साफ पानी का सपना, सपना ही रहेगा

22 Dec 2015
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पानी : सुखद खबरें


साफ पानी का सपना1. अगस्त माह 2010 का आखिरी सप्ताह, पूरे उत्तर भारत में भारी वर्षा के कारण नदियाँ मुहाने तोड़ बाहर आईं बाढ़ की स्थिति।
2. दिल्ली में 26 अगस्त तक 448 मिलीमीटर वर्षा रिकार्ड हुई। प्रशांत महासागर में अलनीनो विकसित होने के कारण इस वर्ष देश में अच्छी बारिश हुई।
3. भरपूर बारिश का जायजा यों है पश्चिमी राजस्थान- 65%, जम्मू कश्मीर- 35%, सौराष्ट्र कच्छ 85%, रायलसीमा-73%

पानी-पानी करती ख़बरें


1. दिल्ली के उप नगर द्वारका में पानी की भारी किल्लत।
2. पश्चिमी मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र के लोग गम्भीर पानी संकट में भूजल नीचे खिसका।
3. दिल्ली में ही उस्मानपुर के बच्चे मास्टर जी के लिये पीने का पानी लेकर आते हैं।
4. सरकारी कार्यालयों में कर्मचारियों के बैैग में बस पानी ही पानी।

ऐसा नहीं है कि इस धरती पर पानी नहीं है। धरती का दो तिहाई भाग पानी से घिरा हुआ है। इसमें से 97.4% पानी समुद्र में हिलोरे ले रहा है जो खारा है और कतई पीने के लायक नहीं है। बाकी 1.8% पानी साफ है जिसका 77% पानी हिमखंडों और ग्लेशियरों में जमा पड़ा है। 22 प्रतिशत पानी धरती की गोद में है। अब बचा मात्र एक प्रतिशत पानी जो धरती की सतह पर झीलों, झरनों और वातावरण में है। अब भला इसमें से कितने प्यासों की प्यास बुझाई जाये और कितनों को ओस चटाई जाये?

चीन को अलग कर दिया जाये तो बाकी विकासशील देशों की जनसंख्या 200 करोड़ से भी ज्यादा है। इसमें से 70 प्रतिशत गाँवों में रहती है, शेष शहर में। शहरी जनता के लगभग 57 प्रतिशत भाग को घर बैठे पानी मुहैया है जबकि 21 प्रतिशत नुक्कड़ के नल से पानी लेकर अपनी जरूरतें पूरी कर रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में केवल 22 प्रतिशत के पास ही सही अर्थोें में पानी है।

भारत की पनीली हालत


विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में पानी की भारी किल्लत हैहमारे देश में पानी की समस्या बाकी विकासशील देशों की तुलना में ज्यादा नाज़ुक है। देश की भौगोलिक हालत का जायजा लीजिए तो यह नदियों वाला देश है। भारतीय सभ्यता का विकास ही नदियों के किनारे हुआ। इन नदियों में बहुत कम ऐसी नदियाँ हैं जो किसी और में समाहित हो अपना नाम खो गई मगर नदियाँ अभी भी हैं। सवाल उठता है कि नदी-नालों वाले इस देश में फिर पानी का टोटा क्यों है? असल में नदियाँ तो आज भी लहरा रही हैं मगर उनका रूप बदला हुआ है। एक जमाना था जब नदी किनारे नहाने और “पावन जल” का आचमन करने का अलग ही मजा था। मगर अब ये नदियाँ मल-विसर्जन और औद्योगिक कचरे के बोझ से अटी पड़ी हैं।

राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसन्धान संस्थान, नागपुर की एक रिपोर्ट बताती है कि देश की नदियों का 70 प्रतिशत पानी प्रदूषित है। ऐसी ही एक रिपोर्ट केन्द्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा भी तैयार की गई है। इसमें बताया गया है कि गंगा मैया कानपुर और इलाहाबाद के बाद इतनी गन्दला जाती है कि इसके “पावन जल” का हुलिया ही बिगड़ जाता है। इसमें कीटाणु प्रतिशत स्वीकृत स्तर से कई गुना अधिक बढ़ जाता है। गोमुख से लेकर सागर द्वीप तक गंगा के पूरे प्रवाह क्षेत्र में लाखों लोग स्नान और अपने अजीजों का पिंडदान कर सारी गन्दगी गंगा को सौंप देते हैं।

यह हाल तो सिर्फ एक नदी का है। एक नजर बेचारी यमुना पर भी तो डालें। देश की राजधानी की पानी की जरूरत यही नदी पूरी करती है मगर इसके साथ होता क्या है? अकेला नजफगढ़ का नाला 300 के लगभग उद्योगों का कचरा लेकर यमुना को भेंट चढ़ा देता है। इसके अलावा यमुना को उद्योगों का काफी कचरा सीधा भी सौंप दिया जाता है। आगरा में भी यमुना की लगभग यही स्थिति है। यहाँ नुनिहाई जैसे छोटे-बड़े औद्योगिक केन्द्र अपनी गन्दगी यमुना को सौंप देते हैं। बिहार में सोन नदी व लखनऊ में गोमती नदी आदि सभी गन्दला रही हैं। हमारे देश में बड़ी नदियों की संख्या 14, मध्यम 44 और शेष छोटी नदियाँ हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक भारतीय जल सम्पदा का दो तिहाई भाग आज प्रदूषित हो चुका है।

बढ़ता औद्योगिकीकरण, मरता पानी


. हमारे देश में जल प्रदूषण के पीछे औद्योगिकीकरण का हाथ तो है ही, साथ ही बढ़ती जनसंख्या भी इस हद तक चोट कर रही है कि इसमें से आधी मात्रा भी उपचारित नहीं हो पाती है। स्थिति यह है कि देश के बड़े शहरों में से कुछ में ही मल-वाहक और मल-उपचार व्यवस्था उपलब्ध है।

देश में विभिन्न उद्योगों में साफ पानी की खपत लगभग 600 करोड़ घन मीटर है। आने वाले दिनों में इसकी मात्रा लगभग पाँच गुना और इसके 25-30 साल बाद पच्चीस गुना बढ़ जाएगी। अब इसमें तो दो राय है ही नहीं कि लगभग इसी अनुपात में कचरा भी निकलेगा जो पानी की मिट्टी पलीत करेगा।

कुल मिलाकर देश में पानी का एक बड़ा हिस्सा गन्दला रहा है। इससे जुड़ी समस्याएँ इसकी स्थिति से भी कहीं ज्यादा विकट हैं। 1974 में भारत में जल प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम बनाया गया था जिसका काम क्षेत्र विशेष में जल प्रदूषण को रोकना था, साथ ही यह गौर करना भी था कि कानून का कड़ाई से पालन हो रहा है या नहीं। बोर्ड ने मुस्तैदी दिखाई भी, कुछ लोगों को दंड भी मिला मगर बाद में लगाम ढीली पड़ती गई और पानी गन्दलाता रहा। अगर स्थितियाँ ऐसी ही रहीं तो अनुमान है कि भविष्य में गंगा से कावेरी तक सभी नदियों का पानी जहरीला हो जाएगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि विकासशील देशों में 80 प्रतिशत रोग पानी के संक्रमण से ही पैदा होते हैं। कुछ समय पहले जारी की गई एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में हर मिनट एक बच्चे की जान संक्रमित पानी हलक के नीचे उतरने भर से चली जाती है।

पानी से उत्पन्न रोगों में डायरिया वर्ग के रोग काफी भीषण हैं। दिल्ली जैसे महानगर में भी हर साल (खासकर बरसात के दिनों में) पानी से फैलने वाले रोगों का खतरा बना रहता है। देश-भर में डायरिया को लेकर हुए अध्ययन बताते हैं कि पाँच साल से कम उम्र के ज्यादातर बच्चे डायरिया से पीड़ित होते हैं। इनमें से 10 प्रतिशत बच्चों में पानी के टोटे के कारण शरीर ऐंठता है। इसी प्रकार गन्दलाते पानी की देन डेंगू भी हर साल राजधानी तक को रुला देती है।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों में पानी की भारी किल्लत है। यहाँ आज भी व्यक्ति पानी की न्यूनतम आवश्यकता को पूरी करने में सफल नहीं हो पाता। ज्यों-ज्यों आबादी बढ़ती गई मानव रहने के लिये आवास की तलाश में दूर-दूर तक पहुँचने लगा। इस तरह से पानी के प्रमुख स्रोत नदियाँ दूर छूट गईं और पनघट की लम्बी यात्रा शुरू हो गई। अब चाहे शहर के मुुहल्ले के नुक्कड़ का नल हो या गाँव का दूर-दराज का कुआँ या नदी, शुरू से ही पानी लाने का जिम्मा सम्भाला महिलाओं ने। घर में पानी की जरूरत पूरी करने के लिये मटके-दर-मटके धरे लम्बी यात्रा तय की जाने लगी। आज अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यह बात तय हो चुकी है कि पानी की किल्लत ने महिलाओं के काम बढ़ा दिये हैं। जहाँ लड़की थोड़ा बोझ उठाने लायक हुई नहीं कि उसके हाथ में मटका थमा दिया जाता है कि “जा बहिना घर के लिये पानी ले आ”। सूडान में तो आज भी महिलाएँ पानी लेने के लिये 10-12 किलोमीटर तक की यात्रा तय करती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार पूर्वी अफ्रीका की महिलाएँ हर रोज अपनी 10-12 प्रतिशत शक्ति पानी लाने में ही खर्च करती हैं।

हमारे देश की स्थिति भी कोई सुखद नहीं है। यहाँ आज भी समस्याग्रस्त गाँवों की भारी संख्या है। भारत सरकार के निर्धारण के अनुसार जिन गाँवों में पानी के लिये 1.6 किलोमीटर की लम्बी यात्रा तय करनी पड़े वे गाँव “समस्या ग्रस्त” गाँव कहलाते हैं। आज स्थिति यह है कि बड़ी संख्या में ऐसे समस्या ग्रस्त गाँव हैं जहाँ पीने के लिये साफ पानी छोड़ गन्दा पानी भी उपलब्ध नहीं है। कहीं कुछ पानी है भी तो वह एकदम खारा है।

हमारे देश के गाँवों का एक और पहलू सामने आया है कि जिन गाँवोें में हत्थे के नल लगे हैं वहाँ भी 40 प्रतिशत लोग कुएँ, बावड़ी और पानी के अन्य परम्परागत स्रोतों से ही पानी पीना पसन्द करते हैं। इसके अलावा 25 प्रतिशत ऐसे हैं जो हत्थे के नल का प्रयोग तो करते हैं मगर उसका पानी पीते नहीं हैं, 32 प्रतिशत ऐसे हैं जिन्होंने अपनी सब्जी, दाल या अन्य खाद्य वस्तुएँ तैयार करने के लिये कभी नल के पानी का प्रयोग नहीं किया क्योंकि इन नलों को कम गहराई पर लगाने की वजह से इनका पानी पीने लायक नहीं होता है। पश्चिमी गोदावरी में हुए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि अधिकांश लोग घर में नल होते हुए भी पीने के लिये पानी नदी से ही लाते हैं जिसके लिये उन्हें डेढ़ किलोमीटर तक की यात्रा तय करनी पड़ती है।

गन्दलाता पानी, पीने की मजबूरी


प्रदूषित पानी पानी पर नन्हें कीटाणुओं का कहर इस हद तक है कि आज भूमिगत जल भी अछूता नहीं रहा। कुछ साल पहले विष विज्ञान अनुसन्धान केन्द्र, लखनऊ ने भूजल को लेकर एक वैज्ञानिक अध्ययन किया था। इस अध्ययन में चौंकाने वाली बात यह निकली कि ऐसे जल में कीटाणुओं की भारी संख्या होती है। उत्तर प्रदेश में विभिन्न स्थानों पर भूजल से लिये गए नमूनों में अधिकांश में संक्रमण पाया गया। दिल्ली जल वितरण और मल व्ययन संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार उथले हैण्डपम्प या कम गहराई पर लगाए गए हैण्डपम्प आपको पानी के सहारे रोग दे रहे हैं। दिल्ली जैसे शहर में भी हैण्डपम्प की गहराई कम-से-कम 150 फुट होना जरूरी है। इसमें कम दूरी पर लगाया गया हैण्डपम्प पानी के साथ रोगाणु लिये हुए होता है।

क्या प्रदूषित पानी पीने की मजबूरी बराबर बनी रहेगी? आज हमारे अपने देश में ऐसी तकनीकें और यंत्र तैयार कर लिये गए हैं जो गन्दले पानी का शोधन करने में सक्षम हैं। अब यह और बात है कि उनका प्रयोग कितना और किस हद तक किया जाता है। एक लम्बे समय से हमारे देश में जल शोधन की प्रचलित विधि रही है “तीन घड़ा पद्धति”। इसमें एक घड़े में कोयला, दूसरे में बालू रहता है जो क्रमशः पानी की अशुद्धियों को दूर कर अन्त में शुद्ध पानी पहुँचाती है। यह विधि हमारे देश की ही देन है और जल शोधन के क्षेत्र में सबसे प्राचीन और कारगर है। हालत यह है कि आज ईजाद की गई जल शोधन की कई नई तकनीकें इसी सरल तकनीक पर आधारित हैं। मसलन केन्द्रीय काँच एवं सिरेमिक अनुसन्धान संस्थान, कोलकाता में विकसित दूषित पेयजल शोधक तकनीक को ही लीजिए इसमें दो घड़े प्रयोग में लाये गए हैं जिनमें ऊपर के घड़े में पानी रहता है और नीचे के घड़े में टोंटी लगी रहती है। दोनों घड़ों के बीच एक कैंडल होती है जो जल शुद्ध करती है।

इसी प्रकार एक और तरीका है जो प्रमुख हानिकारक जीवाणुओं को दूर कर पानी को शुद्ध करता है। “कोयला जल छन्नक” नाम के इस तरीके में एक 100 सेंटीमीटर ऊँचा और 42 सेंटीमीटर चौड़ा मिट्टी का घड़ेनुमा बर्तन लिया जाता है जिसमें 15 सेंटीमीटर तक बजरी-कंकड़ भरा रहता है। इसके बाद 26 सेंटीमीटर तक रेत बिछाई जाती है जिसके ऊपर 10-15 सेंटीमीटर तक कोयला बिखेर दिया जाता है। इस तरह से तैयार तकनीक के ऊपरी भाग से दूषित पानी छोड़ा जाता है जो मिट्टी के बर्तन में विभिन्न स्तर पर बिछाए विभिन्न माध्यमों से गुजरता है और इस तरह से हर सतह पर अपनी अशुद्धियाँ छोड़ नीचे की अन्तिम सतह पर शुद्ध हो जाता है। इस शुद्ध पानी को बर्तन में नीचे लगी टोंटी से निकाल कर पिया जाता है। नगरों-महानगरों में पानी का शोधन बड़े स्तर पर किया जाता है। इस प्रक्रिया में बहुत सुधार की भी जरूरत है। इधर मैट्रो शहरों में रिवर्स आॅस्मोसिस (यानी आर ओ) जैसी फिल्टर सुविधाएँ भी आ गई हैं। इस दिशा में और भी ऐसी प्रौद्योगिकियाँ विकसित हो रही हैं जो पानी को शुद्ध करेंगी। मगर ऐसा तब होगा जब पानी मुहैया होगा। हालांकि इस दिशा में सरकार की कई योजनाएँ जारी हैं मगर स्वयं हमको भी प्रयास करने होंगे। पानी बचाना होगा, बर्बादी को रोकना होगा। किसी करिश्में की प्रतीक्षा मूर्खता होगी, कोई भी ऐसा अर्जुन नहीं आने वाला है जो तीर मार धरती से पानी निकाल दे।

डाॅ. कुलदीप शर्मा, 333, ग्रेट इण्डिया अपार्टमेंट, सेक्टर 5, प्लाॅट नं. 55, द्वारका, नई दिल्ली

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