सभ्यता का कचरा


श्री राजेन्द्र माथुर अंग्रेजी पढ़ाते थे लेकिन लिखते थे हिन्दी. 1970 में नई दुनिया से जुड़े उसके बाद नवभारत टाईम्स के संपादक बने. 1969 में लिखा यह लेख विकास और सभ्यता की पोल खोलता है.

सभ्यता की एक महान समस्या कचरा है. कचरा सर्वत्र है. वह खेत में है और कारखाने में है. जब खेतों में प्राकृतिक खाद पड़ती थी तो खेत उसे सोख लेते थे. लेकिन आजकल खेत में रासायनिक खाद, नाईट्रेट और फास्फेट डाले जाते हैं जो नालियों और नहरों में घुसकर जलाशयों में जाते हैं और सारा पानी काई की बहार से मर जाता है. पश्चिम में बहुत से तालाब ऐसे काई से नष्ट हो गये हैं. फिर कीटनाशक और दवाईयां भी हैं. और कोई नहीं जानता कि इस तरह पृथ्वी पर जहर की एक परत बिछाने से क्या नतीजा होगा?

उद्योगों का तो कहना ही क्या? हर कारखाना आजकल कचरा पैदा करता है जिसे फेंकना आजकल समस्या बन गया है. उद्योग का कचरा प्रायः नदियों में फेंका जाता है जिससे नदिया औद्योगिक गटर बन गयी हैं. अमेरिका ने कारखानों की चिमनियों का धुंआ छानकर फेंकना शुरू किया है लेकिन काला धुंआ अब अदृश्य जहरीली गैसों के रूप में निकलता है. मोटरों का धुंआ भी शहर की हवा को लगातार प्रदूषित कर रहा है.कुछ लोगों ने अंदाज लगाया है कि कुहरे और कार्बन डाई आक्साईड का यह मिश्रण ध्रुवों की बर्फ पिघला देगा और समुद्र स्वयं 300 फीट ऊपर चढ़ जाएगा. जितनी अधिक सभ्यता उतनी अधिक बोतले, खोंके और डिब्बे. कहते हैं हर अमेरिकी एक दिन में ढाई सेर कचरा पैदा करता है जिसे न जला सकते हैं न गाड़ सकते हैं।

वातावरण के खिलाफ मनुष्य का पहला महायुद्ध जब छिड़ा तो जंगल खेत बन गये और सारे पशु मनुष्य की दया के मोहताज हो गये. लेकिन अब औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य ने दूसरा महायुद्ध छेड़ा है. जिसमें वह जमीन, हवा, पानी तीनों को मनमाने ढंग से दूषित कर रहा है. पशु पक्षियों का उन्मूलन करके तो आदमी ने डार्विन के विकासवाद का सारा खेल ही बिगाड़ दिया है. अगर किसी दुर्घटना से पृथ्वी पर मनुष्य जाति का विलोप हो जाए तो जगत नियंता परमात्मा के सामने शायद इतने वैकल्पिक प्राणी ही नहीं बचेंगे कि वे विकास के नृत्य को आगे बढ़ा सकें. विकासवाद में यह अवश्य होता है कि सक्षम जंतु अक्षम प्राणियों का सफाया कर देते हैं लेकिन जानवरों में क्षमता प्रकृति की देन है।

चीते ने किसी दर्जी के यहां जाकर चितकबरा सूट नहीं बनवाया जिसे पहनकर वह जंगल में छिप सके. उसकी चमड़ी उसकी बुद्धि से नहीं उपजी है. लेकिन जंगल में शिकार करने के लिए आदमी जरूर दर्जी से कपड़े सिलवाता है. वह कपड़े ही नहीं हाथ, दांत, गुर्दे और हृदय सब कुछ सिलवा सकता है. बुद्धि की ये विजयगाथाएं बहुत उम्दा हैं. लेकिन सवाल यह है कि मनुष्य की बुद्धि ज्यादा उम्दा है या विकासवाद की वह अंधी ताकत ज्यादा ऊंची है जिसने मनुष्य को वह शरीर दिया है, वे इंद्रियां दी हैं, वह बुद्धि दी जिनके बूते पर वह विकासवाद का खेल उलट सका? प्रश्न यह भी है कि जब दर्जी, डॉक्टर और एयरकंडीशनर नहीं होंगे और कभी आदमी को चितकबरी चमड़ी की जरूरत पड़ेगी तो तब क्या वह अंधी प्रेरणा हममें बाकी होगी जो हमें वातानुकूल (प्रकृति के अनुकूल) बना सके? और अगर उस अंधी ताकत का मनुष्य में जीवित रहना जरूरी है तो और जानवरों में क्यों नहीं? क्या ऐसा विश्वास स्वागतयोग्य है जिसमें हर पशु-पक्षी का कोटा मनुष्य की जरूरतों के अनुसार तय हो फिर वे चाहे चूहे हों या बंदर या फिर शेर?

ये प्रश्न तब और तीखे हो जाते हैं जब मनुष्य ने हवा पानी में अपनी खातिर बदलाव शुरू कर दिये. इस सारी प्रक्रिया की शुरूआत जंगल काटने से हुई. सारी पृथ्वी आज या तो मनुष्य की मांद है या भोजनागार. जब जंगल थे तब वनस्पति जगत में समय का पैमाना बहुत धीमा और लंबा था. एक एक पेड़ हजार-हजार वर्षों तक खड़ा रहता था. आंधी पानी सहता था और हर साल नये पत्ते लेकर जवान हो जाता था. आदमी के पहले किसी को योग आता था तो पेड़ों को आता था. योग उनके लिए विद्या नहीं सहज वृत्ति थी. पता नहीं विकास का देवता पेड़ों के माध्यम से कौन सा प्रयोग कर रहा था. कौन सी संभावना की वह तैयारी कर रहा था।

आदमी उस प्रयोगशाला में घुसा और उसने सारे यंत्र तितर-बितर कर दिये. आदमी के समय का पैमाना छोटा और भूख विशाल थी. उसने फसलें पैदा की, जो छह-छह महीने में मरने जीने लगीं. कृतिम गर्भाधान और त्वरित प्रसव का ऐसा सिलसिला चला कि बेचारी वनस्पतियों को लगा होगा कि आदमी ने समय के पहिये का हत्था पकड़ लिया है और उसे जोर-जोर से घुमा रहा है. अब हवा और पानी की बारी है. समुद्र भी कचरा फेंकने का विशाल गड्ढा बन चुका है. कहते हैं पांच लाख टन रसायन उसमें हर साल फेंके जाते हैं. पेट्रोल से निकलनेवाला ढाई लाख टन शीशा हवा से समुद्र में गिरता है. कीटनाशक जहर समुद्र में जाते हैं. सेनाएं जो युद्ध रसायन बनाती हैं उनका भी कचरा पेटी समुद्र है।
 
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