शिप डंपिंग पॉलिसी पर यूरोप का दोहरा रवैया
कबाड़ा और बेकार जहाजों को एशिया के भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश के बंदरगाहों पर तोड़ा जाता है। जिससे न केवल पर्यावरणीय नुकसान होता है बल्कि वहां पर काम करने वाले मजदूरों के स्वास्थ्य पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है। जहाजों को तोड़ने पर काफी जहरीला कचरा भी निकलता है। यूरोपीय देश अपने देश में तो कबाड़ा जहाजों को तोड़ने से रोकने के लिए तरह-तरह के नियम-कायदे बना रखे हैं। पर भारत जैसे देशों में अपने कबाड़ा जहाजों को तोड़ने के लिए भेज देते हैं। इस दोहरेपन की जानकारी देते गोपाल कृष्ण।
भारत सरकार को अपनी डंपिंग पॉलिसी पर पुनर्विचार करना चाहिए और ऐसा सशक्त कानून बनाना चाहिए, जिससे इस तरह की अवैधानिक कामों पर अंकुश लगाया जा सके। यूरोपीय संघ भी अपनी कथनी और करनी में समानता लाए तथा यह तय करे कि उसे आर्थिक लाभ के लिए पर्यावरणीय नुकसान को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा। अगर इस ओर जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में इसका बहुत बुरा परिणाम देखने को मिल सकता है। उस समय हमारे पास पछताने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।
अभी वैश्विक स्तर पर यह मुहिम चल रही है कि पर्यावरण के नुकसान को किस तरह से कम किया जाए। विकसित देश यह दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे पर्यावरण संरक्षण के प्रति काफी गंभीर हैं। लेकिन उनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। जिस तरह से जहाज तोड़ने के लिए दक्षिण एशिया की बंदरगाहों का इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे तो ऐसा ही लगता है। काम में न आने वाले जहाजों को भारत, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश की बंदरगाहों पर तोड़ा जाता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कई खतरनाक पदार्थ निकलते हैं। इन खतरनाक पदार्थों से पर्यावरण को तो नुकसान पहुंचता ही है, साथ ही काम करने वाले मजदूरों के स्वास्थ्य पर भी काफी बुरा असर पड़ता है। इससे समुद्री जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। जहाज तोड़ने से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को कम करने के लिए वैश्विक स्तर पर कई बैठकें हुईं, लेकिन जो नीतियां बनाई गईं, उनमें इतनी खामियां हैं कि इससे सही उद्देश्य की प्राप्ति संभव नहीं दिख रही है।
12-13 मार्च, 2012 को सिंगापुर में चौथा ट्रेड विंड्स शिप रिसाइकिलिंग फोरम की बैठक हुई। 9 फरवरी, 2012 को गुड़गांव में स्टील स्क्रैप मीट का आयोजन किया गया। 27 फरवरी से 2 मार्च के बीच इंटरनेशनल मेरिटाइम ऑर्गेनाइजेशन की मेराइन इंवोर्नमेंट प्रोटेक्शन कमेटी की 63वीं बैठक हुई, जिसमें वेस्ट मैनेजमेंट यूनिट के प्रमुख जुलिया गार्सिया बर्गीस ने अपने विचार रखे। यूरोपीय कमिशन के डीजी पर्यावरण ने ब्रुसेल्स में भारतीय दूतावास के सलाहकार राजगोपाल शर्मा को 20 दिसंबर, 2011 को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि 200 शिप अलंग बंदरगाह पर रिसाइकल के लिए पड़े हैं। इसमें अधिकांश न केवल पर्यावरण के लिहाज से खतरनाक हैं, बल्कि बीमारी पैदा करने वाले भी हैं। इसमें अधिकांश जहाजों को अवैधानिक रूप से यहां लाया गया है। बर्गीस के साथ बातचीत के आधार पर एक पत्र पर्यावरण मंत्रालय को भेजा गया, जिसमें यह कहा गया है कि यूरोपीय संघ के इंटरनेशनल मर्चेंट फ्लीट में से 17 फीसदी जहाज जो 25 साल से रिसाइकिलिंग के लिए पड़े हुए हैं, को भारतीय बंदरगाहों पर भेज दिया गया है।
इस पत्र में इस बात का जिक्र किया गया है कि यूरोपीय आयोग के अनुसार, अधिकांश जहाज जिन्हें रिसाइकिलिंग के लिए भेजा जा रहा है, वे यूरोपीय संघ के वेस्ट शिपमेंट रेगुलेशन के अनुसार अवैधानिक है। रेगुलेशन 1013/2006 इसे अनुमति नहीं देता है। शिप कंपनियों और विकसित देशों की अनुशंसाओं के आधार पर आईएमओ की शिप रिसाइकिलिंग कन्वेंशन तैयार की गई तथा इसे स्वीकार किया गया। भारत ने इसे उद्योगपतियों और पर्यावरण सुरक्षा के लिए काम करने वाले समूहों के विरोध के कारण स्वीकार नहीं किया। गोपाल शर्मा के पत्र में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि यूरोपीय संघ शिप रिसाइकिलिंग के लिए हांगकांग में 2009 में हुई आईएमओ कन्वेंशन की आवश्यकताओं के आधार पर एक नया नियंत्रक तरीका बनाया है। यही नहीं, यूरोप और अमेरिका के मजदूर संगठन और एनजीओ भी गुजरात की अलंग बंदरगाह पर काम करने वाले मजदूरों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। ये संगठन अपनी सरकार की नीतियों का ही समर्थन करते नजर आते हैं।
जहाज को तोड़ने पर पर्यावरण को काफी नुकसान होता है
गुजरात की अलंग बंदरगाह पर जहाजों को तोड़ना अवैधानिक है, क्योंकि ये जहाज जहां तोड़े जाते हैं वह मेराइन नेशनल पार्क है। मेराइन नेशनल पार्क जामनगर एक महत्वपूर्ण अभ्यारण्य है, जहां कई तरह के विशिष्ट समुद्री जीव निवास करते हैं। नेशनल पार्क होने के कारण भारत सरकार की अनुमति के बिना यहां समुद्री जहाजों को तोड़ा नहीं जा सकता है, क्योंकि इससे पर्यावरण को नुकसान होता है। इन जहाजों को तोड़ने से निकलने वाले खतरनाक केमिकल यहां के समुद्री जीवों को नुकसान पहुंचाते हैं। चीफ फॉरेस्ट कंजर्वेटर के ऑफिस से 21 नवंबर, 2011 को एक आदेश पारित किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि साचान शिप ब्रेकिंग यार्ड को जो जगह दी गई है उसे निरस्त कर दिया जाए, क्योंकि यह जगह फॉरेस्ट/मेराइन सेंचुरी का हिस्सा है। इसमें कहा गया है कि गुजरात मेरिटाइम बोर्ड इन जगहों पर जहाज तोड़ने का आदेश नहीं दे सकता है। अगर जीएमबी (गुजरात मेरिटाइम बोर्ड) ऐसा करता है तो यह मेराइन नेशनल पार्क के नियमों की अवहेलना है। इसलिए जब तक भारत सरकार की अनुमति नहीं मिल जाती है, तब तक यहां जहाज तोड़ने का काम रोक देना चाहिए।
जीएमबी को भी इसमें सावधानी बरतनी चाहिए। अगर इस तरह के काम जारी रहते हैं तो इसके लिए जीएमबी को ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा। चीफ फॉरेस्ट कंजर्वेटर के आदेश में इस बात का साफ तौर पर जिक्र किया गया है कि जहाज तोड़ने के समय खतरनाक पदार्थ जैसे आर्सेनिक, मर्करी, एसबेस्टस, तेल आदि निकलते हैं, जो समुद्री जीवों के लिए काफी खतरनाक हैं। इससे मेराइन नेशनल पार्क और समुद्री अभ्यारण्य के संरक्षण में बाधा उत्पन्न होती है। अब जब समुद्री पर्यावरण को बचाने के लिए मुहिम चलाई जा रही है, तब इस तरह की अवैधानिक कार्रवाइयों पर रोक नहीं लगाना सरकार की कमजोरी को प्रदर्शित करता है। सरकार इसके प्रति संवेदनशील नजर नहीं आती है। उसका रवैया दोहरा है। एक तरफ सरकार पर्यावरण सुरक्षा पर करोड़ों रुपये खर्च करती है, तो दूसरी तरफ वह इसे नुकसान पहुंचाने वाले कार्यों को बंद करने के बदले इसे बढ़ावा दे रही है।
अलंग बंदरगाह पर जहाज को तोड़ते मजदूर
समुद्री पर्यावरण और तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए यह जरूरी है कि जहाजों को तोड़ने की नई तकनीकों का इस्तेमाल किया जाए। इन तकनीकों के माध्यम से इससे निकलने वाले खतरनाक पदार्थों के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को कम किया जा सकता है। इसके लिए एक गाइडलाइन भी दी गई है, जो हांगकांग कन्वेंशन को और सशक्त कर सकती है। हालांकि यह तकनीक थोड़ी महंगी होती है, लेकिन पर्यावरण के नुकसान को कम करने के लिए इसका इस्तेमाल जरूरी है। इस महंगी तकनीक का इस्तेमाल यूरोप और अमेरिका में होता है। लेकिन जहाज के मालिक कम धन खर्च करना चाहते हैं, जिससे वह अपने जहाज को तोड़ने के लिए दक्षिण एशिया की बंदरगाहों पर भेज देते हैं। इसमें कई लोग शामिल होते हैं, जो सस्ती दर पर इन जहाजों को खरीदकर इन्हें तोड़ते हैं, लेकिन पर्यावरण को नुकसान पहुंचा जाते हैं। इससे न केवल पर्यावरण को नुकसान होता है, बल्कि इन्हें तोड़ने के काम में जिन मजदूरों को लगाया जाता है, उन्हें भयानक बीमारियों का सामना करना पड़ता है। साथ ही इससे निकलने वाले खतरनाक रसायनों से जलीय जीव और तटवर्ती क्षेत्र में रहने वाले लोग भी प्रभावित होते हैं। इसलिए भारत सरकार को अपनी डंपिंग पॉलिसी पर पुनर्विचार करना चाहिए और ऐसा सशक्त कानून बनाना चाहिए, जिससे इस तरह की अवैधानिक कामों पर अंकुश लगाया जा सके। यूरोपीय संघ भी अपनी कथनी और करनी में समानता लाए तथा यह तय करे कि उसे आर्थिक लाभ के लिए पर्यावरणीय नुकसान को बढ़ावा नहीं दिया जाएगा। अगर इस ओर जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में इसका बहुत बुरा परिणाम देखने को मिल सकता है। उस समय हमारे पास पछताने के अलावा कोई चारा नहीं होगा।
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