सामुदायिक खेती की ओर शहरी भारत

10 Dec 2018
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जैविक खेती (फोटो साभार: सिक्किम ऑर्गेनिक मिशन)
जैविक खेती (फोटो साभार: सिक्किम ऑर्गेनिक मिशन)

जैविक खेती (फोटो साभार: सिक्किम ऑर्गेनिक मिशन) हम सभी रसायन मुक्त, पौष्टिक खाद्य सामग्री का सेवन करना चाहते हैं लेकिन हालात ऐसे बन चुके हैं कि किसी भी तरह के आहार की गारंटी नहीं कि वह सेहत के लिये उपयुक्त ही है। तेजी से बढ़ती जीवन शैली सम्बन्धी बीमारियाँ इसका प्रमाण हैं। अब शहरी भारत ऑर्गैनिक फार्मिंग के जरिए वापस धरती से जुड़ने की ओर अग्रसर है। अंशु सिंह बता रही हैं कि हर वर्ग के पेशेवर खेतों या फार्म हाउस में कर रहे हैं नए प्रयोग, ताकि रह सकें चुस्त-दुरुस्त और तन्दुरुस्त…

पेशे से वकील हैं विशाल योगेश लेकिन बीते कुछ सालों से सामूहिक खेती कर रहे हैं। उनकी तरह अलग-अलग पेशों के 14 से 15 लोग हैं, जो साथ मिलकर तीन एकड़ भूमि में सब्जियों का उत्पादन करते हैं। पैदावार होने पर उसे आपस में बाँट लिया जाता है। स्थानीय किसान खेतों की देखभाल करते हैं, जबकि उनको खाद वगैरह उपलब्ध करा दी जाती है। हर परिवार से कोई-न-कोई बारी-बारी से खेतों की निगरानी करता है। विशाल बताते हैं कि पहले एक साल उन्होंने सिर्फ परखा कि सामूहिक जैविक खेती कैसे करते हैं? जब स्वास्थ्य और लागत दोनों के हिसाब से बेहतर परिणाम दिखे, तो उन्होंने भागीदारी शुरू कर दी। आज दो साल हो गए हैं। वे कहते हैं, “हम पैसा क्यों कमा रहे हैं? अपने परिवार की सेहत के लिये और अपनी उन्नति के लिये लेकिन एक समय आता है, जब लगता है कि इस पैसे से कोई लाभ नहीं पहुँच रहा, खान-पान में कई सारी कमियाँ हैं। तब कहीं एहसास होता है कि पैसे से अधिक अच्छा स्वास्थ्य जरूरी है और यह मौका हमें कम्युनिटी फार्मिंग दे रही है।” उनके अनुसार, “शुरुआत में आस-पास के किसानों ने थोड़ा उपहास उड़ाया कि हमें खेती करनी नहीं आती लेकिन जब पैदावार अच्छी हुई, तो उनका नैतिक समर्थन मिलना शुरू हो गया।”

खेती में पसीना बहा रहे पेशेवर

बीटेक की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर अपने दोस्तों संग जैविक खेती शुरू की है गया के सौरभ कुमार ने। वे बताते हैं, “पारम्परिक कृषक तकनीक के इस्तेमाल या नये प्रयोग से डरते हैं, जबकि सामूहिक खेती से आम शहरियों के साथ छोटे किसानों को भी आगे बढ़ने का अवसर मिलता है।” 2015-16 से सामुदायिक खेती में जुड़े ग्रेटर नोएडा के विक्रान्त तोंगड़ कहते हैं, “आज लोगों को नहीं पता कि किस तरह सब्जियों के जरिए वे एक प्रकार के जहर का सेवन कर रहे हैं। यह बच्चों के दिमागी विकास तक को प्रभावित कर रहा है। जब हमारे सम्पर्क के लोगों ने पूछा कि आखिर इसका क्या हल है, तब मैंने बताया कि मेरे पास जमीन है। अगर उस पर सब मिलकर खेती करें, तो सभी को फायदा होगा। इस तरह एक नई शुरुआत हुई। आज कार्पोरेट्स के साथ अलग-अलग पेशों से ताल्लुक रखने वाले लोग सप्ताहान्त या छुट्टियों में खेतों पर पसीना बहाने से जरा भी संकोच नहीं करते। अपनी आँखों के सामने जैविक तरीके (बायो पेस्टिसाइड, जीवामृत, गाय के गोबर, गौमूत्र आदि का इस्तेमाल) से शुद्ध सब्जियाँ उगते देख उन्हें तसल्ली भी होती है।” फिलहाल वे 10 लोगों के समूह में तीन एकड़ जमीन में सामुदायिक खेती कर रहे हैं। विक्रान्त की मानें तो किराए पर सालाना तीन हजार रुपए प्रति बीघा की कीमत पर जमीन मिल जाती है। उस पर सभी अपनी खपत के लिये आवश्यकतानुसार मौसमी सब्जियाँ या गेहूँ आदि उगा रहे हैं।

खपत लायक सब्जियों की पैदावार

बंगलुरु की उत्साही एवं सेल्फ मेड शेफ दीपा चौहान ने भी शहर से कुछ दूरी पर सब्सक्रिप्शन के तहत जमीन का एक टुकड़ा लिया हुआ है। उस पर बीते एक वर्ष से वे तमाम तरह की हरी पत्तेदार सब्जियाँ, मिर्च, सलाद, ज्वार, बाजरा आदि उगाती हैं। साथ ही अचार, जैम, रेडी-टु-कुक पेस्ट एवं पाउडर आदि बनाकर स्थानीय बाजार में बेचती हैं। वे बताती हैं, “मैं हफ्ते में एक-दो घंटे खेतों में काम करती हूँ। फिर चाहे वह हार्वेस्टिंग हो या इवेंट्स आयोजित करना। कोशिश स्थानीय के साथ नए पौधे लगाने की भी होती है। जैसे हमने जापान का एक पौधा लगाया था, जिसका स्वाद काफी कुछ सरसों की तरह होता है।” गुरुग्राम की शिखा गौर भी कम्युनिटी फार्मिंग के तहत अपने खेतों में इसी तरह काम करती हैं। उनके जैसे अनेक शहरी किसान ‘ग्रीन लीफ इंडिया’ कम्युनिटी से जुड़े हैं, जो आलू, टमाटर से लेकर रोजमर्रा के इस्तेमाल में आने वाली कई सब्जियाँ स्वयं उगाते हैं। शिखा को अर्बन जंगल के बीच खेतों में पसीना बहाने में सुकून मिलता है। वे कहती हैं, “आप जब खुद से पौधे लगाते हैं, उसे सींचते हैं और फिर वह आपके डाइनंग टेबल पर आता है, तो एक अलग ही एहसास होता है। आज हमें सब्जियों के लिये सुपर मार्केट नहीं जाना पड़ता।”

सब्सक्रिप्शन पर मिलती जमीन

निफ्ट, दिल्ली से स्नातक और करीब 21 वर्ष तक कार्पोरेट जगत (रिटेल एवं ब्रांड इंडस्ट्री) में काम करने वाली बंगलुरु की अनामिका बिष्ट ने दो साल पहले नौकरी से ब्रेक लिया। एक दिन घर पर रहते हुए उन्होंने देखा कि कैसे बच्चे खाने की बर्बादी करते हैं, क्योंकि उन्हें मालूम ही नहीं कि वह कितनी मेहनत से आता है। उन्हें लगता है कि सब कुछ सुपर मार्केट से आता है। वे कहती हैं, “मैं अपनी बेटी का जवाब सुनकर हैरान थी। मन में ख्याल आया कि हम बच्चों को ये कैसी शिक्षा दे रहे हैं? ऑनलाइन अध्ययन के जरिए मुझे कम्युनिटी फार्मिंग का पता चला, भारत के लिये तब यह बिल्कुल नया कॉन्सेप्ट था, क्योंकि यहाँ लोग अपनी-अपनी जमीनों पर ही खेती करते थे। मैंने ‘विलेज स्टोरी’ स्टार्टअप के जरिए इसे आगे ले जाने का फैसला किया, ताकि एक सकारात्मक समुदाय बन सके। बंगलुरु के निकट अग्रहरा गाँव में दोस्त की एक खाली जमीन थी। उस पर अपने घर के लिये सब्जियाँ उपजाना शुरू किया। ज्यादा पैदावार होने पर उसे अपने परिजनों व दोस्तों में बाँट दिया करती थी। एक दिन लगा कि क्यों न सभी साथ मिलकर खेती करें। इस तरह, शुरुआत हुई ‘ग्रो योर ओन फूड, ईट योर ओन फूड मूवमेंट’ की, जहाँ सब कुछ जैविक तरीके से किया जाता है।” अनामिका 3 से 12 महीने के सब्सक्रिप्शन मॉडल के तहत इच्छुक परिवारों को खेती के लिये जमीन का छोटा-सा टुकड़ा एवं जरूरत का सामान उपलब्ध कराती हैं, जहाँ वे खुद आकर खेती करते हैं। इसे ‘स्क्वायर फीट’ फार्मिंग भी कहते हैं।

स्कूल भी जुड़े कम्युनिटी फार्मिंग से

एक दिलचस्प तथ्य यह है कि कम्युनिटी फार्मिंग से जुड़े अधिकतर लोग गैर-कृषक पृष्ठभूमि के होते हैं। खुद अनामिका ने यूट्यूब और अन्य माध्यमों से खेती की बारीक जानकारियाँ हासिल कीं लेकिन अब वे कम्युनिटी बिल्डिंग के तहत नियमित रूप से कार्यशाला आयोजित करती हैं, जिसमें टैरेस व अन्य प्रकार की गार्डनिंग करने वाले लोगों की अच्छी भागीदारी होती है। वे कम्पोस्ट निर्माण से लेकर पौधों व सब्जियों के बारे में अधिक-से-अधिक जानकारियाँ हासिल करते हैं कि उन्हें कैसे और कब लगाया जा सकता है? किन पौधों को साथ में लगा सकते हैं और किन्हें नहीं? बारिश होने पर क्या करेंगे? तेज धूप होने पर कैसे नेट लगाएँगे? छोटे पौधों की कैसे देखभाल करेंगे? आदि।

अनामिका बताती हैं, “आठ बाई आठ फीट के प्लॉट में तीन-चार प्रकार की सब्जियाँ-औषधीय पौधे लगाए जा सकते हैं। फार्म पर तमाम इंगेजमेंट प्रोग्राम्स होते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में प्रोफेशनल्स आते हैं। वे शिक्षित होते हैं और जागरूक भी। आज कई स्कूल और कार्पोरेट्स हमारे साथ जुड़ गए हैं। हमने स्कूलों में खेती से सम्बन्धित अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम की शुरुआत की है। तीन महीने के दौरान बच्चों को कृषि से जुड़ी छोटी-छोटी गतिविधियों में शामिल किया जाता है। इससे उनमें एक एहसास जगता है कि खेती कहीं से आसान नहीं है और कोई भी चीज मुफ्त में नहीं मिलती। हमें किसानों व भोजन (खाद्य पदार्थों) का सम्मान करना आना चाहिए।”

किसान और उपभोक्ता बनें पार्टनर

फार्मिजेन कम्पनी के संस्थापक शमीक चक्रवर्ती की मानें, तो देश के उपभोक्ता किसानों को एक प्रकार का गलत सन्देश भेजते रहे हैं कि उन्हें सिर्फ सुन्दर दिखने वाली फल-सब्जियाँ ही चाहिए, गुणवत्ता या स्वाद से उन्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसे में किसान बेझिझक रासायनिक खादों के साथ ब्लीचेज, ऑक्सीटॉक्सिन आदि का उपयोग कर रहे हैं, ताकि सब्जियाँ चमकदार दिखें। वे इस तथ्य को नजरअन्दाज कर रहे हैं कि इससे जीवन शैली सम्बन्धी बीमारियों में कितनी बढ़ोत्तरी हो चुकी है। शमीक कहते हैं, “मौजूदा वक्त की माँग है कि उपभोक्ता भी उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बनें। वे सिस्टम से बाहर नहीं रह सकते। हमने कम्युनिटी फार्मिंग इसीलिये शुरू की ताकि उपभोक्ताओं को किसानों का पार्टनर बना सकें। दोनों साथ-साथ सभी उतार-चढ़ाव के गवाह बन सकें। कमाई के पीछे न भागकर क्वालिटी फूड पर ध्यान दें।” हालांकि शुरुआत में किसानों को समझाने में इन्हें भी काफी दिक्कत आई थी लेकिन आज वे सीधे अप्रोच करते हैं। शमीक उनसे रेवेन्यू शेयर करते हैं। वहीं, ग्राहक मासिक सब्सक्रिप्शन फीस देकर महीने की सब्जी खरीद सकते हैं। फिलहाल, फार्मिजेन के बंगलुरु, हैदराबाद एवं सूरत समेत देशभर में करीब 20 फार्म्स हैं। जल्द ही मुम्बई, पुणे, चेन्नई, गुरुग्राम एवं अन्य छोटे शहरों में भी इसकी शुरुआत होने वाली है।

छोटे शहरों में बढ़ती माँग

याहू कम्पनी में प्रोजेक्ट मैनेजमेंट के निदेशक के अलावा, अमेजॉन में प्रोडक्ट मैनेजर और चार वर्ष तक अपना ऑनलाइन एडवरटाइजिंग स्टार्टअप चलाने वाले शमीक को खेतों से सन्तुष्टि मिलती है। इससे रियल इम्पैक्ट का पता चलता है। उनकी मानें, तो देशभर में फार्मिजेन एप डाउनलोड हो रहे हैं, जो बताता है कि कम्युनिटी फार्मिंग की माँग किस तरह टियर 2 एवं टियर 3 शहरों में भी बढ़ रही है। वहाँ भी लोग उतने ही जागरूक हो रहे हैं, जितने बड़े, मेट्रो शहरों में। शमीक के अनुसार, ब्रिटिश शासन से पहले भारतीय सामुदायिक खेती ही किया करते थे। हर गाँव खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर होता था। फिर चाहे वह धान हो या दाल सब्जियाँ भी प्रचुर होती थीं। शेष जरूरतें बार्टर सिस्टम यानी पारस्परिक आदान-प्रदान से पूरी हो जाती थीं। आज की शहरी आबादी फिर से अपनी जड़ों का रुख कर रही है। इनका मानना है कि कम्युनिटी फार्मिंग से बड़ी आबादी का पेट भरा जा सकता है। वे कहते हैं, “आज जब हम शहर से बाहर निकलते हैं, तो देखते हैं कि कितनी जमीनें यूँ ही खाली पड़ी हैं। उन पर अगर एग्रो एग्रीकल्चर किया जाए, तो अधिकतर परिवारों को उनकी जरूरत का अन्न मिल सकेगा।”

नए रूप में सामुदायिक खेती

विदेश में यह मूवमेंट काफी पहले से लोकप्रिय रहा है। भारत में जाकर इसकी स्वीकार्यता बढ़ी है। अमेरिका में 16,000 से अधिक कम्युनिटी सपोर्टेड फार्म्स हैं। इस तरह वहाँ करीब एक प्रतिशत फल-सब्जियाँ कम्युनिटी फार्मिंग के जरिए आती हैं। जापान और यूरोप में भी इसका ट्रेंड है। इसके लिये वहाँ की सरकार लोगों को उनके पड़ोस में जमीन उपलब्ध कराती है लेकिन भारत में ऐसा नहीं है। यहाँ लोगों को हमेशा से अपने काम के लिये किसी-न-किसी की मदद चाहिए होती है। ‘फार्मिजेन’ टेक्नोलॉजी की मदद से एक नए मॉडल के तहत काम करता है। हम ग्राहकों को पौष्टिक खाद्यान्न उपलब्ध कराने के साथ ही किसानों की समस्याओं को सुलझाने और उनकी आय को बढ़ाने पर भी ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। -शमीक चक्रवर्ती, संस्थापक, फार्मिजेन, बंगलुरु

धरती से जुड़ने का मौका

कहीं-न-कहीं हम शहरी अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी से ऊबते जा रहे हैं। बोर्ड रूम में बैठे या अपनी पेशेवर जिन्दगी से मनमाफिक सन्तुष्टि नहीं मिल रही है। हम अपनी रफ्तार धीमी करना चाहते हैं। अर्बन फार्मिंग का तरीका हमें वापस अपनी धरती से जुड़ने का अवसर दे रहा है। खेतों में काम करना अन्दर से सशक्त महसूस कराता है। हम क्षमा करना सीखते हैं। मैं मानती हूँ कि अगर हम खुश रहना चाहते हैं, तो हमें अपनी धरती को भी खुश रखना होगा। -दीपा चौहान, शेफ-कम्युनिटी फार्मर

जैविक खेती को मिले बढ़ावा

सामूहिक खेती, जैविक खेती को बढ़ावा देने का एक प्रयास है, ताकि पर्यावरण सुरक्षित रहे और लोग स्वस्थ रहें। उत्साहजनक बात यह है कि लोग श्रमदान से लेकर अर्थदान तक करने को तत्पर हैं। आखिर, उन्हें मौसम के अनुकूल शुद्ध पौष्टिक सब्जियाँ जो मिल रही हैं। इससे छोटे किसानों व श्रमिकों के लिये भी आय का नया जरिया उत्पन्न हुआ है। वे खेतों की देखभाल करने में मदद करते हैं और पेशेवर लोगों के साथ काम भी करते हैं। -विक्रान्त तोंगड़, पर्यावरणविद-कम्युनिस्ट फार्मर

विलेज स्टोरी में अनूठा प्रयोग

हम सुपर मार्केट और बड़े स्टोर्स से सब्जियाँ-फल खरीदते हैं, जो देखने में बड़े ही सुन्दर और एक जैसे लगते हैं लेकिन वे स्वास्थ्य के लिये कितना हानिकारक हैं, इसका पता हमें नहीं होता। इसके तहत हर आकार की फल-सब्जियाँ उगती हैं, जो देखने में बेशक अच्छी न हों लेकिन सेहत को नुकसान नहीं पहुँचातीं। ‘विलेज स्टोरी’ में ऑर्गैनिक तरीके से सामूहिक खेती को बढ़ावा देने के अलावा किसानों को बाजार लगाने का मौका दिया जाता है। किसान यहाँ अपने उत्पाद बेच सकते हैं, फिर वह मिट्टी का सामान हो या कोई और वस्तु। परिसर में किचन की भी पूरी व्यवस्था है यानी यहाँ आप अपनी सब्जियाँ उपजाने से लेकर पका तक सकते हैं। -अनामिक बिष्ट, संस्थापक, विलेज स्टोरी


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