शिक्षा के ताले और कुंंजियाँ

10 Sep 2015
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पाँच सितम्बर। शिक्षक दिवस। उस शिक्षा के शिक्षक जो शिक्षा न जाने कितने तरह के तालों में बन्द कर दी गई है। इन तालों को कौन-सा शिक्षक खोलेगा, कैसे खोलेगा? जब परस्पर संवाद ही नहीं हो पाएगा तो ये ताले भला कैसे खुल पाएँगे। कोई एक कुंजी नहीं चाहिए। कुंजियों का एक पूरा गुच्छा चाहिए आज इन तालों को खोलने। इन्हीं सब की चर्चा कर रहे हैं श्री शिवरतन थानवी, जो शिक्षा जगत में सब पुराने-नए तारों की चमक से शिक्षकों को परिचित कराते थे एक सुंदर पत्रिका शिविरा के माध्यम से।

शिक्षक सिखाता है। कैसे सिखाता है? कैसे समझाता है? जो पाठ कठिन है, उसे सरल करता है। विद्यार्थी की सहायता करता है उसे सरलतापूर्वक समझने में। शिक्षक का दूसरा नाम व्याख्याता है। व्याख्याता शब्द क्यों आया? क्योंकि वह पाठ की व्याख्या करता है। अर्थ खोलकर बताता है। पाठ के मर्म के भीतर तक विद्यार्थी को पहुँचाता है। वह इसके लिये कई तरीके अपनाता है। हम उसे विधियाँ और प्रविधियाँ कहते हैं। हे शर्मीले शिक्षकों! इस शिक्षक-दिवस पर पुण्य का एक काम करो। एक दंभ जो तुमने वर्षों से पाल रखा है, उसे छोड़ो। तुम इतना शरमाते क्यों हो? एक ही राग बार-बार क्यों अलापते हो कि बच्चे कुंजियाँ और पासबुक न पढ़ें? हकीक़त तो यह है कि तुम खुद घर पर कुंजियाँ और पासबुक पढ़-पढ़ कर ही पाठ पढ़ाने की तैयारी करके आते हो। लेकिन स्कूल आकर बच्चों से कहते हो कि वे कुंजियाँ न पढ़ें, पासबुक न पढ़ें। ऐसा मत करो। मेरी बात सुनो और यह शर्म छोड़ो। यह दम्भ भी त्यागो कि तुम कुंजी-विरोधी हो। तुम समझते हो कि ऐसा करना बड़ी शोभा की बात है।

मेरी मानो तो बाजार की सभी कुंजियों-पासबुकों पर नजर रखो। यदि किसी में छपाई त्राुटिपूर्ण या उत्तर गलत दिये हों तो वह बात बच्चों को बताओ। तरीका बदलो। समाज में आदर पाने का कभी यह भी एक तरीका था कि अकड़ कर चलो, रोब रखो, बेंत फटकारो, बात-बात में बच्चों को डाँट लगाते रहो। वह जमाना गया। नहीं गया तो उसे बिदा करो।

मैं यह व्यंग्य में नहीं कह रहा हूँ। सचमुच पूरी गम्भीरता से कह रहा हूँ कि भले तुम इसे सनक समझो, लेकिन वास्तविकता यह है कि अब तक हम व्यर्थ भयभीत हुए। औरों की देखा-देखी करते रहे- कुंजियाँ बुरी हैं, कुंजियों को हाथ मत लगाओ। अब समय आ गया है- और नहीं आया है तो लाएँ हम वह नया समय जब हम निर्भीक होकर कहें कि कुंजियों में कोई बुराई नहीं। जो मर्जी आए वह कुंजी लो।

एक और बात ध्यान देने की है। सारी कक्षा के विद्यार्थी एक ही प्रकार की कुंजी नहीं लें। भिन्न-भिन्न प्रकार की कुंजियाँ हो तो पाठ को समझने में अधिक मदद मिलेगी। दो-तीन छात्र मिल-बैठकर भिन्न-भिन्न उत्तरों की सहायता से, थोड़ा-थोड़ा सबसे लेकर, अपना एक अच्छा उत्तर तैयार कर सकते हैं।

कुछ शिक्षक अपने छात्रों से कहा करते हैं कि कुंजी देखो, पढ़ो, पर कॉपी में कुंजी का उत्तर नकल करके मत लाओ। वे ठीक कहते हैं। पढ़ लो कुंजी का उत्तर, या भिन्न-भिन्न कुंजियों का उत्तर, लेकिन खुद अपना उत्तर आप बनाने की कोशिश करो। यह भी एक छोटी-सी सृजनात्मक या रचनात्मक क्रिया है। यह करेगा बच्चा तो सोचेगा। सोचेगा तो अपना उत्तर बनाने का अभ्यास होगा। कुंजी के हर विषय में यह अभ्यास काम आएगा।

गणित में तो जो विधि होती है वही समझनी होती है। वहाँ तो कुंजी की नकल ही काम करेगी। और उसमें कोई बुराई नहीं। अन्य विषयों में यों सोच कर लिखने से एक लाभ तो मौलिकता का होगा, जो लिखा जाएगा वह बच्चों का अपना होगा। दूसरा लाभ यह होगा कि कुंजी में जो कठिन होगा वह सरल हो जाएगा और जो लम्बा होगा, वह छोटा हो जाएगा। सरल कर सकना भी एक गुण है, कौशल है और छोटा करना अर्थात संक्षिप्तीकरण भी गुण है, कौशल है- इन दोनों कौशलों का अभ्यास लाभकारी है, उपलब्धि है।

गीता-रामायण हम खरीद कर लाते हैं तो अर्थ सहित लाते हैं। कालिदास या शेक्सपियर को पढ़ते हैं तो अर्थ व टिप्पणियों के बिना नहीं पढ़ते। अधिक रसास्वादन के आकांक्षी हुए तो उत्कृष्ट आलोचनाओं का भी सहारा लेते हैं। और बच्चा जब किसी मार्गदर्शिका सहायक पुस्तक (कुंजी या पासबुक) का सहारा ले तो हम शिक्षक नाक-भों सिकोड़ते हैं। यह कैसी शिक्षाशास्त्र की संस्कृति है?

कुंजी मार्गदर्शिका है, दीपिका है, सचमुच की ‘पासबुक’ है। किसी भी स्तर पर उसको काम में लेने से किसी को मना मत करो। कई शिक्षक और शैक्षिक लेखक इस बात में गर्व करते हैं कि किसी विद्यार्थी को कुंजी या पासबुक काम में मत लेने दो। इसमें वे अपना स्तर ऊँचा उठा हुआ महसूस करते हैं। अपना मान-सम्मान इसी में वे मानते हैं कि वे सदैव दुनिया को यही बताते रहे कि वे अपनी कक्षा में कुंजियों या पासबुकों की शक्ल भी देखना पसंद नहीं करते।

पत्र-पत्रिकाओं में भी जब देखो तब कोई-न-कोई ऐसा लेख मिल जाता है जो इनकी निन्दा से भरा होता है। लेकिन हम यदि थोड़ी गहराई से सोचें तो हमें सहज ही यह ज्ञात होगा कि यह हमारी भूल है। भ्रमजाल है। आइए, इस भ्रान्ति को दूर करने का प्रयास करें।

शिक्षक सिखाता है। कैसे सिखाता है? कैसे समझाता है? जो पाठ कठिन है, उसे सरल करता है। विद्यार्थी की सहायता करता है उसे सरलतापूर्वक समझने में। शिक्षक का दूसरा नाम व्याख्याता है। व्याख्याता शब्द क्यों आया? क्योंकि वह पाठ की व्याख्या करता है। अर्थ खोलकर बताता है। पाठ के मर्म के भीतर तक विद्यार्थी को पहुँचाता है। वह इसके लिये कई तरीके अपनाता है।

हम उसे विधियाँ और प्रविधियाँ कहते हैं। पाठ का सार बताना भी एक विधि है। कठिन शब्दों का अर्थ बताना तथा पाठ की कठिन जगहों- मुहावरों, वाक्यांशों या वाक्यों- को सरल करके समझाना भी एक विधि है। वह तुलनाएँ करता है, दृष्टान्त देता है, अन्तर्कथाएँ बताता है। कभी-कभी नाटकीय मुद्राओं द्वारा भी रोचकता उत्पन्न करता हुआ पाठ के प्रभाव का सम्प्रेषण कर देता है।

उसके शिक्षण कार्य या व्याख्यानों का प्रभाव यही होता है कि छात्रा-छात्राएँ पाठ को भली प्रकार समझ जाते हैं। कोईकिधर से भी प्रश्न पूछे, वे उत्तर देने में सक्षम बन जाते हैं। छोटा प्रश्न हो, चाहे जटिल प्रश्न। शिक्षक की शिक्षण क्रिया के प्रभाव से छात्रा इस योग्य हो जाते हैं कि वे हर प्रश्न का सहज भाव से उत्तर दे सकें।

अब शिक्षक कहता हैः घर पर याद करके आना, कल हम फिर पूछेंगे। वह घर जाकर विद्यालय में पढ़े हुए को फिर पढ़ता है और जो-जो स्थल समझाए गए थे उन्हें स्मृति में से खोद-खोद कर दोहराता है। स्मृति में कोई अर्थ सुरक्षित होता है, कोई नहीं भी होता है। कोई कितना ही अच्छा पढ़ाए, सब ज्यों-का-त्यों थोड़े ही याद रहता है।

तब उसे जरूरत पड़ती है कुंजी की। वही तब उसका मार्गदर्शन करती है। इसीलिये उसका दूसरा नाम है- मार्गदर्शिका। पहले कभी उसे दीपिका भी कहते थे। क्योंकि वह दीप बनकर उनका मार्ग रोशन करती थी।

आजकल अंग्रेजी व्यवहार के आधिक्य के प्रभाव से दो शब्दों को मिलाकर एक नया शब्द बना है ‘पासबुक’। वह बुक या किताब जो पास कराए। अच्छा शब्द बना है। परेशान बच्चों को प्रसन्न करने वाला है यह शब्द ‘पासबुक’। पास हो जाने की आशा जगाता है, हिम्मत बँधाता है। बड़ी कल्पनाशीलता की उपज है यह शब्द। पासबुक पास न हो तो घर पर बच्चे की सहायता कौन करेगा?

जिस बच्चे के पास अच्छी पासबुक हो उसे स्कूल के बाद ट्यूशन की जरूरत नहीं पड़ती है। वह कोचिंग क्लास नहीं जाता है। पाठ्यपुस्तक से भी अधिक पृष्ठों की और अधिक कीमत की होती हैं ये। अधिक पृष्ठों की भले हों, सस्ती होनी चाहिए- ऐसी कामना हम करते हैं। लेकिन प्रकाशक को तो मौके का लाभ उठाना है। वह ऊँची कीमत रखता है और पैसा कमाता है।

सरकार को और समाज को चिन्ता है विद्यार्थियों की सहायता करने की। तो पाठ्यपुस्तकें निःशुल्क देने की जहाँ योजना बनती है वहाँ अच्छी कुंजियाँ और पासबुकें निःशुल्क देने की भी योजना बन सकती है, बननी चाहिए। ताजा उदाहरण ले लो। एनसीईआरटी आज भी ‘सोर्सबुक्स’ बनाती है।

विविध विषयों के आकलन की। उनमें शिक्षकों को उदाहरण देकर समझाया जाता है कि किस विषय में उन्हें कैसे क्या आकलन करना है। किस विषय के किन-किन अंगों का कैसे आकलन करना है। मैं तो समझता हूँ कि कोचिंग कक्षाओं की बजाय, या कोई कैसी भी प्राइवेट ट्यूशन करने की बजाय, कक्षा में शिक्षक को ध्यान से सुनना, समझना और पूछना तथा घर पर आकर कुंजी, पासबुक जैसी किताबों के माध्यम से दोहराना, पक्का करना अधिक अच्छा है।

जो लोग कुंजियों को नापसन्द करते हैं, उनसे मैं पूछना चाहता हूँ कि ‘नोट्स’ क्या होते हैं जो व्याख्याता कॉलेज में लिखाते हैं या लिखा हुआ बाँटते हैं? एनोटेशन और नोट्स- कमेंट्स बिना क्या उन्होंने ऑथेलो, टेम्पेस्ट या मर्चेंट ऑफ वेनिस आदि शेक्सपियर के नाटक कभी पढ़े हैं? गीता की भाषा टीका क्या है? कुंजी या और कुछ? रामायण भी अर्थ वाली लाते हैं कि नहीं हम?

परीक्षाओं में प्रश्नों का जो रूप होता है, उसके अनुसार विधिपूर्वक ये सहायक पुस्तकें जिन्हें हम कुंजियाँ और पासबुकें कहते हैं, तैयार की जाती हैं। ये पाठ्यपुस्तकों की पूरक पुस्तकों का काम कर रही हैं। क्या बुराई है इनमें सोचिए जरा आप भी।

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