सारंडा, जहाँ कायम है जंगल राज

11 Jun 2017
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दक्षिण कोयल नदी में सुवर्ण कणों को देखना अब भी रोमान्चित करता है। थोलकोबाद में अब भी ज्वालामुखी फटने के अवशेष दिखाई पड़ते हैं। टायबो जलप्रपात मनोहरी छटा बिखेरता है, जहाँ 116 प्रकार की प्रजातियों के पौधे मौजूद हैं। शंकराचार्य द्वारा स्थापित समीज आश्रम में वह बोर्ड अब भी दिखता है, जिस पर पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के आने के साक्ष्य अक्षरों में मौजूद हैं और सबसे खास है मनोहरपुर बाजार के किसी कोने से सूर्यास्त होते देखना। यह एशिया का सबसे बड़ा साल जंगल है, लेकिन पिछले दस सालों में असलहों की भाषा ही यहाँ की मुख्य जुबान बनी है। नतीजा यह कि अब इसकी तुलना दंडकारण्य के दंतेवाड़ा और पश्चिम बंगाल के लालगढ़ से भी की जाने लगी है। 80 हजार हेक्टेयर में फैला यह विशालकाय क्षेत्र कभी अपनी खूबसूरती के लिये जाना जाता था, अब यह माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ होने की वजह से चर्चा में आता है या फिर अवैध खनन के कारण।

सारंडा का सन्नाटा कभी जंगली जानवरों की चीत्कार-हुंकार से टूटता था, अब गोलियों की तड़तड़ाहट से टूटता है और फिर उसी सन्नाटे के आगोश में समा जाता है। इस जंगल में बसा छोटानागरा धार्मिक पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर रहा है। बताया जाता है कि कभी यहाँ ओडिशा के क्योंझर राज ने मानव निर्मित खालों से दो नगाड़े बनवाए थे, जो अब भी आस्था के केंद्र के तौर पर विराजमान हैं। लेकिन, अब छोटानागरा की नई पहचान भी है। अब वहाँ से जहाँ खून, बारूद, विस्फोट, वर्चस्व की भाषा का मुख्यमार्ग शुरू होता है। सारंडा की यात्रा के दौरान मिले विनय एक सवाल पूछते हैं- हमारे पुरखों ने जंगल-पहाड़ों की दुर्गमता से लड़ाई लड़ अपने रहने के लिये, अपनी खेती-बाड़ी के लिये जगह तैयार की।

जानवरों की खोह में इंसानों के आने-जाने के अवसर उपलब्ध कराए, लेकिन जब इसके एवज में वर्षों से पानी-बिजली की माँग करते रहे तो कोई सुनने को तैयार नहीं। बहाने लाख बने, लेकिन हमारे ही गाँव के बगल में जब कम्पनियाँ आती हैं तो उनके लिये दस दिनों के अन्दर ही बिजली-पानी-सड़क आदि का इन्तजाम हो जाता है। ऐसा क्यों? विनय का सवाल यक्ष प्रश्न की तरह है और इन्हीं सवालों के इर्द-गिर्द घूमते हुए सारे जवाब भी तलाशे जा सकते हैं कि आखिर सारंडा की सुन्दरता को किसने नजर लगाई? इस सवाल का जवाब भी तलाशा जा सकता है कि नक्सलियों और पुलिसवालों, दोनों को ही सारंडा से इतना मोह क्यों है? सारंडा एरिया के थोलकोबाद, मनोहरपुर, छोटानागरा, जराईकेला, दीघा, भालूलता, बिमलागढ़, किरीबुरू के रास्ते गुजरते हुए साफ पता चलता है कि यह इलाका कितना दुर्गम-दुरूह रहा होगा और कितनी मेहनत से इसे यहाँ के मूल रहनिहारों ने रहने लायक तैयार किया होगा।

सारंडा के जंगलों में घूमते हुए रास्ते में अब भी हाथियों के समूह दिखते हैं। टेढ़े-मेढ़े रास्ते के साथ चारों ओर पहाड़ियाँ ही पहाड़ियाँ, तब लगता है कि सात सौ पहाड़ियों के इलाके में हैं। इन सबके बीच एक स्कूल में फुटबॉल मैच खेलती लड़कियों को देख भय के आलम में रोमान्च का अनुभव होता है। लेकिन लगभग 80 हजार हेक्टेयर के क्षेत्रफल में फैले एशिया के सबसे बड़े जंगल में जितने किस्म के संकट हैं, उससे भयभीत होना स्वाभाविक है। कई जगहों पर सड़क को ही खलिहान बने देखना साफ बताता है कि इस रास्ते कभी-कभार ही कोई आता-जाता होगा।

कई जगहों पर उड़ी सड़कें बताती हैं कि यहाँ कभी विस्फोट हुआ है। सारंडा तबाही और बर्बादी के उस मुहाने पर पहुँच चुका है जहाँ से वापस आने की उम्मीद नहीं दिखती। सारंडा का ही एक हिस्सा है बंदगाँव का इलाका। जहाँ जंगल माफिया ने पिछले दस वर्षों से तबाही मचा रखी है। बच्चों से जंगल कटवाते हैं। ग्रामीणों का घर जला देते हैं। महिलाओं से दुष्कर्म करते हैं, लेकिन वहाँ कोई सजा देने-दिलाने को सामने नहीं आता। बावजूद इतनी विडम्बनाओं के, सारंडा अब भी सारंडा है। पहचान की वह रेखाएँ अब भी मौजूद हैं, जिसके लिये यह मशहूर रहा है।

छोटानगरा का मन्दिर अब भी मन मोहता है। दक्षिण कोयल नदी में सुवर्ण कणों को देखना अब भी रोमान्चित करता है। थोलकोबाद में अब भी ज्वालामुखी फटने के अवशेष दिखाई पड़ते हैं। टायबो जलप्रपात मनोहरी छटा बिखेरता है, जहाँ 116 प्रकार की प्रजातियों के पौधे मौजूद हैं। शंकराचार्य द्वारा स्थापित समीज आश्रम में वह बोर्ड अब भी दिखता है, जिस पर पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के आने के साक्ष्य अक्षरों में मौजूद हैं और सबसे खास है मनोहरपुर बाजार के किसी कोने से सूर्यास्त होते देखना। इसी सूर्यास्त को देखने दस साल पहले सैकड़ों की संख्या में ओडीशा, बंगाल, बिहार के पर्यटक यहाँ पहुँचते थे। लेकिन अब? सात सौ पहाड़ियों की बेटी और सघन साल वन सारंडा, जंगलों से तो उजाड़ हो चुका है, लेकिन वहाँ जंगलराज कायम जरूर हो गया है, जहाँ कोई नियम, कोई कानून और कोई संविधान लागू नहीं होता। आगे क्या कहूं... क्या लिखूँ।

(लेखिका ‘तहलका’ पत्रिका से जुड़ी हैं।)

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