सिकुड़ता पर्यावरण : झुलसता देश

28 Mar 2014
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पिछले दो दशकों में देश में पर्यावरण की चिंता को लेकर अनेक स्वैच्छिक व स्वयंसेवी संस्थाएं खड़ी हुई हैं और उनके माध्यम से पर्यावरणीय जन-जागृति के लिए अनेक आंदोलन उभरे हैं। हमारे यहां पर्यावरण से जुड़े प्रश्नों को लेकर जितने स्वैच्छिक संगठन काम कर रहे हैं, उतने अन्य देशों में नहीं हैं। ‘चिपको’ का नाम लेते ही बरबस विश्नोई समाज के उन 300 व्यक्तियों की याद ताजा हो जाती , जिन्होंने 50 वर्ष पूर्व अपने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए पेड़ों से लिपटकर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया, पर वे पेड़ों से हटे नहीं।पर्यावरण का संकट आज सभी के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। जून, 1992 में रियो (ब्राजील) में आयोजित पृथ्वी शिखर सम्मेलन में 140 से भी अधिक देशों के शासनाध्यक्षों ने जमा होकर एक बार फिर पृथ्वी नाम के इस ग्रह को पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त रखने की शपथ ली थी। हालांकि कुछ औपचारिकताएं निभाने के बाद जैसी आशंका थी, बिना किसी ठोस दिशा-निर्देश या कार्य-योजना के यह सम्मेलन भी धुएं के गुब्बार की तरह समाप्त हो गया।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा आयोजित इससे पूर्व किसी भी पर्यावरण सम्मेलन में दुनिया के इतने देशों के नेता एक साथ एकत्र नहीं हुए थे, इसके बाद भी पर्यावरण-संरक्षण के लिए अनेक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं, जिनमें अनेक विवादास्पद विषयों पर वार्ताएं अवश्य हुई हैं, परंतु सभी देशों के अपने-अपने स्वार्थों के कारण कोई भी सर्वसम्मत हल नहीं निकल सका है। दरअसल पर्यावरण आज अमीर और गरीब देशों के बीच की लड़ाई बनकर रह गया है। इन सम्मेलनों ने उत्तर-दक्षिण के बीच के विवाद की चिंगारी को ही हवा देने में मदद की है। अमीर देशों ने अपनी फिजूलखर्ची से इस पृथ्वी को न केवल खोखला करके रख दिया है, बल्कि धूल, धुआं और कोलाहल से इसे भरने के लिए भी वे ही जिम्मेदार हैं।

वास्तविकता यह है कि यह पर्यावरण बनाम विकास की लड़ाई है। आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों की उपलब्धियों के बीच मनुष्य जाति की स्थिति सांप की कुंडली में जकड़े व्यक्ति जैसी होकर रह गई है। औद्योगीकरण तथा विकास की नीति का परिणाम यह हुआ है कि वायु एवं जल में प्रदूषण के अतिरिक्त समूचे औद्योगिक विश्व में अम्लयुक्त वर्षा के कारण खेत और वन तो नष्ट हुए ही हैं, पृथ्वी की रक्षक ओजोन परत में भी बड़ा छिद्र हो गया है, जिससे उत्पन्न ‘ग्रीनहाउस इफेक्ट’ के कारण मनुष्य कैंसर तथा अंधता जैसे असाध्य रोगों का शिकार हो रहा है और पृथ्वी पर दुर्लभ जीव-जंतु एवं वनस्पतियां लुप्त होने लगी हैं। साथ ही पृथ्वी का तापमान बढ़ गया है, जलवायु का चक्र बदलने लगा है, नदियां, झीलें तथा समुद्र इतने प्रदूषित हो गए हैं कि वे मछलियों और अन्य जीवों को सुरक्षित रखने की अपनी शक्ति खोते जा रहे हैं। न इससे ध्रुव प्रदेश बचा है और न अंतरिक्ष और अब चंद्रमा के बाद अन्य ग्रहों की निस्तब्धता भंग करने के लिए मनुष्य के कदम उठ चुके हैं। अब तो सैलानी पर्यटन भी पर्यावरण के लिए एक अभिशाप बनकर रह गया है। फिर परिवहन व फैक्ट्रियों के धुएं, धूल, वायु प्रदूषण एवं शोर के कारण नगर-ग्रामों में जीना ही मुहाल हो गया है।

एक अध्ययन के अनुसार अकेले अमेरिका में ही प्रतिवर्ष लगभग 18 करोड़ मीट्रिक टन औद्योगिक कचरा निकलता है। यह सब कहां जाएगा? कुछ समय पूर्व टाइम्स ऑफ इंडिया में एक समाचार छपा था, ‘167 पात्रों में भरे हुए विषैले पदार्थ के साथ इटली का एक जहाज नाइजीरिया के कोको बंदरगाह पर बरामद हुआ।’ होगा यही कि संपन्न देश अपना कूड़ा-कचरा चुपचाप तीसरे विश्व के देशों में आकर छोड़ जाएंगे। परिणाम भुगतना है तो वे भुगतें। सन् 1993 के प्रारंभ में बी.बी.सी. द्वारा आयोजित एक पर्यावरणीय वाद-विवाद के अवसर पर प्रतिष्ठित ‘रॉयल ज्योग्राफिकल सोसायटी’ के सभागार में पश्चिम की अति भोगवादी प्रवृत्ति पर कठोर प्रहार करते हुए भारत सहित अनेक वक्ताओं का यह कहना था कि “आज जो ब्राजील विनाश के कगार पर खड़ा है, उसके लिए पश्चिम जवाबदेह है।”

वहां के तीन-चौथाई जंगल नष्ट कर गायों के लिए चारागाह बनाए गए हैं। उन गायों के लिए जिनका गोश्त आम अमेरिकियों के नाश्ते की प्लेट में सर्वाधिक उपयोग किए जाने वाले हेम्बर्गर के लिए होता है। ‘ओजोन परत’ के विखंडन के लिए कौन जिम्मेदार है-रेफ्रिजरेशन, मॉडलिंग व एयरोसोल के निर्माण में प्रयुक्त सी.ए.सी. व युद्ध में प्रयुक्त विध्वंसकों के निर्माण से उत्पन्न सी.एफ.सी.। इसके परिणामस्वरूप सन् 1993 में लगभग 5 लाख व्यक्तियों को संपूर्ण विश्व में त्वचा के कैंसर की त्रासदी झेलने की संभावना बन गई थी और इथियोपिया के बाद अब सोमालिया अकाल की भीषण अग्नि में झुलस रहा है?

इस अंधी दौड़ में भारत भी कहीं पीछे नहीं। 1987 में देश के लगभग दो-तिहाई हिस्से पर दुर्भिक्ष की काली छाया मंडराती रही थी। वनों की कटाई, खनन उद्योग, दलदलों व लवणीकरण तथा भारी उद्योगों के उच्छिष्ट व कचरे के कारण पतित-पावनी नदियों की पवित्रता ही भंग नहीं हुई। देश की कुल 32 करोड़, 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से लगभग 18 लाख हेक्टेयर क्षेत्र क्षरण-ग्रस्त एवं बंजर होकर रह गया। उपग्रह से प्राप्त ताजे चित्र बताते हैं कि देश में प्रतिवर्ष 15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वन नष्ट हो रहे हैं। 1951 में जो कृषि योग्य भूमि प्रति व्यक्ति 0.48 हेक्टेयर थी, 1981 में घटकर 0.26 हेक्टेयर रह गई और अनुमान है कि सन् 2010 तक मात्र 0.11 हेक्टेयर ही रह जाएगी।

कुछ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध चिपको नेता सुंदरलाल बहुगुणा ने हिमालय के पर्यावरण के विनाश से व्यथित होकर कश्मीर से कोहिमा तक चार हजार किलोमीटर से भी अधिक की पदयात्रा की थी। उनका कहना था कि “वहां झरने सूख गए हैं, पहाड़ उखड़ गए हैं और मध्य हिमालय की तलहटियों तक रेगिस्तान फैलता जा रहा है।” अनंनतकाल से कविगण जिसके गुणगान में ग्रंथों की रचना करते रहे हैं, देश की उसी सुजला, सुफला, शस्य-श्यामला धरती में अपनी अमृत संतानों का पेट भरने की क्षमता नहीं रही है। कभी सोने की चिड़ियां कहा जाने वाला यह देश आज विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष तथा धनाढ्य राष्ट्रों का मुंह ताकने को विवश है।

मुंबई में सात वर्ष तक एक अध्ययन चला था। पता चला कि मध्य मुंबई का समूचा इलाका सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और बेंजोपाइरीन गैसों से भरा है। दिल्ली, कानपुर, कोलकाता, अहमदाबाद की कहानी भी इससे भिन्न नहीं है। उस पर इन महानगरों में बेतहाशा भागते हुए मोटरवाहनों की चिल्ल-पौं और उनसे निकलते हुए धुएं के रूप में जहरीली गैसों का रिसाव। भोपाल के बाद देश में कहीं-न-कहीं गैस रिसी है। देश के पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों का विशद विविध भंडार तथा अनंतकाल से संरक्षित अनुवंशकों का क्षय हो चला है और भावी पीढ़ियों को शायद उनकी अनेक जाति-प्रजातियों का विवरण डायनासोर की तरह किताबों में ही मिलेगा। आज हमारे देश की स्थिति बहुत कुछ ऐसी हो गई है, जैसी औद्योगिक क्रांति के समय सोलहवीं व सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप की थी। इस पर दुगुनी, तिगुनी और चौगुनी होती हुई आबादी। अकाल, भुखमरी और रोग तो आएंगे ही।

समाज और वैज्ञानिकों का एक वर्ग यह मानता है कि यह बढ़ती हुई आबादी ही समस्या की जड़ है और सच तो यह है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण ही देश के संसाधनों की क्षमताएं चुक गई हैं। किंतु दूसरा वर्ग कहता है कि देश की धरती के संसाधनों की तलाश के लिए कभी कोई ठीक अध्ययन नहीं हुआ और हम पश्चिम का अंधानुकरण करते विकास के उस मार्ग पर निकल पड़े हैं, जिससे देश के स्थायी संपोषणीय संसाधनों की क्षमताएं चुकने लगी हैं। विकास के नाम पर पर्यावरण के रूप में हम भारी कीमत चुकाते चले जा रहे हैं।

कुछ वर्ष पूर्व मास्को में हुए एक साम्यवादी सम्मेलन में तात्कालीन रूस के एक शीर्षस्थ पर्यावरणशास्त्री फ्योडोर मार्गव ने कहा था, ‘साथी रसायनशास्त्रियों, आज के विस्तार को कुछ क्षणों के लिए रोक दें... विश्राम करें और हमें सामान्य वायु में सांस लेने का मौका दें।’

निश्चय ही विकास की अपनी पूरी संकल्पना में हम कहीं भटक जरूर गए है। भाखड़ा बांध के लिए स्वयं नेहरूजी ने कहा था कि यह बांध परियोजना देश की प्रगति का मंदिर है। किंतु अब वे वादे झुठे पड़ते जा रहे हैं, जो इन मंदिरों की नींव के पत्थर रखते समय किए गए थे। ‘हरित क्रांति’ की प्रारंभिक चकाचौंध के बाद वैज्ञानिक अब पशोपेश में हैं कि सघन पैदावार की वजह से जमीन के पौष्टिक तत्व-जिंक, लोहा, तांबा, मैगनीज, बोरोन और मोजिब्डीनम गायब होते जा रहे हैं।

परमाणु ऊर्जा क्या देगी, यह अभी तक पक्का नहीं हो पाया, पर उसके खतरनाक कचरे को कैसे ठिकाने लगाया जाए हम यह नहीं समझ पा रहे हैं। देश जब ईंधन और चारे के भयानक दौर से गुजर रहा है, तब सबसे ज्यादा यूकेलिप्टस के पेड़ लगाने के पीछे क्या तर्क है, जो न चारा देता है और न जलाने के काम आता है, तिस पर जमीन का पानी और सोख लेता है। सन् 1979-80 में उत्तर प्रदेश में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम शुरू हुआ था। राज्य सरकार ने पाया कि इससे बड़े और संपन्न किसान ही पूरा लाभ उठा रहे हैं।

दरअसल, विकास-योजनाओं में पूंजी-संवर्धन की रणनीति, विशाल बांधों का निर्माण, बिजली उत्पादन, खनन, भारी उद्योग, नहरों, सड़कों, रेलों के विस्तार की नीति की कीमत हम पर्यावरण के विनाश से ही चुकाते रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि देश में पर्यावरण संबंधी नियम-कानूनों की कमी रही हो। समुद्रतटों की सुरक्षा के लिए 1853 में ‘शोर एक्ट’ (मुंबई-कोलावा) बना था वायु प्रदूषण के निवारण और नियंत्रण के लिए बंगाल-स्मोक न्यूसेंस एक्ट 1905 में लागू हुआ था। बाद में 1912 में मुंबई और 1958 में कानपुर के लिए भी इसी तरह के कानून बने। 1939 में राज्य सरकारों को मोटर-वाहनों से प्रदूषण की रोकथाम के बारे में नियम बनाने का अधिकार दिया गया, जबकि वन कानून 1927 में लागू किया गया था। वन्य जीवन (संरक्षण) कानून 1972, जल प्रदूषण (निवारण और नियंत्रण) कानून 1974, वन संरक्षण कानून 1980 और वायु प्रदूषण (निवारण और नियंत्रण) कानून 1981 के पहले जितने भी कानून थे, शायद इतने प्रभावी नहीं थे। पर्यावरण के प्रति सजगता का युग देश में इन्हीं कानूनों के बनने के बाद कहा जा सकता है।

इस तरह आज भी देश में 200 से अधिक ऐसे नियम-कानून हैं, जिन्हें पर्यावरण की रक्षा के लिए काम में लाया जा सकता है। इन सभी में समुचित दंड-विधान है, किंतु जैसा कि होता है, इनका अनुपालन, पालन से अधिक उल्लंघन में ही हुआ है।

पिछले दो दशकों में सरकारी-स्तर पर होने वाले इन प्रयासों के अतिरिक्त प्राकृतिक संपदा तथा पर्यावरण की साज-संवार के लिए अनेक शक्तिशाली आंदोलन भी उभरे हैं और अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं ने सामने आकर इस क्षेत्र में अपना बहुमूल्य योगदान भी दिया है। अब तो राजनीतिक दल भी अपने चुनाव-घोषणा पत्रों में पर्यावरण को विशेष मुद्दा बनाकर पेश करने लगे हैं।

किंतु विसंगति यह रही कि देश के संविधान में 1976 तक पर्यावरण की सुरक्षा के बारे में कोई प्रावधान नहीं था और सरकार संविधान के तहत कुछ अधिक शक्तियां और अधिकार ग्रहण करना चाहती थी। अतः 1976 में राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद-48अ जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि ‘राज्य देश के प्राकृतिक पर्यावरण और वनों व वन्य-जीवन की सुरक्षा और विकास के उपाय करेगा’ तथा संविधान के मौलिक कर्तव्यों के अध्याय में अनुच्छेद 51-अ(जी) में कहा गया, ‘वनों, झीलों, नदियों और वन्य-जीवन की सुरक्षा व विकास और सभी जीवों के प्रति सहानुभूति प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा।’ तद्नुसार वनों और वन्य-जीवन संबंधी प्रश्न राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में शामिल कर दिए गए।

1972 में स्टॉकहोम में हुए मानवीय पर्यावरण सम्मेलन के बाद भारत में एक उच्च-स्तरीय समिति ‘राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजन समिति’ का गठन हुआ था, पर्यावरण विभाग बन जाने के बाद इसे राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजन समिति कहा जाने लगा। बाद में फरवरी, 1980 में योजना आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष श्री नारायण दत्त तिवारी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया, जिसकी सिफारिशों के आधार पर केंद्र में नवंबर, 1980 में एक अलग पर्यावरण विभाग अस्तित्व में आया, जिसमें वन विभाग को मिलाकर 1985 में एक सम्मिलित वन तथा पर्यावरण मंत्रालय बना दिया गया।

विभाग के प्रमुख कार्य हैं-पर्यावरण रक्षा एवं विकास तथा विकास योजनाओं के आयोजन में पर्यावरण की चिंता रखना, वनस्पतिशास्त्रीय और प्राणिशास्त्रीय सर्वेक्षण तथा पर्यावरण संदेश का प्रचार-प्रसार। विभाग की मदद और कार्य-निर्धारण के लिए विभाग के अधीन कम्प्यूटर सूचना केंद्र, राष्ट्रीय पर्यावरण निगरानी संगठन, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा कुछ अनुसंधान व प्रशिक्षण केंद्र हैं। मानव और बायोस्फीयर संबंधी कार्यक्रम यूनेस्को द्वारा संचालित एक अंतरराष्ट्रीय योजना के तहत चलता आ रहा है।

इस दिशा में राज्य भी पीछे नहीं है। प्रत्येक राज्य में एक अलग पर्यावरण विभाग है या फिर वहां विज्ञान व तकनीकी विभाग में पर्यावरण केंद्र स्थापित किए गए हैं। पर्यावरण से जुड़े विषयों को लेकर देश में समन्वित आर्थिक विकास की संकल्पना चौथी पंचवर्षिय योजना (1969-74) में हुई थी और तब से पर्यावरण विकास सभी परियोजनाओं का अंग बनता आ रहा है।

दूनघाटी तथा गंगा-यमुना क्षेत्र बोर्ड, साइलेंट वैली संयुक्त समिति, टिहरी बांध परियोजना कार्यदल आदि जैसी कुछ विशेष परियोजनाओं को लेकर अभी तक पर्यावरण विभाग द्वारा अनेक विशेष दलों और कार्यदलों की स्थापना की जा चुकी है। इसके अतिरिक्त गंगा-यमुना सफाई अभियान जैसे प्रदूषण-निवारण कार्यक्रम चलाए गए हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण आयोजन समिति तथा पर्यावरण विभाग के संयुक्त प्रयास से विभिन्न प्रकार की और विविध आकार की परियोजनाओं में पर्यावरण मूल्यांकन का प्रश्न जोड़ा गया है। जल विद्युत और सिंचाई परियोजनाओं द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव की जांच के लिए पर्यावरण समिति तथा योजना आयोग ने एक प्रश्नावली भी तैयार की थी।

वन संवर्धन अधिनियम 1980 में पारित हो जाने से, उन सभी योजनाओं पर, जिनके कारण वनभूमि जलमग्न होती हो, वन्य पशु अथवा पक्षी अभ्यारण्यों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो या उसका उपयोग विस्थापितों के पुनर्वास के लिए किया जाना हो तो, उसके लिए कृषि मंत्रालय एवं सहकारिता विभाग की सलाहकार समिति तथा वन पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य है। सभी मंत्रालयों एवं विभागों के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वे अपनी परियोजनाओं के कार्यान्वयन के पूर्व पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त करें।

1988 में सरकार द्वारा नीति की घोषणा की गई थी। इस तरह पर्यावरण विभाग द्वारा पर्यावरण सुरक्षा और प्रदूषण की रोकथाम के लिए किए गए कार्यों की एक लंबी सूची है। आजादी के बाद से देश के सामने अब तक दो ही प्रश्न रहे थे-समानता और विकास। शायद पहली बार पर्यावरण के क्षेत्र में हो रही घटनाओं को, तत्संबंधी रीति-नीति और विकास की संकल्पनाओं के साथ देखने की कोशिश भी हुई है, अर्थात् देश में विकास की अवधारणा में सतत् संपोषणीय विकास का प्रश्न सबसे बड़ी चुनौती बनकर आ खड़ा हुआ है।

यदि केंद्र सरकार की उन समस्त एजेंसियों संस्थानों व समितियों तथा राज्य सरकारों के कार्य का मूल्यांकन किया जाए तो बड़ा ही निराशाजनक परिणाम सामने आता है। योजनाएं बनकर कार्यान्वित पहले हो जाती हैं और उनका मूल्यांकन और समीक्षा बाद में होती है। हालांकि जनता और कुछ आंदोलनों के दबाव में आकर सरकार कुछ परियोजनाओं पर पुनर्विचार करने और कुछ आंदोलनों के दबाव में आकर सरकार कुछ परियोजनाओं पर पुनर्विचार करने और कुछ की मंजुरी वापस लेने के लिए राजी हो जाती है। कुछ वर्ष पूर्व केंद्र सरकार द्वारा सारावती (कर्नाटक) आदि परियोजनाओं पर काम रोकने के आदेश जारी किए गए हैं। वास्तव में पर्यावरण इतना विशाल और बहुआयामी है कि पर्यावरण विशेषज्ञों की मौजूदा संस्थाएं या संस्थान तथा सरकारी व गैर-सरकारी स्तरों पर होने वाले प्रयास ही इसके लिए पर्याप्त नहीं है। यहीं प्रारंभ होती है, स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका।

पिछले दो दशकों में देश में पर्यावरण की चिंता को लेकर अनेक स्वैच्छिक व स्वयंसेवी संस्थाएं खड़ी हुई हैं और उनके माध्यम से पर्यावरणीय जन-जागृति के लिए अनेक आंदोलन उभरे हैं। हमारे यहां पर्यावरण से जुड़े प्रश्नों को लेकर जितने स्वैच्छिक संगठन काम कर रहे हैं, उतने अन्य देशों में नहीं हैं। ‘चिपको’ का नाम लेते ही बरबस विश्नोई समाज के उन 300 व्यक्तियों की याद ताजा हो जाती , जिन्होंने 50 वर्ष पूर्व अपने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए पेड़ों से लिपटकर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया, पर वे पेड़ों से हटे नहीं। आज सुंदर लाल बहुगुणा जैसे पुरोधा नेता के मार्गदर्शन में ‘चिपको’, ‘क्या है जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार’ को अपना उद्धोष वाक्य बनाकर जंगलों के संरक्षण के लिए कृतसंकल्प हैं।

‘मार्ग’, टिहरी बांध विरोधी समिति, नर्मदा बचाओ आंदोलन तथा भारतीय सांस्कृतिक निधि (इन्टैक) जैसी अनेक संस्थाएं पर्यावरण रक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं और उन्हें राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग एवं समर्थन प्राप्त है। कहीं-कहीं ये आंदोलन हिंसक भी हो उठे हैं। कुछ समय पूर्व कोलकाता तालाब के मछुआरों ने अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हथियार उठा लिए थे। लोकहित में इन संस्थाओं द्वारा पर्यावरण से जुड़े अनेक प्रश्नों को लेकर न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे भी खटखटाए गए हैं।

किंतु इच्छित सफलता प्राप्त न होने के कारण गिनाए जाएं तो असंख्य होंगे। निहित स्वार्थ, राजनीति, अवैध धनलोलुपता और भ्रष्टाचार ने हमें यहां भी नहीं छोड़ा। उड़ीसा के मुख्यमंत्री चिल्का झील परियोजना इसलिए लागू करने के लिए कटिबद्ध थे कि वह राज्य की समृद्धि के लिए इसे बाजार अर्थव्यवस्था से जोड़ना चाहते थे। उत्तर प्रदेश सरकार टिहरी बांध परियोजना राज्य में अधिक बिजली की खपत पूरा करने के लिए तत्काल लागू करना चाहती थी, हालांकि इस परियोजना के विरुद्ध ब्रून जैसे विश्वविख्यात भूकंपशास्त्री ने, जिनसे देश के शीर्षस्थ भू-वैज्ञानिक डॉ. विनोद गौड़ भी सहमत रहे हैं, अपनी राय दी कि जहां टिहरी बांध बनेगा वहां एक विशाल भ्रंश है और निकट भविष्य में वहां 8.7 गुरुत्व का भूकंप आने की संभावना है।

यदि यह भूकंप आ गया तो यह बांध अभूतपूर्व विनाश और तबाही का कारण बनेगा। इसी कारण प्रधानमंत्री द्वारा इस पर पुनर्विचार का आश्वासन भी दिया गया था। इसी तरह विश्व बैंक, जिसकी सहायता से नर्मदा परियोजना बन रही है, की स्वतंत्र समीक्षा समिति की विपरीत राय के बावजूद अनेक मुद्दों पर समुचित कार्यवाही किए बिना मध्य प्रदेश व गुजरात के मुख्यमंत्री इस परियोजना का निर्माण करने पर आमादा हैं। ये परियोजनाएं देश के हित में ही क्यों न हों, लेकिन उनके लाभ-लागत का लेखा-जोखा और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव का आकलन तो होना ही चाहिए।

दरअसल हम इस क्षेत्र में जागे तो हैं, पर बहुत देर से जागे हैं। वास्तविकता तो यह है कि देश में अभी तक पर्यावरण की कोई सुनिश्चित नीति नहीं है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिए बनाई जाने वाली नीति और ‘एक राष्ट्रीय पर्यावरण नीति’ में बहुत अंतर है। वन महोत्सव, वृक्षारोपण, हरित व श्वेत क्रांति, प्राणी उद्यानों व अभ्यारण्यों की स्थापना, बांध परियोजना जैसी परियोजनाएं लागू करके ही हम पर्यावरण साज-संवार की इतिश्री मान बैठे हैं।

यह जंगलों, नदियों, पहाड़ों, झीलों व जैव-वनस्पतियों को बचाने का सवाल नहीं है, बल्कि यह समझने और समझाने का सवाल है कि इनके स्थाई और समतामूलक उपयोग का तरीका क्या है, समस्त विकास के साथ इस प्राकृतिक दाय के संपोषणीय विकास का तरीका क्या है? पृथ्वी के इस समस्त पारिस्थितिकी-तंत्र की रक्षा और संपोषण का तरीका क्या है? जहां तक भारत का सवाल है, इस सवाल को हल करने के लिए हमें दो समस्याओं से जूझना होगा, एक तो पर्यावरण बनाम विकास की समस्या है और दूसरी गरीबी तथा पिछड़ेपन की समस्या, जिनका सूत्रपात भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की औद्योगिक संस्कृति के साथ हुआ। ब्रिटिश शासकों ने वनों को व्यापार और कमाई का साधन बनाया था। गांववालों से उनके वन अधिकार छीन लिए और फिर शुरू हुआ उनका व्यापारिक दोहन। फलतः गांवों की अर्थव्यवस्था चरमरा गई।

रियो सम्मेलन के अवसर पर जून, 1992 में सरकार द्वारा राष्ट्रीय संरक्षण रणनीति एवं पर्यावरण विकास पर एक घोषणा-पत्र तथा कार्य-योजना जारी की गई थी, जिसका मूल स्वर था, ‘राष्ट्र के अस्तित्व व कल्याण के लिए सतत् संपोषणीय विकास।’ इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए देश के पारंपरिक सांस्कृतिक दाय का आधार मजबूत करना होगा और एक ऐसे समाज का निर्माण करना होगा, जिसमें संरक्षण की चिंता और चेतना हो और जो प्रकृति के साथ संपूर्ण सामंजस्य की स्थिति में रहकर विज्ञान के क्षेत्र में अर्जित श्रेष्ठ ज्ञान का लाभ उठाते हुए नैसर्गिक संसाधनों के विनाश के बिना उनका कुशलता से उपयोग करने में समर्थ हो।

कुछ वर्ष पूर्व महाराष्ट्र के एक गांव ‘राले गांव सिद्धि’ में एक सफल प्रयोग हुआ था। देश के गांव-गांव में यदि यही प्रयोग हों तो पर्यावरण का कुछ कल्याण अवश्य होगा। देश के पर्यावरण शासन-तंत्र को मजबूत बनाने के अलावा विदेशों का मुंह ताके बिना यह लड़ाई हमें अब खुद आंगन से, देहरी से और सड़क से संसद तक लड़नी होगी।

हिंदी सलाहकार,
भारतीय सांस्कृतिक निधि (इन्टैक) 71, लोदी एस्टेट, नई
दिल्ली-110003

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