सिंधु और गंगा का मैदान


भारत में लोगों के निवास के हिसाब से गंगा का मैदानी भाग सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। एक विस्तृत और घिरे मैदानी इलाके में असंख्य छोटी-बड़ी नदियाँ हैं। पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाला इसका पश्चिमी हिस्सा थोड़ा ज्यादा ऊँचा है और मैदानी इलाके के पूर्वी भाग से 150 मीटर ऊँचा है। यह पूरा इलाका हिमालय से निकली नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी से बना है।

खेती के हिसाब से यहाँ का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है पंजाब का समतल भाग। यहाँ की जलोढ़ मिट्टी भी दो तरह की है- बांगर और खादर। हरियाणा के मैदानी हिस्से, जिसमें दिल्ली भी शामिल है, में आमतौर पर मिट्टी बलुआई और चूनेदार है।

गंगा के मैदानी हिस्से का ऊपरी भाग काफी विशाल है और यहाँ के जीवन में नदियों की भूमिका और असर बहुत ज्यादा है। आमतौर पर मिट्टी जलोढ़ है, पर ऊँचाई और नीचे वाले इलाकों की मिट्टी में फर्क है। मध्य मैदानी भाग ऊपरी और निचले हिस्से के बीच का है। जमीन की बनावट की दृष्टि से गंगा का निचला मैदान बिहार और पश्चिम बंगाल तक जाता है। यहाँ अधिक वर्षा होती है। इसे छह उप-क्षेत्रों में बाँटा जाता है: उत्तर बिहार का मैदान, दक्षिण बिहार का मैदान, बारिंद पट्टी, बंधा मुहाना, नदियों का मुहाना और राढ़ का मैदान।1

1. पंजाब


पंजाब फारसी के दो शब्दों पंज अर्थात पाँच और आब अर्थात पानी को मिलाकर बना है। यह पाँच नदियों से बना प्रदेश है। सिंधु की पाँच सहायक नदियों में से तीन- सतलज, रावी और व्यास ही आज के पंजाब से होकर बहती हैं। प्रदेश की उत्तरी सीमा पर स्थित शिवालिक पहाड़ियों की शृंखला कहीं-कहीं नीचे तक आई है, वरना अधिकांश इलाका मैदानी ही है। यहाँ पारम्परिक रूप से कुओं और नहरों से सिंचाई करके खेती होती थी।2

रावी जैसे ही पहाड़ों से नीचे उतरती है वहाँ से ही उसके और व्यास नदी के बीच के इलाके की सिंचाई करने वाली नहरें निकाल ली गई हैं। ऐसी ही एक बादशाही नहर का निर्माण 1633 में मुगल सम्राट शाहजहाँ के आदेश से नामी वास्तुकार और इंजीनियर अली मर्दन खां ने करवाया था। उन्होंने ही हासली नहर बनवाई थी जिसकी मरम्मत बाद में सिखों ने की और अमृतसर के पवित्र सरोवर में जल लाने के लिये इससे एक छोटी नहर निकाली। 1846 में हासली नहर को सुधारने की कोशिश भी की गई, पर आखिर में इस नहर को भसा देने और बड़ी दोआब नहर बनाने का फैसला किया गया। इस इलाके में कुओं से पानी निकालने के लिये रहट का काफी प्रयोग होता था।3

बूंदों की संस्कृतिहोशियारपुर-चंडीगढ़ वाले अपेक्षाकृत ऊँचे इलाके में शाह नहर से सिंचाई होती थी, जो व्यास नदी से निकाली गई थी। इसका निर्माण मुगलकाल के आखिरी दिनों में हुआ था। लेकिन 1846 में अनेक स्थानीय जमींदारों ने आपस में मिलकर इसे दोबारा खोला। व्यास से कुछ अन्य लोगों और गाँवों ने भी अपनी-अपनी जरूरतों के लिये नहरें निकाली थीं।4

अंग्रेजी राज के दस्तावेजों से पता चलता है कि व्यास-सतलज दोआब में, जो मौजूदा कपूरथला और जालंधर जिलों का इलाका है, पूरी सिंचाई कुओं से ही होती थी। इस इलाके में कोई भी नहर नहीं थी और विशेष मौसम में काम आने वाले जलमार्ग या बाँधों का चलन भी नहीं था। एक कुएँ से आमतौर पर दो-तिहाई एकड़ जमीन की सिंचाई होती थी। सूखे वाले वर्षों में सैकड़ों कुएँ ही रक्षक रहते थे। कुआँ खोदना बहुत हल्का-फुल्का काम नहीं था। अगर किसान हिन्दू हुआ तो वह पंडित जी से मुहूर्त निकलवाता था और कुआँ खोदने की जगह चुनवाता था। इसी प्रकार मुस्लिम काश्तकार काजी के पास जाता था। शुभ मुहूर्त पर किसान ‘पार’ खींचता था कि कहाँ कुआँ खोदना है। इसे टप्पा लगाना भी कहते थे। इसके बाद मिठाइयाँ बँटती थीं, जश्न मनाता था।5

कपूरथला जिले में बाढ़ के पानी के साथ ही कुओं और झालराओं के पानी से भी सिंचाई होती थी। झालरा कम गहराई वाले चौड़े कुएँ जैसे होते हैं और नदियों-सोतों के किनारे खोदे जाते हैं और इनसे रहटों से पानी निकाला जाता है। पंजाब के मालवा क्षेत्र-लुधियाना, फिरोजपुर, फरीदकोट और पटिलाया- में भी मुख्यतः कुओं से सिंचाई होती थी। 1883 में सरहिंद नहर बनी। लुधियाना और जगरांव तहसील की सिंचाई इस नहर की अबोहर शाखा से होने लगी। लुधियाना के कुछ दक्षिणी हिस्सों को बठिंडा शाखा नहर से भी पानी मिलता था। सरहिंद नहर की शाखाएँ-उपशाखाएँ प्रायः हर गाँव को पानी पहुँचा देती थीं। पटियाला में भी एक आप्लावी नहर थी। इसका निर्माण महाराज करन सिंह के समय हुआ था और 1915 में इसमें सुधार किया गया था। यह घग्गर नदी के दाहिने किनारे से निकलती थी और पुराने शहर बनूर के 8-10 किलोमीटर ऊपर से निकाली थी।5,6

तालाब से भी सिंचाई होती थी और इससे मोट से पानी निकाला जाता था, जिसे दो लोग चलाते थे। पर जब तालाब भरा हो तभी इस तरह से पानी निकल पाता था। यह पानी पहले छोटे कुएँ या हौज (चुही) में जाता था, फिर वहाँ से रस्सी बँधे डाल (टोकरी) से उठाकर खेतों तक पहुँचाया जाता था।

2. हरियाणा


उत्तर में शिवालिक और दक्षिण में अरावली पर्वत शृंखला की कुछेक पहाड़ियों को छोड़कर हरियाणा की जमीन समतल है। इस मैदानी क्षेत्र से होकर घग्गर, मरकंडा, सरस्वती और यमुना नदियाँ बहती हैं और उनका पानी उमड़कर जिन इलाकों में जाता है उन्हें खादर या बेट कहा जाता है। हरियाणा में बरसात कम होती है और यहाँ की जलवायु अर्द्धशुष्क है।7

रोहतक जिले में कुओं के अलावा सिंचाई का कोई और साधन नहीं था। सन 1643 में अली मर्दन खां ने रोहतक नहर का निर्माण शुरू कराया था। इसमें हिसार फीरोजा के शिकारगाह में जाने वाले पानी को ले जाने वाली पुरानी नहर को दिल्ली के पास से मोड़कर पानी लाने की योजना थी। लेकिन इंजीनियर का अनुमान गलत निकला और गोहाना से आगे पानी नहीं चढ़ सका। वहाँ से इसे पूरब की तरफ मोड़ना था। दिल्ली नहर के लिये एक नया मार्ग बना और रोहतक को एक शाखा नहर से कम पानी दिया जाने लगा। 120 वर्षों तक काम करने के बाद रोहतक नहर, जिसे मुगलों ने बढ़ाकर गोहाना तक पहुँचा दिया था, 1760 के आसपास मृत हो गई। 1821 में इसे पुनर्जीवित किया गया और चार साल बाद इसे पूरा चाक-चौबस्त कर दिया गया। 1831 में इसे रोहतक तक बढ़ा दिया गया। अब इसका नाम नहर-ए-बहिश्त था और इसकी ख्याति किसी और वजह से हो गई थी। इसकी ढलान का अन्दाजा सही नहीं लगाया गया था और जल निकासी रुक गई। 1870 के दशक के आखिरी दिनों में पश्चिमी यमुना नहर को फिर से ठीक किया गया। कहा जाता है कि बादशाह शाहजहाँ पश्चिमी यमुना नहर को दिल्ली तक ले आये थे। नादिर शाह के हमले के समय यह नहर पूरी तरह काम कर रही थी और शायद इस हमले के बाद ही इसकी स्थिति भी खराब हो गई। सन 1826-27 में इसे फिर से चालू किया गया। इसके पानी से सिंचाई करने पर लगान काफी बढ़ जाएगा, इस डर से इसके पानी का उपयोग कम ही किया जाता था।8

तालाबों से, जिन्हें आबी कहा जाता था, नारदक इलाके में कुछ सिंचाई होती थी। वहाँ बरसाती पानी को जमा करने वाले काफी तालाब और गड्ढे थे। पानी को कई तरीकों से बाहर निकालकर आसपास के खेतों को सींचा जाता था। तालाबों का पानी मुख्यतः कुओं के पानी की कमी होने पर या उसकी जगह पर इस्तेमाल किया जाता था।9

घग्गर और उसकी सहायक नदियों में आबी सिंचाई की एक बिल्कुल अलग किस्म की व्यवस्था तब चलती थी। इसकी नालियाँ और जलमार्ग जमीन की ऊँचाई से नीचे स्तर के ही होते थे। नदी के किनारे कुएँ खोदे जाते थे, जो कच्चे और पक्के, दोनों तरह के किनारे वाले होते थे। इनकी गहराई नदी की पेटी से ज्यादा गहरी होती थी। अगर कुएँ में ईंट जोड़ी गई होती थीं तो नदी की ओर वाला मुँह खुला रखा जाता था और इसमें कुछ नीचे एक झरोखा बना दिया जाता था। नदी से एक छोटी नाली निकालकर इसी झरोखे तक लाई जाती थी। सर्दियों में कई बार नदी में एक कच्चा छोटा बाँध डाल दिया जाता था, जिससे पानी का स्तर ऊँचा हो सके। इन कुओं से पानी आमतौर पर रस्सी बँधी बाल्टी से निकाला जाता था। आबी सिंचाई में धीरे-धीरे कमी आती गई और जब घग्गर का जलमार्ग और नीचे चला गया तो यह सिंचाई कर पाना काफी मुश्किल हो गया।9

संगरूर तहसील का एक हिस्सा घग्गर और चोआ नदियों की बाढ़ से भर जाता था और इस पानी का उपयोग सिंचाई के लिये किया जाता था। अषाढ़ और कार्तिक में जब बाढ़ का पानी जमीन के अन्दर जा चुका होता था और खेत की ऊपरी सतह सूख गई होती थी तब किसान खेतों को जोतकर गेहूँ और चना बोने के लिये तैयार करते थे। इनके लिये अब आगे बहुत बरसात की जरूरत नहीं रह जाती थी। इन्हीं खेतों में जब बाढ़ का पानी 30 सेंटीमीटर से कम होता था। तब उनमें धान रोप लिये जाते थे।

सिरसा तहसील में घग्गर पर बने ओटू बाँध के आगे के हिस्से में नदी की पेटी से सिंचाई का एक अद्भुत तरीका इस्तेमाल किया जाता था। यहाँ अतिरिक्त पानी को बाहर रखना मुश्किल था। इसके लिये नदी की पेटी को ही कच्चे मजबूत बाँधों से अलग-अलग तालाबों जैसे हिस्से में बाँट लिया जाता था। ऐसा बाढ़ के पानी को बाहर रखने के लिये किया जाता था। तटबन्ध के अन्दर की फसलों को जब भी पानी की जरूरत होती थी, बाँध में एक छोटा छेद करते ही काफी पानी अन्दर आ जाता था। अक्सर बाढ़ वाले समय पूरा-का-पूरा गाँव दिन-रात लगाकर तटबन्धों को मजबूत करने में जुटा रहता था, क्योंकि उनमें दरार आने का मतलब पूरी फसल का बर्बाद हो जाना था। बाँध से घिरे इन क्षेत्रों को कुंड कहा जाता था। कुंडों को बनाने और बचाए रखने पर काफी खर्च आता था और धान की खेती के खर्च का काफी बड़ा भाग यही होता था। 1897 में ओटू बाँध बनाने के बाद बाढ़ का खतरा कम हो गया और ऐसे कुंड बनने भी कम हो गए।

दिल्ली के पास के इलाकों में आगरा नहर से सिंचाई होती थी। यह नहर 1875 में बनी थी और इसकी पहुँच पूरब के बांगर मैदानों तक ही थी। इसके पहले हिमालय से निकलने वाले स्रोतों और नदियों पर बाँध बनाकर सिंचाई का काफी काम कर लिया जाता था। इन बाँधों से काफी बड़ा इलाका जलाप्लावित हो जाता था। ब्रिटिश राज में ये सारे काम सिंचाई विभाग के अधीन कर दिये गए। ऐसे बाँधों से कोई ज्यादा लगान तो मिलता नहीं था, इसलिये सरकार की प्राथमिकता में वे पीछे हो गए और धीरे-धीरे यह व्यवस्था विदा ही हो गई। लेकिन 1819 में इन्हें डिस्ट्रिक्ट फंड कमेटी (जिसका नाम बाद में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हो गया) के हवाले कर दिया गया और इनके विकास और प्रबन्ध की नई नीति बनाई गई। जिला बोर्ड के प्रबन्ध वाले बाँधों के अलावा कुछ अन्य बाँध भी थे, जिनका निर्माण और प्रबन्ध ग्राम कमेटियों के पास था। मानसून के समय सोहना शहर के ऊपर तक बाँध के सहारे एक बड़ी झील बन जाती थी, जिसमें पहाड़ी सोतों का पानी जमा हो जाता था। सोहना गंधक वाले गरम झरनों के लिये नामी था।

3. दिल्ली


पानी के पम्पों, बिजली और पानी साफ करने वाले रसायन क्लोरीन के भी बनने के काफी पहले से दिल्ली एक शहर रहा है। 11वीं सदी के बाद से तो यहाँ एक न एक शासक वंशों की राजधानी रहने के साथ ही यह बहुत समृद्ध और आबाद शहर रहा है। अन्य बड़े शहरों के विपरीत इसकी अवस्थिति भी बार-बार बदलती रही है। आज शहर यमुना के किनारे बसा है पर पहले ऐसा नहीं था।

तोमर वंश के अनंगपाल ने सन 1020 में जिस जगह दिल्ली बसाई थी वह आज के सूरजकुंड के पास है और यह अब हरियाणा की सीमा में आता है। इस शहर का नाम सूर्य मंदिर और उससे लगे पत्थर की सीढ़ियों वाले अर्द्ध चंद्राकार तालाब के चलते सूरजकुंड पड़ा। यह तालाब अरावली पर्वत पर पड़ने वाली बारिश के पानी को बटोरने के लिये बना था। फीरोजशाह तुगलक ने इसकी सीढ़ियों और गलियारे की मरम्मत कराई और पत्थर जड़वा दिये। सूरजकुंड के पास ही अनंगपुर बाँध है, जिसमें स्थानीय पत्थरों का उपयोग हुआ है। तंग दर्रे में पत्थर भरकर बाँध बनाया गया था। इसके बाद कई दिल्लियाँ बसी हैं और सबकी सब अरावली पहाड़ी शृंखला की तराई में ही बसीं। इन सभी नगरों में जल संचय की विस्तृत व्यवस्था थी, जिससे नगरवासियों को अपनी रोजाना की जरूरतें पूरी करने के लिये कहीं जाना न पड़े।

बूंदों की संस्कृतिकिला राय पिठौरा : दक्षिणी दिल्ली में सल्तनत वाले दौर के जल प्रबन्धों के अवशेष भरे पड़े हैं। किला राय पिठौरा (मेहरौली सन 1052 सल्तनत काल की पहली राजधानी थी और यह यमुना से 18 किमी दूरी पर थी। इस पहाड़ी इलाके के भूगोल और इसकी ऊँचाई के चलते यहाँ यमुना से नहर के माध्यम से पानी लाने की कोई गुंजाइश नहीं थी। सिर्फ बरसात का पानी सहेज लेने का विकल्प ही था। इसीलिये सुल्तान अल्तुतमिश ने हौज-ए-सुल्तानी या हौज-ए-अल्तुतमिश नामक विशाल सरोवर बनवाया। बाद में अलाउद्दीन खिल्जी और फीरोजशाह तुगलक ने इस तालाब की मरम्मत करवाई। फीरोजशाह तुगलक के शासनकाल में शरारती लोगों ने तालाब को पानी पहुँचाने वाले जलमार्गों को बन्द कर दिया था। सुल्तान ने इन नालियों को साफ करने और हौज को पानी से भरने का आदेश दिया। 200 मीटर लम्बे और 125 मीटर चौड़े इस तालाब का पानी आज भी काकी साहब की दरगाह पर जाने वाले लोग इस्तेमाल करते हैं। इस तालाब में अब काफी गाद मिट्टी भर गई है और इसके जलग्रहण क्षेत्र पर भवन निर्माताओं और दिल्ली विकास प्राधिकरण ने काफी हद तक कब्जा जमा लिया है।

बूंदों की संस्कृतितालाबों के साथ ही सुल्तानों और इनके अमीर-उनबों ने बावड़ियाँ (सीढ़ीदार कुएँ) बनवाईं और उनकी देखरेख की। ये बावड़ियाँ निजी जागीर नहीं थीं और इनसे सभी धर्मों और जातियों के लोग पानी ले सकते थे। गंधक की बावड़ी सुल्तान अल्तुतमिश के समय बनी थी और पानी में गंधक की मात्रा होने के चलते इसका यह नाम पड़ गया। पत्थरों से बनी इस खूबसूरत बावड़ी का पानी आज भी नहाने-धोने के काम आता है। इसके पास ही राजों की बावड़ी, दरगाह काकी साहब की बावड़ी, महावीर स्थल के पीछे स्थित गुफानुमा बावड़ी जैसी अनेक बावड़ियों के भग्नावशेष मौजूद हैं। इस काल में शहर के अन्य हिस्सों में भी बावड़ियाँ बनीं। इनमें निजामुद्दीन बावड़ी, फीरोजशाह कोटला स्थित बावड़ी और वसंत विहार स्थित मुरादाबाद की पहाड़ की बावड़ी प्रमुख हैं। ये सभी आज तक उपयोग में आ रही हैं। लेकिन उग्रसेन की बावड़ी, पालम बावड़ी और सुल्तानपुर बावड़ी वगैरह सूख चुकी हैं और इनके सिर्फ ढाँचे खड़े हैं।

सिरी : 1296 में बसी दूसरी दिल्ली, सिरी में (सन 1303) अलाउद्दीन खिलजी ने एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया। इस जलाशय का निर्माण भी अरावली पहाड़ियों पर गिरने वाले बरसाती पानी को सहेजने के लिये ही किया गया था। इसका जलग्रहण क्षेत्र 24.29 हेक्टेयर का था। इसकी लम्बाई 600 मीटर और चौड़ाई भी 600 मीटर थी। इसका नाम अलाउद्दीन खिलजी के नाम पर हौज-ए-अलाई रखा गया, जो बाद में बदलकर हौजखास बन गया। जलाशय के बाँध अभी भी दिखते हैं। इसके उत्तरी और पश्चिमी बाँध पर फीरोजशाह तुगलक ने मदरसा बनवा दिया।

तुगलकाबाद : मेहरौली और सिरी की आबादी बढ़ने से गियासुद्दीन तुगलक (सन 1320-25) को कुतुब मीनार से 8 किमी पूरब एक और नगर बसाना पड़ा। यह जगह यमुना से पास थी, पर सुल्तान ने बस्ती के लिये पहाड़ी जमीन को चुना; क्योंकि इससे किलेबंदी में काफी आसानी हो गई। तुगलकाबाद किले में सात तालाबों और तीन विशालकाय बावड़ियों के भग्नावशेष हैं। कुओं की गिनती आसान नहीं है। पहाड़ी से पूरब की तरप बह जाने वाले पानी की जरूरतें पूरी की गईं। मेहरौली के निकट स्थित हौज-ए-शम्सी के अतिरिक्त पानी को नौलावी नाले के माध्यम से तुगलकाबाद तक ले जाया जाता था। इस प्राकृतिक जल के ढलान वाली प्रणाली के एक हिस्से को हाल में बड़ा और पक्का करके गन्दे नाले का रूप दे दिया गया जो अब शहर की नालियों का गन्दा पानी आगरा नहर में पहुँचाता है।

जहांपनाह : मुहम्मद बिन तुगलक को तीन लगभग बराबर और एक-दूसरे से होड़ लेती दिल्लियाँ विरासत में मिलीं और उसने एक चौथी दिल्ली-जहांपनाह भी इससे जोड़ दी- दुनिया का पनाहगार नाम दिया उसने अपनी दिल्ली को। सतपुला (सात पुलों वाला) का निर्माण नगर की सीमाओं के बाहर की जमीन की सिंचाई को व्यवस्थित करने के लिये किया गया। आधुनिक साकेत के पास स्थित सतपुला का निर्माण जहांपनाह की दक्षिणी दीवार के साथ किया गया था। यह 64.96 मीटर ऊँचा बाँध है। इसके सातों पुलों पर फाटक लगे थे, जिससे एक कृत्रिम झील में पानी भेजा जाता था। बाँध के दोनों ओर निगरानी मीनार बने हैं, जिन पर बाँध की देखरेख करने वाले कर्मचारी रहा करते थे। यह दोमंजिला ढाँचा तब मौजूद जल संसाधन तकनीक का नायाब उदाहरण है। दोनों मंजिलों का काम अलग-अलग था। ऊपरी मंजिल के फाटक तभी खुलते थे जब पानी खतरे के निशान से ऊपर पहुँच जाये। निचली मंजिल पानी के भण्डारण की व्यवस्था के लिये थी। सतपुला के निर्माण में वैज्ञानिक सिद्धान्तों को लागू किया गया था। अंत्याधारों पर ही पूरा मेहराब और किनारे का वह पूरा ढाँचा खड़ा था, जो मिट्टी की कटाव और इस पूरी व्यवस्था के सन्तुलन के लिये खड़ा किया गया था।

बूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतिबूंदों की संस्कृतिशाहजहानाबाद : मुगल बादशाह शाहजहाँ ही पहली बार दिल्ली को अरावली पहाड़ियों से उतारकर यमुना के किनारे ले आए। लेकिन उन्होंने अपने किले, अपनी फौज और आम लोगों की जरूरतों के लिये पर्याप्त पानी उपलब्ध कराने की जरूरतों का इंतजाम भी किया। शाहजहानी नहरों और दीघियों वाली उनकी व्यवस्था उस दौर की शायद सर्वश्रेष्ठ जल प्रबंध व्यवस्थाएँ थीं। शाहजहाँ ने लाल किले का निर्माण (1639-48) कराया और जब शाहजहानाबाद शहर बन ही रहा था तब उन्होंने अली मर्दन खां और उनके फारसी कारीगरों से कहा कि यमुना के पानी को शहर और उनके किले के अंदर पहुँचाने का इंतजाम करें। इससे पहले फीरोजशाह तुगलक जैसे शासकों ने खिज्राबाद से सफीदों (करनाल से हिसार) तक नहर बनवा दी थी। अकबर के शासनकाल में दिल्ली के सूबेदार ने इसकी मरम्मत करवाई थी। लेकिन नहर में जल्दी ही मिट्टी भर गई और इससे पानी का प्रवाह रुक गया। अली मर्दन खां ने न सिर्फ यमुना को महल के अंदर तक पहुँचाया, बल्कि इसे सिरमौर पहाड़ियों से निकलने वाली नहर से जोड़ दिया। यह नहर अभी दिल्ली की सीमा पर स्थित नजफगढ़ के पास है। नई नहर, जिसे अली मर्दन नहर कहा जाता था, साहिबी नदी का पानी लाकर पुरानी नहर में गिराती थी।

दिल्ली शहर में प्रवेश करने के पहले अली मर्दन नहर 20 किमी इलाके के बगीचों और अमराइयों को सींचते आती थी। इस नहर पर चद्दरवाला पुल, पुल बंगश और भोलू शाह पुल जैसे अनेक छोटे-छोटे पुल बने हुए थे। नहर भोलू शाह पुल के पास शहर में प्रवेश करती थी और तीन हिस्सों में बँट जाती थी। एक शाखा ओखला तक जाती थी और मौजूदा कुतुब रोड और निजामुद्दीन इलाके को पानी देते हुए आगे बढ़ती थी। इसे सितारे वाली नहर कहा जाता था। दूसरी शाखा चांदनी चौक तक आती थी और मौजूदा नावल्टी सिनेमा घर तक पहुँचकर दो हिस्सों में बँट जाती थी। एक धारा फतेहपुरी होकर मुख्य चाँदनी चौक तक पहुँचती थी। लाल किले के पास पहुँचकर यह दाहिने मुड़कर फैज बाजार होते हुए दिल्ली गेट के आगे जाकर यमुना नदी में गिरती थी। एक उपशाखा पुरानी दिल्ली स्टेशन रोड वाली सीध में चलकर लाल किले के अंदर प्रवेश करती थी। किले के बाहर एक आटा चक्की थी जो जल ऊर्जा से चलती थी। नहर का पानी किले के अंदर बने कई हौजों को भरता था और किले को ठंडा रखता था। इस नहर को चाँदनी चौक में नहरे-फैज और महल के अंदर नहरे-बहिश्त कहा जाता था। फैज का मतलब है भरपूर और बहिश्त का मतलब है स्वर्ग। मुख्य नहर की तीसरी शाखा हजारी बाग और कुदसिया बाग की सिंचाई करते हुए मौजूदा अंतर-राज्य बस टर्मिनल के आगे यमुना में गिरती थी।

मुख्य शहर में यह नहर दीघियों और कुओं में पानी ला देती थी। दीघी अक्सर चौकोर या कभी-कभी गोलाकार होती थी, जिसमें अंदर जाने के लिये सीढ़ियाँ बनी होती थीं। अक्सर इसका आकार 0.38 मीटर लम्बा और उतना ही चौड़ा होता था। हर दीघी के अपने फाटक होते थे। दीघी की सीढ़ियों पर कपड़े धोने या नहाने की मनाही थी पर उनमें से कोई भी आदमी पानी ले सकता था। लोग दीघियों से पानी लाने के लिये कहार या भिश्ती रखा करते थे। अधिकांश घरों या उनके अहातों में कुआँ या छोटी दीघी हुआ करती थी। जब नहर का पानी शहर तक नहीं पहुँच पाता था तब दीघियाँ सूख जाती थीं और सारा जीवन कुओं के भरोसे चलता था। शहर के कुछ नामी कुएँ थे : इंदारा कुआँ (जो वर्तमान जुबली सिनेमाघर के पास था), गली पहाड़वाली के पास स्थित पहाड़ वाला कुआँ, छिप्पीवाड़ा के निकट स्थित चाह रहट (जिससे पानी जामा मस्जिद में जाता था)।

1843 में शाहजहानाबाद में 607 कुएँ थे जिनमें 52 में मीठा पानी आता था। अस्सी फीसदी कुएँ बंद कर दिए गए हैं, क्योंकि इनमें नगर की गंदी नालियों का पानी भी घुसने लगा था। इस बात का कोई लिखित प्रमाण नहीं है कि चाँदनी चौक होकर पानी ले जाने वाली नहर कब बंद हुई। 1740 से 1820 के बीच यह कई बार सूखी थी, पर शासकों ने बार-बार इसे ठीक कराके चालू कराया। अँग्रेजों ने जब दिल्ली पर कब्जा किया तब भी इस नहर की मरम्मत की गई थी और 1820 में भी इसका पानी शहर में जाता था। 1890 में चारदीवारी वाले शहर के अंदर इसका पानी आना बंद हुआ। आज भी इस नहर के अवशेष वर्तमान लारेंस रोड और अशोक विहार इलाके में दिखते हैं।

दिल्ली देहात : दिल्ली के देहाती इलाकों में बाँधों और कुओं से सिंचाई होती थी। शुरुआती गजेटियरों के अनुसार, दिल्ली के खेतों में सिंचित इलाके का अनुपात (57 फीसदी) काफी ज्यादा था। 19 फीसदी इलाके कुओं से पानी लेते थे, 18 फीसदी की सिंचाई नहरों से होती थी और 20 फीसदी बाँधों और फाटकों से सिंचित होता था। पहाड़ियों से नीचे वाले पूरे इलाके में मुख्यतः बाँधों से ही सिंचाई की जाती थी।

दिल्ली के बड़े बाँध शादीपुर और महलपुर में थे, जिनसे 121.5 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। बल्लभगढ़ तहसील में छत्तरपुर और ग्वालपहाड़ी बाँधों से 243 हेक्टेयर, खिड़की से 121.5 हेक्टेयर, बडखल से 121.5 हेक्टेयर, पकल से 162 हेक्टेयर, धौज से 162 हेक्टेयर और कोट सिरोही से 40.5 हेक्टेयर की सिंचाई होती थी। नजफगढ़ इलाके में बाढ़ के पानी का उपयोग सिंचाई के लिये किया जाता था। जिन नहरों को बरसाती पानी से मतलब नहीं था उनका उपयोग ज्वार, बाजरा और कपास जैसी खरीफ फसलों को सींचने के लिये किया जाता था। जो इलाके बाढ़ के पानी में डूबे होते थे, बाद में उन पर रबी की फसल लगाई जाती थी।

कुओं की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण थी। किसानों को अच्छे- मजबूत कुओं से ज्यादा खुशी किसी और चीज से नहीं होती थी। उनके लिये अच्छा कुआँ वही था जिससे घंटों पानी निकालने के बाद भी पानी का स्तर एक मीटर से ज्यादा नीचे न चला जाए। पानी की बाल्टी के आधार पर भी कुओं में फर्क किया जाता था। पानी मीठा, मलमला या खारा निकलता था। खारे पानी से सिंचाई नहीं की जाती थी, पर मलमला पानी सबसे अच्छी उपज दिलाता था। अच्छी जमीन में पहली सिंचाई (जिसे कोड़ या कोड़वा कहा जाता था) मलमले पानी से और फिर मीठे पानी की सिंचाई सबसे ज्यादा फायदेमंद होती थी। एक-दूसरे से कुछ-कुछ दूरी पर स्थित कुओं से यह पानी लिया जाता था।

4. उत्तर प्रदेश


उत्तर प्रदेश का आधे से ज्यादा हिस्सा गंगा के मैदानी भाग में आता है। इसका पूरी पश्चिमी हिस्सा गंगा-यमुना दोआब में पड़ता है। इस क्षेत्र में आने वाले अधिकांश जिलों में कभी पूरी सिंचाई नहरों से ही होती थी। इसका मध्यवर्ती क्षेत्र अवध वाला है, जो गंगा और घाघरा नदियों के बीच स्थित है। इसमें कानपुर, फतेहपुर और इलाहाबाद का कुछ हिस्सा आता है। अवध वाले क्षेत्र में नहरें नहीं हैं। पर इन तीनों जिलों को परम्परागत रूप से बहुत उपजाऊ माना जाता था और यहाँ की अधिकांश जमीन पर खेती होती थी।10

गंगा के मैदानी इलाके में कुओं से सिंचाई बहुत आम थी, क्योंकि यहाँ कुएँ खोदना बहुत आसान है और भूजल का स्तर बहुत ऊपर तक है। नदी के किनारे वाले रेतीले हिस्सों को छोड़ दें तो कुआँ खुदवाना बहुत सस्ता था। इन इलाकों में अगर चिनाई वाले कुएँ न हों तो शायद ही वे बरसात झेल पाते थे।11

उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाके में अलग-अलग आकार के तालाब थे, पर अक्सर वे एक हेक्टेयर से ज्यादा इलाके की सिंचाई नहीं करते थे, ये छह मीटर से ज्यादा गहरे नहीं होते थे और वर्गाकार होते थे। इनका बाँध भी आमतौर पर कच्चा होता था।11 अक्सर तालाब खोदने से निकली मिट्टी ही बाँध पर डाल दी जाती थी, जिससे वे किलेनुमा दिखाई देते थे। कहीं-कहीं बाँधों पर पेड़ और झाड़ियाँ भी लगाई जाती थीं। इसके दो या तीन कोने लगभग खुले होते थे, जिनसे पानी निकाला जाता था और बरसात का पानी भी इसी से होकर आता था। तालाब का पानी बाँस या नरकट की टोकरी में रस्सी बाँधकर बनी पनदौरी से निकाला जाता था। अवध के ही सुल्तानपुर इलाके में तालाब सिंचाई गाँव के लिये सामूहिक उद्यम थी। जब तक उस तालाब के कमांड क्षेत्र के सारे खेत सिंच नहीं जाते थे, सभी लोग मिलकर काम करते थे और यह मजदूर रखकर काम कराने से सस्ता पड़ता था।11

सिंचाई के अन्य स्रोत थे झील, चंवर और गड्ढे-नाले। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में सोते और नाले से काफी सिंचाई होती थी। नाला में कुछ-कुछ दूरी पर बाँध डाल दिए जाते थे और इनमें पानी भरने दिया जाता था। बाद में आस-पास के खेतों की सिंचाई इसी पानी से होती थी। नाले के हर बाँध के अंदर भी पानी निकालने की जगहें तय होती थीं और इससे भी तालाब की तरह ही मुख्यतः पनदौरी से पानी निकाला जाता था।

आजमगढ़ जिले में सिंचाई के लिये लाट का प्रयोग भी खूब होता था। लाट धान के खेतों के बीच से गुजरने वाला बड़ा तटबंध होता था और इससे होकर अतिरिक्त जल निकलता भी था। बाँध बनाने की मिट्टी केत के अंदर से ही खोदी जाती थी। इस गहरी नाली में पानी रिस-रिसकर जमा होता था। यह बाँध तथा गड्ढा भी पानी बटोर लेते थे और धान की फसल में पानी भरा रहता था।12

5. बिहार


गंगा बिहार में पश्चिम से प्रवेश करती है और पूरब से निकल जाती है। इस बीच हिमालय से निकलकर उत्तर से आने वाली कई नदियाँ- घाघरा, गंडक और कोसी वगैरह उससे आकर मिलती हैं। कोसी बिहार की सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा तबाही लाने वाली नदी है। मिट्टी बैठने से इसका पेट एकदम छिछला हो गया है और इसमें अक्सर बाढ़ आती रहती है।

बूंदों की संस्कृतिभौगोलिक बनावट के हिसाब से बिहार को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है- उत्तर बिहार का मैदानी इलाका, दक्षिण बिहार का मैदानी इलाका और छोटानागपुर या पठारी क्षेत्र। उत्तरी बिहार का इलाका नदियों के साथ आई मिट्टी से बना है और यह नेपाल के तराई इलाकों से लेकर गंगा के उत्तरी किनारे तक आता है। यहाँ की जमीन काफी उर्वर है और यहाँ घनी आबादी है। दक्षिण का मैदानी इलाका गंगा के दक्षिणी तट से लेकर छोटानागपुर के पठारों के बीच स्थित है। यहाँ सोन, पुनपुन, मोरहार, मोहाने गामिनी नदियाँ हैं, जो गंगा में जाकर मिलती हैं। सोन को छोड़कर बाकी सभी नदियों का उद्गम स्थल छोटानागपुर की पहाड़ियाँ हैं। बरसात के समय छोटी नदियाँ भी भयावह रंग-रूप ग्रहण कर लेती हैं। बिहार में सालाना औसत बरसात पटना में 1,000 मिमी से लेकर पूर्वी हिस्सों में 1600 मिमी या उससे भी अधिक के बीच होती है।

दक्षिण का मैदानी इलाका : गंगा के मैदानी इलाके के दक्षिणी भाग पुराने पटना, गया और शाहाबाद जिलों तथा दक्षिणी मुंगेर और दक्षिणी भागलपुर की जमीन में आर्द्रता सम्भालने की क्षमता कम है। यहाँ भूजल का स्तर बहुत नीचा है और गंगा के किनारे के इलाकों को छोड़ दें तो कुआँ खोद पाना बहुत मुश्किल है। यह इलाका दक्षिण से उत्तर की तरफ तेज ढलान वाला भी है, जिससे यहाँ पानी टिक नहीं पाता। इस प्रकार इस इलाके की जलवायु खेती के बहुत अनुकूल नहीं है, पर यही प्राचीन सभ्यता का केंद्र रहा है। इस इलाके में सिंचाई की मुख्य व्यवस्था पइन और आहर की है।

आहर-पइन प्रणाली सम्भवतः जातक युग (बुद्ध की पूर्वर्ती अवतारों की कहानियों के लिखे जाने वाले दौर) से ही प्रयोग में लाई जा रही है। इसी इलाके में लिखे गए कुणाल जातक में जिक्र है कि किस तरह सारे लोग मिलकर पइनों का निर्माण करते थे और कई बार यही किसी के खेतों या इलाकों की सीमा रेखा बनती थीं। पर इस सम्पदा से पानी के उपयोग को लेकर अक्सर विवाद भी उठते रहते थे। एक गाँव या किसान के हिस्से के पानी को दूसरी तरफ के खेतों में मोड़ने को लेकर विवाद चलते थे। कई बार तो यह झगड़ा बढ़ते-बढ़ते दो गाँवों के खूनी टकराव में बदल जाता था। फिर पंचायत के लिये स्थानीय परिषद का दरवाजा खटखटाना पड़ता था।13

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में आहरोदक-सेतु से सिंचाई का जिक्र है। मेगास्थनीज के यात्रा विवरण में भी बिहार में बंद मुँह वाले नहरों से सिंचाई का जिक्र है।13 मेगास्थनीज यूनान का इतिहासकार था, जो चंद्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 321-297) के दौरान भारत घूमने आया था। उसकी किताब “भारत का विवरण” काफी प्रसिद्ध है।

दक्षिण बिहार में जमीन की ढलान प्रति किमी एक मीटर की है। इसी भौगोलिक बनावट के मद्देनजर एक या दो मीटर ऊँचे बाँधों के जरिए आहर खड़े किए जाते हैं। बड़े बाँध के दोनों छोरों से दो छोटे बाँध भी निकाले जाते थे, जो ऊँचाई वाली जमीन की तरफ जाते थे। इस प्रकार आहर पानी को तीन तरफ से घेरने वाली व्यवस्था बन जाती थी। तालाबों की तरह यहाँ तलहटी की खुदाई नहीं की जाती थी। कई बार आहर सोतों या पइनों के नीचे बनाए जाते थे, जिनसे उसे पानी मिलता रहे। एक किमी से ज्यादा लम्बे आहर से 400 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन की सिंचाई हो जाती थी। और इतने बड़े आहर भी बना करते थे, पर छोटे आहरों की संख्या ज्यादा थी। दक्षिण बिहार में तालाब नहीं थे, पर आहरों की तुलना में उनकी उपयोगिता बहुत कम थी।

पहाड़ी नदियों से खेतों तक पानी पहुँचाने के लिये पइनों का निर्माण किया जाता था। दक्षिण बिहार में अक्सर नदियाँ वर्ष के ज्यादा समय सूखी पड़ी रहती हैं, पर बरसात होते ही एकदम उफन पड़ती हैं। ढलान और बलुआही मिट्टी के चलते या तो पानी सीधे तेजी से ढलकर नीचे आता है या रेत से रिसकर नीचे पहुँचता है। ऐसे में पइनों का निर्माण इस पानी को खेतों तक पहुँचाने के लिये किया जाता था। कुछ पइन तो 20-30 किमी लम्बे थे और अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं के माध्यम से 100 से भी ज्यादा गाँवों में सिंचाई किया करते थे।

चूँकि नदियों का पेट रेत के चलते काफी कम हो गया होता है, इसलिये पइन ज्यादा गहरे नहीं होते थे। ढलान के अनुसार वे अपने मूल से कुछ दूरी तक की ही जमीन सींच पाते थे। पइनों में पानी का स्तर ऊपर करने के लिये जहाँ-तहाँ उनको बाँध लिया जाता था। कई मामलों में पइनों के आखिरी छोर पर चौकस बाँध बना दिए जाते थे जिनसे वहाँ पानी जमा हो जाए। कभी पइनों से आहरों में पानी भरता या तो कभी आहरों का पानी पइनों के माध्यम से खेतों तक जाता था। आहर और पइन, दोनों में जुलाई से सितम्बर तक काफी पानी रहता था, जो बरसात कम होने पर बाद में काम आता था।

1810-11 में ‘ऐन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक्स ऑफ भागलपुर’ लिखने वाले ब्रिटिश पर्यवेक्षक एफ. बुकानन को तालाबों की तुलना में यह व्यवस्था पसंद नहीं आती थी। उन्होंने लिखा कि दक्षिण बिहार में सिंचाई बहुत ही गड़बड़ थी। उन्हें आहर-पइन व्यवस्था का कम खर्चीला होना तो पसंद था, पर तालाबों की व्यवस्था उन्हें ज्यादा पसंद थी। पर जैसे-जैसे वे भागलपुर से गया की तरफ बढ़े उनकी राय बदलती गई। पहले उन्होंने लिखा था कि दक्षिण बिहार में टिकाऊ सिंचाई व्यवस्था बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई है और जो व्यवस्था है वह बरसात के दौरान कम पानी पड़ने के समय या बरसात के बाद के एकाध महीने की सिंचाई लायक है, जिससे तब लगी फसल बर्बाद न हो। पर गया पहुँचकर उन्होंने लिखा, “आहरों और पइनों में इतना पानी रहता है कि किसान सिर्फ धान की फसल ही नहीं लेते, बल्कि सर्दियों में गेहूँ और जौ उगाने के लिये उसका प्रयोग कर लेते हैं।” पानी को ढेंकुली और पनदौरी जैसी कई व्यवस्थाओं से ऊपर लाकर खेतों तक पहुँचाया जाता था।

बूंदों की संस्कृतिइस व्यवस्था का विश्लेषण करने वाले निर्मल सेनगुप्त लिखते हैं, “बाहर से दिखने में आहर-पइन व्यवस्था भले ही जितनी बदरूप और कच्ची लगे, पर यह एकदम मुश्किल प्राकृतिक स्थितियों में पानी के सर्वोत्तम उपयोग की अद्भुत देसी प्रणाली है।” सिंचाई के अलावा इस व्यवस्था की एक और उपयोगिता है जिसकी चर्चा बहुत कम हुई है। छोटानागपुर के पठारी इलाके और गंगा घाटी के बीच स्थित होने के चलते दक्षिण बिहार में अक्सर बाढ़ आती रहती है। पर इन आहरों में बाढ़ का कुछ पानी समा जाता है और पइनों से बाढ़ के पानी की निकासी तेज हो जाती थी। कुल मिलाकर उसकी तबाही बहुत कम हो जाती है। यह व्यवस्था इतनी प्रभावी थी कि यहाँ की कुछ नदियों का पूरा का पूरा पानी सिंचाई में प्रयोग कर लिया जाता है और जब तक ये नदियाँ गंगा या पुनपुन तक पहुँचें एकदम रीत चुकी होती थीं।13

गया जिले की बाढ़ सलाहकार कमेटी ने 1949 में लिखा था :

कमेटी की राय है कि जिले में बाढ़ का असली कारण पारम्परिक सिंचाई प्रणालियों में आई गिरावट है। जमीन ढलवा है और नदियाँ उत्तर की तरफ कमोबेश समांतर दिशा में बहती हैं। मिट्टी बहुत पानी सोखने लायक नहीं है। अभी तक चलने वाली सिंचाई व्यवस्थाएँ पूरे जिले में शतरंज के मोहरों की तरह बिछी थीं और ये पानी के प्रवाह पर रोक-टोक करती थीं।13

गया जिले में आहर-पइन व्यवस्था व्यापक तौर पर प्रयोग की जाती थी। 1901-03 के सिंचाई आयोग का मानना था कि इनसे 6,76,113 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है, जो जिले की कुल जमीन का आधे से ज्यादा है। दक्षिण बिहार के कुल सिंचित क्षेत्र में इस व्यवस्था से सिंचाई करने वाले क्षेत्रों का हिस्सा तीन-चौथाई होगा।

अनेक अन्य अँग्रेज लेखकों ने भी आहर-पइन व्यवस्था की तारीफ की है। ‘एल.एस.एस.ओ.’ मेली ने 1919 के गजेटियर में लिखा है, “पूर्वी बंगाल के रैयत के लिये धान की खेती करना बहुत मुश्किल है; क्योंकि न तो यहाँ की मिट्टी उसके अनुकूल है, न यहाँ भरोसे लायक बरसात होती है।” धान को तो अपने पूरे समय के कम-से-कम तीन-चौथाई समय पानी चाहिए। पर पूर्वी बंगाल से भी लगभग आधी बरसात वाले उस क्षेत्र में धान की खूब खेती हो रही है, जहाँ पानी टिकता भी नहीं है। दक्षिण बिहार में धान ही मुख्य फसल है और पूर्वी बंगाल के भी पहले से उगाई जा रही है। इसका श्रेय काफी हद तक आहर-पइन प्रणाली को जाता है। धान की अगली फसल का 90 फीसदी हिस्सा सिंचित जमीन पर ही उगता था और इन्हें मुख्यतः आहर-पइन से पानी मिलता था।13

आहर आमतौर पर गाँव के दक्षिणी और ऊँचे भाग में स्थित होते थे और उनमें सिंचित होने वाले खेत गाँव के उत्तर में होते थे। पूरा का पूरा दक्षिण बिहार ही ऐसी हल्की ढलान वाला मैदान है। हर गाँव में धनहर और भीत खेत थे।

सूखे वाले वर्षों में आहर के पेट में भी धान लगा दिया जाता था। कई बार जब आहर का पानी खरीफ फसल में ही लग जाता था, तब भी उसके पेट में रबी की फसल लगा दी जाती थी। पर अक्सर ऐसा नहीं होता या भीत खेतों में ही रबी की फसल होती थी और उनकी सिंचाई कुओं से की जाती थी।

आहर और पइन का उपयोग सामूहिक रूप से ही होता था और सभी किसानों को मिलजुलकर खेती करनी होती थी। सो, एक-एक पखवाड़े के अन्तराल पर खास खेतों या खास फसल के लिये सामूहिक कोशिश होती थी। दक्षिण बिहार में यही चलन आज भी है। आमतौर पर 20 जून से 5 जुलाई तक धान के बीज गिरा दिए जाते हैं और 18 जुलाई से 15 अगस्त तक रोपनी चलती है। 12 से 25 सितम्बर के बीच धान के खेतों में जमा पानी को निकाल दिया जाता है (जिसे नीगार कहा जाता है) और 25 सितम्बर से 7 अक्टूबर के बीच फिर से पानी भरा जाता है। जिस समय दोबारा पानी भरा जाता है उस समय हथिया का पानी बरसता है, पर सिर्फ उसके भरोसे नहीं रहा जा सकता। सिंचाई का प्रबंध रखना जरूरी था। पर यह बरसात बहुत उपयोगी होती थी। सिर्फ खड़ी फसलों के लिये ही नहीं, आगे की रबी की फसल के लिये भी।

आहर-पइन व्यवस्था कितनी उपयोगी और विश्वसनीय थी, इसका पता इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि पूरे देश का प्रायः हर इलाका निरंतर अकालों की चपेट में आता रहा, पर गया जिला इससे अछूता रहा। 1866 के ओडीसा अकाल में, कुसमय बरसात से पड़े 1873-74 के बिहार अकाल और 1896-97 के अकाल के समय गया जिले को अकाल राहत की जरूरत नहीं पड़ी। पर इस सिंचाई व्यवस्था में गिरावट के साथ ही मजबूती भी जाती रही। 1930 के दशक से यहाँ कमी पड़ने लगी। 1950-52 और 1957-59 के सूखे और अकाल के समय गया जिले के नवादा अनुमंडल की स्थिति खासतौर से खराब हो गई। 1966 के अकाल की गया जिले पर भी वैसे ही मार पड़ी जैसी बिहार के अन्य जिलों पर। आगे तो पुराने गया जिले के अनेक हिस्सों को अक्सर सूखे वाला इलाका माना जाता है। सिंचाई की इस अनोखी व्यवस्था के चलते पहले गया जिले में बाढ़ भी नहीं आती थी। पर हाल के वर्षों में इस मामले में भी उसका बचाव नहीं हो पाता।14

मुंगेर और भागलपुर : दक्षिण बिहार में सिंचाई और पेयजल का मुख्य स्रोत बड़े पोखर और नहर थे। बिहार में मिट्टी का सम्भवतः सबसे बड़ा बाँध 1870 में महाराज दरभंगा ने खड़गपुर जलाशय के लिये बनवाया था। इससे 729 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। इस तालाब की पहुँच से बाहर वाले इलाकों में गिलांदाजी बाँध या धार बाँध की व्यवस्था चलती थी। धार बाँध पहाड़ी नदियों की धारा को मोड़ने वाले बाँध थे। गाँव के जेठ-रैयत (बड़े किसान) अपने खर्च से इनका निर्माण कराते थे, क्योंकि बाढ़ में ये अक्सर टूट ही जाते थे।

बिहार में इन प्रणालियों के अलावा सरकारी और निजी नहर भी थी। इस सदी के शुरू में ऐसी सबसे पुरानी व्यवस्था उत्तर बिहार के चम्पारण जिले की तिआर नहर थी। यह करीब 11 किमी लम्बी थी और इससे 2,429 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती थी। 1879 में इसका निर्माण एक स्थानीय जमींदार ने कराया था, पर 1886 में इसे सरकार ने अपने हाथ में ले लिया। चम्पारण में दो और नहरें थीं- ढाका नहर और त्रिवेणी नहर। इनसे करीब 51,619 हेक्टेयर, जमीन की सिंचाई होती थी। त्रिवेणी नहर के बनने से पूर्व जिले का उत्तरी हिस्सा पूरी तरह पइनों पर निर्भर था। पहाड़ी सोतों और बरसात पर आश्रित इन पइनों से न तो पानी की व्यवस्थित आपूर्ति हो पाती, न ही इनसे ज्यादा खेतों की सिंचाई ही हो पाती थी। 1880 के दशक में साठी नील कम्पनी ने पइनों की एक विस्तृत प्रणाली विकसित की थी। इसके पइनों और नालियों की कुल लम्बाई करीब 170 किमी थी और इससे कम्पनी के पूरे फार्मों की सिंचाई हो जाती थी। इनमें इस इलाके की चार नदियों का पानी आता था। पटना जिले में भी सरकारी और निजी, दोनों तरह की नहरों से सिंचाई होती थी- सरकारी नहरें सोन नहर प्रणाली का हिस्सा थीं और निजी नहरें मुख्यतः पइन की शक्ल में थीं। सोन नहर अभी तक बिहार की सबसे महत्त्वपूर्ण और विस्तृत नहर व्यवस्था है। 1853 में इसकी योजना बनी थी और 1875 में इसका निर्माण पूरा हुआ। इसकी मुख्य नहरों की लम्बाई 351.61 किमी है।15

6. पश्चिम बंगाल


पुरुलिया के पहाड़ी इलाके, दार्जिलिंग के हिमालय क्षेत्र और जलपाईगुड़ी के दुआर क्षेत्र को छोड़कर पं. बंगाल का लगभग पूरा इलाका गंगा के मैदान का हिस्सा है। यह मैदानी इलाका चार भागों में बँटा है- कूचबिहार, पश्चिमी दिनाजपुर और मालदा जिलों वाला बारिंद क्षेत्र, मुर्शिदाबाद और नादिया का घिरा डेल्टा प्रदेश, 24 परगना, हावड़ा, हुगली और बर्दवान का मुख्य डेल्टा क्षेत्र मिदनापुर, बांकुड़ा और बीरभूम जिलों का राढ़ मैदान।

बारिंद क्षेत्र समतल है और जलोढ़ मिट्टी से बना है। मानसून के समय इसके कम ऊँचे इलाकों में नदियों का पानी भर जाता है। घिरे डेल्टा क्षेत्र के मुर्शिदाबाद जिले को भागीरथी नदी दो भागों में विभक्त करती है। जिले के पश्चिमी भाग में बहने वाली अनेक नदियों का उत्पात बहुत अधिक है। ये नदियाँ पहाड़ से उतरते समय बहुत तेज प्रवाह रखती हैं। यहाँ की नदियों में मयूराक्षी और द्वारका प्रमुख हैं। पूर्वी हिस्से में जलांगी नदी बड़ी मस्ती से जहाँ-तहाँ ‘घूमती’ है। जलांगी, चुरनी, भैरब, इछामति और माथभंगा नदियों से यहाँ का जन-जीवन चलता है। जब भागीरथी में बाढ़ आती है तो इन नदियों के प्रवाह की दिशा उलट जाती है। यहाँ पुराने नालों और नदियों के छोड़े मार्ग जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े हैं। इनमें बाढ़ का पानी और उनके साथ आई उपजाऊ मिट्टी भी बैठती जाती है। साल के अन्य महीनों में ये यूँ ही सूखे पड़े रहते हैं।

मुख्य डेल्टा क्षेत्र भी आमतौर पर समतल और समुद्र तल से कम ऊँचाई वाला है। यहाँ से होकर दामोदर, बाराकर, अजय, इछामति, विद्याधारी, कारतोया (कामती) और अठारबंका नदियाँ बहती हैं। यहाँ कई दलदल क्षेत्र हैं। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण कलकत्ता के निकट धापा में स्थित नमकीन पानी की झील है। इस डेल्टा प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा दामोदर और हुगली में आई मिट्टी से बना है। इसका मध्यवर्ती हिस्सा और हिस्सों से ज्यादा नीचा है और यहीं ज्यादा दलदली जमीन है। यहाँ अनेक बड़े बाँध भी बनाए गए हैं, जिनके आस-पास ही ज्यादातर आबादी है। इस इलाके में दामोदर की धारा बार-बार बदली है और पुराने टूट गए कई जलमार्ग यूँ ही पड़े हैं। इनमें गाद भर गई है या उन्होंने पानी भरे लम्बे गड्ढे का रूप ले लिया है और स्थानीय लोग इनको ‘काणा नदी’ (कानी नदी) कहते हैं।

24 परगना के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में सुंदरवन स्थित हैं। इस इलाके में डेल्टा निर्माण अभी भी चालू है और समुद्री लहरों का पानी ऊपर तक पहुँचाने वाले प्राकृतिक मार्ग तो हैं ही, नदियों का खाल (गड्ढा) और जहाँ-तहाँ उभरते द्वीप भी हैं। इनमें कई की जमीन एकदम दलदली होती है। उन पर जंगल-झाड़ भी उगे होते हैं। इन इलाकों को अक्सर डूबा क्षेत्र भी कहते हैं, क्योंकि यहाँ दल-दल और नदियों के हजारों मुहानों की भरमार है। यहाँ की मिट्टी क्षारीय है, क्योंकि वह समुद्री पानी से ही बनी और तर रहती है। सो, समुद्री जल को तटबंधों के जरिए दूर रखकर सिर्फ बरसात के मीठे पानी के सहारे ही यहाँ खेती सम्भव है।

राढ़ मैदानी क्षेत्र के पूर्वोत्तर की जमीन पर्वतीय और ऊँची है और ऐसा छोटानागपुर पठार से लगा होने के चलते है। यहाँ जमीन हल्की ढलान वाली है और यहाँ पगला, बांसालोई, ब्राह्मणी, द्वारका, मयूराक्षी और बक्रेश्वर नदियाँ बहती हैं। बांकुड़ा जिले में द्वारकेश्वर (धालकीश्वर), सिलाई (सिलबाटी) और करई नदियाँ बहती हैं।

आप्लावन नहरें


बंगाल में कभी आप्लावन नहरों की अद्भुत व्यवस्था थी। मिस्र और इराक में काम कर चुके अँग्रेज सिंचाई विशेषज्ञ सर विलियम विलकॉक्स इस इलाके में मौजूद बाढ़ से सिंचाई की पुरानी व्यवस्था से काफी प्रभावित हुए थे। पर यह पूरी प्रणाली ही विलुप्त हो चुकी थी। 1920 के दशक में एक भाषण श्रृंखला में विलकॉक्स ने जोर देकर कहा था कि बंगाल की पुरानी प्रणाली ही इस इलाके के सबसे अनुकूल बैठती है और यहाँ के लोगों की जरूरतें पूरी करती है, सो इसे ही पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। विलकॉक्स ने इसका इतिहास बताते हुए कहा कि दो सदी पहले तक ऐसी नहरें मौजूद थीं। इन नहरों के माध्यम से खेतों तक सिर्फ पानी ही नहीं, उपजाऊ मिट्टी और खूब सारी मछलियाँ भी पहुँचती थीं, जो झीलों और पोखरों में पहुँचकर जम जाती थीं और मच्छरों के अंडों को चट करके इस इलाके को मलेरिया की चपेट से भी बचाए रखती थीं।

बूंदों की संस्कृतिविलकॉक्स के अनुसार, आप्लावन नहरों वाली प्रणाली हजारों वर्ष तक चली थी। दुर्भाग्य से 18वीं सदी के अफगान-मराठा युद्ध और उसके बाद भारत पर अँग्रेजों के कब्जे वाले उथल-पुथल के चलते यह सिंचाई प्रणाली उपेक्षित हो गई और इसे पुनर्जीवित नहीं किया जा सका।11 जैसा कि विलकॉक्स बताते हैं :

“गंगा के डेल्टा क्षेत्र में कम बरसात नहीं होती। जब सभी नदियों में बाढ़ होती है, तब भी 50 से 60 इंच बरसात होती है। गंगा तथा दामोदर की बाढ़ के पानी का पूरा उपयोग करने के लिये बंगाल के कुछ पुराने शासकों ने ‘आप्लावन नहरों’ वाली प्रणाली विकसित की थी और गंगा तथा दामोदर की बाढ़ ने बंगाल को सैकड़ों वर्षों तक समृद्ध और स्वस्थ रखा। यहाँ बरसात का पानी कम नहीं होता; पर उसमें न पोषक तत्व होते हैं, न अच्छी मिट्टी। यह प्रणाली बंगाल की विशिष्ट जरूरतों के एकदम अनुकूल बैठती है।”

विलकॉक्स ने पाया कि जून से अक्टूबर तक मानसून की काफी बरसात वाले बंगाल की मुख्य विशेषता धान की खेती है। यह खेती आप्लावन सिंचाई के बिना भी सम्भव थी, “लेकिन बाढ़ का पानी इसकी मिट्टी को ज्यादा उपजाऊ बनाता था और मलेरिया का नाश करता था।” लेकिन विलकॉक्स को वह दृश्य बहुत पसंद था जब धान के खेतों में बरसात का पानी भरता जाता था और उधर नदियाँ भी उफनती रहती थीं। फिर यह पानी जब खेतों में पहुँचता था और बरसाती पानी से मिलता था तब खेतों को उपजाऊ मिट्टी मिलती थी। उनको लगता था कि अगर नदियों को तटबंधों से घेर दिया जाता तो यह इलाका मलेरिया का स्थायी निवास बन जाता और खेत भी कमजोर होते।

विलकॉक्स ने पाया कि बंगाल में कभी भी मानसून नहीं चूकता। हाँ, कभी-कभार बरसात समय से पहले खत्म हो जाती है। अगर धान के खेत सिर्फ बारिश के पानी से सिंचित हों तो अक्टूबर में उनको पानी की जरूरत फिर से पड़ती है। बरसात कम होने से तब नदियों में कम पानी होता है और उसको निकालकर सिंचाई करना बहुत महँगा पड़ता था। लेकिन बरसाती पानी के साथ ही धान को अगर बाढ़ का पानी भी मिल जाता था तो खेतों में नमी और नई मिट्टी की ताकत धान की फसल को बाद की मुश्किलों से लड़ने में सक्षम बनाती थी। विलकॉक्स के अनुसार, “शुरुआती महीनों में नदी की बाढ़ का पानी सोने जैसा होता है।”

विलकॉक्स ने किसानों के साथ भी कुछ वक्त गुजारा और बुजुर्गों से आप्लावन नहरों के बारे में सुना कि ये कितने चौड़े होते थे, इनमें कितना पानी आता था, किस तरह जमींदारी वाले बाँधों को काटकर पानी लिया जाता था। और, इसी से उनको अंदाजा लगा कि इस पुरानी प्रणाली की जगह जमींदारी बाँध सिंचाई किस तरह आई। उन्होंने लिखा :

“मैंने इन लोगों से जाना है कि उनके मन में उस पुराने वक्त के लिये इतनी तरसन क्यों है जब धान के खेतों, पोखरों और झीलों में मछलियाँ भरी होती थीं। बर्नियर (पहले आया अँग्रेज यात्री) ने भी कहा था कि यहाँ बहुत मछलियाँ होती थीं। लेकिन किसान आज मछलियों के लिये तरसते हैं, जबकि पहले गरीबों का पेट इसी से भरता था। आज उन्हें शायद ही कभी मछली खाने को मिलती है।

नदियों में पानी भरना उसी मानसून के साथ शुरू हो जाता है जो खेतों को बीज डालने और रोपनी लायक बनाती है। बरसात बढ़ने के साथ ही शुष्क और खाली पड़ी जमीन नम होने लगती है, जहाँ-तहाँ पानी भरने लगता है और लाखों की संख्या में मच्छरों के अंडे इन पर तैरते होते हैं, तभी बाढ़ का कीचड़ भरा पानी आता है और कई तरह की मछलियों और इनके अंडे भी आते हैं।

पुराने दिनों में, जब आप्लावन सिंचाई होती थी और जिसे बर्नियर ने 17वीं सदी तक देखा था, मछलियों के ये अंडे नहरों से होकर उपनहरों, खेतों और पोखरों तक पहुँचते थे। जल्दी ही अंडों में से नन्हीं मछलियाँ निकलती हैं और मच्छरों के अंडों-बच्चों को चट कर जाती हैं। बाढ़ के बाद नदी-नालों, पोखर-गड्ढों और खेतों तक में मछलियाँ ही मछलियाँ हो जाती थीं। इस प्रकार आप्लावन सिंचाई मलेरिया पर अंकुश रखती थी, भरपूर मछलियाँ लाती थी, मिट्टी को उपजाऊ बनाती थी और नदियों के स्वाभाविक प्रवाह को बनाए रखती थी।”


मलेरिया पर रोक वाले पहलू पर अखबारों के कुछ दिलचस्प उद्धरणों को विलकॉक्स ने अपनी रिपोर्ट में शामिल किया था। 21 दिसम्बर 1907 के इंडियन मिरर के अनुसार :

“ईस्ट इंडिया रेलवे का निर्माण 1853-54 में हुआ था और 1855 में इसने काम करना शुरू कर दिया। इस रेल लाइन को दामोदर की बाढ़ से बचाने के लिये नदी के पूर्वी तरफ बर्दवान से आगे एक ऊँचा तटबंध बनाया गया। जहाँ कहीं भी तटबंध बने हैं, पोखरों और कृत्रिम झीलों में जलकुम्भी जैसे फालतू खर-पतवार भर गए हैं और खेतों को नई मिट्टी न मिलने का प्रभाव फसल पर भी पड़ा है। अकाल और तंगी बहुत आम होने लगे हैं और बुखार के केस काफी बढ़ गए हैं।

बर्दवान और हुगली जिले में असंख्य कृत्रिम झीलें और बड़े पोखर हैं। दामोदर की बाढ़ हर साल इनमें नया पानी, जिसे लोग पीते भी थे और खूब सारी मछलियाँ भर देती थीं। लोगों का स्वास्थ्य अच्छा था और गाँव में समृद्धि भी थी। पर दामोदर पर तटबंध बनने के साथ ही यह सब बदल गया। अगर हमारे पाठक इन दो जिलों में जाने का कष्ट उठाएँ तो वे खुद देख सकते हैं कि पोखर और झील अपने पुराने आकार के आधे पर रह गए हैं और उनमें भी जलकुम्भियों और दूसरे खर-पतवारों ने डेरा डाल लिया है। पानी का रंग काला हो गया है। इससे बदबू आती है। गाँवों में मृत्यु दर बढ़ गई और गाँव उजड़े नजर आते हैं। लोगों के मकान यूँ ही खड़े नष्ट हो रहे हैं। लोग खुद भी कंकाल से दिखते हैं। मेडिकल का छात्र होने के चलते यह लेखक दावे से कह सकता है कि कलकत्ता से चागदा तक के गाँवों में पहले मलेरिया नहीं होता था। बरसात के बाद कुछ लोगों को बुखार होने के मामले होते थे, लेकिन मलेरिया नहीं होता था। पिछले तीस सालों से जो दृश्य दिखता है वह तो पहले कभी होता ही नहीं था। कलकत्ता के लोग पहले खुर्दा बैरकपुर, नवाबगंज, हालीशहर जैसी जगहों पर हवा बदलने के लिये जाते थे। तटबंध बनने के सालभर के अंदर ही यहाँ मलेरिया का प्रकोप हुआ, क्योंकि पूर्व की तरफ पानी का प्राकृतिक प्रवाह रुक गया। रेलमार्ग में पानी को निकासी देने के लिये पर्याप्त पुल या दूसरी व्यवस्थाएँ नहीं की गई हैं। सरकार को धर्मार्थ दवाखाने खोलने चाहिए।”


विलकॉक्स के अनुसार इस सिंचाई प्रणाली की विशेषताएँ थीं :

1. नहरें चौड़ी और कम गहरी थीं और नदियों की बाढ़ का ऊपरी पानी ही लेकर चलती थीं जिसमें बारीक मिट्टी तो घुली होती थी, पर मोटा रेत नहीं होता था।

2. नहरें लम्बी, समांतर और निरंतर आगे बढ़ने वाली थीं। दूरी का हिसाब सिंचाई के हिसाब से तय किया गया था।

3. नहरों के बाँध काटकर सिंचाई की जाती थी और बाढ़ गुजर जाने पर इनको भर दिया जाता था।

विलकॉक्स के अनुसार सिंचाई निम्न प्रकार से की जाती थी : “नहरों को काटते वक्त इंजीनियर जानकार लोग मौजूद रहा करते थे। फिर इसे स्थानीय परिषदों के हवाले कर दिया जाता था और किसानों की मदद से वे यह व्यवस्था करते थे कि हर खेत को पानी मिल जाए।”

बाँध के इन कटावों को भागलपुर में कनवा कहा जाता था। भागलपुर जिला गजेटियर में सिंचाई से जुड़े जो 30 शब्द दिए गए हैं। कनवा उनमें से एक है। कनवा शब्द फारसी के कान से बना है जिसका मतलब होता है खोदना। दामोदर क्षेत्र में अनेक जलमार्गों को काना नदी बोलते हैं। हुगली जिले में काना दामोदर, कुंती नदी और किंतुल नदी के अलावा भी तीन काना नदियाँ हैं। विलकॉक्स ने लिखा था कि यह नाम तब पड़ा था जब इनमें पूरा पानी जोश-खरोश के साथ बहता था। आज वे भले ही खड़े पानी का गड्ढा-सा बन गई हैं जिनमें मलेरिया के मच्छर अंडे देते रहते हैं, पर अब भी उनको काना या कानी कहा जाता है।

हिंदी के काणा या काना शब्द से मेल के चलते इस नाम के बारे में चौड़ी गफलत पैदा हो गई है। विलकॉक्स ने माना कि काना नदी मतलब बंद पड़ी या अंधी नदी है।

“निराशावादी लोग मध्य बंगाल की सभी पुरानी नहरों को मुर्दा नदियाँ कहते हैं। पर असलियत यही है कि ये ‘मुर्दा’ या ‘अंधी’ नहरें पूरे बंगाल की एकमात्र जीवित और सब कुछ देखने-सुनने वाली सिंचाई प्रणाली हैं। वे न तो मृत हैं, न अंधी और उनमें जीवित होने की क्षमता विद्यमान है।”

दक्षिण की तरफ जाने वाली हर नहर, चाहे वह भागीरथी की तरह नदी बन गई हो या माथभंगा की तरह नहर ही रह गई हो, मूलतः जलमार्ग थीं। ये एक-दूसरे के समांतर थीं। जब विलकॉक्स ने बंगाल के देहातों के लिये सिंचाई नहर की प्रणाली विकसित करने की योजना पर काम शुरू किया तो वे यह देखकर दंग रह गए कि मुख्य नहरों वाली सारी सम्भावित जगहों पर यही कानी नदियाँ मौजूद थीं। काफी लम्बी दूरी तक समांतर चले इन जलमार्गों में वह जटिल और उलझन भरी नालियाँ भी नहीं थीं जो फरीदपुर में दिखती हैं।

विलकॉक्स को लगता था कि दामोदर का मूल मार्ग बर्दवान, राणाघाट, कृष्णनगर के दक्षिण और जेस्सोर होगा और उसके डेल्टा प्रदेश इससे उत्तर और दक्षिण में होंगे। पश्चिम से आने वाली अजाई जैसी सभी छोटी नदियों का भी पश्चिम से पूर्व वाली ढलान पर अपना-अपना डेल्टा प्रदेश है। उत्तर में गंगा को रामपुर बोआलिया, बाराल बाँध और हार्डिंग पुल से घेर लिया गया है। गंगा में बहकर आगे वाली मिट्टी बारीक और कम होती है। यह इलाका मुर्शिदाबाद, नादिया और उत्तरी फरीदपुर का है, जहाँ की मिट्टी इसी गाद से बनी होने के चलते आसानी से बह जाने और जल्दी सूख जाने वाली है। इसलिये इसे गंगा के पानी की सिंचाई की जरूरत होती है, क्योंकि उसके पानी के साथ उपजाऊ मिट्टी भी आती है। यह गंदला पानी मलेरिया को भी रोकता है तथा साथ ही खतरनाक कंस घास का फैलाव रोकता है। यह घास खेत को बंजर बना देती है।

विलक्षण विरासत


विलकॉक्स इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने इस इलाके का इतिहास भी छान मारा। उन्होंने लिखा :

“जब बंगालियों ने डेल्टा क्षेत्र पर बसना शुरू किया तो मुर्शिदाबाद-नादिया और उत्तरी फरीदपुर भर गया और अब कुशलता से गंगा को दक्षिण की तरफ खिसकाया जा सकता था। ऐसा लगता है कि पवित्र गंगा के बारहमासी जल को पुराने दामोदर की मुख्य धारा पर स्थित एक पवित्र स्थान तक भागीरथी या भागीरथी और जलांगी के माध्यम से पहुँचाना पुराने समय के महान सार्वजनिक कार्यों में एक था।”

वे बताते हैं कि रामायण में गंगा के बारहमासी पानी की धारा मोड़ने का जिक्र है। इस काम को राजा की 50,000 प्रजा पूरा नहीं कर पाई तब उनके पोते भागीरथ ने अपने कौशल का प्रयोग किया। हुगली में (जो भागीरथी और जलांगी के गंगा में मिलने के बाद गंगा का नया नाम है) गंगा का पानी साल भर आता रहे, इसके लिये दामोदर को ही नियंत्रित करना जरूरी था। सो जमालपुर के पास से, जहाँ नदी 90 डिग्री पर मुड़ती थी, वहीं उसे पूरी तरह बाँध दिया गया। फिर इसकी बायीं तरफ काफी मजबूत और ऊँचा तटबंध बनाया गया, जिससे दक्षिणी बर्दवान, हुगली और हावड़ा के धान के खेत सुरक्षित रहें। इस उर्वर जमीन को सींचने के लिये अब सात नहरें निकाली गईं और इनमें एक नए डेल्टा प्रदेश का निर्माण हुआ।

विलकॉक्स इस काम के आकार-प्रकार और आप्लावन सिंचाई से अचम्भित थे। इस व्यवस्था से सत्तर लाख एकड़ जमीन की सिंचाई होती थी। उनका मानना है कि उस दौर में दुनिया के किसी भी अन्य देशों की बड़ी सिंचाई परियोजनाओं से यह उन्नीस नहीं थी। वे इस बात से प्रभावित थे कि नहरों का सर्वेक्षण और डिजाइन एकदम ठोस सिद्धांतों पर आधारित था। इसीलिये यह सैकड़ों वर्षों तक काम करता रहा और गृह युद्ध तथा सैनिक टकराहटों वाले दौर में इसे बर्बाद किया गया।

सन 1660 तक बर्नियर दो बार बंगाल गए और मुगल साम्राज्य के बिखरने और लम्बे मराठा-अफगान युद्ध से इस प्राचीन सिंचाई व्यवस्था को हुए नुकसान के बारे में लिखा। उन्होंने अपने एक वृत्तांत में लिखा है :

“बंगाल के अपने दो दौरों से मुझे जो जानकारियाँ मिली हैं उनसे मैं विश्वास करने लगा हूँ कि यह क्षेत्र मिस्र से भी ज्यादा समृद्ध था। यहाँ से बड़े पैमाने पर कपास, रेशम, चावल, चीनी और मक्खन बाहर भेजा जाता था। यह अपनी जरूरत के लायक गेहूँ, अनाज, सब्जियाँ खुद उगा लेता था। यहाँ बकरियों-भेड़ों और सूअरों को भी बड़े पैमाने पर पाला जाता था। हर तरह की मछलियों की बहुतायत थी। राजमहल से समुद्र तक असंख्य नहरें थीं, जिन्हें बड़े परिश्रम से सिंचाई और जल परिवहन के लिये बनाया गया था। भारतीय लोग गंगा जल को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।”

मराठा-अफगान युद्ध के बाद 1794 में कई अँग्रेजों ने एक मसौदा तैयार किया, जो 1803 और 1806 में छपा : “हर साल आप्लावित होने वाले इलाकों में बाढ़ सुरक्षित बस्तियाँ, जो काफी ऊँचाई वाली जगहों पर बसाई गई थीं, इस काम में बड़े धीरज के साथ लगे श्रम को दर्शाती थीं।”

आप्लावन रोकने के लिये छोटा बाँध, जलाशय और निकास मार्ग थे। बर्नियर ने पाया कि सिंचाई वाले पहलू पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था। उन्होंने लिखा है, “धान की फसल के लिये बाँध विस्तृत मैदान पर ही पानी घेर लेते थे या फिर निचली जमीन पर बनी झीलों में इन्हें भर लिया जाता था, जिसे जरूरत पड़ने पर बाद में उपयोग किया जा सकता था। इन दोनों में से किसी भी काम में जल की आपूर्ति व्यवस्थित करने के लिये जबरदस्त कौशल की जरूरत होती थी।”

विशालकाय बाँध पानी को उफनकर बाहर निकलने से तो नहीं रोक सकते थे, पर अचानक पानी बढ़ने पर रोक लगा देते थे। बहुत सोच-विचार से बनाए गए बाँध काफी बड़े-बड़े इलाके की सिंचाई कर देते थे। अँग्रेजों के इस मसौदे से पता चलता है कि तब पोखर, जलाशय, जलमार्ग और बाँधों में सुधार की जगह गिरावट आ रही थी।

1815 में एक अन्य अँग्रेज यात्री हैमिल्टन बर्दवान, हुगली और हावड़ा (जो इलाके पहले बर्दवान राज के अंतर्गत आते थे) से होकर गुजरा। उसने भी इस इलाके की समृद्धि और उर्वरता के बहुत गुण गाए हैं : “अपने आकार के हिसाब से खेती की पैदावार में बर्दवान पूरे हिंदुस्तान में सबसे अव्वल है। इसके बाद तंजौर का नम्बर आता है।” यह कथन काफी कुछ बताता है। तब अफगान-मराठा युद्ध ने गंगा से जुड़ी सिंचाई वाली जटिल प्रणाली को तहस-नहस कर दिया था और दामोदर की सुगम सिंचाई से ही यह स्थिति थी।

हैमिल्टन को लगा कि 1815 तक मध्य बंगाल के जमींदारों और जोतदारों ने नहरों की सफाई, बाँधों की मरम्मत, जिसे पुलबंदी कहा जाता था, का काम छोड़ दिया था। यह उपेक्षा मराठा-अफगान युद्ध के समय ही शुरू हुई थी और फिर जीतकर आए अँग्रेजों ने स्थिति को बदतर ही बना दिया। व्यापारी और समुद्र यात्री अँग्रेजों को सिंचाई का कोई ज्ञान भी न था। लम्बे युद्धों के बाद अनेक जलमार्गों और नहरों को उपेक्षित पड़ा देख उन्हें लगा कि इनका उपयोग यातायात के लिये ही किया जा सकता है। सिंचाई की बात उनके सोच के दायरे में नहीं थी।

बाँधों की बर्बादी


बूंदों की संस्कृतिइस उपेक्षा के चलते मध्य बंगाल का स्थान सन 1660 के आस-पास स्वर्णिम नहीं रहा, जब बर्नियर ने इसे देखा था। 1815 तक मध्य बंगाल में गिरावट शुरू हो चुकी थी। बाद में बर्दवान भी इसी श्रेणी में आ गया, क्योंकि वहाँ भी नहरों की सफाई पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर तो नहरों में मिट्टी भरती गई और वे दामोदर से दिन-ब-दिन कम पानी लेती गईं। अपने अधिकांश पानी, तीखी ढलान, तेज जल प्रवाह के चलते अब दामोदर नदी इस पूरे इलाके के लिये आतंक बन गई। अब फिर से दामोदर के किनारे बाँध डालना महत्त्वपूर्ण हो गया जिसे जमींदारी बाँध कहा जाता था। जब इनके उमड़ पड़ने का खतरा टल जाता था या कहीं और बाँध टूट जाते थे, तब किसान बाँध काट डालते थे। इस प्रकार पुराने नहरों में भी पानी भरता था और सिंचाई के काम आता था। यह प्रणाली जमींदारी बाँध प्रणाली कहलाती थी।

पर आप्लावन सिंचाई को आखिरी मार अब पड़ी। यह माना जाता था कि जमींदारी बाँध सिर्फ बाढ़ से सुरक्षा के लिये है। बाँध को काटना (जिसे कनवा कहा जाता था) या पुरानी नहरों में भरे पानी का सिंचाई के लिये उपयोग करना खास गिनती में नहीं आता था। पुरानी बड़ी नहरों को मृत ही माना जाता था या कहीं नाला कह दिया जाता था, पर इन सबसे कहीं भी सिंचाई शब्द नहीं जुड़ा था। पर इनसे जमींदार और जोतदार सिंचाई करते रहे, बाँध को चुपचाप काटकर या पानी लेकर। इन कटावों को सरकार बाढ़ से टूटा मानती रही और फिर उसे लगा कि बेमतलब मरम्मत के झमेले को खत्म ही कर दिया जाए। ऐसा किसान करते हैं, यह माना ही नहीं जाता था। पर एक बड़े बाँध में कैसे 40-50 कटाव हो जाएँगे, इस पर कभी गौर नहीं किया गया।

हुगली का हाल


विलकॉक्स को हुगली गजेटियर से काफी सारी नई जानकारियाँ मिलीं। 1846 में एक कमेटी ने सुझाव दिया था कि दामोदर पर बने तटबंध हटा दिए जाएँ और नदी को आजाद होकर नीचे बनी आप्लावन नहरों तक, जिसे कमेटी ने ‘नालों’ कहा था, जाने दिया जाए। इसने इन नालों (नहरों) के रख-रखाव और सफाई का सुझाव भी दिया था। पर कुछ भी नहीं हुआ। तटबंध रहे, नहरें उपेक्षित पड़ी रहीं। तटबंध को किसान काटते रहे और सरकार उसे टूटना मानती रही। गजेटियर के अनुसार, 1847 में 25 जगह बाँध टूटे, 1849 में 14 जगह, 1850 में 56 जगह, 1852 में 45 जगह और 1854 में 28 जगह। 1855 में सरकार ने तटबंधों को अपने हाथ में ले लिया और उनको एकदम चौकस कर दिया गया। अब उनमें ‘टूट’ नहीं होने दी जाती थी।

“जब सरकार ने तटबंधों को अपने हाथ में लिया तब उसने बाएँ तटबंध को खूब मजबूत किया। ईस्ट इंडिया रेलवे दूसरे तटबंध जैसी साबित हुई। ग्रैंड ट्रंक रोड को, जो पहले बाढ़ के समय में टूट ही जाता था, और ऊँचा किया गया और वह तीसरे तटबंध की भूमिका में आ गया। और सबसे ऊपर इडेन नहर के पाँच दोहरे बाँधों ने दामोदर को एकदम जकड़कर रख दिया। लेकिन इसके साथ ही नदी से लेकर हुगली के बीच का उर्वर और समृद्ध इलाका मलेरिया और बदहाली में डूबता गया।”

1859 में दामोदर के दाहिनी तटबंध का 20 मील लम्बा हिस्सा हटा दिया गया, क्योंकि उस तरफ की जमीन ऊँची थी। मई 1863 में ले. गर्वनर ने माना कि जिन इलाकों में बाढ़ का पानी भरता रहा उनकी उत्पादकता काफी बढ़ गई है। नीचे उतरने पर दामोदर अपनी बायीं तरफ की जमीन से 20 फीट ऊँचाई पर बहती है, इससे और आगे बढ़कर इसने दाहिने बाँध को तोड़ दिया और दो हिस्सों में बँट गई। बाढ़ के समय आज भी दामोदर अपनी दाहिनी तरफ के हिस्से में खुली घूमती है, पर बायीं तरफ एकदम मजबूत बाँध इसे रोके रखता है।

आप्लावन सिंचाई से वंचित होने वाले बर्दवान और हुगली के बारे में बर्दवान जिला गजेटियर कहता है, “महामारी वाले बुखार पर अपनी विशेष रिपोर्ट में डॉ. फ्रेंच का अनुमान है कि 1862 से 1872 के बीच एक-तिहाई आबादी समाप्त हो गई।”

ले. कर्नल कैंपबेल ने कहा था, “इस बुखार के पहुँचने के पहले हुगली जिले की आबादी करीब 20,00,000 थी और जिन 20 वर्षों तक इस बीमारी का जोर रहा आबादी घटकर 50 फीसदी रह गई।” लोक निर्माण विभाग के एडले ने 1869 में लिखा था, “स्थानीय लोगों का मानना है कि काना नदियों को बंद करना ही इस महामारी का कारण है और अगर दामोदर को खुला छोड़ दिया गया तो वही इसका इलाज कर देगी।” वे खुद भी मानते थे कि काना नदियों को बंद करने का फैसला ही महामारी का असली कारण है।

गलत उपचार


विलकॉक्स ने इस इलाके का इतिहास 1855 से देखा था। 1853 में काना नदी का एक सिरा बाँध से बंद कर दिया गया। लेकिन 1856 में बाढ़ ने इसे तोड़ दिया और 1863 तक फिर यह मुँह वैसे ही खुला रहा और तीन पुरानी नहरों को पानी देता रहा। 1875 में इन नहरों को पानी की व्यवस्थित आपूर्ति के लिये जमालपुर में रेगुलेटर बना। 1881 में इंडेन नहर भी खोजी गई। विलकॉक्स के अनुसार :

“जब 1928 के बसंत में मैंने इडेन नहर के आखिरी छोर को देखा था तब यह गाद के मारे नाली जैसी बन गई थी और अपनी क्षमता का सिर्फ सातवाँ हिस्सा पानी भर दे रही थी। 1927 में जमालपुर का रेगुलेटर सिर्फ दो दिन काम कर पाया था, क्योंकि मुख्य जलमार्ग में गाद भर गई थी। जैसे ही दामोदर एक निश्चित निशान से ऊपर उठती थी, इसे बंद कर देना पड़ता था। बंगाल में सिंचाई की चरम बदहाली थी...”

पुरानी नहरों में सबसे बाद में बंद होने वाली में काना नदी और काना दामोदर शामिल थीं। इनमें से काना नदी के बंद होने-टूटने का जिक्र पहले हुआ है। 1863 में मैमारी से चिकडिग्गी तक एक पक्की सड़क बनी और उसी ने इसका मुँह बंद कर दिया। काना दामोदर काना नदी से ही निकला था और सघन आबादी वाले इलाके के 3,60,000 एकड़ जमीन को सींचकर देश में सबसे उपजाऊ बनाए हुए था। इसके बंद होने से उन इलाकों में भारी तबाही हुई।

मध्य और पश्चिमी बंगाल की आप्लावन सिंचाई कभी इस लगभग एक करोड़ वाले क्षेत्र को समृद्धि और स्वास्थ्य का खजाना देती थी, लेकिन 1927 के बंगाल सिंचाई विभाग की रिपोर्ट के अनुसार तब तक सिंचाई का लाभ पाने वाला इलाका घटकर 2 लाख एकड़ रह गया था।

विलकॉक्स चाहते थे कि 70 वर्ष की गलतियों से सबक सीखते हुए कदम उठाए जाएँ। उनके आने तक ही पुरानी प्रणाली को पुनर्जीवित करने का काम 70 वर्ष पहले की तुलना में ज्यादा मुश्किल हो गया था। डेल्टा प्रदेश के नदियों का पेट हर साल नीचे से कुछ ऊपर आता जाता है। और यही हाल खेतों का होता है जिन्हें बाढ़ से आई गाद मिलती है। यह क्रम साल-दर-साल चलता है और इस दौरान कई नदियाँ अपना मार्ग बदल लेती हैं।

ओडीसा की अवस्था


विलकॉक्स ने पाया कि ओडीसा में स्थितियाँ एकदम अलग हैं। वहाँ नदियाँ उफनकर निकलती थीं और उन पर हर कहीं जमींदारी बाँध बने थे। इनको काटकर इस इलाके में सिंचाई की जाती थी, भले ही वह बहुत व्यवस्थित नहीं हो। मलेरिया के प्रकोप पर अंकुश था, नदियों का भरना नहीं होता था, खेतों को नई मिट्टी मिलती थी और तालाबों में नियमित पानी भरा जाता था। विलकॉक्स का मानना था कि ये काम जरूरी थे:

बूंदों की संस्कृति1. पुरानी नहरों की खुदाई और उसी मिट्टी से उनके बाँधों को मजबूत करना।

2. इन नहरों के मुहाने पर रेगुलेटर और फाटक लगाना।

3. नदियों के बाँध को मजबूत करना और उनमें भी नहरों के लिये रास्ता निकालना।

4. बाढ़ का संकट टलने पर पहले से तय कुछेक जगहों पर नहर के बाँधों को हर साल काटने की अनुमति।

5. ऊँची जमीन वाली जगहों पर हर साल बाँध काटने की अनुमति।

6. पक्के फाटक और रेगुलेटर वाली व्यवस्था को धीरे-धीरे छोटी नहरों तक ले जाना।

काना नदियों की मौत


मध्य बंगाल में नदियों के दिशा बदलने से दामोदर के कुछ जलमार्गों में अब पानी नहीं बहता। पानी भरे और मिट्टी से पटे ये जलमार्ग अब काना नदी कहे जाते हैं। विलकॉक्स ने लिखा था, “इन नहरों को यह नाम तभी मिल गया था जब ये पूरे जोशो-खरोश से बहा करती थीं, पर आज ये खड़े और बंद पानी के ताल भर हैं जिनसे मलेरिया और दरिद्रता का जोर बढ़ता है।”

इन कदमों से इस इलाके में आदर्श आप्लावन सिंचाई प्रणाली विकसित होती, पर उनके सुझावों को मानने की जगह मद्रास क्षेत्र की नकल की गई। इस पर विलकॉक्स ने बहुत व्यंग्यात्मक टिप्पणी की और बाँधों की नई व्यवस्था को “शैतानी जकड़बंदी” की संज्ञा दी।

बूंदों की संस्कृतिपुरानी नहरों को बंद कर दिया गया और नदियों की बाढ़ वाले पानी को खेतों में जाने से रोक दिया गया। सदियों से वही खेतों में नई मिट्टी लाती थी। नई नहरें बनीं, जिनमें कई नदियों के समांतर थीं और इनसे आप्लावन सिंचाई में बाधा आई। इन नई नहरों में से कुछ को सिंचाई नहर, कुछ को जल परिवहन नहर, कुछ को पेयजल नहर और एक को अक्टूबर जल नहर का कहा जाता था।

लोगों को पानी कर चुकाने की शर्त पर ही नहरों से सिंचाई के लिये पानी लेने की अनुमति थी। जिन लोगों की जमीन पहले एकदम डूब जाती थी और जिन्हें पानी के ‘अनुशासित’ होने से लाभ हुआ, वे तो फायदे में रहे, पर अधिसंख्य दूसरे लोग हर तरह से घाटे में रहे। उनको पहले पानी के लिये कोई धन भी नहीं देना होता था। इस ‘शैतानी जकड़बंदी’ में फँसी नदियों का जलमार्ग संकरा हुआ और एक बार फिर से दरिद्रता और मलेरिया ने इस इलाके को अपनी चपेट में ले लिया।

1928 में बिहार और ओडीसा की सरकार ने ओडीसा के डेल्टा प्रदेश की बाढ़ के बारे में इंजीनियरों की एक विशेषज्ञ कमेटी नियुक्त की। कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार :

“तटबंध वाली प्रणाली ही सारी समस्या की जड़ में है, यह कमेटी ने भी पाया और ओडीसा के लोगों का भी यही मानना है। तटबंधों से अर्द्ध संरक्षित क्षेत्रों के लोगों ने कमेटी से बार-बार यह कहा कि नहर सिंचाई प्रणाली समाप्त की जाए और नदियों के आप्लावन वाली व्यवस्था को आजाद किया जाए।

ऐसा लगता है कि इस पूरे क्षेत्र में तटबंधों वाली प्रणाली बिना किसी सोची-समझी योजना के अनुसार चलाई जा रही है।

तटबंध खास-खास इलाकों के हितों को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं और अन्य इलाकों पर इनका क्या असर पड़ेगा, इसकी परवाह नहीं की गई है।”


विलकॉक्स का कहना था कि विशेषज्ञ कमेटी की यह राय ओडीसा के साथ बंगाल पर भी लागू होती है।

सरल समाधान


विलकॉक्स का निष्कर्ष था कि बंगाल के लोग पहले जो कुछ करते थे उसी में समाधान निहित है :

1. नदियों के पानी के साथ ही बरसात के पानी को भी समेटकर चल सकने वाली लम्बी नहरें बनें, जो नदियों से शुरू होकर खाड़ी में गिरें।

2. व्यवस्थित सिंचाई के लिये ये एक-दूसरे के समांतर रहें। नदियों का पानी तालाबों में भरे, खर-पतवार जलकुम्भियाँ मरें, मछलियाँ आएँ और अच्छा पेयजल मिलने के साथ खेतों को उपजाऊ मिट्टी भी मिले।

3. आप्लावन नहरों या कानाओं को चौड़ा और गहरा बनाया जाए जिनसे नदियों का मटमैला पानी तो उनमें आ जाए और रेत नीचे बैठ जाए।

4. नदियों से इतना पानी ले लेना चाहिए जिनसे उनका प्रवाह संकीर्ण न हो।

उनका कहना था कि पुराने लोगों ने कोई व्यवस्था बाकी नहीं रखी थी। अब जरूरत इस बात की है कि उन्हें फिर से काम लायक बनाया जाए।

मीलों तक पूरे पानी को आजाद छोड़ना अलग है और नदी के ऊपरी मटमैले पानी को नहरों में ला देना एकदम अलग। जैसे 200 फीट चौड़ी और छह फीट गहरी नहरें पाँच-पाँच मील की दूरी पर बनी हैं। नहरों के बाँध पानी के ऊपरी हिस्से को भागने नहीं देते, नहर में पूरा का पूरा पानी आगे बढ़ता है। बारीक कणों वाले पानी को नदी से निकालने का प्रभाव उस पर अलग पड़ता है और मोटे कणों वाले पानी को भी निकालने का एकदम अलग। जैसा कि विलकॉक्स बताते हैं :

“दामोदर के बाँध ‘शैतानी जकड़बंध’ बन गए हैं, पर हम जिस चीज को खत्म नहीं कर सकते उसके साथ ही जीने की आदत डालनी होगी। दामोदर के बांई तरफ से पहले जो नहरें निकलकर हुगली की तरफ जाती थीं, सबसे पहले तो उन्हें पुनर्जीवित करना होगा। उनके मार्ग को साफ करना होगा और अंदर से निकली हल्की मिट्टी से बाँध बनाने होंगे। आगे से कभी भी इतनी डिब्बाबंद व्यवस्था नहीं करनी चाहिए।”

सारिणी 2.6.3 : 1850 तक बर्दवान और हुगली के बीच की जमीन में आप्लावन सिंचाई से सिंचित होने वाली कुल जमीन

नहरों के नाम (जिन्हें काना नदी कहा जाता था)

सकल सिंचित क्षेत्र (एकड़ में)

काना दामोदर

1,25,000

काना नदी

2,10,000

गया

35,000

इलसुरा

1,30,000

गांगुर

1,10,000

बांका

1,05,000

 

7,15,000

टिप्पणी : इनमें से छह मुख्य नहरें थीं और एक सहायक नहर।

स्रोत : विलियम विलकॉक्स 1930, एन्सिएन्ट सिस्टम ऑफ इरिगेशन इन बंगाल।

 

अनसुनी अपील


विलकॉक्स ने सरकार को इस काम की तात्कालिकता बतानी चाही थी और कहा था कि पुरानी प्रणाली को पुनर्जीवित करने में जितनी देर लगेगी लोगों को इस सार्वजनिक जमीन पर दखल करते जाने का बढ़ावा मिलेगा। दामोदर और अन्य सैकड़ों नदियों के लिये हर साल परेशानी बढ़ती जा रही है। हर साल मलेरिया लोगों को निगल रहा है और उनका एकमात्र पौष्टिक आहार, मछली भी उनसे छिनती जा रही है। दूसरी ओर इस देरी से अधिकारियों के दिमाग का पुर्जा भी पुरानी प्रणाली के खिलाफ कसता जा रहा है।

मुर्शिदाबाद और नादिया की बलुआही मिट्टी के लिये भी पुरानी सिंचाई प्रणाली ही सबसे उपयुक्त थी। औस (भदई) धान की कटनी अगस्त तक हो जाती थी और काना नदियों के बाँध काटकर खेतों में पानी भर दिया जाता था। इसी नमी से सर्दियों में शिंबी (दलहन) की खेती होती थी। ये बहुत मूल्यवान थे। उनका तर्क था कि “किसान पुरानी प्रणाली की वापसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब गंगा के मटमैले पानी पर हर किसी का हिस्सा था।”

जब विलकॉक्स ने पहली बार बाढ़ के समय केंद्रीय बंगाल के दृश्य का बर्नियर द्वारा बनाया नक्शा देखा तो वे हैरान थे कि इतने पानी के बीच लोग किस तरह धान उगा पाते होंगे। बर्नियर ने औस धान कटने के बाद नहरों से पानी छोड़े जाने पर नौका से इस पूरे क्षेत्र का दौरा किया था। और क्या दृश्य होगा इसकी कल्पना सिर्फ इस विवरण से की जा सकती है कि मुर्शिदाबाद जिले के बीचोंबीच वाला गोबरा नाला अपने दोनों तरफ की जमीन को लबालब करता, जलांगी के पानी से मिलकर उससे ऊपर बढ़ते हुए नादिया की तरफ जा रहा था। विलकॉक्स ने लिखा है :

“जब मैंने गाद भरे गंदे तालाबों की पूरी श्रृंखला के बीच एक हफ्ता समय गुजारा तो दोनों तरफ मलेरिया से पीड़ित किसान खस्ता हाल नजर आते थे। ऐसे में 70 वर्ष पूर्व के उस दृश्य की कल्पना भी कर पाना मुश्किल था कि इन्हीं में तब पीने लायक साफ पानी होता होगा, मछलियों की भरमार होगी और गाँवों में हृष्ट-पुष्ट और समृद्ध लोग रहते होंगे। अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम बंगाल की उस पुरानी सिंचाई व्यवस्था को आज पुनर्जीवित करें जब यात्री मध्य बंगाल को मिस्र जितना समृद्ध और बर्दवान को उत्पादकता के मामले में भारत में नम्बर एक मानते थे।”

असहमति की आवाज


सारे लोग विलकॉक्स की मान्यताओं से सहमत नहीं हैं। अपनी किताब डिके इन इरिगेशन एंड क्रापिंग इन बंगाल में अरविन्द बिस्वास कहते हैं, “विलकॉक्स की बातें सम्भवतः आंशिक रूप से ही सही हैं।” वे कहते हैं :

बूंदों की संस्कृति“अनेक तथाकथित नहरें आज नदियों या सोतों के पुराने जलमार्ग (छाड़न) लगते हैं। उनका मार्ग एकदम सर्पिल है, उनके तटबंध नहीं हैं और उनकी तलहटी धीरे-धीरे उथली होती गई है। लेकिन आज भी दामोदर और बांका के बीच दिखते मृत और प्राचीन गांगुर के एक हिस्से का उल्लेखनीय सीधापन हो या आज भी बांका के जीवन पर दामोदर का प्रभाव, विलकॉक्स की मान्यताओं में सच्चाई का पुट है।”

लेकिन बिस्वास भी मानते हैं कि नहरें हों या नदियों का पुराना मार्ग, इन्हीं जलमार्गों से बर्दवान 19वीं सदी के मध्य में खेती में देश का सबसे समृद्ध जिला था।17

यह विवाद भी आज तक जारी है कि इन सिंचाई नहरों को लोगों ने बनाया था या ये बड़ी नदियों की प्राकृतिक शाखाओं के मार्ग हैं। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वे ऊपरी इलाके से लाल मटमैला पानी लाकर काफी बड़े इलाके में फैला देती थीं, जिससे धान की एक फसली व्यवस्था के लिये उपयुक्त स्थितियाँ बनती थीं।

1850-1925 की अवधि बंगाल की खेती के इतिहास में बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यही दौर एक प्राचीन और कुशल प्रणाली के खत्म होने और नई इंजीनियरिंग पर आधारित व्यवस्था कायम होने के बीच का है। इस दौर में अकालों, सूखों, महामारियों, संकटों के दौर भी खूब आए और ग्रामीण समुदाय को अवर्णनीय कष्टों को झेलना पड़ा।

बिस्वास का मानना है कि काना नदियों का रख-रखाव न करने और उनको पुनर्जीवित करने के प्रति सरकार के अंधविरोध भाव ने बंगाल की परेशानियों को बढ़ाया। यह चीज नादिया जिले के नदियों की खस्ताहाली से सबसे अच्छी तरह उजागर होती है, जिनके चलते किसानों को भारी मुसीबतें उठानी पड़ीं और सरकारी अधिकारियों तथा स्वतंत्र अँग्रेज प्रेक्षकों का ध्यान भी वहाँ की समस्याओं की तरफ गया। 1867 में ही नादिया के ज्वाइंट कलेक्टर जे. वेस्टलैंड ने अपने एक पत्र में ‘नादिया बुखार’ के भय और पानी की कमी से जिले की आबादी में आ रही कमी पर चिंता प्रकट की थी। लोग भागकर दक्षिण की तरफ गए, मुख्यतः कलकत्ता, 24 परगना और जेस्सोर में भी।

सारिणी 2.6.4 : 1871 और 1934 के बीच धान की औसत पैदावार में गिरावट (किलो/हेक्टेयर)

जिला

1871-76

1881-87

1903-11

1924-34

बर्दवान

1,120

1,455

746 (1910)

746 (1924)

मिदनापुर

1,270

1,270

802 (1911)

-

हुगली

965

914 (1885)

764 (1907)

746 (1930)

हावड़ा

940

-

840 (1907)

672 (1334)

24 परगना

1,100

1,100 (1887)

802 (1911)

746 (1924)

नादिया

700

450

450 (1910)

373 (1926)

मुर्शिदाबाद

1,100

-

-

672 (1924)

मालदा

820

895

-

672 (1928)

पश्चिम दिनाजपुर

1,100

1,00

-

634 (1934)

स्रोत : ए मित्र, 1870-1950, एन एकाउंट ऑफ लैंड मैनेजमेंट इन वेस्ट बंगाल

 

एच. विलियम्स ने 1884 में नादिया के सहायक कलेक्टर को जो चिट्ठी लिखी थी उससे पानी की तंगी और बीमारियों के जोर की ज्यादा साफ तस्वीर उभरती है। उनका यह पत्र “एक तरह का विरोध है जिसे लिखना इस बदहाली और उस पर सरकार की उपेक्षा देखने वाले हर आदमी का अधिकार है। यह सारा कुछ सरकार द्वारा नदियों से आँख फेर लेने के चलते हुआ।” अपने पत्र में विलियम्स ने लिखा था कि सरस्वती खाल, सोनादर खाल, कजला और यहाँ तक की जलांगी नदियों की हालत खराब है। इनमें पानी की मात्रा बहुत घट गई है और इनका पानी भी बहुत नीचे बहता है। माथभंगा की छोटी शाखाएँ भी मुख्य नदी से छिटक गई हैं और अब तो अक्सर उनकी तलहटी में भी खेती की जाने लगी है। विलियम्स ने लिखा था :

“इस प्रकार जो जिला नदियों के मामले में नक्शे पर इतना अद्भुत लगता है, सरकारी उपेक्षा से बर्बाद हो गया है। इसमें लोगों के स्वार्थी व्यवहार का भी कुछ हाथ है। जब तक गंगा में असाधारण बाढ़ न आए, इस जिले में गंगा जल की एक बूँद भी नहीं आ पाती है। जहाँ तक सिंचाई की बात है, सूखे के इस वर्ष में लोग खाल का नदियों में मिलने वाले थोड़ा-बहुत पानी के पीछे जान लगाए फिर रहे हैं; जबकि हम जानते हैं कि थोड़े प्रयासों से ही नदियों की धाराएँ ही हजारों एकड़ जमीन की सिंचाई कर देतीं।”

बर्बादी के बारे में


19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में सरकारी उपेक्षा से हुई नदियों की बदहाली जमीन और पानी का अमीरों द्वारा मनमाना उपयोग, सिंचाई के मामले में लोगों की तरफ से मनचाही पहल का न होना तथा औचित्यहीन ढंग से रेलमार्गों के निर्माण ने इस क्षेत्र की कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया। यही क्रम इस सदी के पहले 25 वर्षों में भी चलता रहा है। पश्चिमी और मध्यवर्ती बंगाल में प्राचीन नहर प्रणाली की समाप्ति के साथ ही किसानों को अपनी जान बचाने भर के लिये न जाने कितनी मुश्किलों से जूझना पड़ा। जमीन अनुर्वर हो गई। जल निकासी के रास्ते बंद से हो गए। मलेरिया ने अड्डा जमा लिया, क्योंकि पोखर, गड्ढे और नदियों के छाड़न में पड़ा पानी गंदा होता गया। जो इलाका कभी भारत का गौरव था वहाँ रोज अकाल की छाया मंडराती थी। पर हालात की नजाकत चाहे जो कहे, सरकार ने न तो पुरानी नहर और जल निकासी व्यवस्था बहाल की और न ही किसानों को कोई ऐसी नई प्रणाली दी जो उनकी न्यूनतम जरूरतें भी पूरी कर पाती।

बाढ़ के पानी की सिंचाई न मिलने से बंगाल में, खासकर बर्दवान, हुगली और बांकुड़ा तथा मिदनापुर के कुछ-कुछ इलाकों में जो हालत पैदा हुई उसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री राधा कमल मुखर्जी ने ‘लाल जल अकाल’ का नाम दिया था। हालाँकि, 19वीं सदी के आखिरी दिनों में पानी की कमी नहीं, सचमुच के अकाल ने बंगाल की खेतिहर अर्थव्यवस्था को तबाह करके रख दिया। सबसे बड़ा अकाल 1865-66 में पड़ा था। इस अकाल का थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा असर पूरे पश्चिमी और मध्यवर्ती बंगाल पर पड़ा, लेकिन इसकी सबसे बुरी मार मिदनापुर पर पड़ी। 1850 से 1880 के बीच सामानों का अकाल तो एक नियमित चीज थी। और इन 30 में से कम-से-कम छह वर्षों में तो यह तंगी सचमुच के अकाल जैसी ही थी। इन अकालों का दुष्प्रभाव हर साल अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग पड़ा। इन्हीं अकालों के हंगामे के बीच 1880 में राहत की स्थायी व्यवस्था करने के उद्देश्य से अकाल आयोग का गठन किया गया। 20वीं सदी की शुरुआत में फसलों की पैदावार खेती के क्षेत्रफल और कई इलाकों की आबादी में आई गिरावट ही उस दौर की दरिद्रता का सबसे अच्छा आइना है। जैसे इडेन नहर क्षेत्र में जिस खेत को नहर का पानी मिलता था उसमें प्रति एकड़ औसतन 1,000 किलो धान हो जाता था, जबकि बरसात पर निर्भर खेतों में यह प्रति एकड़ 600 किलो से ज्यादा नहीं होता था। राढ़ के मैदानी इलाके और मुख्य डेल्टा क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में धान की पैदावार में स्पष्ट गिरावट आई।

और सबसे तेज गिरावट आई 20वीं सदी के पहले तीन दशकों में। यह गिरावट मौजूदा पश्चिम बंगाल के हरेक इलाके में आई। बर्दवान में सबसे ज्यादा गिरावट आई, जहाँ 1881 की तुलना में पैदावार करीब आधी रह गई। नादिया जिले की हालत 1881 में भी खराब थी और वहाँ की पैदावार में कोई खास फर्क नहीं पड़ा। पैदावार में गिरावट के साथ अधिकांश जिलों के फसल क्षेत्र में भी कमी आई। सिर्फ बीरभूम, मालदा और जलपाईगुड़ी जिले में खेती का रकबा नहीं गिरा। बीरभूम के पूर्वी हिस्से में खेती घटी तो संथालों ने दक्षिण की लगभग उतनी जंगल जमीन को साफ करके उसपर खेती आरम्भ कर दी थी। मालदा में बड़ी संख्या में संथालों और बिहारी मुस्लिम किसानों के आ जाने से असल जोत क्षेत्र बढ़ा ही। तंगन और पूर्णभाब घाटी के काफी नए इलाकों में खेती शुरू की गई। दियारा क्षेत्र में मक्के की खेती होने लगी। जलपाईगुड़ी में जंगल काटकर लगे चाय बगानों ने खेती वाला इलाका बढ़ाया।

19वीं सदी के उत्तरार्द्ध के सरकारी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, इसलिये सिंचाई या दो फसली खेती में कितनी कमी आई, इसका ठीक-ठाक आँकड़ा दे पाना सम्भव नहीं है। लेकिन हम अगर विलकॉक्स के कथनों को सही मानें तो 19वीं सदी के प्रथमार्द्ध में मुर्शिदाबाद, बीरभूम, मिदनापुर, बर्दवान, बांकुड़ा, हावड़ा और हुगली जिले वाले राढ़ मैदान के 8,00,000 एकड़ से ज्यादा क्षेत्रफल की सिंचाई होती थी, जबकि 1911 में इन सात जिलों का कुछ सिंचित क्षेत्र भाग 1,30,000 एकड़ ही था।

पैदावार की कमी, खेती के इलाके में कमी, सिंचित क्षेत्र में कमी, दो फसली खेती में कमी ने ग्रामीण बंगाल के आर्थिक जीवन को बदहाल कर दिया और इसमें सड़ांध पैदा कर दी। इसका असर इस क्षेत्र के विकास और यहाँ की आबादी के वितरण पर भी पड़ा।

इस दौर में औद्योगिक इलाकों या जंगल काटकर बने खेतों वाले क्षेत्र का प्रदर्शन अच्छा रहा, उत्तर में दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी जिलों में चाय और जूट, बर्दवान के आसनसोल अनुमंडल में खनिज आधारित उद्योग, कलकत्ता को केंद्रित करता हुआ हुगली की औद्योगिक पट्टी दक्षिण-पूर्वी मिदनापुर के वे मैदान जहाँ पानी की समस्या न थी और सुंदरवन के जंगल हटाकर खेती करने वाले कामों में बरक्कत रही। अगर जनसंख्या की घट-बढ़ से हम आर्थिक खुशहाली को मानें तो 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी का शुरुआती हिस्सा पश्चिमी और मध्यवर्ती बंगाल के लिये गम्भीर संकट का दौर था। यह संकट उन्हीं कारणों से आया जिनकी चर्चा पहले की जा चुकी है।17

सारिणी 2.6.5 : बदहाल क्यों हुआ बंगाल : ब्रिटिश राज में फसल वाले इलाके में आई कमी (जिले के प्रतिशत जमीन के हिसाब से)

जिला

1871

1911

1921

बर्दवान

68

49

38

मिदनापुर

65

53

52

हुगली

50

48

39

हावड़ा

-

52

48

24 परगना

55

32

23

नादिया

-

41

40

मुर्शिदाबाद

73

44

41

मालदा

50

64

55

पश्चिम दिनाजपुर

-

56

52

स्रोत : अरविन्द बिस्वास 1850-1925, द डिके ऑफ इरिगेशन ऐंड क्रॉपिंग इन वेस्ट-बंगाल

 

ऐसा लगने लगा था कि भयावह अकाल के बिना सरकार के कानों पर जूँ ही नहीं रेंगती। 1896-97 में जबरदस्त सूखे से खाद्य पदार्थों का बड़ा अकाल पड़ा और दूसरा अकाल आयोग बैठा। इसके तत्काल बाद 1897-98 और 1899-1900 में दो और बड़े अकाल पड़े। इतनी प्राकृतिक आपदाएँ आने के बाद 1901 में पहला सिंचाई आयोग गठित किया गया। इसके सुझावों को भी पूरी तरह लागू नहीं किया गया और बंगाल पर इनका कोई खास असर नहीं हुआ। 1926 में बने रॉयल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर ने बंगाल के मामले को एकदम अलग माना। पर यह मानकर उसने यह एकतरफा तर्क दिया कि बंगाल में अकालों का कारण सिंचाई की कमी नहीं, जल निकासी व्यवस्था का अभाव है। उसने कहा, “बंगाल की समस्याएँ देश के अन्य भागों से अलग हैं और ये पानी की कमी से नहीं, ज्यादा पानी के टिके रह जाने के चलते हैं।” इसने जल निकासी व्यवस्था की गड़बड़ को नदियों में गाद भरने, खड़े पानी पर जलकुम्भियों के फैलाव, बाढ़ से नुकसान, जल परिवहन की परेशानियों, शौच और सफाई से जुड़ी समस्याओं और मलेरिया के लिये उपयुक्त तालाब-गड्ढों की मौजूदगी से जोड़ दिया।

आयोग यह नहीं समझ पाया कि पहले बंगाल के लोग ‘इतने अधिक पानी’ वाली परेशानी से कैसे पार पाते थे। लोग इस पानी को विस्तृत मैदानी इलाके में फैलाकर बाद में उपयोग में लाते थे, यह बात उसकी समझ में नहीं आई।

अरविंद बिस्वास कहते हैं, “19वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 20वीं सदी के शुरू के आर्थिक बदहाली काफी हद तक सरकार और लोगों दोनों तरफ से हुई नदियों के जल प्रबंध की उपेक्षा का परिणाम है।”

 

हरियाणा : वह भूली नदी

मैं तीस वाले दशक में चंडीगढ़ से 40 किमी दक्षिण एक गाँव में पला-बढ़ा। गाँव से एक किमी दूर बहने वाले सोते को ‘नदी’ कहते थे। वर्षा के लिये हम इंद्र भगवान की कृपा पर ही निर्भर रहते थे। लेकिन लोग नदी में 56 मीटर लम्बा, एक मीटर ऊँचा बाँध भी बनाते थे जो आधार पर करीब दो मीटर चौड़ा होता था। हममें से किसी ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि यह कब से होता रहा है। हिमालय की पहाड़ियों से आने वाले इस दरिया के रास्ते में दूसरे गाँव भी ऐसा करते थे।


अक्सर किसी एक शाम को गाँव के बुजुर्ग लोग मिलकर तय करते थे कि बाँध बनाने का समय आ गया है। और इसके बाद हम पास के गाँव के लोगों के साथ मिलकर ढोल बजा-बजाकर इसकी मुनादी कर देते थे। हमारा गाँव करीब 2,000 की आबादी वाला था। कुछ घंटों में बाँध बन जाता था। इसके बाद जश्न मनाया जाता था। बारिश होती थी। तो सोते का पानी बहकर हमारे खेतों में पहुँच जाता था। अच्छी बारिश होती तो बहाव से 500-700 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई हो जाती थी। पानी बढ़ता देख आठ-दस ग्रामीण बाँध पर खड़े रहते ताकि उसमें कोई दरार न आए। बाँध काफी कमजोर होता था, दरार होने से उसे भरना पड़ता था। कभी-कभी कोई ग्रामीण चेतावनी देता घूम जाता कि नदी की बाढ़ गाँव में भी पहुँचने वाली है। तब हम बाँध को तोड़ देते थे और पानी बह जाता था। कभी-कभी कोई किसान शिकायत करता कि पानी आराम से आने के बदले तेज धार के रूप में उसके खेत में आ गया और अच्छी उपजाऊ मिट्टी की जगह रेत भर गया। इसका मतलब होता था, पानी के साथ अगले वर्ष फसल पर खतरा!

बुजुर्ग फैसला करते थे कि बाँध को काटा जाये या नहीं, क्योंकि तब भी कुछ किसानों के खेतों को पानी मिल रहा होता। कभी-कभी एक बाँध बह जाता था तो दूसरा बाँध बनाना पड़ता था। असली फायदा यह होता था कि बाढ़ के साथ उपजाऊ मिट्टी खेतों में फैल जाती थी। हमारे गाँव के खेत पड़ोसी गाँवों के खेतों से ज्यादा उपजाऊ थे। लोग जानते थे कि इसकी वजह है शिवालिक पहाड़ियों से बहकर आने वाली मिट्टी। मजाक में कहा जाता था कि हमारे यहाँ बच्चों को हमारी मिट्टी में रोप दो तो वे तुरंत जवान हो जाएँगे। नेता लोग जब हमारे गाँव आकर पूछते थे कि हमें कुछ चाहिए तो नहीं, तो हम कहते थे कि यहाँ सब ठीक है। केवल बाढ़ के कारण थोड़ी परेशानी होती है।

एक दिन एक नेता ने सिंचाई विभाग वालों को दरिया पर पक्का बाँध बनाने के लिये भेज दिया। इसका मतलब यह था कि अब दूसरा पानी गाँव में नहीं आएगा। कुछ वर्षों बाद जब मैं कॉलेज में पढ़ने गया तो जल विज्ञान की किताबें पढ़ीं। छुट्टियों में जब मैं गाँव गया तो मैंने बुजुर्गों से पूछा कि क्या नदी से अब उन्हें कोई परेशानी है। उन्होंने जवाब दिया- नहीं। मैंने उनसे पूछा कि क्या अब भी बाँध बनाया जाता है। उनका जवाब था कि अब इसकी जरूरत नहीं है, क्योंकि अब नदी गाँव में नहीं आती। लेकिन जब मैंने कहा कि यह तो गाँव के लिये बहुत बुरा हुआ, तो वे समझ नहीं पाए। उन्हें अब नलकूपों से पानी मिल रहा था। मैं जानता था कि अगर उन्हें नलकूपों में हमेशा पानी चाहिए तो नदी का पानी फिर लाना होगा। लेकिन मैं किसी को अपनी बात पर विश्वास न दिला सका, क्योंकि उन्हें नहीं लगता था कि नलकूपों में कभी पानी घटेगा। लेकिन फर्क केवल 10-15 साल बाद ही पता चलेगा।

पंद्रह वर्ष बीत चुके हैं। मैं लगभग हर वर्ष गाँव जाता हूँ। लोगों का रहन-सहन बदल गया है। कच्चे घर पक्के हो गए हैं और हरेक घर में चापाकल लगा है। हरेक घर में कुर्सियाँ दिखती हैं और भोजन पौष्टिक हो गया है। बच्चे स्वस्थ दिखते हैं। लेकिन भविष्य के लक्षण उभरने लगे हैं। हमारे और दूसरों के घरों के चापाकल भारी चलने लगे हैं। मुझे पता है कि क्या हो रहा है। भूमिगत जल का स्तर गिरता जा रहा है। हमारे और दूसरों के घरों की ईंट की दीवारें दरकने लगी हैं। गाँव में दो पोखर थे- गंदे, जैसे आमतौर पर गाँवों के पोखर होते हैं। मवेशी और बच्चे इनमें नहाते थे। इनमें नहाकर मेरे आँख-कान में भी रोग होता था। दरिया का बहाव बंद हो गया तो लोग नलकूपों से पानी लेने लगे। उन्हें पोखरों की जरूरत नहीं रही। दरिया का पानी बंद होने से ये सूख भी गए। मवेशियों को भी नलकूपों से पानी मिलने लगा। मुझे जो डर था वही सच होने लगा- गाँववालों ने जिस नदी को खारिज कर दिया था उसने जीवनदायिनी की भूमिका छोड़ दी थी। - रामा

 

 

दिल्ली : नदी की हत्या

प्राचीन दिल्ली में जल आपूर्ति की जो पारम्परिक व्यवस्था थी, आधुनिक दिल्ली में उसके ठीक विपरीत हरेक जलस्रोत व जल प्रवाह को नाले में बदल दिया गया है। दिल्ली में यमुना 48 किमी की यात्रा करती है वजीराबाद में प्रवेश करके ओखला तक। यमुना जल को वजीराबाद और चंद्रावल में जमा किया जाता है। दिल्ली में पाइप से पानी पहुँचाने के लिये 1889 में पहली बार चंद्रावल गाँव में कुएँ खोदे गए थे। यमुना से पानी लेना 1925 में शुरू किया गया, जब वजीराबाद गाँव में इस पर बाँध बनाया गया। बाद में 1957 में उस जगह बाँध बनाया गया जहाँ नजफगढ़ नाला यमुना में मिलता है। इससे 50 वाले दशक में हैजे की भयानक महामारी फैली।

दिल्ली को न केवल पीने का पानी चाहिए, बल्कि इसके एक करोड़ निवासियों और कई कारखानों के कारण बने कचरे के निबटारे की व्यवस्था भी चाहिए। दिल्ली के 19 नाले यमुना में गिरते हैं। इनमें सबसे प्रदूषित है नजफगढ़ नाला, जो वजीराबाद पम्पिंग स्टेशन से 100 मी. आगे के बहाव पर यमुना से मिलता है। इन दोनों के बीच वजीराबाद बाँध है। ठंड और बारिश के मौसमों को छोड़ बाकी दिनों में पम्पिंग स्टेशन के पानी को प्रदूषण से बचाने के लिये नाले और बैराज के बीच रेत भरे हजारों बोरे डाल दिए जाते हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 1982-86 के आँकड़े बताते हैं कि नाला प्रतिदिन नदी में 10.28 करोड़ टन कचरा गिराता है।

शानदार नदी

यमुना कभी शानदार नदी थी। इसके दाहिनी किनारे पर बड़ी इमारतें, सुंदर घाट और मंदिर थे। नजफगढ़ नाले से 1 किमी आगे गुरुद्वारा मजनूं का टीला है। यहाँ गुरुनानक आया करते थे, इस वजह से कई सिख गुरु भी आए। गुरुद्वारा के पास ही तिब्बती शरणार्थियों की बस्ती है। इससे आगे कई घाट और अखाड़े हैं। पुराने समय में ये घाट और अखाड़े शहर की सामाजिक गतिविधियों के केंद्र थे। संत, पीर और पश्चातापी यहाँ आया करते थे। जाति बहिष्कृतों, अनाथों, विद्रोहियों को यहाँ शरण मिलती थी और भोजन भी। कई अखाड़ों में तैरना भी सिखाया जाता था। एक समय जंगला सिंह तैराक संघ के 5,000 से ज्यादा सदस्य थे।

इन घाटों के बाद पुराना यमुना पुल है। एक समय यमुना लाल किले के ठीक पास से बहती थी। अब दूर चली गई है। जब नेताओं की समाधि नहीं थी, वहाँ पर यमुना की दलदली जमीन थी और साइबेरियाई सारस के अलावा कई पक्षी आते थे। प्रदूषित यमुना जल का प्रयोग अब समाधियों के पास के बगीचों, पोखरों में नहीं होता। इनके लिये भूमिगत जल का प्रयोग किया जाता है।

जैसे-जैसे नदी आगे बढ़ती है, इसका प्रदूषण बढ़ता जाता है।1 यह नदी में बढ़ते खरपतवार से पता चल जाता है। समाधियों के बाद राजघाट और इंद्रप्रस्थ बिजलीघर है जो हजारों टन राख और विषैला कचरा नदी में प्रवाहित कर देते हैं। इसके बाद निजामुद्दीन पुल और बारापुला नाला है जो कचरा डालने के मामले में नजफगढ़ नाले के बाद सबसे बड़ा है।

ओखला जल संशोधन संयंत्र

ओखला में यमुना एक बार फिर नाले से नदी में बदल जाती है। ओखला बैराज से थोड़ा पहले ही हिंडन कट नहर से भारी मात्रा में पानी गिरता है, ताकि आगरा नहर को पानी मिले। 1984 तक दक्षिण दिल्ली की बस्तियों को ओखला जल शोधन संयंत्र से पानी मिलता था। लेकिन हैजा और पीलिया की महामारियों के कारण नगर निगम को ओखला से जलापूर्ति रोकनी पड़ी और भागीरथी जल आपूर्ति योजना से दक्षिण दिल्ली को जोड़ना पड़ा। मिट्टी के भारी जमाव के कारण पुराना ओखला बैराज बंद है। आगरा नहर के मुहाने पर खर-पतवार का भारी जमाव है और पानी से भारी बदबू आती है। पुराने बैराज से 3 किमी आगे नया बैराज बनाया गया है। बैराज के पास यमुना आगरा नहर की ओर मुड़ जाती है, महानगर की महागंदगी साथ लेकर बैराज के आगे नदी नहीं, नदी का खाली पेट ही दिखता है।

दिल्ली में जल आपूर्ति

दिल्ली को पानी की आपूर्ति तीन स्थानों- उत्तर दिल्ली में वजीराबाद और चंद्रावल, पश्चिम दिल्ली में हैदरपुर, और पूर्वी दिल्ली में भागीरथी से होती है। ओखला संयंत्र बंद करना पड़ा, क्योंकि पानी बहुत कम हो गया था। नदी में 19 नाले गिरते हैं। मुरादनगर गंगा नहर का पानी शुरू में केवल यमुना पार की बस्तियों के लिये था, मगर अब उसे दक्षिण दिल्ली भेजा जाने लगा है।

शहर में कचरा निपटारे की व्यवस्था भी लचर है। इंजीनियर लोग सीवर बनाने की जगह प्रदूषित पानी को अरावली पहाड़ियों से बहने वाले 19 नहरों में बहा देते हैं। एक समय में ये नहरें वर्षाजल को बहाने के लिये बनाई गई थीं, जो कुओं-बावड़ियों को भी जलप्लावित कर देती थीं। अब ये नहरें वर्षाजल से ज्यादा औद्योगिक और घरेलू कचरा बहाती हैं। इस तरह ये सभी जल साधनों को प्रदूषित कर देती हैं।

पानी के दूसरे स्रोत

1983 से दिल्ली न केवल यमुना से पानी ले रही है, बल्कि पंजाब की रावी, सतलज और व्यास नदियों से भी- भाखड़ा-व्यास जल भंडारण व्यवस्था के जरिए, गंगा और उसकी सहायक नदियों से तथा शहर और आस-पास के कुओं से भी। इस तरह यह शहर पानी के लिये पाँच नदियों और जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश पर भी निर्भर है, जहाँ से ये नदियाँ गुजरती हैं।

दिल्ली की जल आपूर्ति व्यवस्था तब तक कारगर रहेगी जब तक ये नदियाँ उसे पानी देती रहेंगी, राज्यों के मुख्यमंत्री दिल्ली की बात मानते रहेंगे और जल वहन व्यवस्था छिन्न-भिन्न नहीं की जाएगी। इनमें से एक भी बात गड़बड़ हुई, यह व्यवस्था चरमरा जाएगी। दिल्ली के नागरिकों को अप्रैल-मई 1988 के कटु अनुभव याद होंगे जब वजीराबाद और चंद्रावल में जलस्तर खतरनाक रूप से नीचे चला गया था और दोनों संयंत्रों को बंद करना पड़ा था। तीसरा संयंत्र 20 फीसदी क्षमता पर ही काम कर रहा था। जाहिर है, जल और स्वच्छता सम्बन्धी नीतियों की कड़ी समीक्षा जरूरी है। बेकार हुए कुओं-बावड़ियों जैसे ऐतिहासिक जलस्रोतों को फिर से उपयोग लायक बनाने के उपाय करने चाहिए। यमुना जो आज गन्दा नाला बन गई है, उसकी पवित्रता बहाल की जानी चाहिए। दिल्ली के आधुनिक लोगों को पुराने शासकों के मूल्यों को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए, जो पर्यावरण के प्रति बहुत संवेदनशील थे और स्थानीय जलस्रोतों के महत्त्व के बारे में जिनकी सोच बहुत साफ थी। -द्विजेन कालिया

 

 

राजस्थान : बदहाल हुए कुंड

कुंड और कुएँ जलन-समुदाय के धार्मिक और आर्थिक ताने-बाने में गुंथे हुए थे, मगर वक्त के साथ कामन इलाके में यह रिश्ता टूट गया। शहर के कुंड बड़े जलस्रोत थे और कुम्हार इन कुंडों की मिट्टी बरतन बनाने के लिये लिया करते थे, जिससे उनमें गाद-मिट्टी जमा नहीं हो पाती थी। तीर्थयात्रियों के लिये इन कुंडों का बड़ा धार्मिक महत्त्व था।

भरतपुर जिले का कामन इलाका गंगा के विशाल मैदानी क्षेत्र का एक हिस्सा है। 84 कोस (270 किमी) के क्षेत्रफल में फैला कामन बृज यात्रा में शामिल है। अगस्त-सितम्बर के महीने में हर साल यहाँ दस-पंद्रह हजार वैष्णव तीर्थयात्री आते हैं। कृष्ण के नाना राजा काम सेन के नाम पर बसे इस शहर में कभी 84 कुंड थे, जिनके साथ मंदिर जुड़े थे। आज ये सभी कुंड अतिक्रमण के कारण गायब हो गए हैं। छह-सात जो बचे हैं वे भी बुरी हालत में हैं। शहर को प्रतिदिन एक घंटे नल में खारा पानी मिलता है। महिलाएँ आज भी कुंडों के पास बने कुओं से मीठा पानी लेती हैं।1

इन स्रोतों को दुरुस्त और स्वच्छ रखने के लिये कुछ नहीं किया जाता। शहर के धार्मिक महत्त्व को बहाल करने और सुरक्षित रखने के लिये निवासियों ने बृज विकास समिति बनाई, लेकिन यह भी बहुत असरदार साबित नहीं हुई। जल साधन की पुष्टि करने के लिये कुंडों के महत्त्व को स्वीकार करने और खारापन से प्रभावित इस निचले इलाके के लिये उनके संरक्षण की कोशिशें करने की जरूरत है।

शहर अंग्रावली, बड़गढ़, सवलाना, इंद्रवली, कालावत आदि बाँधों से घिरा था। इन बाँधों में पानी कुछ महीनों तक जमा रहता है और फिर मिट्टी के ऊपरी खारापन को सोख लेता है। इस तरह जल साधनों में फिर से पानी जमा हो जाता है। कुछ समय बाद इन बाँधों का पानी बहकर नीचे के कुंडों में जमा होता है। इन बाँधों के पीछे रबी फसल उगाई जाती है।

तीर्थयात्री और साधु इन कुंडों में स्नान किया करते हैं। इनका काफी धार्मिक महत्त्व था। इनमें लोग साबुन लगाकर नहीं नहाते थे, ताकि ये गंदा न हो। कामन नगरपालिका के सदस्य और पुजारी मोती लाल पुजारी बताते हैं कि महिलाएँ जाड़े में भी चार बजे भोर में यहाँ पानी भरने आती हैं।

आज बिमल कुंड ही प्रमुख कुंड बचा है और धार्मिक महत्त्व का है। इसके चारों ओर मंदिर और पूजा स्थल बने हुए हैं। पुजारी के मुताबिक, इस कुंड की हालत खराब है, शहर के लोगों ने इसके घाटों आदि की मरम्मत और सफाई आदि के लिये कुछ वर्षों पहले चंदा इकट्ठा किया था। बताया जाता है कि इस कुंड को मगध के राजा बिमल ने बनाया था, जिनकी सौ बेटियाँ थीं और सभी कृष्ण से विवाह करना चाहती थीं। कुंड मुख्यतः वर्षाजल से भरता था, यद्यपि सवलाना गाँव के बाँध से भी यहाँ पानी आता था। आगरा नहर का पानी भी कामन पहाड़ी नाले से इसमें आता था। करीब 30 वर्ष पहले इस कुंड को खाली करके साफ किया गया था। लोगों का विश्वास है कि इस कुंड का पानी कई रोगों को ठीक करता है।

दूसरे कुंड हैं- श्री कुंड, शीतला कुंड, गरुड़ कुंड और गया कुंड। श्री कुंड शहर से कुछ दूर खेतों के बीच में बना है। इसके किनारे पर एक कोटा मंदिर है। कुंड में पानी नीचे जाकर है। घाट की सीढ़ियाँ टूट-फूट गई हैं और घाट भी। इसके पास के कुछ कुओं में अभी भी पीने का पानी मिलता है। मंदिर में रहने वाले साधु इन कुओं का इस्तेमाल करते हैं। कुंड में मुख्यतः वर्षाजल भरता है। लेकिन एक निवासी के मुताबिक, अतिक्रमण और खेतों के कारण पहाड़ियों से आने वाला पानी इस तक नहीं पहुँच पाता। शीतला कुंड भी खेतों के बनने से अतिक्रमण का शिकार हुआ है।

पुजारी के मुताबिक, इन वर्षों में धार्मिक आयोजनों में कमी के कारण खेतिहरों और खेत मजदूरों ने पटवारी से मिलकर जमीन पर अधिकार कर लिये। पहले इन कुंडों में निचली धीमर जाति के लोग सिंघाड़ा उपजाते थे, लेकिन अब यह बंद हो गया है। पहले कुम्हार लोग इन कुंडों की गाद साफ करते थे। अब यह भी लगभग बंद हो गया है। गया कुंड सूख गया है और गरुड़ कुंड में खेती होने लगी है। पुराने घाट गायब हो चुके हैं, यद्यपि गरुड़ का मंदिर अभी मौजूद है। पुराने कुएँ में मोटर लगाकर पानी खींचा जाता है और कुंड के तल में बने खेतों की सिंचाई की जाती है।1

 

 

उत्तर प्रदेश : जोहड़ों का दर्द

कांधला के जो जोहड़ कभी पानी की व्यवस्था, शहर का पर्यावरण ठीक रखने के साथ ही वहाँ के खेतों के लिये खाद मुहैया कराते थे और नाली और सफाई व्यवस्था के लिये आवश्यक थे, आज गंदगी और बीमारी फैलाने वाले मच्छरों के भंडार बन गए हैं। इस कस्बे के नाले खत्म हो चुके हैं और खुली नालियाँ गंदा डबरा बन गई हैं। कई पुराने कुएँ कीचड़ और गंदगी से भर गए हैं और आज यह कस्बा भूमिगत जल के भंडार के बावजूद पानी की कमी झेल रहा है। बढ़ती आबादी ने जोहड़ों को भी भरकर अपना आवास बना लिया है। तालाबों को जोड़ने वाली नहरों पर भी जगह-जगह अतिक्रमण किया गया है जिससे जल बहाव रुका है। अब बंद नाले और बदबू मारती गंदगी इस शहर की पहचान बन गई है।

करनाल और कैराना के साथ कांधला भी महाभारत काल जितना पुराना बताया जाता है। दुर्योधन ने कर्ण को इन तीनों को दान दिया था। कांधला दिल्ली से उत्तर-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर शहर से 46 किमी दूर है। गंगा के मैदानी इलाके में यह पूर्वी यमुना नहर के करीब है। मिट्टी उपजाऊ और जलोढ़ है। कहीं-कहीं सतह पर खारापन है। शहर ऊँचाई पर बसा है। बरसात के दौरान बाढ़ में डूबने वाली निचली जमीन नहर के पास है। नहर की योजना शाहजहाँ (1627-58) के समय में बनी थी और उसे मुहम्मद शाह के जमाने (1719-48) में बनाया गया। 1830 में उसे सिंचाई के लिये खोला गया।1

यहाँ के कई जोहड़ों को भूमिगत या खुले नालों-नहरों से जोड़ा गया या शहर से निकलने वाला पानी कृष्णी नदी में बहता था। मुजफ्फरनगर जिला गजेटियर के मुताबिक, शहर के पड़ोस का इलाका दलदला था, मगर “शहर की जल निकासी व्यवस्था संतोषजनक थी। ऊँचाई पर बसे होने के कारण गलियाँ ढलाऊ थीं जिससे जल निकासी आसानी से होती थी और आम लोगों का स्वास्थ्य ठीक था।” ऐसे 11-12 तालाब थे। सूरजकुंड और पक्का तालाब के साथ मंदिर थे।

हिंदू कॉलेज के पास के बड़े तालाब को नाले से सलारे-का-जोहड़ से जोड़ा गया था। यह जोहड़ मुलानो वाला जोहड़ से भी जुड़ा था। दूसरा नाला इस तालाब को मकदून साहब के जोहड़ से जोड़ता था। यहाँ से पानी कृष्णी नदी में नाले से ले जाया जाता था। एक नाला चापड़ जोहड़ को भी मकदून साहब के जोहड़ से जोड़ता था। शहर में नाला पक्की सड़कों के किनारे बहता था और कुछ खुले नालों से इन तालाबों में पानी पहुँचता था, जो इनमें नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ा देता था। पहले इस पानी का उपयोग जोहड़ों के किनारे सब्जियाँ उगाने में किया जाता था। आज भी किसान इन तालाबों के पानी का उपयोग फसल उगाने और मवेशी को नहाने में करते हैं।

गाँव के बड़े-बुजुर्गों का मानना है कि ये तालाब बहुत पुराने हैं। माना जाता है कि शिव मंदिर के पास मिला पक्का तालाब मराठों के द्वारा बनवाया गया था। इस तालाब में ईंट की दीवारें थीं और पानी तक सीढ़ियाँ बनी थीं। भक्त लोग इसमें स्नान करते थे। पूर्वी यमुना नहर के उपनहर के पास पाया गया सूरजकुंड भी इसी उपयोग में आता था। जब इस तालाब में जलस्तर गिर जाता था तब उपनहरों से इसमें पानी पहुँचाया जाता था। इलाके के ग्रामीणों के कहने पर जमींदार यह काम करवाते थे। शहर के एक निवासी नारवीकर स्वरूप याद करते हैं कि सूरजकुंड में अभी हाल तक काफी मछलियाँ हुआ करती थीं। आज इसके पानी पर हठी काई जमी है और कीचड़ भरा है।

कई बड़े जोहड़ों के साथ कोई धार्मिक भावना नहीं जुड़ी थी। ये शायद निचले इलाकों में पानी भरने के कारण बने थे। जोहड़ों के पास प्रायः ईंट भट्ठे हुआ करते थे। लगता है, ईंट के लिये मिट्टी की खुदाई से गड्ढे बनते थे और उनमें नालियों का पानी भरा जाता था।

चिकनी मिट्टी कच्चे घरों की छतें-दीवारें बनाने के काम आती थी। यह काम गर्मी के मौसम में किया जाता था, जब जोहड़ों में पानी घट जाता था। इससे इन तालाबों की गाद भी साफ हो जाती थी, उनकी जलग्रहण क्षमता बढ़ जाती थी और बरसात में बाढ़ पर काबू रखने में मदद मिलती थी।

पानी को ढेंकली या पनदौरी (दोनों तरफ रस्सी बँधी टोकरी) से बाहर निकाला जाता था। इन तालाबों से सिंघाड़ा, कमल-ककड़ी वगैरह भी मिलती थी। आज कांधला में सिंघाड़े की महँगी दरों से लोग दुखी हैं।

गाँव के हर धर्म-जाति के लोग इन तालाबों का उपयोग करते थे। आज ईदगाह और श्मशान घाट के जोहड़ बाँध के द्वारा अलग कर दिए गए हैं। आधा जोहड़ मुसलमान इस्तेमाल करते हैं, आधा हिंदू। एक समय ब्राह्मण लोग श्मशान घाट वाले जोहड़ का उपयोग किया करते थे।

आज इन अधिकांश तालाबों की हालत खस्ता है। कई तो भर दिए गए हैं और कई में जलकुम्भियाँ भर गई हैं। पानी का बहाव रुक गया है और ठहरा पानी मच्छरों का घर बन गया है। पिछले आठ-दस वर्षों में मलेरिया का प्रकोप बढ़ गया है। ईदगाह और श्मशान घाट वाले जोहड़ बुरी तरह प्रदूषित हो गए हैं। पास के कारखाने का कचरा तालाब के किनारे जमा किया जाता है। मनुष्यों और जानवरों का मल इन तालाबों के इर्द-गिर्द देखा जा सकता है। कांधला में खुली नालियों में ठहरा हुआ पानी आम है। बरसात में एक मीटर तक गहरा पानी जमा हो जाता है और शहर नरक बन जाता है।

1873 में बनी नगरपालिका निकम्मी है। इसके 18 में से 15 सदस्य चुने जाते हैं और तीन नामजद किए जाते हैं। निवासियों का कहना है कि नई समिति चुनी जाने के बाद से हालात और बदतर हुए हैं। पर लोग खुद भी अपने पुराने कामों या नागरिक के कर्तव्यों को भूलकर हालात को बिगाड़ते जाने में जुटे हैं। नगर पालिका नहीं थी तब यह व्यवस्था कैसे बनी और चलती थी, इसे वे याद नहीं करना चाहते।

पहले पीने का पानी कुओं से लिया जाता था और लोग इससे नहाते भी थे। बड़े-बुजुर्गों के मुताबिक, अधिकतर कुओं में मीठा पानी था। कुछ में ही खारा पानी था, जिनका इस्तेमाल कई रोगों के इलाज में होता था। आजादी के बाद ‘विकास’ के साथ नल के पानी के लिये इन कुओं की उपेक्षा कर दी गई। आज भी कुछ कुओं का इस्तेमाल हो रहा है और नल का पानी पूरा नहीं पड़ रहा। नलकूपों से पानी टंकी में चढ़ाया जाता है और पूरे शहर में आपूर्ति की जाती है। बिजली नहीं रहती तो जल आपूर्ति में रुकावट आती है। कुछ घरों में अभी भी पुराना चापाकल है, जिसे फिर से काम में लाने की कोशिश की जा रही है। पानी के लिये बर्तनों की कतार आम बात हो गई है। नल में पानी आता भी है तो घरों की ऊपरी मंजिल तक नहीं चढ़ता।

लेकिन किसानों को सिंचाई के लिये नलकूप आसान और सस्ते साधन नजर आते हैं। बढ़ती आबादी के लिये जमीन मुहैया कराने के वास्ते इन पुरानी प्रणालियों पर अतिक्रमण किया जा रहा है। नतीजतन, नाले जन-स्वास्थ्य के लिये खतरा बन गए हैं।

 

बिहार : ध्वस्त हुई परम्परा


दक्षिण बिहार में आहरों और पइनों के निर्माण और रख-रखाव की जिम्मेदारी जमींदारी पर थी। एफ. बुकानन ने अपनी पुस्तक ‘ऐन अकाउंट ऑफ डिस्ट्रिक्ट भागलपुर इन 1810-11’ में लिखा है, “नहरों और जलाशयों के निर्माण और मरम्मत का खर्च जमींदार देते थे।” इसके अलावा गौम नामक सामूहिक व्यवस्था भी थी, जिसके तहत हरेक जोतदार को शारीरिक श्रम के लिये प्रति खेत एक आदमी देना पड़ता था। लेकिन गौम की तारीख तय करने और उसकी घोषणा करने की जिम्मेदारी जमींदार की थी।

पानी का बँटवारा किसान खुद करते थे और यह टकराव का बड़ा कारण बनता था। बुकानन ने लिखा है कि “काश्तकारों में पानी का बँटवारा करने के लिये जमींदार उपयुक्त व्यक्तियों को नियुक्त करते थे।” पइन के गाँववालों को पानी के बँटवारे के लिये पाराबंदी व्यवस्था अपनाई जाती थी। आमतौर पर यह व्यवस्था आश्विन (सितम्बर मध्य) के महीने में शुरू की जाती थी, जब माँग बढ़ती थी और पानी की कमी रहती थी। बाकी समय में पइन की सभी नहरें खुली रहती थीं। हरेक गाँव को दिनों या घंटों के हिसाब से पानी दिया जाता था, ताकि दो हफ्ते में सभी को उचित मात्रा में पानी मिल सके। गया जिले में पाराबंदी के नियम लिखित थे। लाल बही नामक खाते में हर गाँव के सिंचाई सम्बन्धी अधिकार दर्ज थे। यह बही जमींदारों के पास होती थी और वे इसका हिसाब-किताब रखते थे।

लगान वसूली


सिंचाई की इन व्यवस्थाओं को अपरिहार्य माना गया था और इसी कारण 1849 में गया के एक कलेक्टर ने जमींदारों द्वारा जबरन लगान वसूली पर रोक लगाने से मना कर दिया था। 1901-3 में भारतीय सिंचाई आयोग के गठन से पहले एक और कलेक्टर ने भी ऐसी ही राय जाहिर की थी। लेकिन दूसरे अधिकारियों ने उसका इस तर्क के साथ समर्थन नहीं किया कि इससे सिंचाई व्यवस्था ठप हो जाएगी। सो, बाद में लगान वसूली पर काश्तकारों और जमींदारों के बीच टकराव बढ़ने लगा तो इसे खत्म करना आवश्यक बन गया। बंगाल के काश्तकारी कानून (1885) के अनुसार जब लगान में पैदावार की जगह नकदी देने का प्रावधान किया गया तो सिंचाई की जटिल व्यवस्था वाले इलाकों में नियमों के मनमाने उपयोग पर प्रतिबंध लगाए गए। जमींदारों के वर्चस्व को तोड़ने और पुरानी की जगह नई सिंचाई व्यवस्था लाने के लिये बिहार-उड़ीसा प्राइवेट इरिगेशन वर्क्स एक्ट (1922) लाने की बड़ी कोशिश की गई। बड़े पैमाने पर हिसाब-किताब की अनुमति देने के कुछ वर्षों बाद ही दक्षिण बिहार के बड़े इलाके में सिंचाई व्यवस्था लगभग ध्वस्त हो गई। 1938 में गया के कलेक्टर ने लिखा, “गया जिले में नकदी लगान वाले क्षेत्रों में वृद्धि के साथ ही सिंचाई व्यवस्था का पतन शुरू हो गया।” उसने यह भी लिखा कि “गया जिले में बढ़ती तकलीफों का बड़ा कारण है जमीन की उपज में गिरावट। पैदावार की कीमतों में गिरावट कोई बड़ा कारण नहीं है (यद्यपि वह मंदी का दौर था)। मैंने कई नगदी गाँवों का दौरा किया है। इन गाँवों में सिंचाई व्यवस्था बदहाल है। जाहिर है कि हिसाब-किताब के बाद गिलंदाजी (सिंचाई में सुधार) पर कुछ खर्च नहीं किया गया भौली गाँवों में आमतौर पर स्थिति बेहतर है। यद्यपि सिंचाई व्यवस्था के रख-रखाव में कमी के उदाहरण भी हैं।”

सारिणी 2.6.1 : बीसवीं सदी के शुरू में दक्षिण बिहार में विभिन्न स्रोतों से सिंचित क्षेत्र

जिला/क्षेत्र

फसल लगे क्षेत्र में विभिन्न स्रोतों से सिंचित खेतों का प्रतिशत

सरकारी नहरें

निजी नहरें

तालाब और आहर

कुएँ

अन्य स्रोत

कुल स्रोत

शाहाबाद

22.28

3.83

10.26

4.85

0.70

41.92

पटना

2.23

21.62

24.35

6.80

4.93

59.94

गया

4.29

15.96

26.83

5.98

1.77

54.83

दक्षिण मुंगेर

-

6.94

19.64

3.63

12.38

42.59

दक्षिण भागलपुर

-

16.51

5.54

1.21

12.77

36.03

टिप्पणी: “आहर और पइनों के बारे में अलग-अलग दिए आँकड़े कितने विश्वसनीय हैं, यह कहना मुश्किल है; क्योंकि अनेक मामलों में वे दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं... अलग-अलग स्रोतों का प्रतिशत तय करते समय थोड़ा उदार नजरिया रखना जरूरी है। दक्षिण मुंगेर और दक्षिण भागलपुर के लिये ‘अन्य स्रोतों’ में दर्ज कुछ इलाके असल में निजी नहरों और आहरों वाली श्रेणी में दर्ज होने चाहिए थे। शाहाबाद जिले में निजी नहरों से सिंचित बताए गए कुछ इलाके सरकारी नहरों से सिंचित हैं।” इकोनॉमिक एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू, खंड XVII, अंक 2 में प्रकाशित निर्मल सेनगुप्त के लेख का अंश।

 

पूरे दक्षिण बिहार की यही हालत है। नकदी लगान देने का हिसाब-किताब करवाने वाले काश्तकार पैदावार में कमी और कीमतों में असामान्य गिरावट के कारण लगान अदा नहीं कर पाए। कई काश्तकार लगान के मुकदमे में अपनी काश्त से हाथ धो बैठे और उन्हें जमीन बकाश्त में देनी पड़ी। इस तरह बकाश्त आंदोलन शुरू हुआ जिसमें जमींदारी प्रथा की समाप्ति की माँग उठाई गई। इस बीच 1939 में सरकार ने निजी सिंचाई व्यवस्था कानून में संशोधन करके सिंचाई की जिम्मेदारी जमींदारों से हटाकर अधिकारियों को सौंप दी। अंततः आजादी के बाद जमींदारी प्रथा ही खत्म कर दी गई।

सिंचाई व्यवस्था का रख-रखाव


उन्नीसवीं सदी के शुरू में बुकानन के दौरे के समय दक्षिण बिहार में सिंचाई व्यवस्था दुरुस्त थी। सदी के मध्य में अपनी आत्मकथा लिखने वाले नवीन चंद्र सेन बिहार में जमींदार लोग अपनी जमींदारी की जिस तरह देखभाल करते थे उससे चकित थे। प्रथम अकाल आयोग (1878-80) ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया था कि पूरे भारत में सिंचाई की पुरानी व्यवस्था जर्जर हो गई है। मगर ऐसा मुख्यतः दक्षिण भारत में हुआ था, बिहार में ऐसा होने का कोई जिक्र नहीं है। बिहार में आहरों और पइनों की व्यापक दुर्दशा का पहला उल्लेख 1901 में जाकर किया गया, प्रथम सिंचाई आयोग की रिपोर्ट में।

इंडियन हिस्टॉरिकल रिव्यू में प्रकाशित विनय भूषण गुप्ता के दक्षिण बिहार में पैदावार लगान सम्बन्धी एक अध्ययन से पता चलता है कि जमींदार-काश्तकार सम्बन्ध में तनाव के बावजूद दक्षिण बिहार अँग्रेजों द्वारा जमीन बंदोबस्ती के बाद दक्षिण बिहार के जमींदारों ने ज्यादा अधिकार पाकर लगान वसूली में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई। उन्नीसवीं सदी के शुरू में उन्होंने नकदी लगान वसूली में भी ज्यादा दिलचस्पी ली। लेकिन बाद में नकदी लगान के बड़े हिस्से को पैदावार लगान में बदल दिया। पूरी उन्नीसवीं सदी के दौरान उन्होंने ज्यादा-से-ज्यादा लगान वसूलने के नए-नए तरीके निकाले। पैदावार लगान में पहले बटाई व्यवस्था थी, जिसके तहत फसल कटाई के बाद उसमें से लगान निकाला जाता था। धीरे-धीरे इसकी जगह दानाबंदी व्यवस्था लाई गई, क्योंकि यह “लगान बढ़ाने की आसान और सस्ती व्यवस्था” थी। जमींदारों ने जोर दिया कि काश्तकार दानाबंदी लगान नकद जमा करें। पैदावार का नकदी मूल्य फसल कटाई के समय निचली कीमतों पर नहीं तय किया जाता था, बल्कि जमींदारों की मर्जी से तय होता था। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक किसानों का शोषण इस हद तक बढ़ गया कि अधिकारियों ने अनाज के रूप में लगान वसूली खत्म करने पर विचार करना शुरू कर दिया।

पैदावार लगान व्यवस्था के तहत सिंचाई व्यवस्था पर पूँजी लगाने पर पहले वर्ष 40-50 फीसदी तक मुनाफा मिल जाता था और कहीं-कहीं तो 100 फीसदी भी। जब तक पैदावार लगान व्यवस्था जारी रही और जमींदारों को सिंचाई व्यवस्था के निर्माण व रख-रखाव से मुनाफा होता रहा, वे जिम्मेदारी वहन करने को तैयार रहे। जमींदारी व्यवस्था के तहत दक्षिण बिहार में जमींदारों और उनके मातहतों के अधीन सिंचाई व्यवस्था का विकेंद्रित प्रबंधन होता रहा।

पतन के कारण


बुकानन के मुताबिक, शाहाबाद जिले में सिंचाई व्यवस्था के पतन की वजहें ये थीं- कुछ जमींदारों की माली हालत खराब हो गई, सिंचाई व्यवस्थाओं में जमींदारों की हिस्सेदारी बँटी, जिसके कारण उनमें आपसी सहयोग मुश्किल हो गया।

बुकानन के मुताबिक, “जमीन के मालिकान में ईर्ष्या-द्वेष न हो तो काफी कुछ हासिल किया जा सकता था।” 1922 में जब बिहार-उड़ीसा प्राइवेट इरिगेशन वर्क्स बिल प्रांतीय असेम्बली में पेश किया गया तो इसके उद्देश्यों के बारे में एक अँग्रेज अधिकारी ने लिखा :

“हर तरफ यह स्वीकार किया जा रहा है कि गया और दूसरे जिलों में सिंचाई व्यवस्थाएँ बुरी तरह टूट-फूट गई हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि पिछले 40-50 वर्षों में जमींदारों के हितों में काफी बँटवारा किया गया। पहले जो बड़ी-बड़ी जमींदारियाँ थीं, वे बँट गईं। एक बड़ी जमींदारी के अधीन जो सिंचाई व्यवस्थाएँ थीं, उनकी देखभाल एक जमींदार अच्छी तरह करता था। वे व्यवस्थाएँ अब कई जमींदारियों की हिस्सेदारी बन गई हैं। ये जमींदार आपस में एक राय नहीं रखते और सहयोग नहीं करते। जमींदारियों के भी अब कई हिस्सेदार हो गए हैं। ऐसे हिस्सेदारों में एकाध ऐसा हो सकते हैं जो सिंचाई व्यवस्थाओं के रख-रखाव का काम करने और उस पर पैसा खर्च करने को तैयार हों...।”

बड़े पइन का स्वामित्व रखने वाली बड़ी जमींदारी के बँटवारे और एक ही सिंचाई व्यवस्था के अलग-अलग हिस्से पर अलग-अलग स्वामित्व स्थापित होने के बाद ऊपर के स्तर पर तालमेल में समस्या होने लगी। शुरू में मालिकानों के बीच सहयोग की कोशिश की गई, जो सफल भी हुई। एक अँग्रेज अधिकारी ने इसके बारे में लिखा है। आमतौर पर सबसे ज्यादा गाँवों की जमींदारी रखने वाले जमींदार का पटवारी लागत का हिसाब-किताब करके उसका बँटवारा किया करता था। दूसरे मालिकान लागत में अपना हिस्सा देते थे और काम पटवारी की निगरानी में होता था। लेकिन मालिकानों के बीच मुकदमेबाजी बढ़ती गई और इस तरह का सहयोग मुश्किल होता गया। अगर कोई जमींदार इस पटवारी की बात नहीं मानता तो उसे इसके लिये मजबूर करने का कोई उपाय न था। इसे कानूनी अपराध पहली दफा तब माना गया जब बिहार-उड़ीसा प्राइवेट इरिगेशन वर्क्स एक्ट 1922 बना। इस कानून के तहत जिला कलेक्टर को विवादास्पद मामले में सिंचाई प्रमुख बनाया जाता था। लेकिन 1939 में इस कानून में संशोधन होने तक 17 वर्षों तक यह कानून निष्प्रभावी ही रहा। कलेक्टर को यह ‘पक्का’ करने के लिये अनिच्छुक मालिकों को कई नोटिस भेजने पड़ते थे कि वह सचमुच काम करने को राजी नहीं है। बेमतलब की तैयारियों में कई वर्ष बर्बाद होने के बाद ही असली काम शुरू हो पाता था। इस बीच सिंचाई व्यवस्थाएँ चौपट होती रहती थीं। वे मरम्मत के काबिल भी नहीं रह पाती थीं। जिनकी मरम्मत हो सकती थी उन पर कलेक्टर दो रुपए प्रति एकड़ से ज्यादा खर्च नहीं कर सकता था। ऐसी मरम्मत के लिये सरकारी खजाने से पैसा लेने की समय सीमा निश्चित थी, मगर इसके भीतर कोई भी मरम्मत का काम पूरा नहीं हो सकता था।

सिंचाई व्यवस्था को नुकसान पहुँचाने वाली दूसरी वजह यह थी कि अगर पइन को बनाने में पूरी सावधानी नहीं बरती जाती थी तो नदी अपना बहाव बदल देती थी, और पइन को ही अपने नए बहाव में समेट लेती थी। नदी के पुराने तल में मिट्टी जमा हो जाती थी और सिंचाई व्यवस्था नीची पड़ जाती थी, जिससे नदी का पुराना बहाव बेकार हो जाता था और नए बहाव में पड़ने वाले गाँवों में बाढ़ आ जाती थी। नदी का बहाव न बदले, इसके लिये एक नदी से झरने वाले पइनों में तालमेल की व्यवस्था जरूरी थी। इसके लिये एक ऐसा पइन बनाया जाता था जिसमें कोई मुँह न हो और कोई नया निर्माण नहीं किया जाता था ताकि पुराने पइनों का पानी न रुके।

पैसे की दिक्कत


उन्नीसवीं सदी के भारी दुर्भिक्षों के बाद सरकार सावधान हो गई और उसने दक्षिण बिहार पर ज्यादा ध्यान दिया। पूरे बंगाल (आज के बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडीशा) के लिये 1890 के दौरान 6.65 लाख रु. के तकावी कर्ज में से गया को 2.83 लाख रु. दिए गए। इसमें से ज्यादातर पैसा आहरों और पइनों की मरम्मत पर खर्च किया गया। सिंचाई व्यवस्था पर पूँजी लगाने पर मुनाफा अच्छा होता था, इसलिये जमींदारों से कर्ज आसानी से वसूला जा सकता था।

1922 वाला कानून अगर कारगर होता तो सिंचाई व्यवस्था की रक्षा हो सकती थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 1911-12 से ही पैदावार लगान की जगह नकदी लगान तय करवाने के लिये आवेदनों का तांता लग गया था। दक्षिण बिहार में 1885 के काश्तकारी कानून को लागू करने के लिये सर्वेक्षण और बंदोबस्ती के तहत काश्तकारों के मालिकाना दस्तावेज बनाने का काम 1906 से ही शुरू हो गया। 1939 तक काश्तकारों को लगान में बदलाव की तभी इजाजत दी जाती थी जब सिंचाई केवल आहर से होती थी या मामला एक ही गाँव का होता था या जहाँ पैदावार लगान के विफल होने का प्रमाण स्पष्ट था। पइन से सिंचाई वाले इलाके में बदलाव की इजाजत प्रायः नहीं दी जाती थी।

ज्यादातर बदलाव जमींदारों और काश्तकारों की आपसी सहमति से होता था, ऐसे मामलों में पैदावार लगान को उन क्षेत्रों में जारी रखने की कम ही कोशिश होती थी, जहाँ सिंचाई की बहुरूपी व्यवस्था थी। दरअसल पैदावार लगान व्यवस्था में काश्तकारों को कई इलाकों में इतना परेशान किया जाता था कि वे नकदी लगान की ऊँची दरें भी मंजूर करने को राजी हो जाते थे। कई जमींदार ऊँची दरों पर बदलाव को भी राजी हो जाते थे- चाहे सिंचाई की कैसी भी व्यवस्था क्यों न हो। वैसे, आहरों से सिंचित क्षेत्रों में ही अधिकतर निश्चित नकदी लगान की व्यवस्था लागू की गई थी।

आश्चर्य नहीं कि बड़े पैमाने पर बदलाव से आहरों की हालत खराब होती गई। फाइनल रिपोर्ट ऑन द प्रोसिडिंग्स फॉर सेटलमेंट ऑफ रेंट्स में आर.ए.ई. विलियम्स ने लिखा, “गया सदर और जहानाबाद के क्षेत्रों में पाया गया कि कई पइनों का तो अच्छी तरह रख-रखाव किया गया था, लेकिन आहरों पर निर्भर क्षेत्रों की हालत ठीक नहीं थी।” 1937-40 में पटना और भागलपुर डिवीजनों के कुछ अधिसूचित क्षेत्रों में बिहार टिनेंसी एक्ट की धारा 112 के तहत लगानों की बंदोबस्ती की गई थी।

एक बार लगान तय हो जाने के बाद सिंचाई व्यवस्था में गड़बड़ी आने से भी जमींदारों को कोई घाटा नहीं था। वे उनकी देखभाल छोड़ देते थे। इसके अलावा वे सिंचाई व्यवस्थाओं का बेजा इस्तेमाल करते थे। सिंचाई का पानी रोककर वे काश्तकारों की फसलें बर्बाद कर देते थे और काश्तकार लगान देने में असमर्थ होकर अपने खेत छोड़ देते थे। जमींदार ऐसे खेतों को ऊँची लगान दरों पर दूसरों को दे देते थे। कुछ जमींदार तो आहरों में मिट्टी जम जाने पर उन्हें भी खेती के लिये लगान पर दे देते थे। पहले ऐसा केवल रबी फसल उपजाने के बहाने किया जाता था, क्योंकि यह फसल उन तीन महीनों में होती थी जब आहरों में पानी नहीं होता था। लेकिन शीघ्र ही उन्हें धान की फसल के लिये भी दिया जाने लगा।

सदी के दूसरे दशक में पता चला कि गया जिले में खेती वाले क्षेत्र काफी सिकुड़ गए हैं। 1940 के दशक के शुरू में जितने क्षेत्रफल में खेती होती थी उसके मुकाबले अब दो-तिहाई से भी कम क्षेत्र में खेती हो रही थी। सबसे ज्यादा नुकसान धान की फसल को हुआ था। 30 वर्षों की इसी अवधि में धान के एक-तिहाई खेतों में खेती बंद हो गई। 1939 में प्राइवेट इरिगेशन वर्क्स एक्ट में संशोधन और सिंचाई व्यवस्थाओं के निर्माण और रख-रखाव के अधिकार सरकारी अधिकारियों को दिए जाने के बाद ही हालत थोड़ी सुधरी। फिर भी सरकारी हाथों में जाने के बावजूद गया जिले की पुरानी सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह बहाल नहीं की जा सकी।

सारिणी 2.6.2 : गया जिले में खेती और फसल का हिसाब (हजार एकड़ में)

फसल लगा क्षेत्र

1876

1899-1900 से 1904-05 के बीच का औसत

वार्षिक औसत

 

1911-12

1917-18

1919-24

1929-34

1939-44

कुल बुवाई का क्षेत्र

अनुपलब्ध

1,726.9

1,922.9

1,828.7

1,520.6

1,464.1

1,200.6

धान का क्षेत्र

अनुपलब्ध

1,265.3

912.2

830.3

828.0

791.2

864.0

 


पैदावार लगान और सिंचाई व्यवस्था के बीच इतना मजबूत रिश्ता क्यों था? पैदावार लगान केवल जमीन के किराए का एक रूप नहीं था। यह जमीन के साथ-साथ सिंचाई जैसी उस व्यवस्था का भी किराया था, जो अनिश्चित होती थी। दक्षिण बिहार के जटिल भूभाग और सिंचाई की सम्भावनाएँ बढ़ाने वाली तकनीक के अभाव के कारण सिंचाई के लिये मिट्टी सम्बन्धी कार्यों, सिंचाई योग्य भूमि की गुंजाइश सीमित ही थी। हर वर्ष सिंचाई की सुविधा समान रूप से मिले और वह हर क्षेत्र में मिले, यह असम्भव ही था। ऐसे समाज में जमीन का मोल सिंचाई सुविधा की सम्भावना से अलग कर तय नहीं होता। लगान की यह व्यवस्था बहुत उपयुक्त थी, क्योंकि लगान जमीन व सिंचाई सुविधा दोनों को ध्यान में रखकर सालाना वसूला जाता था। उदाहरण के लिये, बुकानन ने लिखा है कि आहर “आमतौर पर जमींदार ही बनवाते थे, या कभी-कभी उसका आधा खर्च देते थे। कुछ मामलों में, उनकी मरम्मत काश्तकार करवाते थे और ऐसे में लगान निश्चित होता था, पैदावार के हिस्से पर निर्भर नहीं।” सिंचाई के मामले में जमींदार और काश्तकार देसी तौर-तरीके अपनाते थे। बुकानन ने ऐसे कुछ मामले शाहाबाद के गिनाए हैं। “जमीन के मालिक द्वारा देय पैदावार लगान का हिस्सा सिंचाई के स्रोतों की संख्या के अनुपात में घटता था। इससे काश्तकार को दोनों के फायदे के लिये काम करने का प्रोत्साहन मिलता था।” 1937 के बाद से लगान के स्वरूप में मनमाने बदलाव का नतीजा यह हुआ कि लगान जमीन और सिंचाई-जल दोनों के हिसाब से तय किये जाने की जगह केवल जमीन के हिसाब से तय होने लगा, जमीन के मालिकाने के आधार पर लगान तय किया जाने लगा। यानी सिंचाई के लिये देय लगान बंद हो गया। दक्षिण बिहार का इतिहास सिंचाई के लिये सामाजिक संगठनों के प्रयोगों से भरा पड़ा है। शोध से पता चल सकता है कि दक्षिण बिहार में रिहायशी क्षेत्रों के विस्तार में सिंचाई व्यवस्थाओं का कितना योगदान रहा। यह भी पता चल सकता है कि राजधानी को पहाड़ी क्षेत्र राजगीर से बाढ़ प्रभावित पाटलिपुत्र लाने के पीछे कहीं आहरों और पइनों की सहायता से बाढ़ नियंत्रण में सफलता का हाथ तो नहीं था। सिंचाई के ग्रामस्तरीय उपायों की जानकारियाँ न केवल मानव विज्ञानियों, बल्कि प्राचीन दस्तावेजों पर काम करने वालों के लिये भी काम की होंगी। दक्षिण बिहार में सिंचाई व्यवस्थाओं को नुकसान तो पहुँचा, मगर वे कभी पूरी तरह नष्ट नहीं हुईं। बड़ी सिंचाई इकाइयों को केंद्रीय स्तर पर देखभाल की जरूरत थी। - इंडियन इकोनॉमिक एंड सोशल हिस्ट्री रिव्यू (खण्ड 17, नं.-2) में प्रकाशित निर्मल सेनगुप्त के लेख से सम्पादित और उद्धृत

 

बिहार : आहर-पइन व्यवस्था की वापसी

खासपुर पटना से 40 किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित नोवदपुर तहसील का एक छोटा गाँव है। इसमें गाँववालों ने सरकार की सहायता से आहर और पइन की व्यवस्था को पूर्ण रूप से विकसित किया है।

खासपुर के एक प्रगतिशील किसान, बिंदेश्वरी प्रसाद सिंह ने इस व्यवस्था को पुनर्जीवित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। सिंह के अनुसार, पहला काम आहरों और पइनों से मिट्टी को निकालने का था। इससे आहरों की पानी जमा रखने की क्षमता काफी बढ़ गई। गाद को निकालने के लिये आवश्यक धन जवाहर रोजगार योजना और सोन क्षेत्र विकास प्राधिकरण द्वारा दिया गया था। बिहार के पूर्व क्षेत्रीय विकास आयुक्त पी.पी. शर्मा, जो उस समय सोन क्षेत्र विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष भी थे, के अनुसार, “आहर मध्य बिहार के पारम्परिक लघु-जलाशय हैं।” उन्होंने बड़े जलाशयों के विकास के साथ-साथ पानी जमा करने के पारम्परिक स्रोतों को भी पुनर्जीवित करने की महत्ता पर जोर दिया। शर्मा ने किसानों को पारम्परिक आहर-पइन व्यवस्था को फिर से शुरू करने में काफी सहायता की थी।

एक किसान एल.के. नर्मदेश्वर, जिनकी जमीन की सिंचाई आहरों से प्राप्त पानी से की जाती थी, के अनुसार, “आहर भूजल का भंडार भरते भी हैं, जिसके फलस्वरूप कुओं में पानी साल भर रहता है।” शुरू के दिनों में आहर 800 एकड़ से भी अधिक जमीन की सिंचाई करते थे, परंतु बाद में इनमें गाद-मिट्टी जमा होने, अत्यधिक अतिक्रमण और अन्य कारणों से उन्हें प्रयोग में लाना मुश्किल होता गया। उन्हें पुनर्जीवित करने के बाद अब करीब 200 एकड़ की सिंचाई हो पा रही है। इनमें पानी मुख्यतः सोन नहर से आता है। अक्टूबर के महीने तक इन्हें खोलकर रखा जाता है, जिससे सिंचाई करने में कोई असुविधा नहीं हो। उसके बाद, पानी को आहरों और कुओं से पम्पों की सहायता से खींचा जाता है। इन आहरों से किसी को भी पानी लेने की मनाही नहीं है। पर इस नई व्यवस्था को पुनर्जीवित करने से एक परेशानी हो रही है। सिंह कहते हैं, “हम इसके पानी का न्यायपूर्ण ढंग से बँटवारा करने के लिये पानी का उपयोग करने वालों का संगठन बनाने के बारे में बातचीत कर रहे हैं।”

पानी की उपलब्धता बढ़ने से किसान साल में दो से तीन फसलें उगाने में सक्षम हो गए हैं। उनके द्वारा उपजाई जाने वाली फसलों में धान, गेहूँ, चना और सरसों प्रमुख हैं। इससे गाँव की अर्थव्यवस्था में काफी सुधार हुआ है।   

 

 

बिहार : भूदान का असली अर्थ

विनोबा भावे द्वारा शुरू किया गया भूदान आंदोलन काफी प्रसिद्ध हुआ था। पर इस आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा? लोगों ने विनोबा जी को जमीन दान में जरूर दी थी जिसे बाद में भूमिहीनों में बाँट दिया गया था। हालाँकि यह एक अच्छा कदम था, पर दान में दी गई जमीन बेकार थी, जिस पर कुछ भी उपजा पाना कठिन था, जमुई जिले के सिमुलताला में स्थित ग्राम भारती सर्वोदय आश्रम के शिवानंद नाम के कार्यकर्ता को लगा कि विनोबा जी के भूमिहीनों की सहायता करने के सपने को साकार करने के लिये पानी की समस्या को सुलझाना अत्यंत आवश्यक है। उसने इस कार्य के लिये आहरों को पनर्जीवित करने का निर्णय लिया।

इस कार्य की शुरुआत चकाई ब्लॉक के घोरमो गाँव में ग्राम भारती द्वारा की गई। यह गाँव पहला ‘ग्रामदान’ गाँव था। उन लोगों को, जिन्हें जमीन दान में दी गई थी, सिंचाई के लिये वर्षा पर आश्रित होना पड़ता था। चूँकि इस क्षेत्र में वर्षा कम होती है, इसलिये यहाँ की जमीन उतनी उपजाऊ भी नहीं है। ग्राम भारती के मार्गदर्शन में गाँववालों ने आहरों से गाद निकालने का काम शुरू किया। घोरमो गाँव में कुल 45 परिवार हैं, और आहरों से 100 एकड़ की सिंचाई होती थी। गाँववालों ने आहरों और पइनों से मिट्टी निकालने के लिये श्रमदान किया। शिवानंद के अनुसार, “लोगों ने आहरों की महत्ता को समझा, और चूँकि वे जानते थे कि सरकार से उन्हें इस कार्य के लिये कोई मदद नहीं मिलेगी, इसलिये आहरों के संरक्षण का काम भी उन्होंने स्वयं किया।” घोरमो के निवासी, दिवाकांत वर्मा कहते हैं कि आहरों के पुनर्जीवन के पहले लोगों के पास खाना पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होता था, पर अब सभी के पास गेहूँ है।

गाँव के एक अन्य निवासी, जयंत प्रसाद वर्मा कहते हैं, “आहर ने हमारी जान बचाई है।” आज गाँव के लोग गेहूँ, धान और आलू जैसी फसलों को उगा रहे हैं। एक गाँव वाले ने अमरूद के साठ वृक्ष रोपे हैं, जिससे उसे साल में 7,000-8,000 रुपए की कमाई होती है। जबसे आहरों से मिट्टी निकाली गई है, इनमें मछलियों को भी पालना सम्भव हो गया है। पहले वर्ष में ही गाँववालों ने मछली की बिक्री कर 5,000 रुपए कमाए। इस धन का उपयोग गाँव के लिये एक थ्रेशर खरीदने में किया गया।  

 

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