सड़ता अन्न, भूखे जरूरतमंद

सर्वोच्च न्यायालय की तीखी टिपण्णी के बावजूद भी हमारे कर्णधार अनाज को सड़ते देखकर चुप हैं। उनको 12 रुपये प्रति किलो के दर से खरीदा गया गेहूं सड़ाकर 6.20 रुपये किलो की दर से शराब कंपनियों को बेचना अच्छा लगता है। कहीं ऐसा तो नहीं समर्थन मूल्य और खाद्य सबसिडी का फायदा शराब माफियों को पहुंचाया जा रहा है। दुनिया में एक तरफ करोड़ों की संख्या में लोगों को अन्न नसीब नहीं है, तो वहीं अन्न सड़ा-गला देने जैसी सरकारी नीतियों के अमानवीय चेहरे को सामने ला रहे हैं सुभाष चंद्र कुशवाहा।

अगर सरकार के पास अन्न भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है, तो उसे खरीदकर सड़ाने से अच्छा होगा कि किसानों को समर्थन मूल्य की दर से कुल उत्पादन के 15 प्रतिशत के बराबर आर्थिक सहायता दे दी जाए और अन्न को उन्हीं के पास छोड़ दिया जाए। इससे महंगाई नियंत्रित करने में मदद मिलेगी और देश का अन्न बरबाद होने के बजाय उत्पादनकर्ता के उपयोग में आ जाएगा। भारत और दुनिया में जहां भूखों को अन्न नसीब नहीं हो रहा, वहीं अन्न को सड़ा-गला देना, समुद्र में फेंक देना या जैविक ईंधन बनाना विकसित होती दुनिया के अमानवीय चेहरे को सामने लाता है।

तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद किसानों ने अपनी श्रमशक्ति से वर्ष 2011-12 में 25.256 करोड़ टन खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन किया है। वहीं अतिरिक्त खाद्यान्न खरीद कर किसानों को समर्थन मूल्य देने, आपदा, अकाल या जनकल्याणकारी योजनाएं संचालित करने के उद्देश्य से 14 जनवरी, 1965 को स्थापित भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) ने अपनी भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिए कोई सार्थक पहल नहीं की है। नतीजा, न तो हम अतिरिक्त उत्पादन को गोदामों में सुरक्षित रख पा रहे हैं और न वक्त-जरूरत जनसामान्य को उपलब्ध करा, भूख से होने वाली मौतों को रोक पा रहे हैं। ऐसे में रिकॉर्ड उत्पादन का सार्थक उपयोग नहीं हो पा रहा है और खुले में, गोदामों में करोड़ों टन अनाज सड़ने और खबरों की सुर्खियों में रहने को अभिशप्त है।

अनाज को सड़ते देख, सर्वोच्च न्यायालय तक को तीखी टिप्पणी करनी पड़ती है, पर हमारे कर्णधारों के कानों पर जूं नहीं रेंगती। वे तो बारह रुपये प्रति किलो के हिसाब से खरीदे गए गेहूं को सड़ाकर 6.20 रुपये प्रति किलो की दर से शराब कंपनियों को बेच देते हैं। स्वयं कृषि मंत्री सदन में स्वीकार कर चुके हैं कि 1977 से 2007 के बीच 1.83 लाख टन गेहूं, 6.33 लाख टन धान, 2.20 लाख टन कपास और 111 लाख टन मक्का एफसीआई गोदामों या खुले भंडारण में सड़ चुका है।

एफसीआई के कुल 1820 गोदामों की भंडारण क्षमता 30 जून, 2010 को 578.50 लाख टन थी, जिनमें 242.5 लाख टन धान और 335.84 लाख टन गेहूं पहले से मौजूद था। यानी कि 578.34 लाख टन अनाज से गोदाम भरे पड़े हैं। ऐसे में वर्तमान रिकॉर्ड उत्पादन का क्या होगा?

सरकारी दबाव में किसानों को समर्थन मूल्य देने की चाह में एफसीआई को कुल उत्पादन का 15-20 प्रतिशत गेहूं और 12-15 प्रतिशत धान तो खरीदना ही पड़ेगा। समर्थन मूल्य देने की यही नीति रही है। बेशक खरीद हुआ अन्न खुले आसमान के नीचे रखकर सड़ा दिया जाए और सस्ते में शराब माफियाओं को सौंप दिया जाए। यही जनकल्याणकारी व्यवस्था का असली चेहरा है।

यह हाल तब है, जब आईएफडी, डब्ल्यूएफपी और एफएओ द्वारा खाद्य सुरक्षा और मूल्यों में अंतर के अर्थव्यवस्थाओं पर प्रभाव से संबंधित एक दस्तावेज के मुताबिक, 2006-08 में भारत में अन्न की कमी से 22 करोड़ 40 लाख 60 हजार लोग भूखे रहे। दरअसल देखा जाए, तो अनाज से शराब या ईंधन उत्पादन के लिए रास्ता निकालने के बहाने उन्हें सड़ाने या नष्ट करने का खेल वैश्विक स्तर पर खेला जा रहा है। अमेरिका और यूरोप में जितना अन्न बरबाद किया जाता है, उससे बाकी दुनिया की भूख मिटाई जा सकती है। अमेरिका अपने उत्पादित अन्न का 40 प्रतिशत फेंक देता है और ब्रिटेन में साल भर में 83 लाख टन अन्न कूड़े में डाल दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि अमेरिका में भूखे नहीं हैं। होटलों के कूड़ेदानों से भोजन बटोरने वाले वहां भी हैं।

सरकार के अनुसार, 2015 तक तैयार की गई नीति के अनुसार, अन्न भंडारण की जिम्मेदारी भारतीय अन्न भंडारण प्रबंध और शोध संस्थान को दी गई है। पंजाब में पचास लाख टन और हरियाणा में 38 लाख टन अन्न भंडारण क्षमता बढ़ाई जा रही है। लेकिन गोदामों में बंद पड़े अन्न के जरूरतमंदों तक न पहुंचाने के कारण उसके बरबाद हो जाने का खतरा तो मौजूद रहेगा ही। सरकार को इस दिशा में कारगर कदम उठाना होगा कि किसी भी दशा में उत्पादित अन्न बरबाद न होने पाए। अगर सरकार के पास अन्न भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है, तो उसे खरीदकर सड़ाने से अच्छा होगा कि किसानों को समर्थन मूल्य की दर से कुल उत्पादन के 15 प्रतिशत के बराबर आर्थिक सहायता दे दी जाए और अन्न को उन्हीं के पास छोड़ दिया जाए। इससे महंगाई नियंत्रित करने में मदद मिलेगी और देश का अन्न बरबाद होने के बजाय उत्पादनकर्ता के उपयोग में आ जाएगा। भारत और दुनिया में जहां भूखों को अन्न नसीब नहीं हो रहा, वहीं अन्न को सड़ा-गला देना, समुद्र में फेंक देना या जैविक ईंधन बनाना विकसित होती दुनिया के अमानवीय चेहरे को सामने लाता है।

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