ों में एक दूसरे गांवों से संपर्क ही टूट जाता है। इतनी बर्फ गिर जाती है कि काम करना कठिन होता है। काम करने के कुल चार-छह माह ही होते हैं। इसी दौरान सारे विकास कार्य निपटाने पड़ते हैं। वे कहते हैं कि इस दशक में लोगों में पेड़ों के प्रति अत्यधिक सम्मान बढ़ा है। लोग आगे आकर पेड़ों को लगाने का कार्य स्वयं करते हैं। हमें तो मात्र सहयोग एवं मार्ग दर्शन देना है। कारगिल के वन अधिकारी बताते हैं- उनसे पिछले दिनों कारगिल में निर्माणधीन विद्युत परियोजना के अधिकारी ने कहा कि पेड़ लगाना छोड़ दो, अन्यथा बारिश बढ़ती जाएगी और उनकी परियोजना में गाद की समस्या पैदा होगी, ये पहाड़ पहले ही कमजोर है फिर तो पिघल कर नदियों में आएंगे। पेड़ और बारिश तथा मौसम के साथ पड़ने वाले संबंधों के बारे में अब यह सुनने को मिलता है। इसका कारण लोग पेड़ों की बढ़त मानते हैं।

कारगिल से लेह जाने के लिए सुरू नदी को पार करना पड़ता है। ऊपर के पठार के बाद वाक्खा नदी मिल जाती है। नदी में भी हरियाली काफी है। घाटी यद्यपि चौड़ी नहीं हैं, अगल-बगल के पहाड़ कहीं-कहीं सीधे खड़े हैं। मोटर सड़क तो घाटी के किनारे की ट्री लाईन के ऊपर से बनी है। सच्चारूचे के आसपास का प्लांटेशन अब जंगल का रूप धारण कर चुका है। पटकुन की ओर से घाटी फिर अधिक चौड़ी है। यहां से सरगौध ब्लॉक लग गया है। यहां से बौद्धों का क्षेत्र लग जाता है। यहां पर पहला गोम्पा मुलवैक में दिखने को मिला। एक पहाड़ी के नीचे गोम्पा (बौद्ध मंदिर) बना हुआ है।

नूनामचे गांव के गुलाम रजा जानकारी देते हैं कि पिछले 5-6 अगस्त 1988 को उनके इलाके में दो घंटे की बारिश के बाद बहुत नुकसान हुआ। वाक्खा नदी ने प्रलय ढहा दिया था। चार पांच बजे की बात होगी, वाक्खा में लोग दुकानों में बैठे थे। एकाएक सैलाब आया, 4 दुकानें तथा दो होटल नष्ट हो गए। महमूद रजा की सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान भी नष्ट हो गई। सामान भी बह गया। इधर के नालों में बनी लगभग 15 पनचक्की भी नष्ट हो गई। पहाड़ पर चरने के लिए गईं 50 भेड़ें, 20 गदहे और एक सरकारी सांड भी बह गया। दुकानदार भागो-भागो न कहते तो कई आदमी भी मारे जाते। वे बताते हैं “साहब यहां तो पहले बारिश ही नहीं होती है। हुई तो ऐसी कि उसने तबाही मचा दी। फोकर नाले में भी बहुत नुकसान हुआ।”

वक्खा से आगे ऐसा लगता है जैसे कि बालू के ढेरों को रंग-बिरंगे रूप में सजाया गया हो। भिन्न-भिन्न रंग रूपों में ये पहाड़ हैं। ऊपर की ओर चट्टानें हैं। कुछ तो मंदिरनुमा भी दिखाई देते हैं। पहाड़ों पर पिछले सैलाब के चिह्न साफ दिखाई दे रहे थे। यहां अलग-अलग पनढाल हैं। उन पर बालू और मिट्टी बहने की छाप पड़ी थी किन्तु इधर पानी की एक बूंद नहीं है। लेह जाने के लिए नामीकला (जायोकदरा) को पार करना पड़ता है। नामीकला 3719 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से एक तरफ तो वाक्खा का पनढाल छूटता है तो दूसरी तरफ का कांजी सांगोलिक का पनढाल दिखता है। दूर-दूर तक अपने रूपों को अलग-अलग रंगों में समेटे हुए विभिन्न पर्वत श्रेणियां दिखती हैं।

कोडखर्ग में पता चला कि 5-6 अगस्त के सैलाब से इधर भी भारी नुकसान हुआ। टूट-फूट से मोटर सड़क भी नष्ट हुई। शंकर चिकतन गांव में एक परिवार का मकान भी क्षतिग्रस्त हुआ। जानवर भी बहे और जमीन भी नष्ट हुई। फरम्यू समए गांव में भी जमीन नष्ट हुई। पेड़ भी नष्ट हुए। नहरें भी नष्ट हुई। उनमें साद भर गया। खांकराल गांव के गुलाम ने जानकारी दी कि खांकराल एवं तबथै की नहर भी टूट गई। पानी एकत्रित करने के लिए तालाब बनाए थे, वे भी साद से भर गए हैं। सैलाब चार पांच साल पहले भी आया था। पर इतना नहीं। नुकसान भी कम हुआ था। मैदी बताते हैं कि उनके यहां पहले से कहीं अधिक पेड़ हैं, पर इधर इलाके में हरियाली कुछ कम दिखती है। अब्दुल हसन कहते हैं कि पहले पहाड़ों पर जूनिपर था, उससे काम चल जाता था। अब वह नष्ट हो गया है। इसलिए चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी का डिपो खुलना चाहिए। मकान बनाने के लिए भी तो एक से तीन फुट तक लकड़ी मिलती है। उससे पूरा नहीं पड़ता। इसमें बढ़त होनी चाहिए।

आगे श्रीनगर लेह राजमार्ग का सबसे ऊंचा स्थान फोतुला (दर्रा) मिलता है। इसकी ऊंचाई 4091 मीटर है। यहां पर तीखी वायु के तेज झोंके हमें आगे बढ़ने को बाध्य करते हैं। फोतुला दो पनढालों की विभाजन रेखा है। आगे पीछे पर्वतों का विहंगम दृश्य दिखता है। अब रास्ता नीचे की ओर बढ़ता जाता है। एक घाटी में हरियाली है। एक छोटे से टीले पर गोम्पा बना हुआ है। यह लामायुरू है। समुद्र की सतह से 3530 मीटर मीटर की ऊंचाई पर बसा लामायुरू एक सुंदर घाटी में है। ऊपर से इसका दृश्य मनोहारी है। यहां पर गोम्पा और चोरतन भी हैं। यहां से कुछ ही आगे दूधिया रंग के गुलदावरी फूल के नमूने से सजा हुआ पहाड़ है, जोकि इस रेतीले पर्वत प्रदेश के सौंदर्य को और भी आकर्षक बनाता है और मन मोह लेता है। इधर भी काले-भूरे मटमैले रंग के पहाड़ है। कहीं तो ऐसा लगता है कि किसी ने इन्हें सजा कर रख दिया हो, परंतु दर पर रंग-बिरंगी सतहें हैं। इसके बाद कई पगडंडियों से लगारलुप तक उतरना पड़ता है। यहां खालसी नाला चट्टानों को काटकर नीचे बह रहा है। थोड़े ही आगे यह सिंधु नदी में समाहित हो जाता है।

खालसी नाले के संगम के पास ही सिंधु नदी के दर्शन होते हैं। सिंधु हमें जैसे मोहपाश में बांध लेती है। हम उसके तट पर खड़े हो जाते हैं। सिंधु के कलकल नाद को सुनते हैं। वह शिलाखंडों से टकराती, लहरों से उछलती पूर्ण यौवन में मदमाती आगे को बढ़ती जाती है। अपनी तेज लहरों से पठार को काटकर उसने अपना स्थान नीचे बना दिया है। पूरे वेग के साथ सिंधु का प्रवाह दिख रहा है। वेगवती सिंधु की अपार जलराशि तथा शुचिता से होठ स्वयं ही बुदबुदा उठते हैं- ‘नर्मदे-सिंधु-कावेरी जलेस्मिन सन्निधि कुरू’।

लद्दाख में पेड़ लगाने की सदियों पुरानी कहानी है। मेजर जनरल निशीवल का जो आवास है वह पहले से शासन करने वालों का मुख्य केंद्र रहा है। इस आवास के चारों ओर बड़े बूढ़े पेड़ हैं। एक विलो का पेड़ 1830 का भी है। इसकी मोटाई 20 फुट से अधिक है। उसी उम्र के कुछ और पेड़ भी हैं। लेकिन इस पेड़ पर सन् 1830 का पट लगा है। बताया जाता है कि सन् 1830 में लद्दाख के वजीरे-ए-वज़ारत (डिस्ट्रिकट मजिस्ट्रेट) मेहता मंगल ने पेड़ों के रोपण को प्रोत्साहन दिया। बाद में वजीरे-ए-वजारत हस्मतुल्ला खान ने भी पेड़ों के रोपण को बढ़ावा दिया। उस समय जो पेड़ों को नुकसान पहुंचाता था, उस पर पाच रुपया तक जुर्माना वसूला जाता था।

न जाने कब से यह सिंधु इसी प्रकार आगे फिर आगे बढ़ती जा रही है। उसमें आज भी वही ताजगी है जो युगों पहले रही होगी। उसका प्रवाह टूटता नहीं है। उसने कई सभ्यताओं को सींचा है, पाला पोसा है और समाप्त भी किया है। उसके लिए कोई राजनैतिक सीमा नहीं है, न कोई उसे बांध ही सकता है। वह दूसरों के बताए रास्तों पर नहीं चलती है, उसने अपने लिए स्वयं राह बनाई है। वह जन्म से ही बर्फीले थपेड़ों, ठंडी हवाओं की चपेटों को सहती हुई अपनी राह पर बढ़ती जा रही है। जो रोड़ा बनने का प्रयत्न करता है, वह चूर-चूर होकर उसकी तरंगों में विलीन हो जाता है। उसको इससे मतलब नहीं है कि उससे पोषित होने वाले किस व्यवस्था में हैं, कैसी राजनीति करते हैं? वह तो जो भी उसकी शरण में जाता है, सबकी समदृष्टि से पालनहारा है। सिंधु समुद्र भी है और जल भी। जल ही जीवन भी है। सिंधु यात्रा पर चलते समय बार-बार स्मरण होता था कि “सर्वे गंगाः समुद्रगां:” समुद्र में मिलने वाली सारी नदियां गंगा का ही रूपान्तर हैं। मार्कण्डेय पुराण की यह उक्ति पूरी तरह सही प्रतीत होती है।

खालसी के पास सिंधु को पार करना पड़ता है। थोड़ी दूर तक छोटा सा पठार है। उसके बाद खालसी बाजार है। खेतों में गेहूं-जौ, साग-भाजी के साथ ही खुमानियों से लदे हुए पेड़ हैं। सेब भी खूब हैं। स्वादिष्ट और मीठे, खालसी में 60 रुपया किलो तक सूखी खुमानी बिक जाती है। खुमानी के अंदर की गिरी भी काफी बिक जाती है। पानी पर्याप्त मात्रा में है। इसलिए हरियाली भी खूब है। पास के नाले में विलो के पेड़ों की सघनता है। आगे सिंधु नदी इस रेतीले मैदान से लगभग 50 मीटर गहरे में बह रही है। आजू-बाजू चौड़े मैदान हैं। फिर ऊंची खड़ी पहाड़ियां हैं। जिनसे क्षरण लगातार हो रहा है। ससपोल गांव के पास खेती के साथ-साथ पेड़ों की पक्तियां भी हैं। इनमें खुमानी और सेब मुख्य रूप से हैं। फिर सिंधु नदी के कुछ ही ऊंचाई पर मीलों लम्बा-चौड़ा पठार है। इस बीच सिंधु दृष्टि से ओझल हो जाती है।

पठार के बारे में हमने प्रारंभिक पाठशाला में पढ़ा था-तिब्बत का पठार। ये ठंडे प्रदेश के लम्बे चौड़े मैदान हैं, जहां प्राकृतिक वनस्पति नाममात्र को भी नहीं है। बारिश बहुत कम, बर्फ खूब गिरती है। काम के महीने बहुत कम हैं। पठारों में भी जगह-जगह मलबा आया हुआ है। यह मलवा दो पहाड़ों के बीच से पठारों में फैला हुआ है। बड़े-बड़े पत्थर, रोड़े और उनके ऊपर से बालू की परत। यह मलबा और हिमोड़ पानी द्वारा बहाया गया लगता है। जहां भी पानी के स्रोत हैं उनका हरियाली लाने में भरपूर योगदान है। छोटे-छोटे नाले अधिक उपयोगी हैं। सिंधु तो गहराई में बहती है। कहीं-कहीं ही उसके जल का उपयोग किया गया है। नीमू सिंधु के किनारे पर बने एक सपाट मैदान में है। यहां खेतों में उपज अच्छी है। पेड़ भी काफी हैं। सेब-खुमानी, विलो और पोपूलस के वृक्षों की बहुतायत है। सब्जी भी अच्छी हो जाती है। इससे कुछ मीटर आगे जन्सकार में सिंधु से अधिक जल है दोनों का मिलन स्थल रोमांचक है। कुछ दूर तक सिंधु तो संकरी घाटी की ओर जाती है और जन्सकार घाटी बहुत खुली-खुली लगती है। जन्सकार नदी जन्सकार पर्वत श्रृंखला का बर्फानी जल समेटती हुई सिंधु को बड़ा रूप देती है। जन्सकार के जलग्रहण क्षेत्र की चोटियों पर दूर-दूर तक बर्फ दिखाई देती है।

इससे आगे मीलों लम्बा पठार है, जो लेह से आगे फैला हुआ है। लेह, लद्दाख का जिला मुख्यालय है। यहां पर अरब पर्यटकों की बहुतायत है जिनमें अधिकांश विदेशी होते हैं। यहां हर दस व्यक्तियों में एक विदेशी है। जोड़े के जोड़े। इनके कारण भी खूब चहल-पहल रहती है। आधुनिक सभी सुविधाएं लेह में उपलब्ध है। पहनने से लेकर खाने-पीने तक का सभी आधुनिक किस्म का सामान मिल जाता है। सैकड़ों मील दूर से लाई गई सब्जी फल भी उपलब्ध हो जाते हैं। लेह पर बौद्ध धर्मावलियों का प्रभाव है। गोम्पा हैं। माने भी हैं। पुरानी पीढ़ी तो अपना ही परंपरागत लिबास पहनती है। लेकिन युवा नए फैशन को भी अपना रहे हैं। बाजार में दुकानों के आगे ही पटरी पर बैठी हुई बहिनों की कतार दिखती है, जो अपने खेतों की ताजी सब्जियां बेचने आती हैं। मूली, गाजर, शलगम, आलू और राई की बहुतायत है। सेब और खुमानी भी बिक्री के लिए लाते हैं। हरा साग भी मिल जाता है। यहां के आसपास के गांवों में इनकी पैदावार खूब बढ़ी है। इससे सीधे-सीधे किसानों को अच्छा पैसा मिल जाता है। हायर सेकेंडरी तक शिक्षा का प्रबंध है। स्कूलों और कॉलेजों में कन्याओं की उपस्थिति बराबर दिखती है। लेह के आसपास हरियाली खूब है। वन विभाग का बीस साल पुराना प्लांटेशन अच्छा खासा हो गया है। जगह-जगह पोपूलस और विलो के पेड़ खड़े हैं।

लद्दाख में पेड़ लगाने की सदियों पुरानी कहानी है। मेजर जनरल निशीवल का जो आवास है वह पहले से शासन करने वालों का मुख्य केंद्र रहा है। इस आवास के चारों ओर बड़े बूढ़े पेड़ हैं। एक विलो का पेड़ 1830 का भी है। इसकी मोटाई 20 फुट से अधिक है। उसी उम्र के कुछ और पेड़ भी हैं। लेकिन इस पेड़ पर सन् 1830 का पट लगा है। बताया जाता है कि सन् 1830 में लद्दाख के वजीरे-ए-वज़ारत (डिस्ट्रिकट मजिस्ट्रेट) मेहता मंगल ने पेड़ों के रोपण को प्रोत्साहन दिया। बाद में वजीरे-ए-वजारत हस्मतुल्ला खान ने भी पेड़ों के रोपण को बढ़ावा दिया। उस समय जो पेड़ों को नुकसान पहुंचाता था, उस पर पाच रुपया तक जुर्माना वसूला जाता था। लेह के आसपास छावनियों के प्रांगण में भी बहुत सारे पेड़ रोपे गए हैं, जिनकी देखभाल पर अच्छा ध्यान दिया जा रहा है। लेह के अग्रभाग में चौड़ा ढालदार मैदान है। इसके बीचों-बीच सिंधु नदी बह रही है। उसका पाट काफी चौड़ा है। कई स्थानों पर सिंधु नदी दो-तीन धाराओं में बह रही है। खेतों में जौ, चारे के अलावा साग-सब्जी अधिक उगाई जा रही है। खेतों और मकानों के आसपास लोगों के अपने पेड़ हैं जो ज्यादा पुराने नहीं हैं। इधर विलो और पोपूलस के अलावा मलबरी, ऐलन्थस तथा रोबानिया भी लगा है। चौगलसर, जीवतसन तथा शीशी का प्लांटेशन सिंधु के दोनों पाटों से सटा हुआ है। प्लांटेशन की बढ़वार एवं जीवित प्रतिशत भी अच्छा है। नदियों के किनारे हरी दीवार खड़ी कर सैलाब के वेग को कम किया जा सकता है।

थिकसे के पास सिंधु नदी में आए जून-जुलाई के सैलाब ने कमजोर मिट्टी को रोखड़ में बदल दिया है। वहीं पर पुराना प्लांटेशन नदी के प्रवाह को रोकने में सहायक हुआ, ऐसा दिखता है। नदी के किनारे जहां-जहां पेड़ हैं, उसके रूपरंग में भी बदलाव होने लगा है। धरती में ह्यूमस बढ़ रहा है। नई वनस्पति अपने आप सिर उठा रही है। इधर पेड़ लगाना लोगों ने अब अपना कार्यक्रम बना लिया है। वे अनाज की खेती से अधिक महत्व पेड़ों को देते हैं। पेड़ को जीवित रखने का अनुभव जनित ज्ञान उनके पास है। यह समय के अनुसार पेड़ों की वृद्धि के बारे में सोचते हैं। पहले जहां छोटी-छोटी कलम रोपी जाती थी, अब सात-आठ फीट ऊंची टहनियां रोपी जाती हैं। अनुभव ने बताया कि इनका जीवित प्रतिशत भी अधिक रहता है। ये कलमें जल्दी ही पेड़ का रूप धारण कर लेते हैं। पेड़ों को जब तक वे अपने अस्तित्व की स्वयं रक्षा करने में समर्थ नहीं जो जाते हैं तब तक उन्हें वे अपना संरक्षण देते रहते हैं। पुराने चिथड़ों को लपेट कर उनकी रक्षा करना सामान्य बात है। किंतु उपयोग किए गए छोटे-छोटे डिब्बों को बीच में से काट कर इन टहनियों में डाल दिया जाता है। एक-एक कर दर्जन भर डिब्बों की नकाब पहनाई जाती है। यह एक नहीं, दर्जन नहीं, अपितु हजारों-हजार पेड़ों पर देखा जा सकता है। सेना-प्रधान इस क्षेत्र के उपयोग में आए हुए बेकार समझे जाने वाले कबाड़ का सही उपयोग बिना खर्चा एवं अधिक मेहनत के पेड़ों की बढ़ोतरी में सहयोग दे रहा है।

पेड़ों को लगाने और बढ़ाने में वजीरे-ए-वजारत मेहता मंगल, वजीरे-ए-बजारत हस्मत तुल्ला खान एवं गोम्पाओं ने जो प्रोत्साहन उस समय दिया वह भले ही उस समय दिखा नहीं पर पूरे कारगिल और लद्दाख में पेड़ों को रोपना और उन्हें बढ़ाना लोगों का कार्यक्रम बन गया है। अब वन विभाग, सरकार या धार्मिक संस्था के प्रोत्साहन की लोगों को उतनी आवश्यकता नहीं रहती। लोगों ने समझ लिया है कि पेड़ उनके अस्तित्व का मुख्य आधार है। इसके साथ सीधे-सीधे उनके जीवन का आर्थिक पहलू भी जुड़ा हुआ है। जहां भी लोगों को पेड़ लगाने के लिए अनुकूल परिस्थिति दिखती है, वहां लोग आगे आने लग गए हैं। चौगलससर के पास सिंधु नदी की दो धाराओं के बीच वन विभाग ने 48 हैक्टेयर भूमि में वृक्षारोपण किया है। इसका जीवित प्रतिशत अपेक्षा से अधिक है। भूमि में रेत और पत्थर है। इसकी देख-रेख की जिम्मेदारी बलमा की है। यह बड़े मनोयोग से पेड़ों की देखभाल करती है। उन्हें पानी से भी सींचती है। एक तंबू में वृक्षारोपण के बीच में ही उसका निवास है। पहले उसका पति भी वन विभाग में गार्ड था। इधर के संपूर्ण वृक्षारोपण की जिम्मेदारी उसी की थी। कुछ दिन पहले यहां पर उसकी मृत्यु हो गई। बलमा कहती है कि वह पति के शोक के दिनों में भी इसी वृक्षारोपण में रही-यह सोचकर कि वे बिना देख-रेख के मर जाएंगे। अब इस प्रकार के वृक्षारोपणों की देखा-देखी में गांव के लोगों ने भी अपने-अपने घेरे बना कर पेड़ लगाना शुरू कर दिया है। उन्हें अब दूसरों के उपदेश और अक्ल की जरूरत नहीं महसूस होती।

लेह से लगभग 20 किलोमीटर ऊपर और 15 किलोमीटर नीचे गोपूक की तरफ अब हरियाली का विस्तार बढ़ता जा रहा है। इधर रास्ते में कई ऐसी वृक्षावलियां मिलीं, जिन्हें लोगों ने बताया कि यह गोम्पाओं की हैं। लेह के बौद्ध विद्या संस्थान में हिन्दी के प्रवक्ता श्री सोनम आंगनुक अपने विद्यार्थियों को बताते हैं कि भगवान बुद्ध का जन्म पेड़ के नीचे हुआ था। ज्ञान एवं निर्वाण भी पेड़ के नीचे ही हुआ था। पेड़ का महत्व पहले से है। इसलिए अधिक पेड़ लगाने चाहिए। संस्थान में ज्यादातर छात्राएं मिलीं। वे स्वस्थ एवं हंसमुख हैं। जब हमने मध्य हिमालय के दरख्तों के बारे में उन्हें जानकारी दी और वहां पर चलने वाले चिपको आंदोलन के बारे में बताया तो वे सब ऊंचे स्वर में चिपको और डाल्यों के दग्ड्या का उद्घोष दुहारने लगीं। उन्होंने इच्छा जाहिर की कि वे भी पेड़ों की बढ़ोतरी के लिए कार्य करेंगी। इससे आगे लेह-उपसी मार्ग पर सिंधु के आर-पार के तटीय क्षेत्र में हरियाली है बाकी दूर-दूर फैले रेतीले मैदानों में जगह रेंड़े दिखाई देते हैं। मैदानों के समाप्त होते ही रेतीले पहाड़ शुरू हो जाते हैं। कहीं-कहीं चोटियों पर बर्फ दिखाई देती है। उसके बाद गांव है, जहां पर कुछ-कुछ हरियाली दिखती है। यहां गोम्पा भी है।

रास्ते में जगह-जगह माने की कतारें खड़ी हैं। ऐसा लगता है कि कभी इनका निर्माण अनिवार्य-सा था। एक पहाड़ी पर जो नीचे के पठार से लगभग 2-3 सौ मीटर ऊंची होगी, थिकसे 3300 मीटर ऊंचाई पर स्थित गोम्पा है। निचले भाग में माने हैं, फिर गांव है। गोम्पा वाली पहाड़ी बहुत सुंदर लगती है। बताते हैं कि इस गोम्पा की स्थापना चार सौ वर्ष पूर्व हुई थी। आजकल यहां पर 85 लामा रहते हैं। भिक्षुणियां भी रहती हैं। विदेशी पर्यटक यहां खूब देखे जा सकते हैं। गोम्पा का अपना रेस्तरां एवं होटल भी है। गोम्पा का अपना आर्थिक आधार है। इस साल जून में सैलाब आया था। उस समय यहां पर नया प्लांटेशन नष्ट हुआ। सिंधु नदी द्वारा बहाए गए मलबे के ढेर अभी भी सैलाब के स्मृति चिह्न के रूप में विद्यमान हैं। इधर थिकसे की तरफ से एक पतली धारा सिंधु में आ मिलती है। इस धारा का अधिकतम उपयोग ग्रामीण कर रहे हैं। साथ ही सिंधु के जल से भी सिंचाई करते हैं। यहां साग-सब्जी में प्याज भी देखने को मिला। मूली, गाजर, शलगम अधिक बड़े आकार के देखे।

कारु के सामने इगो-पे नहर का निर्माण का कार्य चल रहा है। इस नहर के बन जाने से इस ठंडे रेतीले मैदान में हरियाली भर जाएगी- ऐसी अपेक्षा है। चालीस किलोमीटर से भी अधिक लम्बाई के क्षेत्र में इस नहर से पानी पहुंचाया जाएगा। जो ठीक लेह के सामने के मैदान तक पहुंचेगा। इसका निर्माण कोल्ड डेजर्ट डेवलपमेंट एजेंसी के द्वारा किया जा रहा है। हमारे सहयात्री उपवन संरक्षक रूप काजली बताते हैं कि इस नहर के चालू हो जाने से जंगलात वाले दो हजार हैक्टेयर के नंगे पठार पर पेड़ लगाएंगे। लोगों को भी पेड़ और खेती के लिए जमीन और पानी दिया जाएगा। इस नहर को सब आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं।

इसी से आगे सिंधु के किनारे एक टीले पर स्तकना गोम्पा दिखाई देता है। इधर ही स्तकना लघु पनविद्युत योजना है। इससे 2 मेगावाट विद्युत का उत्पादन होता था। इस वर्ष जून के सैलाब में इस परियोजना की नहर गाद से भर गई। जिस कारण विद्युत उत्पादन ठप्प पड़ गया है। इस योजना से लेह एवं उसके आस-पास के कई गांवों को बिजली मिलती हैं। अगस्त के अंतिम सप्ताह तक चालू न होने से इधर अंधेरा ही रहा। इन रेतीले पहाड़ों में, जहां मिट्टी का क्षरण तेजी से हो रहा है, नहरों को साद से बचाना कठिन काम है। वह तब और भी भयावह हो जाता है जब बारिश के जल के साथ ही साद बहती है। यहां पर नदियों में साद का आना सामान्य रूप में नहीं बल्कि दुर्घटना के रूप में देखा जाता है। हल्की बारिश भी इसके लिए पर्याप्त है। इससे आगे कारु तक वनस्पति के दर्शन नहीं होते। यहां से एक रास्ता उपसी को जाता है। दूसरा सिंधु को पार करके हेमिस गोम्पा को जाता है। हेमिस गोम्पा सिंधु के तट से सात किलोमीटर दूर पहाड़ियों की ओट में है। इसके ऊपरी भाग में कत्थई रंग का बड़ा पहाड़ है। इसी से सटकर गोम्पा का निर्माण हुआ है। गोम्पा के बाईं ओर के ढाल से एक नाला बहता है। इस से जुड़ी हुई पहाड़ी की ढलान पर पोपूलस का सुंदर जंगल है, जो कि गोम्पा ने ही लगवाया है।

हेमिस गोम्पा बहुत प्रसिद्ध है। सत्रहवीं शताब्दी में इसका निर्माण हुआ। इसे सबसे बड़ा गोम्पा माना जाता है। इसका प्रभाव –क्षेत्र मूलवेक से दमचौक तक है। गांवों में गोम्पा की अपनी जमीन है। आय के अपने साधन हैं। यहां तिब्बती कलेण्डर के अनुसार पांचवें माह की 10 और 11वीं तारीख को बड़ा उत्सव मनाया जाता है। यहां पद्म संभव की विशाल मूर्ति की स्थापना की गई है। हर बारहवें वर्ष में यहां का लामा बदला जाता है। यहां पर आजकल 300 लामा रहते हैं। यहां के दरवाजों की पेंटिंग बहुत सुंदर है। कारु के सामने इगो-पे नहर का निर्माण का कार्य चल रहा है। इस नहर के बन जाने से इस ठंडे रेतीले मैदान में हरियाली भर जाएगी- ऐसी अपेक्षा है। चालीस किलोमीटर से भी अधिक लम्बाई के क्षेत्र में इस नहर से पानी पहुंचाया जाएगा। जो ठीक लेह के सामने के मैदान तक पहुंचेगा। इसका निर्माण कोल्ड डेजर्ट डेवलपमेंट एजेंसी के द्वारा किया जा रहा है। हमारे सहयात्री उपवन संरक्षक रूप काजली बताते हैं कि इस नहर के चालू हो जाने से जंगलात वाले दो हजार हैक्टेयर के नंगे पठार पर पेड़ लगाएंगे। लोगों को भी पेड़ और खेती के लिए जमीन और पानी दिया जाएगा। इस नहर को सब आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं।

लद्दाख वासियों ने पिछले दशकों में एक-एक बूंद बर्फ के पानी का उपयोग अपने घर-आंगन और खेतों के बाड़ों को हरा-भरा बनाने में किया है। सिंधु, वाक्खा, सुरू और जन्सकार घाटियों के दर्जनों गांवों के लोग अपने बुजुर्गों से विरासत में मिली नंगी, ठंडी धरती को हरियाली में बदलकर नये भूगोल और इतिहास की रचना कर रहे हैं। इसी हरियाली को आगे बढ़ाने में इगो-फै नहर के एक बहुत बड़े रेतीले मैदान के विकास के लिए मील का पत्थर साबित होने की आशा व्यक्त की जा रही है। कारु से आगे सिंधु खुले में बहती है। लेह से 50 किलोमीटर आगे उपसी के पास ग्यामीश नदी सिंधु में समाहित होती है। ग्यामीश नदी के संगम के पास से एक मोटर मार्ग मनाली के लिए चला जाता है। दूसरा न्यूमा की तरफ जाता है। मनाली के लिए 5200 मीटर ऊंचाई तोतगला-दर्रा और रोहतांगला पार करना पड़ता है। उपसी में पश्मीना भेड़ों का केंद्र है। उनका चारा-विकास के लिए अपना एक बड़ा फार्म है, जिसमें वृक्षों के अलावा चारा उगाया जाता है। यहां स्थानीय इलाके का चारा, जो कि कश्मीर घाटी में भी देखने को मिला, ओलफ है। साथ ही साथ साग-भाजी में मूली शलगम गोभी के अलावा टमाटर और कड़म भी उगाया जाता है। यहां से कुछ महीनों के लिए भेड़ों को और ऊंचाई के इलाके में ले जाया जाता है।

लद्दाख की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप ऊर्जा बचत हेतु चूल्हों, सौर ऊर्जा तथा अन्य वैकल्पिक ऊर्जा साधनों के उपयोग को बढ़ावा जाए, जिससे पेड़ों और झाड़ियों पर दबाव अत्यंत कम हो। मकान बनाने की पारम्परिक तकनीक को बनाए रखने से तो पेड़ों पर दबाव कम होगा और जो उपयोग होगा भी, वह पेड़ की टहनियों या अन्य परिपक्व पेड़ों के प्रयोग से संभव हो सकेगा। सामाजिक वानिकी का कार्यक्रम अधिक कारगर ढंग से बढ़ना चाहिए। इसमें वन तथा ग्रामीण विकास से संबंधित विभागों का सहयोग लिया जाना चाहिए।

उपसी के आगे 15 किलोमीटर की दूरी पर पर्वतों से घिरी घाटी मिलती है। यहां रंग-बिरंगे पहाड़ हैं। हवा और बर्फ से क्षरण बहुत अधिक हो रहा है। पहाड़ों पर अलग-अलग रंग की नालियां जैसी खुदी हुई है। कहीं पर लगता है कि नक्काशी करके इनमें अलग-अलग रंग भरा गया है। इनकी बनावट एकाएक मन मोह लेती है। कुछ दूर तक रंग-बिरंगे रूप में यह तंग घाटी है। इसी के रास्ते में मीरू गांव भी है। इसके बाद घाटी खुलती है। दूर तक ढालदार मैदानों का विस्तृत दृश्य दिखाई देता है। उस के पीछे चांद के टुकड़े के समान एक ग्लेशियर भी दिखाई देता है। म्यां गांव 4100 मीटर पर बसा है। फसल मात्र जौ होता है। इधर पेड़ तो हैं ही नहीं। पूछने पर पता चला कि यहां पर पेड़ हो नहीं सकते। लगता है अभी मनोयोग से प्रयास हुआ नहीं है। मीरू नदी का तटवर्ती क्षेत्र वृक्ष विहीन ही लगा। म्यां में भी नदी पार गोम्पा है। यहां पर चंवर गाय (याक) पाली जाती हैं। हर परिवार की भेड़-बकरियां हैं, जो थोड़ी बहुत बुग्गीनुमा घास से अपना पेट भर लेती हैं। पर यहां की धरती को इन भेड़-बकरियों की मेगनी से काफी खाद प्राप्त हो जाती है। गांव वालों ने बताया कि एक विलो और पोपलस की बल्ली बाहर से 300 रुपये में खरीदनी पड़ती है।

परा हिमालय के लद्दाख और जन्सकार क्षेत्र के रंग-बिरंगे, रेतीले और चमकीली पर्वत श्रेणियों के बर्फानी जल को समेटने वाली सिंधु और सहायक धाराएं यहां के लोगों की हृदय-रेखा हैं। इस तरह इन नदी और नालों के किनारे बसे सैंकड़ों गांवों की एक जैसी कहानी है। इस शताब्दी के मध्य से यहां के लोगों और व्यवस्था के संयुक्त अभिक्रम से इस ठंडे और सूखे क्षेत्र के गांवों में हरियाली बढ़ी है। इस हरियाली को कायम रखना और उसके विस्तार का यह कार्यक्रम इस अति संवेदनशील क्षेत्र के पर्वतों, नदी नालों और वहां के वासियों से सीधे जुड़ा हुआ है। इस पर उसकी समृद्धि भी टिकी है। साथ ही इन पर निर्मित और निर्माणाधीन छोटी-बड़ी अनेक विद्युत एवं सिंचाई योजनाओं का भविष्य भी निर्भर है।

इस हेतु झेलम के उद्गम वेणीनाग में जिस तरह वनों को सुरक्षित रखा है, उसी आधार पर नदी और नालों के जलग्रहम क्षेत्र में वृक्षों का संरक्षण एवं सेवर्द्धन किया जाए, वनों के संरक्षण और संवर्द्धन हेतु पारंपरिक तरीका अपनाना लाभप्रद होगा। गांव में व्यक्तिगत और सामूहिक वृक्षारोपण के कार्य भी शामिल हों। हर परिवार और गांव का अपना वन हो। इसी तरह चारे के विकास का कार्यक्रम विकसित हो। इससे सबसे पहले राज्य के वनों पर जनता की निर्भरता घटेगी और अपने वनों को विकसित करने की पद्धति विकसित होगी। लद्दाख क्षेत्र में वन विभाग तथा स्थानीय ग्रामीणों का सामूहिक अभियान वृक्षारोपण की सफलता को बढ़ा सकता है। इसी तरह नहरों तथा जल विद्युत योजनाओं के क्षेत्र में और नदियों के किनारे वृक्षारोपण कारगर सिद्ध होंगे। मिट्टी को बढ़ाने और मृदाक्षरण को रोकने के अन्य सहयोगी कार्य व पद्धतियाँ भी विकसित करनी होंगी। वृक्षारोपण चेतना फैलाने हेतु लद्दाख में स्कूलों का व्यापक उपयोग किया जा सकता है। वन विभाग, स्थानीय लोग, छात्र-छात्राएं, मठ तथा सैनिकों का यह समंवित कार्यक्रम बने तो लद्दाख क्षेत्र में हरियाली को बढ़ाना कठिन नहीं होगा।

लद्दाख की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप ऊर्जा बचत हेतु चूल्हों, सौर ऊर्जा तथा अन्य वैकल्पिक ऊर्जा साधनों के उपयोग को बढ़ावा जाए, जिससे पेड़ों और झाड़ियों पर दबाव अत्यंत कम हो। मकान बनाने की पारम्परिक तकनीक को बनाए रखने से तो पेड़ों पर दबाव कम होगा और जो उपयोग होगा भी, वह पेड़ की टहनियों या अन्य परिपक्व पेड़ों के प्रयोग से संभव हो सकेगा। सामाजिक वानिकी का कार्यक्रम अधिक कारगर ढंग से बढ़ना चाहिए। इसमें वन तथा ग्रामीण विकास से संबंधित विभागों का सहयोग लिया जाना चाहिए। चार-पांच गांवों के बीच में वनकर्म का जानकार एक कार्यकर्ता हो जो लोगों को तकनीकी एवं आर्थिक मार्गदर्शन करने में सहयोग दे और समय-समय पर इस कार्य की समीक्षा हो। स्थानीय प्रजातियों को अधिकतम प्राथमिकता दी जाए।

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