रुपहले पर्दे पर पानी (Water in Cinema)


शोमैन राजकपूर से लेकर रोहित शेट्टी तक शायद ही कोई फिल्म निर्देशक हैं जिनकी फिल्मों में पानी से जुड़ा कोई दृश्य न हो। किसी रूमानी गाने का फिल्मांकन हो या कोई एक्शन सिक्वेंस उसे जल से जरूर जोड़ा जाता है। राज कपूर की फिल्म ‘श्री 420’ का सदाबहार रोमांटिक गीत ‘प्यार हुआ इकरार हुआ तो प्यार से फिर क्यों डरता है दिल’ का वह दृश्य भला किसके दिल में न उतर गया होगा जिसमें तेज बारिश में एक ही छाते में खड़े होकर नर्गिस और राजकपूर एक दूसरे की आँखों में झांक रहे थे। बारिश और पानी ने उस आम दृश्य को खास बना दिया था। पानी से जुड़े इस तरह के अनगिनत शॉट्स हैं जिन्होंने फिल्मों की खुबसूरती में चार चाँद लगाये है लेकिन आज जब देशभर में पानी की समस्या सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी है तो एक-दो डायरेक्टर ही जोखिम उठाने को तैयार हैं। बॉलीवुड के डायरेक्टरों की एक बड़ी जमात अब भी इसे फ्लॉप प्लॉट या गैर-रोचक विषय मान रहा है।

सिनेमा किसी भी मुद्दे को प्रभावी तरीके से आम लोगों तक पहुँचाने का सबसे सशक्त माध्यम है क्योंकि लोग इसे पर्दे पर देखते हैं और इसका सीधा असर उनके जेहन पर पड़ता है।

.वैसे देखा जाए तो बॉलीवुड सामाजिक मुद्दों को लेकर शुरू से ही सजग रहा है। 80 के दशक तक सामाजिक मुद्दों पर गम्भीर फिल्में बना करती थीं। विमल रॉय ने वंदिनी, सुजाता जैसी तमाम फिल्में बनायी जो सामाजिक मुद्दों की पड़ताल करती थीं। रॉय के अलावा राजकपूर, रित्विक घटक व दूसरे फिल्म निर्देशकों ने भी अपनी कई फिल्मों का तानाबाना सामाजिक मुद्दों से बुना मगर 80 के दशक के बाद इस तरह के मुद्दे हाशिये पर चले गये। इसी दशक में पानी की किल्लत पर एक फिल्म बनी थी लेकिन अब उस फिल्म का जिक्र शायद ही किसी मौके पर होता है। प्रख्यात फिल्म निर्देशक और पटकथा लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास ने वर्ष 1971 में ‘दो बूँद पानी’ नाम की फिल्म बनायी थी। यह फिल्म राजस्थान की पृष्ठभूमि और पानी की किल्लत पर आधारित थी। इस फिल्म को राष्ट्रीय अखंडता के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। यह किरण कुमार की पहली फिल्म थी। राजकपूर की अधिकांश फिल्मों की पटकथा ख्वाजा अहमद अब्बास ने ही लिखी थी। वर्ष 1969 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया था।

अफसोस की बात है कि 1971 के बाद से वर्ष 2012 तक पानी की समस्या पर ऐसी कोई फिल्म नहीं बनी जिसकी चर्चा की जा सके। अलबत्ता वर्ष 2013 और फिर वर्ष 2014 में पानी की समस्या पर क्रमशः दो फिल्में ‘कौन कितने पानी में’ और ‘जल’ जरूर आयी। ‘कौन कितने पानी में’ फिल्म का निर्देशन नीला माधव पांडा ने किया था जबकि ‘जल’ के निर्देशक थे गिरीश मल्लिक। गिरीश मल्लिक की यह पहली फिल्म थी। वहीं, नीला माधव पांडा ‘आई एम कलाम’ समेत 70 से अधिक फिल्मों डॉक्यूमेंट्री और लघु फिल्मों का निर्माण और निर्देशन कर चुके हैं।

.‘जल’ को रण के कच्छ में फिल्माया गया था। फिल्म की कहानी बक्का नाम के एक युवक के इर्द-गिर्द घूमती है। बक्का के पास दैविय शक्ति है जिसके दम पर वह रेगिस्तान में पानी खोज सकता है। वह रण के कच्छ में रहता है और अपनी शक्ति के जरिये अपने गाँव की पानी की किल्लत को खत्म करता है। फिल्म में नया मोड़ तब आता है जब वह फिल्म की नायिका को बचाता है। इसके बाद शुरू होता है षडयंत्र, धोखा और वादाखिलाफी का दौर। इस फिल्म का चयन आस्कर अवार्ड के लिये किया गया था लेकिन पुरस्कार नहीं मिला।

पानी की किल्लत पर कुछ डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है जिनमें एक है – थर्स्टी सिटी (प्यासा शहर)। वर्ष 2013 में बनी इस डॉक्यूमेंट्री के निर्देशक हैं निखिल सबलानिया। फिल्म में दिल्ली में पानी की किल्लत और पानी के लिये श्रमिक वर्ग के संघर्ष को बखूबी कैमरे में कैद किया गया है।

खास बात यह है कि पानी की किल्लत पर फिल्में बनाने वाले फिल्म निर्देशकों को इस विषय पर काम करने का खयाल उस वक्त आया जब उन्होंने अपनी आँखों से इस समस्या को बेहद करीब से देखा और समझा।इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी) के साथ खास बातचीत में नीला माधव पांडा ने फिल्म के पीछे की कहानी बतायी। वे कहते हैं, मैं ओडिशा के कालाहांडी-बालागीर क्षेत्र का रहने वाला हूँ। वहाँ मैंने पानी की किल्लत को देखा और पानी के लिये यहाँ के लोग किस हद तक जाते हैं इससे भी रू-ब-रू हुआ, वहीं से मुझे खयाल आया कि पानी की किल्लत पर फिल्म बनानी चाहिए।

‘कौन कितने पानी में’ फिल्म में दो गाँवों ऊपरी और बैरी की कहानी है। ऊपरी गाँव में एक राजा (सौरभ शुक्ला) और ऊँची जाति के लोग रहते हैं। यह गाँव ऊँचे क्षेत्र में है। गाँव के लोग आलसी हैं और वे पानी को सहेजकर नहीं रखते। बैरी गाँव में पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं लेकिन वे जागरूक हैं और पानी को सहेजकर रखते हैं। एक वक्त ऐसा आता है कि ऊँची जाति वालों के गाँव में पानी की घोर किल्लत आ जाती है जबकि पिछड़ी जाति वालों के गाँव में पानी की बहुलता और सुख-समृद्धि रहती है। बैरी गाँव से संसाधन पाने के लिये ऊपरी गाँव के राजा किस तरह छल प्रपंच करता है, यही है कहानी। फिल्म का निचोड़ ये है कि अगर हम पानी को सहेजकर नहीं रखेंगे तो इसी तरह पानी की किल्लत से हमें दो-चार होना पड़ेगा।

.निखिल सबलानिया बताते हैं, जाड़े की एक सुबह मैं कैमरा लेकर निकल पड़ा था ओखला की तरफ। वहाँ ज्यादातर मजदूर वर्ग ही रहता है। मैंने वहाँ देखा कि किस तरह इतनी सर्दी में भी लोग पीने के पानी के लिये जद्दोजहद करते हैं। एक तो नौकरी और उस पर बड़ी चिंता पीने के पानी की। वहाँ के दृश्य देखकर मैंने डॉक्यूमेंट्री बनाने का विचार किया। वे मानते हैं कि पानी की किल्लत की सबसे अधिक कीमत गरीबों को ही चुकानी पड़ती है क्योंकि अमीर लोग तो पानी खरीदकर पी लेते हैं लेकिन गरीबों को दो जून की रोटी बमुश्किल मिल पाती है फिर पानी कैसे खरीदकर पियें।

उधर, प्रख्यात फिल्म निर्देशक शेखर कपूर भी पानी की किल्लत पर फिल्म बना रहे हैं। फिल्म का नाम है ‘पानी’। फिल्म की टैगलाइन है-जब कुआँ सूख जायेगा तब हम पानी की कीमत समझेंगे। फिल्म की कहानी वर्ष 2040 के कालखंड में बुनी गयी है जब मुंबई के एक क्षेत्र में पानी नहीं है और दूसरे क्षेत्र में पानी है। पानी के लिये जंग छिड़ती है और इसी जंग में प्रेम पनपता और पलता है। फिल्म में मुख्य भूमिका में सुशांत सिंह राजपूत, आयशा कपूर और अनुष्का शर्मा हैं। हाल ही में इसका पोस्टर जारी किया गया। पोस्टर में एक व्यक्ति को घड़ा मुंह में लगाये हुए दिखाया गया है लेकिन घड़े में एक बूँद पानी नहीं है।

फिल्म डायरेक्टरों का मानना है कि पानी की किल्लत जैसे विषयों पर फिल्में बनाने के लिये प्रोड्यूसर ढूंढना टेढ़ी खीर से कम नहीं। नीला माधव पांडा कहते हैं, इस तरह की दिक्कत मुझे भी हुई लेकिन एक एनजीओ ने फंड कर दिया तो फिल्म बन गयी।

.शेखर कपूर ने भी एक इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि उन्हें प्रोड्यूसर मिलने में दिक्कत हो रही है लेकिन विदेशी प्रोड्यूसर इस फिल्म पर पैसे लगाने को तैयार हैं। उन्होंने कहा है कि वे चाहते हैं कि यह खालिस तौर पर भारतीय फिल्म हो इसलिये भारतीय प्रोड्यूसर तलाश रहे हैं। उनके जेहन में यह विषय एक दशक से पल रहा है।

जाने-माने फिल्म हिस्टोरियन एस.एम.एम. औसाजा मानते हैं कि सामाजिक मुद्दों पर अब फिल्में बननी कम हो गयी हैं इसलिये पानी की किल्लत पर भी उतनी फिल्में नहीं बन रहीं जितनी बननी चाहिए। वे कहते हैं, अगर कुछ अच्छे डायरेक्टर पानी की किल्लत पर फिल्में बनायेंगे तो निश्चित तौर पर इसका सकारात्मक असर पड़ेगा और इससे समस्या के निराकरण में मदद मिलेगी।

.उन्होंने कहा, पानी की किल्लत पर अच्छी कहानी लिख देने भर से बात नहीं बनेगी बल्कि इसके लिये अच्छे डायरेक्टरों और बड़े स्टार कास्ट की जरूरत है। प्रकाश झा को गम्भीर मुद्दों पर ऐसी फिल्में बनाने में महारत हासिल है जो समाज को संदेश भी दे दे और बॉक्स ऑफिस पर भी चल जाए। वे आगे कहते हैं, मधुर भंडार कर भी सामाजिक मुद्दों पर अच्छी फिल्में बनाते हैं। इन डायरेक्टरों को बड़ा बैनर और बड़े स्टार भी आसानी मिल जाते हैं।

औसाजा बताते हैं, फिल्म ऐसी बने कि जिसमें सामाजिक संदेश भी हो और कॉमर्शियल मसाला भी हो ताकि फिल्म कमाई कर सके क्योंकि अभी 1.5-2 करोड़ से कम बजट की फिल्में नहीं बनती हैं।

उधर, पता चला है कि ‘उमराव जान’ फिल्म के जरिये अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करवाने वाले प्रख्यात फिल्म निर्देशक मुजफ्फर अली भी पानी की किल्लत पर फिल्म बनाने की सोच रहे हैं। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा है कि पानी की किल्लत पर अच्छी कहानी मिलेगी तो फिल्म जरूर बनायेंगे।

.बहरहाल, इक्के-दुक्के ही सही फिल्म निर्देशक मानव अस्तित्व से जुड़ी इस गम्भीर समस्या को गम्भीरता से लेते हुए फिल्म बनाने का साहस कर रहे हैं, यह अच्छी बात है। इससे यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि संगीन विषयों पर सार्थक फिल्में बनाने वाले दूसरे निर्देशक भी आगे आयेंगे। वे पानी की समस्या को रूपहले पर्दे पर उकेरकर पानी का कर्ज उतारेंगे और अपना सामाजिक दायित्व पूरा करेंगे।
 

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