शिप्रा पर एक पर्यावरणीय चिन्तन

भौतिक विकास की अंधी दौड़ से न केवल भारत का वरन् सम्पूर्ण विश्व का पर्यावरण आज असंतुलित हो रहा है। भौतिक विकास की अदम्य लालसा ने व्यक्ति को अत्यधिक स्वार्थी एवं विवेकशून्य बना दिया है। भौतिक सुख की वेदी पर आज व्यक्ति अपने भविष्य की आहुति खुशी-खुशी दे रहा है। यह है व्यक्ति की विवेक शून्यता की उच्चावस्था। व्यक्ति को आज चिन्ता है केवल स्वार्थ पूर्ति की-उसका सिद्धान्त बन गया है – “यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्”। इस हेतु, वह मान्य, अमान्य सभी कार्य करने को सदैव तत्पर रहता है। आज वह उत्तरदायी है-केवल अपने स्वार्थ के प्रति। समाज की भावी पीढ़ी के प्रति उत्तरदायी होना उसकी दृष्टी में मूर्खता है। इसी मनोभावना का प्रतिफल है कि वह प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं का दोहन व शोषण निर्ममता से करने में सदा अग्रणी बनने की चेष्टा कर रहा है। परिणाम प्रत्यक्ष है- पर्यावरण असंतुलन व जल प्रदूषण।

व्यक्ति की निर्मम स्वार्थ भावना से शिप्रा व उसका परिक्षेत्र भी मुक्त नहीं है। आज सम्पूर्ण परिक्षेत्र व्यक्ति की इसी भावना से आक्रान्त एवं आहत है। फलस्वरूप परिक्षेत्र का पर्यावरण असंतुलित हो गया है और हो गयी है शिप्रा प्रदूषित। व्यक्ति की इन स्वार्थ प्रेरित चेष्टाओं से परिक्षेत्र मुक्त होकर हरीतिमामय कैसे बने और परिक्षेत्र में प्रवाहित शिप्रा का जल पुनः निर्मल व पुण्यदायी कैसे हो जाये- यही यहां चिन्तन का विषयवस्तु है।

यह अध्याय विषय की दृष्टि से तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड है परिक्षेत्र का पर्यावरणीय चिन्तन. द्वितीय खण्ड है शिप्रा का स्वरूप एवं उसका प्रदूषण और अंत में निष्कर्ष।

पर्यावरणीय चिन्तन :-


शिप्रा परिक्षेत्र मालवा भू-भाग का अति-समृद्ध भाग है जिसे “माल-भूमि” भी कहा जाता है। या माल-भूमि मध्यप्रदेश के दक्षिण पश्चिम भाग में है। वस्तुतः यह क्षेत्र पुरायुग में प्राकृतिक सुषमा व सौन्दर्य से भरपूर था और कुछ अंशों में वर्तमान में भी है। यहाँ प्राचीन समय में चहुओर सदानीरा सरिताएँ कलकल नाद करती थीं। हरी-भरी पहाड़ियाँ वनसम्पदा की अपूर्व भंडार थीं। उफनते नालों एवं नदियों से सिंचित क्षेत्र की काली मिट्टी शस्य सम्पदा के रूप में सोना उगलती थी। क्षेत्र के इसी प्राकृतिक वैभव के कारण ही संत कबीर को बरबस कहना पड़ा –

“पग पग रोटी, डग डग नीर” ।
यह एक विडम्बना ही है कि आज सम्पूर्ण शिप्रा परिक्षेत्र वन सम्पदा से प्रायः शून्य हो चुका है। नाले व सरिताएँ अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये मानव की शोषणवादी प्रवृत्ति से संघर्षरत हैं। सदानरा सरिताएँ अब मौसमी रह गयी हैं। पुण्यतोया शिप्रा मल-मूत्र का गटर बन गयी है, जलकुंभी के फलने-फूलने का एक सुलभ स्थान बन गयी है। फलस्वरूप उसके जल संग्रहण मात्रा पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है।

यह सत्य है कि मनुष्य में विकास की लालसा होती है, किन्तु उसका यह भी परम-दायित्व है कि प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं के प्रति अन्याय न करे। प्राकृतिक संतुलन को असंतुलित न करे। विकास की अवधारणा से तात्पर्य यही होना चाहिए कि प्राकृतिक संतुलन बनाए रखते हुये भौतिक विकास की ओर कदम-ताल किया जाए। इस अवधारणा के अनुसार यदि विकास-पथगामी बनता है, तो उसका न केवल बहुमुखी विकास होगा वरन् पर्यावरण भी न असंतुलित होगा और न होगा जल-प्रदूषण। शांभला संस्थान के निर्देशक डॉ. टाइजमैन के कथन को इस सन्दर्भ में स्मरण समीचीन ही होगा। कथन है-

“भौतिक-विकास क्षेत्र की सभ्यता और पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए। विकास कार्यक्रम जीवन के परम्परागत तौर तरीकों का नुकसान किये बिना लोगों को लाभ पहुँचाएं और वास्तव में उनके जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि हो-यही विकास का यथार्थ स्वरूप है। पर दुःख है कि आज जो कुछ हो रहा है यह ठीक इसके विपरीत ही।”

मानव की स्वार्थपरता एवं शोषण प्रवृत्ति का ही परिणाम है कि प्राकृतिक सुषमा एवं शस्य श्यामला से आच्छादित शिप्रा परिक्षेत्र का पर्यावरण आज इतना अधिक असंतुलित हो गया है कि “सावन के सेरे और भादों में गेरे” अब बीते युग की कहावत बन गये हैं। वन सम्पदा की बात तो दूर अब तो परिक्षेत्र, शुद्ध जल के लिये भी तरस रहा है। परिक्षेत्र का जल स्तर इतना अधिक नीचे चला गया है (50 मीटर से 150 मीटर नीचे तक) कि सन् 1994 की वर्षाऋतु के पूर्व उथले जल स्रोत (कूप, बावडी, हैंडपंप आदि) प्रायः जल-विहीन हो गये थे। सन् 1978 के पश्चात जलस्तर की गिरावट में निरन्तर वृद्धि होना चिन्तनीय विषय बन गया था। सन् 1988 में मालवा भाग के शिप्रा परिक्षेत्र में जल-स्तर की गिरावट में अधिकतम वृद्धि अनुभव की गयी। परिणाम स्वरूप जल कूपों की क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ा और जलविहीन कूपों की संख्या 66 प्रतिशत तक के उच्चक्रम बिन्दु तक पहुँच गयी। सन् 1975 तक भू-जल के संसाधन इन परिक्षेत्र में पर्याप्त थे किन्तु इसके बाद वर्षा पोषित सरिताओं के जल प्रवाह में निरन्तर संकुचन, उद्योगों तथा कृषि में जल का अत्यधिक प्रयोग-जलस्तर में गिरावट के विशेष कारण बने। वायु-मण्डलीय तथा धरातलीय स्थिति में परिवर्तन के कारण ऋतुचक्र भी प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप वर्षा अवधि में कमी तथा शीत-कालीन वर्षा की अनियमितता भी पर्यावरणीय असंतुलन के कारण बने जिसके निदान हेतु जनता एवं शासन तन्त्र में पर्याप्त जागरुकता नहीं आयी। जन-जागरण की नितान्त आवश्यकता है जिसके अभाव में शासन-तन्त्र कुछ नहीं कर सकता। परिक्षेत्र के असंतुलन के कतिपय प्रमुख कारण तथा उनके निराकरण के उपाय संक्षिप्त में निम्न हैं :-

(1) प्राचीन समय में शिप्रा का उद्गम स्थल व परिक्षेत्र वन सम्पदा से आच्छादित था। पहाड़ियाँ हरीतिमा से युक्त थीं। आज परिक्षेत्र व उसकी पहाड़ियाँ क्लीन शेब्ड आधुनिक नागरिक के समान वृक्ष-विहीन कर दी गयी हैं। महुआ, धावड़ा, सागौन, पलाश, नीम, पीपल आदि वृक्षों की संख्या में आज बहुत कमी आ गयी है। पेड़ो की घनी छाया के लिये पशु पक्षी आज तरस रहे हैं। अब केवल शेष बचा है न्गन पहाड़, उस पर धूसर मिट्टी व काले धूसरवर्णी पत्थर तथा कटावदार जमीन। जंगलों के अभाव में जंगली पशु प्रायः समाप्त हो गये हैं, जो शेष बचे हैं वे अपनी जीवन रक्षा के लिये विपरीत स्थितियों से जूझ रहे हैं। पर क्या वे अपनी जीवन रक्षा आज के शिष्ट-जन के भोज्य पदार्थ बनने से कर सकेंगे? इस कारण परिक्षेत्र के आधुनिक शहर, नगर न होकर नरक बन गये हैं। आज का यही भौतिक विकास यथार्थ में भौतिक असंतुलन का करण बना हुआ है। इसी का परिणाम है कि नगरों की सांस्कृतिक चेतना का प्रेरक तत्व सांस्कृतिक पर्यावरण भी दूषित है गया है जिसका प्रभाव सभी अनुभव कर रहे हैं। कहाँ गयी परिक्षेत्र की आदर्श पर्यावरण की आदर्श परिस्थितियाँ। कहाँ लुप्त हो गयी परिक्षेत्र में पोषित, पल्लवित मालव-संस्कृति। इन सब को ओझल कर दिया है आज के भौतिक विकास ने। अब तो शेष बचा है अनुभव करने व भोगने को-पर्यावरण का दूषित प्रभाव तथा मानसिक संत्रास।

इस पर्यावरण असंतुलन को दूर करने के लिये परिक्षेत्र में भी उत्तराखण्ड के समान “चिपको आन्दोलन” जनता को आरम्भ करना चाहिए ताकि जो वृक्ष शेष बचे हैं वे नष्ट न हो सकें तथा इसके साथ ही वृक्षारोपण हेतु युद्धस्तरीय प्रयास भी होना चाहिए। किसी कारणवशात् यदि वृक्ष को किसी स्थान विशेष से अलग करना अनिवार्य हो जाए तो उसका पुनः आरोपण दूसरे स्थान पर किया जाना चाहिए। सामाजिकी वानिकी विभाग व राष्ट्रीय सेवा योजना के युवा विद्यार्थियों ने इस दिशा में प्रशंसनीय प्रयास किये हैं, किन्तु वे पर्याप्त नहीं कहे जा सकते हैं। कारण कि इस योजना से परिक्षेत्र का सुदूर भाग (पहाड़ियों तथा नदियों का तटवर्ती क्षेत्र) लाभान्वित नहीं हो सका है केवल लाभान्वित हुआ है नगरीय क्षेत्र आज आवश्यकता है जमीन के कटाव रोकने की, सूर्य की ताप उष्मा से जल को अतिवाष्पीकृत होने से बचाने की। इस हेतु तटवर्ती क्षेत्र का वनीकरण नितांत आवश्यक है। इस कार्य में ग्रामीण जनों की सहभागिता अपेक्षित है।

यह अवश्य है कि वन-विभाग ने विश्व बैंक के सहयोग से जनवरी 1993 में कृषि वानिकी योजना प्रारम्भ की है। इस योजना के अन्तर्गत ग्रामीण जनों द्वारा स्व-भूमि पर वृक्षारोपण करने पर उनको प्रोत्साहन राशि देने का प्रावधान है। योजना की रूपरेखा ने ही इसकी सफलता को संदिग्ध बना दिया है। आवश्यकता कृषिभूमि पर वृक्षारोपण की नहीं है अपितु नग्न निरावृत पहाड़ों, नदी तटवर्ती भागों तथा खेतों के मेड़ों (सीमा रेखा) पर वनीकरण की है। इस दिशा में योजना मौन है। अतः शासन को चाहिए कि वह वन विभाग तथा पंचायत के माध्यम से ग्रामीण जनों में वृक्षारोपण की इच्छा शक्ति को जागृत करे। ग्रामीणों को अनुदान व प्रोत्साहन राशि देकर पूर्व निर्धारित स्थान पर ही वृक्षारोपण कराए। इस प्रक्रिया के क्रियान्वयन से परिक्षेत्र के पर्यावर्णीय असंतुलन को कुछ अंशों में दूर किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी के शब्दों को स्मरण रखना आवश्यक है- “उगता हुआ पेड़ राष्ट्र का प्रतीक है। वन राष्ट्र की महत्वपूर्ण सम्पदा है। इसकी सुरक्षा एवं समुचित उपयोग किसी भी क्षेत्र के आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है। कारण कि मानव अस्तित्व ही पेड़ पर निर्भर है।”
(2) शिप्रा परिक्षेत्र के जलस्तर में गिरावट के कारण परिक्षेत्र निवासियों के पीने हेतु तथा फसलों को सींचने हेतु जल की कमी निश्चित ही है। अतः आवश्यकता है भू-जल भरण तथा भू-जल संवर्धन की। सामान्य रूप से यह कार्य छोटे-छोटे कुओं द्वारा सुगमता से किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त भू-जल भंडारों के पुनर्भरण की अनेक प्राविधियाँ हैं। ये विधियाँ हैं य़था- नाला बंधान, कंटूर बंधान, कंटूर खाई प्रणाली, रोक बांध, स्तम्भविवर (शाफ्ट) एवं वृत्तीय विवर (पिट्स), रिसाव तालाब (परकोलेशन टैंक), सतही जलवाहिका (सरफेस चैनल), अधः स्तरीय बंधान (सबसरफेस डेम) आदि। इन प्राविधियों से निर्मित संरचनाओं द्वारा अनुपयोगी वर्षा-जल का संग्रहण कर भूमिगत भंडारों को सहजता से सम्पूरित किया जा सकता है, फलस्वरूप भू-जल स्तर में संवर्धन सम्भव है। यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय तथ्य है कि मार्च 1993 में “भू-जल स्रोतों के कृत्रिम पुनर्भरण” विषय पर इन्दौर में अखिल भारतीय कार्यशाला हुई थी। इस कार्यशाला में परिक्षेत्र में भू-जलभरण के लिये, कतिपय उपाय व प्रस्ताव स्वीकार किये गये थे, जिनके क्रियान्वयन करने हेतु शासन से सिफारिश की गयी थी। आवश्यकता है कि उन सिफारिशों को शासन अविलम्ब स्वीकार कर उन्हें मूर्त रूप दे। यही परिक्षेत्र तथा राष्ट्र की दृष्टि से लाभदायक होगा। इसके साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि नागरिक एवम् कृषक आवश्यकतानुसार ही सीमित जल का प्रयोग करें। जल के अनुपयोगी तथा अति-प्रयोग पर यथासम्भव शीघ्र अंकुश लगाया जाये। शावर-स्नान, सार्वजनिक स्थानों के नलों में टोटियाँ न होना, मुख-प्रक्षालन हेतु नल चालू रखना, खेत में आवश्यकता से अधिक मात्रा में पानी देना, घरों में लगे पेड़ पौधों की सिंचाई हेतु जल का अति प्रयोग करना, आदि कार्यों में जल प्रयोग का विवेकीकरण किया जाए। प्रकृति प्रदत्त जल के प्रयोग के प्रति नागरिक यदि संवेदनशील नहीं हुआ तो वह दिन दूर नहीं जब न केवल परिक्षेत्र वरन् सम्पूर्ण भारत “जल-अकाल” की चपेट में आ जाएगा। परिक्षेत्र में तो वैसे भी जलसंग्रह कम ही है। अतः परिक्षेत्र के जल प्रबन्धन में सचेष्टता एवं सजगता लाकर जल-प्रयोग के विवेकीकरण की नितान्त आवश्कता है।

शिप्रा में जल अधिक मात्रा में संग्रहित रहे इस हेतु सार्थक प्रयास अविलम्ब किये जाने की अपेक्षा है। सर्वप्रथम तटवर्ती भूमि के कटाव को रोकने हेतु क्षेत्र का वनीकरण यथाशीघ्र करना आवश्यक है। वर्षाऋतु के अलावा शेष नौ माह में से केवल चार माह ही सम्पूर्ण “शिप्रा” में जल रहता है, शेष चार-पाँच माह शिप्रा की काया, विरविदग्धा नायिका के कुंतल की रूखी अव्यवस्तित वेणी सी हो जाती है। अतः सर्वप्रथम प्रयास यह होना चाहिए कि “शिप्रा” को उसका प्राचीन जल-वैभव पुनः मिल जाए। यह उसी समय सम्भव है जब नदी तल गहरा हो, न कि फैलावदार। इस हेतु नदी तल का अवांछित मलवा (मिट्टी, पत्थर आदि) दूर कर नदी तल को गहरा किया जाये। यह कार्य दुष्कर अवश्य प्रतीत होता है पर है सम्भव। इस हेतु तटवर्ती पंचायतों को दायित्व बोध कराना होगा जिससे पंचायत अपने क्षेत्र की नदी के तटवर्ती भाग के तल को साफ करा सके। इस कार्य के लिये यदि आवश्यक हो तो नदी तल की मिट्टी पत्थर, व बालू कृषक खोदकर निःशुल्क ले जाएँ-यह अनुमति कृषकों को दे दी जाना चाहिए।

शिप्रा परिक्षेत्र में प्रति तीन-चार गाँव के पश्चात नदी पर तीन चार फुट ऊँचा स्टापडेम (छोटा बाँध) बना देना चाहिए। इन स्टापडेमों के निर्माण का दायित्व सम्बन्धित पंचायतों को देना चाहिए। इन स्टॉपडेमों के निर्माण से वर्षा ऋतु के बाद के समय में भी नदी में जल रहेगा और ग्रामीण यह न कह सकेगा कि “कुछ वर्षों पहिले नदी में गर्मी के समय हाथी डूबन पानी रहता था अब कुत्ता चाटन पानी नहीं रहता है।” इन छोटे-छोटे स्टापडोमों के कारण न केवल नदी में जल रहेगा वरन आसपास के क्षेत्र का भू-जलस्तर भी बहुत नीचे नहीं गिरेगा। इससे संलग्न क्षेत्र को जल पूर्ति भी सम्भव हो सकेगी।

शिप्रा को जलकुंभी से मुक्त कराने हेतु युद्ध स्तरीय प्रयास अपेक्षित हैं। उज्जैन के तटवर्ती क्षेत्र में प्रति वर्ष ग्रीष्म ऋतु में कुछ स्वयं-सेवी संगठन व राष्ट्रीय सेवा योजना के उत्साही युवक इस दिशा में प्रयास करते हैं पर अपेक्षित परिणाम नहीं निकल पाता है – कारण कि इनकों पर्याप्त शासकीय सहयोग नहीं मिल पाता है। कारण स्पष्ट है “विशाल फंड” का न होना जिससे शासकीय तन्त्र को कुछ लाभ हो। इस मानसिकता का ही परिणाम है – जनोपयोगी कार्य की अवहेलना। सदानीरा शिप्रा वैसे भी मौसमी नदी बन चुकी है। इस अवस्था में भी जो कुछ “जल” शिप्रा में रहता है उसे जलकुंभी अगस्त मुनि के समान पी रही है। इस जलकुंभी से शिप्रा को मुक्त कराने में ही हित है।

मौसमी नदी बनी शिप्रा को सदानीरा बनाने हेतु “शिप्रा नर्मदा लिंक” योजना बहुकाल से चर्चित है। इस योजना में नर्मदा जल को उद्वहन प्रणाली द्वारा शिप्रा में प्रवाहित करना प्रस्तावित है। फलस्वरूप वर्ष भर शिप्रा में जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो सकेगा। योजना सुन्दर है किन्तु बहु व्यय (अर्थ-व्यय) साध्य है। इसी प्रकार देश की नदियों को एक दूसरे को जोड़ने हेतु “नेशनल ग्रिड योजना” पर विचार प्रारम्भ हो गया है, पर इस हेतु विशेष अर्थ व्यवस्था करना होगी।

शिप्रा की वर्तमान स्थिति में “शिप्रा-नर्मदा लिंक योजना” यदि मूर्त रूप ले ले तो भी क्या शिप्रा परिक्षेत्र इस योजना से लाभान्वित हो सकेगा? – यह संदिग्ध ही है। कारण कि शिप्रा के जल को पीने के लिये अगस्त मुनि के समान जलकुंभी जो शिप्रा में है। अतः योजना को परिक्षेत्र के लिये लाभदायक बनाने के लिये आवश्यक है कि योजना को मूर्त रूप देने के पूर्व “शिप्रा” को जलकुंभी से मुक्त करा दिया जाए। वैसे भी जल प्रवाह की निरन्तरता जलकुंभी को समाप्त करने में सहयोगी होती है। अतः नर्मादा जल को शिप्रा में इतनी अधिक मात्रा में प्रवाहित किया जाए कि शिप्रा का प्रवाह निरन्तर बना रहे। योजना से यदि नर्मदा जल पर्याप्त मात्रा में प्रवाहित न किया गया तो नर्मदा-जल भी शिप्रा में जदलकुंभी के संवर्धन में सहयोगी बन जाएगा। उस स्थिति में परिक्षेत्र के योजना से लाभान्वित होने का प्रश्न ही नहीं है। शिप्रा के सतत प्रवहमान नदी बनने पर ही परिक्षेत्र का पर्यावरणीय असंतुलन व शिप्रा प्रदूषण कुछ अंशों में अवश्य ही दूर हो सकेगा। योजना मूर्त ले इस हेतु जन-जागरण एवं शासन की सक्रियता आवश्यक है।

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