साँस लेना भी गुनाह लगता है

Air pollution
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कुछ कार्यालयों की बन्दी का दिन शनिवार-रविवार की जगह अन्य दिन किया जा सकता है, जिसमें अस्पताल, बिजली, पानी के बिल जमा होने वाले काउंटर आदि हैं। यदि कार्यालयों में साप्ताहिक दो दिन का बंदी के दिन अलग-अलग किए जाएँ तो हर दिन कम-से-कम 30 प्रतिशत कम भीड़ सड़क पर होगी। कुछ कार्यालयों का समय आठ या साढ़े आठ से करने व उनके बन्द होने का समय भी साढ़े चार या पाँच होने से सड़क पर एक साथ भीड़ होने से रोका जा सकेगा। यही नहीं इससे वाहनों की ओवरलोडिंग भी कम होगी।। दिल्ली की हवा में कितना जहर घुल गया है, इसका अन्दाजा खौफ पैदा करने वालो आँकड़ों को बाँचने से ज्यादा डाक्टरों के एक संगठन के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें बताया गया है कि देश की राजधानी में 12 साल से कम उम्र के 15 लाख बच्चे ऐसे हैं जो अपने खेलने-दौड़ने की उम्र में पैदल चलने पर ही हाँफ रहे हैं। इनमें से कई डॉक्टर चेता चुके हैं कि यदि जिन्दगी चाहते हो तो दिल्ली से दूर चले जाओ।

जापान, जर्मनी जैसे कई देशों ने दिल्ली में अपने राजनयिकों की नियुक्ति की अवधि कम करना शुरू कर दिया है ताकि यहाँ का जहर उनकी सांसों में कुछ कम घुले। यह स्पष्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहाँ बढ़ रहे वाहन, ट्रैफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहाँ के हालात को और गम्भीर बना रहे हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि समस्या बेहद गम्भीर है। याद करें कुछ साल पहले अदालत ने दिल्ली में आवासीय इलाके में दुकानें बन्द करने, अवैध कालोनियों में निर्माण रोकने जैसे फैसले दिए थे, लेकिन वोट के लालच में सभी सियासती दल अदालत को जन विरोधी बताते रहे। परिणाम सामने हैं कि सड़कों पर व्यक्ति व वाहन चलने की क्षमता से कई सौ गुणा भीड़ है। सुदूर राज्यों से काम की तलाश में आए लोग सड़कों पर वाहनों की माँग व उसकी पूर्ति के लिये वैध-अवैध साधन बढ़ा रहे हैं।

दिल्ली में जगह-जगह चल रही ग्रामीण सेवा के नाम पर ओवर लोडेड वाहन, मेट्रो स्टेशनों तक लोगों को ढो ले जाने वाले दस-दस सवारी लादे तिपहिए, पुराने स्कूटरों को जुगाड़ के जरिए रिक्शे के तौर पर दौड़ाए जा रहे पूरी तरह गैरकानूनी वाहन हवा को जहरीला करने में बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। सनद रहे कि वाहन सीएनजी से चले या फिर डीजल या पेट्रोल से, यदि उसमें क्षमता से ज्यादा वजन होगा तो उससे निकलने वाला धुआँ जानलेवा ही होगा।

यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है यहाँ बढ़ रही आबादी को कम करना। सनद रहे कि इतनी बड़ी आबादी के लिये चाहे मेट्रो चलाना हो या पानी की व्यवस्था करना, हर काम में लग रही उर्जा का उत्पादन दिल्ली की हवा को विषैला बनाने की ओर एक कदम होता है।

दिल्ली में बढ़ते जहरीले धुएँ के लिये आमतौर पर इससे सटे इलाकों में खेत में खड़े ठूँठ को जलाने से उपजे धुएँ को दोषी ठहराया जाता है। हालांकि ऐसा साल भर में केवल कुछ ही दिनों के लिये होता है। जबकि इससे कई हजार गुना ज्यादा धुआँ राजधानी की सीमा से सटे सैंकड़ों ईंट भट्टों से चौबीसों घंटे उपजता है। एनसीआर में तेजी से बढ़ रही आवास की माँग या रियल एस्टेट के व्यापार ने ईंटों की माँग को बेलगाम कर दिया है।

दिल्ली की गली-गली में घूम कर हर तरह का कूड़ा, कबाड़ा जुटाने वाले जानते हैं कि पानी की बेकार बोतल से लेकर फटे जूते तक को किस तरह ट्रकों में भरकर इन भट्टों में फूँका जाता है। उल्लेखनीय है कि इन दिनों भट्टे में जलाने के लिये कोयला या लकड़ी बेहद महंगी है जबकि प्लास्टिक का यह कबाड़ा अवाछिंत सा दर-दर पड़ा होता है। इस पर कागजों में भले ही कानून हों, लेकिन कभी भी जहर उगलने वाले भट्टों पर कोई कार्यवाही नहीं होती।

यह भी जानना जरूरी है कि महज दिल्ली राज्य की भौगोलिक सीमा में कड़े कदम उठाने से हवा की सेहत सुधरने से रही। दिन के बारह घंटों में जब दिल्ली की सड़कों पर भारी वाहन या ट्रक चलने पर पाबन्दी होती है, इसकी सीमा से जीरो किलोमीटर दूर ज्ञानी बार्डर पर सैंकड़ों ट्रक धुआँ व धूल उड़ाते हैं, जाहिर है कि उसका हिस्सा दिल्ली में भी आता ही है।

केन्द्र की नई सरकार का अपने कर्मचारियों को दफ्तरों में आने-जाने के समय पर कड़ाई से निगाह रखना भी दिल्ली एनसीआर में सड़कों पर जाम व उसके कारण जहरीले धुएँ के अधिक उत्सर्जन का कारण बन गया है। यह सभी जानते हैं कि नए मापदण्ड वाले वाहन यदि चालीस या उससे अधिक की स्पीड में चलते हैं तो उनसे बेहद कम प्रदूषण होता है। लेकिन यदि ये पहले गियर में रेंगते हैं तो इनसे सॉलिड पार्टिकल, सल्फर डाइऑक्साइड व कार्बन मोनो ऑक्साइड बेहिसाब उत्सर्जित होता है।

कार्यालयों में उपस्थिति के नए कानून के चलते अब शहर में निजी व सरकारी, सभी कार्यालयों का आने-जाने का समय लगभग एक हो गया है और इसीलिये एक साथ बड़ी संख्या में वाहन चालक सड़क पर होते हैं। कार्यालयों में समय को लेकर अनुशासन बहेद अनिवार्य और महत्वपूर्ण कदम हैं, लेकिन जहाँ कार्यालय आने-जाने के लिये लोग औसत चालीस से अस्सी किलोमीटर हर रोज सफर करते हों, वहाँ कार्यालयों के खुले व बंद होने के समय में बदलाव करना बेहद जरूरी है।

कुछ कार्यालयों की बन्दी का दिन शनिवार-रविवार की जगह अन्य दिन किया जा सकता है, जिसमें अस्पताल, बिजली, पानी के बिल जमा होने वाले काउंटर आदि हैं। यदि कार्यालयों में साप्ताहिक दो दिन का बंदी के दिन अलग-अलग किए जाएँ तो हर दिन कम-से-कम 30 प्रतिशत कम भीड़ सड़क पर होगी। कुछ कार्यालयों का समय आठ या साढ़े आठ से करने व उनके बन्द होने का समय भी साढ़े चार या पाँच होने से सड़क पर एक साथ भीड़ होने से रोका जा सकेगा। यही नहीं इससे वाहनों की ओवरलोडिंग भी कम होगी।

सबसे बड़ी बात दिल्ली में जो कार्यालय जरूरी ना हों, या जिनका मन्त्रालयों से कोई सीधा ताल्लुक ना हों, इन्हें दो सौ किलोमीटर दूर के शहरों में भेजना भी एक परिणामकारी कदम हो सकता है। इससे नए शहरों में रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे व लोगों का दिल्ली की तरफ पलायन भी कम होगा। किया तो बहुत कुछ जा सकता है, बस कहीं हवा में बढ़ता जहर का हौवा किसी ‘एयर प्यूरीफायर’ बेचने वाली लॉबी का सुनियोजित मार्केटिंग फंडा ना हो, जो अपना टारगेट पूरा करने के बाद इस मसले को बिसरा बैठे।

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