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सेम

सेम संसार के प्राय: सभी भागों में उगाई जाती हैं। इसकी अनेक जातियाँ होती हैं और उसी के अनुसार फलियाँ भिन्न-भिन्न आकार की लंबी, चिपटी और कुछ टेढ़ी तथा सफेद, हरी, पीली आदि रंगों की होती है। इसकी फलियाँ शाक सब्जी के रूप में खाई जाती हैं, स्वादिष्ट और पुष्टकर होती हैं यद्यपि यह उतनी सुपाच्य नहीं होती। वैद्यक में सेम मधुर, शीतल, भारी, बलकारी, वातकारक, दाहजनक, दीपन तथा पित्त और कफ का नाश करने वाली कही गई हैं। इसके बीज भी शाक के रूप में खाए जाते हैं। इसकी दाल भी होती है। बीज में प्रोटीन की मात्रा पर्याप्त रहती है। उसी कारण इसमें पौष्टिकता आ जाती है।

सेम के पौधे बेल प्रकार के होते हैं। भारत में घरों के निकट इन्हें छानों पर चढ़ाते हैं। खेतों में इनकी बेलें जमीन पर फैलती हैं और फल देती हैं। उत्तर प्रदेश में रेंड़ी के खेत में इसे बोते हैं।

यह मध्यम उपज देने वाली मिट्टी में उपजती है। इसके बीज एक-एक फुट की दूरी पर लगाई जाती हैं। वर्षा के प्रारंभ से बीज बोया जाता है। जाड़े या वसंत में पौधे फल देते हैं। गर्मी में पौधे जीवित रहने पर फलियाँ बहुत कम देते हैं। अत: प्रति बरस बीज बोना चाहिए। यह सूखा सह सकता है। इसकी कई किस्में होती हैं जिनमें फ्रांसिसी या किडनी सेम अधिक महत्व की है। यह दक्षिणी अमरीका का देशज है पर संसार के प्रत्येक भाग में उपजाई जाती है। यह मध्यम उपज वाली मिट्टियों में हो जाती है। प्रति एकड़ 30-40 पाउंड नाइट्रोजन देना चाहिए। मैदानों में शीतकालीन वामन या झाड़ी वाली जातियाँ उपजती है। इन्हें अक्टूबर या प्रारंभ नवंबर तक डेढ़ से दो फुट कतारों में बोते हैं। बीज 9 इंच से 1 फुट की दूरी पर लगाते हैं। कूड़ों में 3 इंच की दूरी पर बोकर पीछे 9 इंच से 1 फुट का विरलन कर लेते हैं। यह पर्वतों पर अच्छी उपजती है और अंत मार्च से जून तक बोई जाती है। सिंचाई प्रत्येक पखवारे करनी चाहिए। इसकी अनेक जातियाँ हैं। यह लेगुमिनेसी वंश का पौधा है। (यावंत राय मेहता)

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