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सिटेसिया (Cetacea, तिमिगण)

सिटेसिया (Cetacea, तिमिगण) स्तनपायी समुदाय का एक जलीय गण है, जिसके अंतर्गत ह्वेल (Whales), सूँस (Porposes) और डॉलफिन (Dolphins) आदि जंतु आते हैं। वैसे ह्वेल एक सामान्य शब्द है जो इस गण के किसी भी सदस्य के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। सामान्य व्यक्ति इन जंतुओं को मछली समझते हैं। परंतु इनके बाह्याकार को छोड़कर, जो इन्हें जलीय जीवन के कारण प्राप्त हैं, इनमें कोई भी गुण मछलियों से न केवल नहीं मिलते वरन्‌ पूर्णतया भिन्न होते हैं। ये जंतु स्थल पर रहने वाले पूर्वजों के वंशज हैं तथा सच्चे स्तनपायी के सभी गुणों से युक्त हैं, उदाहरणार्थ नियततापी (Warm blooded), बालों की उपस्थिति यद्यपि अवशेष के रूप में, हृदय तथा रक्त संचारण स्तनी समान, बच्चों को स्तनपान कराना, जरायुजता (Viviparity) आदि।

तिमिगन के गुणों को 3 वर्गों में विभक्त किया जा सकता है: (1) नवीन गुण (2) परिवर्तित गुण तथा (3) लुप्त गुण।

1. नवीन गुण- वे गुण जो जलीय जीवन के लिए इन्हें नवीन रूप से प्राप्त हुए हैं तथा अन्य किसी स्तनी में नहीं पाए जाते। ऐसे 12-12 गुण के उदाहरण हैं: त्वचा के नीचे पाए जाने वाले वसा तंतु की मोटी तह, ब्लबर (Blubber), केशिकाओं का केशिकाजाल (Rete mirabile),नासिका पथ का घाटीढापन (Epiglottis) से मिल जाना, श्रृंगीय (Horny) अंग बैलीन, Baleen, तिम्यस्थि) अधिकांगुलि पर्वता (Hyperphalangy) आदि।

2. परिवर्तित गुण-उपस्थित गुण जो नए वातावरण के अनुकूल होने के हेतु अब पूर्व दशा से कुछ परिवर्तन हो गए हैं, जैसे अग्रपाद (Fore limb) का प्लावी (Swimming) अंग या 'डाँड़' में परिवर्तित तथा बाहु के कलाई अस्थियों से ऊपरी भाग का शरीर के भीतर हो जाना, पश्चपाद (Hind limbs) का अत्यंत छोटा या लुप्त हो जाना, मध्यपट (Diaphragm) का अत्यंत तिरछा (Oblique) हो जाना, अंश मेखला (Shoulder girdle) में स्कैप्युला (Scapula) नामक अस्थि का (पंखा समान) विचित्र रूप धारण कर लेना, यकृत (Liver) तथा फेफड़ों (Lungs) का पालिकाहीन (Non-lobulated) रहना और अमाशय का कोष्ठकों में विभक्त होना आदि।

3. लुप्त गुण-वे गुण जिनका पहले (पूर्वजों में) उपयोग था परंतु अब अनावश्यक होने के कारण या तो छोटे हो गए या लुप्त हो गए हैं, जैसे बाल जो अब केवल अवशेष रूप में ही रह गए हैं, नाखून तथा बाह्य कान (Pinna), घ्राणेंद्रिय, पृष्ठपाद, पसलियों में गुलिकों (Tubercle) का भाग, कशेरुकाओं (Vertebrae) के संधियोजक (Articulatory) भाग आदि।

माप (Size)- तिमिगण लंबाई में ढाई फुट (सूँस-Porpoise) से लेकर 110 फुट (ब्लू ह्वेल-Blue Whale) तक तथा भार में 150 टन तक हो सकते हैं। इतने बड़े जंतु विकास के इतिहास में इस पृथ्वी पर कभी भी नहीं हुए थे।

प्रकृति (Habit)- सभी तिमिगण मांसाहारी होते हैं। जिनमें हंता ह्वेल (Killer whale) तथा अल्पहंता ह्वेल (Lesser killer whale, Psendorca) नियततापी जंतुओं जैसे सील (Seal), पेंगुइन (Penguin) तथा अन्य तिमिगणों तक का शिकार करते हैं। दंतरहित तिमि, मछलियों, वल्कमय जलचर (Crustacea) तथा कपालपाद मोलस्क (Cephalopod molluscs) पर निर्भर करते हैं, बैलीन ह्वेल (whales) जो दंतरहित होते हैं, तालू से लटकती एक श्रृंगीय (Horny) तिमि, छननी अथवा बैलीन (Baleen) द्वारा सूक्ष्म जीवों, जैसे प्लवक (Plankton), टेरोपॉड मोलस्कश् (Pteropod molluscs) को वल्कमय जलचरों आदि से एकत्रित करते हैं।

कुछ तिमिगण हजारों की संख्या में जलवायु उत्थान (Shoals) पर रहते हैं तथा कुछ अकेले या दुकेले रहना पसंद करते हैं। साधारणतया वे डरपोक होते हैं, परंतु खतरा पड़ने पर वे भयंकर आक्रमणकारी भी बन जाते हैं। 1819 ई. में एसेक्स (Essex) नामक जहाज एक ह्वेल से टकरा जाने से चूने (Leak) लगा था।

आवास (Habitance)-तिमिगण सभी परिचित समुद्रों में पाए जाते हैं। कुछ सार्वभौमी (Cosmopolitan) हैं तथा कुछ एक निश्चित दायरे के बाहर नहीं जाते। अधिकांश में ये समुद्री होते हैं जो बहुधा नदियों में पहुँच जाते हैं। परंतु कुछ, जैसे डोल्फिन, सर्वथा सादे पानी में ही रहते हैं।

बाह्य आकृति (External features)-तिमिगणों की आकृति बेलनाकार, बीच में चौड़ी तथा छोरों (ends) की ओर क्रमश: पतली होती जाती है। ऐसे आकार द्वारा तैरते समय पानी के प्रतिरोध में कमी होती है। तिमिगण के शरीर को सिर, धड़ तथा पूँछ में विभक्त किया जा सकता है। सिर अपेक्षाकृत बड़ा होता है। अन्य स्तनियोंश् (Mammals) की भाँति भोजन को चबाने वाले भाग मुँह में अनुपस्थित होते हैं जिससे भोजन चबाकर नहीं वरन्‌ निगलकर करते हैं। नासारंध्र (Nostrils) सिर के ऊपरी भाग पर पीछे हटकर स्थिर होते हैं। इनकी संख्या दो (बैलीन ह्वेल) या एक (सूँस और स्पर्म तिमि में) हो सकती है। आंतरिक कपाटों द्वारा ये खुलते या बंद होते हैं। इन रध्रों से एक फुहार (Spout) निकलती है जो इन जंतुओं की एक विशेषता है।

धड़ शरीर का सबसे बड़ा और चौड़ा भाग होता है। धड़ के पृष्ठ पर पंख (Fin) तथा प्रति पृष्ठ पर आगे, दाहिनी ओर बाईं ओर डाँड़ में परिवर्तित अग्रपाद होते हैं। पंख मछलियों के विपरीत अस्थिरहित होता है तथा मुख्यत: वसा (Fat) वा संयोजी ऊतकश् (Connective tissue) का बना होता है। धड़ और पूँछ के संधि स्थान (जंकशन) पर मलद्वार (anus) होता है और उसके पीछे ही जननेंद्रिय छिद्र। मादा में इस छिद्र के दोनों ओर एक खाँच (groove) में स्तन होते हैं। नर में जननेंद्रियाँ पूर्णतया आकुंचनशील (retractile) होती हैं जिसके फलस्वरूप तैरते समय वे पानी में कोई प्रतिरोध नहीं करतीं।

धड़ के पतले होने और छोर पर एकाएक चौड़े होकर दो पर्णाभ (Flukes) में विभक्त होने से पूँच बनती है। ये पर्णाभ क्षैतिज (Horizontal) तथा अस्थिरहित होते हैं जिसके विपरीत मछलियों में ये उर्ध्वाधर (Vertical) तथा अस्थिरहित होते हैं।

त्वचा- त्वचा चिकनी, चमकदार और बालरहित होती है बाल अवशेष रूप में कुछ विशेष स्थानों पर जैसे निचले होठ तथा नासारंध्र के आस पास होते हैं। तिमिगण नियततापी (warm-blooded) जंतु हैं। शरीर के ताप को उच्च बनाए रखने के लिए उनके त्वचा के ठीक नीचे तिमिवसा (Blubber) नामक एक विशिष्ट तंतु पाया जाता है। त्वचा का रंग साधारणतया ऊपर स्याह (Dark) और नीचे की ओर सफेद होता है परंतु बहुतों के रंग विभिन्न रह सकते हैं।

श्रृंगास्थि (Balcen)-यह दंतरहित तिमिगणों में पाया जाने वाला एक विशेष अंग है जो मुखगुहा में तालू के दोनों किनारों पर अस्तरीय त्वचा के बढ़ने तथा श्रृंगीय होने से बनता है। इसकी उपस्थिति के कारण इन तिमिगणों को श्रृंगास्थि तिमि कहते हैं। प्रत्येक श्रृंगास्थि लगभग त्रिभुजाकार होती है और अपने आधार द्वारा तालू से जुड़ी रहती है। इसकी स्वतंत्र भुजाएँ लगभग 300-400 पतले तथा श्रृंगीय पट्टियों में विभक्त हो जाती हैं। ये पट्टियाँ भुजा के मध्य भाग में लंबी और दोनों छोरों की ओर क्रमश: छोटी होती जाती हैं। यह छननी का कार्य करती है। प्लवक (Plankton) के समुदाय को देखकर श्रृंगास्थि मुँह फाड़ देता है और पानी के साथ असंख्य प्लवकों को अपने मुखगुहा में भर लेता है। पानी को तो फिर बाहर निकाल देता पर प्लवक श्रृंगास्थि से छनकर मुखगुहा में ही रह जाते हैं जिन्हें वह निगल जाता है। लगभग 2 टन तक भोजन श्रृंगास्थि तिमि के पेट में पाया गया है।

तिमिवसा (Blubber)-तिमि की त्वचा के नीचे एक पुष्ट तंतुमय संयोजी ऊतक की मोटी तह होती है जिसमें तेल की मात्रा अत्यधिक होती है। यह तह शरीर के प्रत्येक भाग में फैली रहती है। स्पर्म ह्वेल में यह पर्त 14 इंच तक तथा ग्रीन लैंड ह्वेल में 20 इंच तक मोटी हो सकती है। एक 70 टन के ह्वेल के शरीर में 30 टन तक तिमिवसा रह सकती है जिससे 22 टन तक तेल प्राप्त हो सकता है। डॉलफिन में तिमिवसा की परत पतली होती है। तिमिवसा का प्रमुख कार्य शरीर का ताप बनाए रखना है। तिमिगण स्थलीय स्तनी के वंशज हैं। तिमिवसा का दूसरा कार्य तिमिगणों का गरम समुद्रों में अत्यधिक गरमी से बचाव करना भी है।

श्वसन (Respiration)- तिमिगणों को समय-समय पर पानी के ऊपर आकर साँस लेना पड़ता है। पानी के भीतर डूबे रहने की अवधि उनकी आयु तथा माप पर निर्भर करती है। यह 5 मिनट से 45 मिनट या इससे अधिक भी हो सकती है। पानी के भीतर नासारंध्र कपाट द्वारा बंद रहता है परंतु पानी के ऊपर आते ही वह खुल जाता है और एक विशेष ध्वनि के साथ तिमि अपने फेफड़ों की अशुद्ध वायु को उच्छ्‌छवसित (expire) कर देता है। ऐसा करने पर रंध्र (या रंध्रो) से एक मोटी फुहार (Spout) ऊपर उठती दिखाई पड़ती है जो उच्छवास में मिश्रित नमी के कणों के संघनित (condense) होने से बनती है। उच्छवसन के तुरंत बाद ही नि:श्वसन की क्रिया होती है जिसमें बहुत ही कम समय लगता है। तिमिगण के श्वसन संस्थान की विशेषता यह है कि उनकी श्वास नली (wind pipe) अन्य सभी स्तनियों की भाँति मुखगुहा में न खुलकर नासारंध्र से जा मिलती है जिसके कारण हवा सीधे फेफड़ों में पहुँचती है। अन्य स्तनी नाक तथा मुखगुहा दोनों से ही श्वसन की क्रिया कर सकते हैं परंतु तिमिगण में केवल नाक द्वारा ही यह क्रिया हो पाती है। यह गुण (adaptability) जलीय अनुकूलशीलता है। दूसरी अनुकूलनशीलता उनकी वक्षीय गुहा (thoracic cavity) की फैलाव शक्ति है। इस शक्ति के द्वारा फेफड़ों को छाती की गुहा के भीतर अधिक से अधिक भाग में हवा को अपने भीतर रख सकते हैं। अन्य स्तनियों के प्रतिकूल उनके फेफड़े साधारण थैलीनुमा होते हैं जिससे अधिक हवा रख सकने में सहायता मिलती है। इन अनुकूलशीलताओं के अतिरिक्त तिमिगणों में कुछ और भी विशेष गुण हैं जो जलीय जीवन के लिए उन्हें पूर्णत: उपयुक्त बनाते हैं।

ज्ञानेंद्रियाँ-तिमिगण में ज्ञानेंद्रियाँ बहुत ही अल्प विकसित होती हैं। संभवत: उनमें सूँघने की शक्ति होती ही नहीं। फिर भी नासापथ (nasal passage) महत्वपूर्ण होता है। तिमिगण की आँखें शरीर की माप के अनुपात में छोटी होती हैं, फिर भी बड़े तिमि की आँखें बैल की आँखों की चौगुनी होती हैं। हवा के मुकाबले पानी में देखने के लिए उनकी आँखें अधिक उपयुक्त होती हैं तथा जल दबाव और पानी के थपेड़ों को सहन करने की उनमें अद्भुत क्षमता होती है। तिमिगण में कर्णपल्लव (pinna) नहीं होते तथा कर्णछिद्र बहुत ही संकुचित होते हैं। बैलीन श्रृंगास्थियों में कर्णपथ मोम के एक लंबे टुकड़े से बंद रहता है पर पानी में तनिक भी शांति भंग होने अथवा ध्वनि होने को वे तुरंत सुन लेते हैं। पानी में उत्पन्न स्वर लहरियाँ अस्थियों द्वारा ही सीधे मस्तिष्क को पहुँचती हैं।

तिमिगण की अस्थियों की विशेषताएँ-तिमिगण का सारा शरीर जलीय जीवन के अनुकूल होता है अतएव उनकी अस्थियों में कुछ परिवर्तन और कुछ नवीन गुण उत्पन्नश् होना स्वाभाविक है।

खोपड़ी (Skull)- अन्य समुद्री जंतुओं की भाँति खोपड़ी में कपाल (cranurin) का भाग छोटा एवं उच्चतर तथा कुछ में गोलाकार होता है। जबड़े लंबे होकर तंतु या चोंच (rostrum or beak) बनते हैं। कपाल के छोटे होने का एक कारण यह भी है कि तिमिगण के पूर्वजों की खोपड़ी की हड्डियां एक-दूसरे से सटी न होकर कुछ एक के ऊपर एक (telescoping or overlapping) चढ़ी हुई थीं, यही दशा आधुनिक तिमिगण में आंशिक रूप में थी फलस्वरूप जब पानी ने पीछे और मेरुदंड ने आगे की ओर अस्थियों पर दबाव डाला, तो उनका एक-दूसरे पर कुछ अंश तक चढ़ जाना स्वाभाविक हो गया।

कशेरुक दंड (Vertebral Column)- कशेरुक दंड की कशेरुकाओं में संधि (articulation) केवल कशेरुक काय (Centrum) द्वारा ही होती है जब कि अन्य स्तनियों में यह संधि कुछ अन्य प्रवर्धों (Processes) द्वारा भी होती है। ये प्रवर्ध तिमिगण में छोटे होने के कारण आपसी संपर्क नहीं स्थापित कर पाते। तिमिगण की गर्दन अत्यंत छोटी तथा अस्पष्ट होती है। ऐसा उसकी कशेरुकाओं के बहुत छोटी होने के कारण होता है। फिर भी सभी स्तनियों की भाँति गर्दन के कशेरुकों की संख्या 7 ही होती है। कुछ तिमिगण में ये सातों हड्डियाँ अस्थिभूत (ossify) होकर एक हो जाती हैं।

पाद अस्थियाँ (Limb bones)-तिमिगण में पृष्ठपाद पूर्णतया अनुपस्थित होते हैं जिसके कारण उनसे संबंधित मेखला (girdle) या तो अनुपस्थित होती है या इतनी छोटी कि मांस में दबी, कशेरुदंड से अलग छोटी हड्डी ही रह जाती है। अन्य स्तनियों में पृष्ठपाद पर पड़ने वाले शरीर के बोझ को सँभालने के लिए मेखला से संबंधित कशेरुक अस्थिभूत होकर एक संयुक्त हड्डी त्रिकास्थि (Sacrum) बनाते हैं परंतु यह त्रिकास्थि तिमिगण में मेखला के छोटी होने के कारण नहीं बनता क्योंकि उनमें शरीर का बोझ पादों (Limbs) पर न पड़कर पानी पर पड़ता है। इस सत्य के कारण अग्रपाद भी तैरने का कार्य गौण रूप से (Secondarily) करने में सफल हो जाते हैं। तैरने के लिए उनका रूप डाँड़ (Paddle) जैसा हो जाता तथा उनकी अस्थियों में कुछ विशेष परिवर्तन हो जाते हैं, जैसे स्कंधास्थि में स्कैफुला पंखे के समान फैल जाता है, अस्थि संधियाँ अचल हो जाती हैं, कलाई के पीछे की अस्थि शरीर के भीतर हो जाती हैं, अग्रपाद (fore arms) की ह्यूमरस (Humerus) नामक हड्डी छोटी और पुष्ट हो जाती है, कलाई तथा हाथ की सभी अस्थियाँ चपटी हो जाती हैं जिससे 'डाँड़' के चौड़े होने में सहायता मिलती है, कुछ उँगलियों की अंगुलास्थि (Phalanges) की संख्या सामान्य से अधिक हो जाती है आदि।

दाँत-तिमिगण के दाँत विभिन्न जातियों में विभिन्न अंश और ढंग से विकसित होते हैं। सूँस में वे दोनों जबड़ों पर उपस्थित तथा क्रियात्मक (functional) होते हैं। स्पर्म तिमि में केवल निचले जबड़े में ही पूरे दाँत होते हैं ऊपरी जबड़े में वे अवशेष रूप में ही रह जाते हैं। नर नखह्वेल (Monodon) के दाँत केवल एक रदन (शूकदंत या Tusk) द्वारा ही स्थानापन्न होते हैं तथा श्रृंगास्थि तिमि में क्रियात्मक दाँत कदाचित्‌ अनुपस्थित होते हैं यद्यपि भ्रूण में थोड़े समय के लिए छोटे रूप में दिखाई पड़ते हैं। दाँतों के स्थान पर उनमें श्रृंगास्थि उपस्थित होती है।

तिमि के वाणिज्य उत्पाद- तिमिगण से निम्मलिखित उपयोगी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं(1) श्रृंगास्थि: तिमि के शरीर में बहुमूल्य अंग श्रृंगस्थि है। ग्रीनलैंड के तिमि के श्रृंगास्थि का मूल्य विशेष रूप से अधिक होता है। किसी समय एक टन श्रृंगास्थि लगभग दो हजार पाउंड में बिकता था।

(2) तेल- तिमि के शरीर से बड़ी मात्रा में तेल प्राप्त होता है। यह मालिश, शक्तिवर्धक औषध (Tonic) और अन्य अनेक कामों में आता है।

(3) मांस- किसी समय सूँस का मांस एक विशिष्ट वस्तु समझा जाता था। रोमन कैथोलिक देशों में केवल तिमि मांस ही उपवास के दिन भी वर्जित नहीं था।

(4) दाँत- नखह्वेल तिमि (narwhale) का रदन तथा स्पर्म तिमि के दाँतों से दाँत प्राप्त किया जाता है जिसका गजदंत जैसा प्रयोग हो सकता है।

(5) चमड़ा- तिमि के त्वचा से चमड़ा प्राप्त होता है जिससे अनेक सामान बन सकते हैं।

शिकार किए जाने वाले तिमिनिम्नलिखित 9 प्रकार के तिमियों का शिकार किया जाता है:
(1) यूबलीना ग्लेशियालिस (Eubalaena glacialis)- अटलांटिक महासागर में पाए जाने वाले इस तिमि का उद्योग 12वीं13वीं शताब्दी में शिखर पर था।

(2) बलीना मिसटिसिटस (Balaena mysticetus)-ग्रीनलैंड में पाए जाने वाले इस तिमि द्वारा ध्रुवीय मत्स्य व्यवसाय (Arctic fishery) का प्रारंभ हुआ।

(3) फाइसेटर कैटोडॉन (Physeter Catodon)- यह स्पर्म तिमि है। इसका उद्योग 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ।

(4) यूबलीना ऑस्ट्रेलिस (Eubalaena australis)- फाइसेटर के शिकारी इसे भी भारी संख्या में पकड़ते थे।

(5) रैकियानेक्टिज ग्लॉकस (Rhachianectes glaucus)-यह प्रशांत महासागर के पैसिफिक ग्रे ह्वेल के नाम से प्रसिद्ध है तथा 19वीं शताब्दी में कैलिफोर्निया के समुद्री तट पर बड़ी संख्या में पकड़ा जाता था।

विविध जातियों के ह्वेल-क, श्वेत (White) ह्वेल, ख, डॉलफिन, ग. फूली हुई नाकवाली (Bottle-nosed) ह्वेल, घ. ऐटलैंटिकीय राइट (Right) ह्वेल, च. स्पर्म (Sperm) ह्वेल, छ. कुबड़ी (Humpbacked) ह्वेल, ज. से (Sei) ह्वेल, झ. प्रशांत महासागरीय धूसर (Grey) ह्वेल, ट. ग्रीनलैंड ह्वेल, ठ. नील (Blue) ह्वेल, तथा ड. फिन (Fin) ह्वेल। ह्वेलों के आकार के सही ज्ञान के लिए 11 फुट ऊँचे हाथी का चित्र उसी अनुपात में दिया गया है जिसमें ह्वेलों के चित्र।

(6) सिबैल्डस मसक्यूलस (Sibbaldus musculus)-ग्रेट ब्लू ह्वेल।

(7) बलीनॉपटेरा फाइसेटस (Balaenoptera borealis)
(8) बलीनॉपटेरा बोरियैलिस (Balaenoptera borealis)
(9) मिगैपटेरा नोड्यूसा (Megaptera nodusa)

किसी समय अंतिम चार जातियों द्वारा ही आधुनिक तिमि उद्योग का प्रारंभ हुआ था।
जाति इतिहास (Phylogeny)- तिमिगण का पूर्वजी इतिहास अनिश्चित सा है। अतएव यह बताना कठिन है कि किन स्तनी समुदाय (mammalian group) से उनका पादुर्भाव हुआ। अलब्रेक(Albrecht) के अनुसार एक आद्य (Primitive) स्तनी समूह, जिसे वे 'प्रोममेलिया' (Promammalia) कहते हैं, के गुण निम्नलिखित हैं:(1) उनके निचले जबड़े की दोनों भुजाओं (rami) के बीच की अपूर्ण संधि, (2) लंबे साधारण थैलीनुमा फेफड़े, (3) शुक्र ग्रंथियों (testes) का शरीर के भीतर होना, (4) कुछ (जैसे बेलीनॉपटेरा (Balaenoptera) में उपरिकोणीय (Sapra angular) अस्थि की भिन्न (Separate) उपस्थित आदि फिर भी केवल इन्हीं गुणों द्वारा ही तिमिगण को आधुनिक स्तनी यूथीरिया(Eutheria) से भिन्न नहीं किया जा सकता। क्योंकि इनकी संख्या कम है और वे बहुत अधिक महत्व के नहीं हैं। कुछ ऐसेलोग भी हैं जो तिमिगण को 'यूथीरिया' के 'अंगुलेटा' (ungulata) अर्थात्‌ खुरदार जंतुओं से और कुछ येडेंटेटा (Edentata) अर्थात्‌ चींटेखोर जंतुओं से संवहित करते हैं। येडेंटेटा तथा तिमिगण कुछ विशेष गुणों में समान हैं जैसे (1) दोनों में कठोर बहिष्कंकाल (Exoskeleton) की उपस्थिति, यद्यपि तिमिगण में यह केवल सूँस में और वह भी अवशेष रूप में ही पाया जाता है। (2) कुछ तिमिगण (बेलीनॉपटेरा) की पसली (rib) और उरोस्थि (Sternum) की दोहरी संधि, (3) दोनों में गर्दन का कुछ कशेरुकों में संयोजन (union), (4) दोनों में खोपड़ी की पक्षाभ (Pterygoid) नामक अस्थि का तालू बनाने में भाग लेना (5) सूँस में कई येडेंटेटा की भाँति महाशिराना (Vena cava) के यकृत के समीप पहुँचने पर बजाय बड़े होने के छोटा हो जाना आदि।

वर्गीकरण- तिमिगण तीन उपगणों में विभक्त किए जा सकते हैं(1) आर्कियोसेटी (Archaeoceti), (2) ओडोंटोसेटी (Odontoceti) तथा (3) मिस्टैकोसेटी (Mystacoceti)

(1) आर्कियोसेटी- ये अब केवल फॉसिल रूप में ही पाए जाते हैं। इसके अंतर्गत केवल एक जाति ज्यूग्लोडॉन (Zeuglodon) आती है जो अत्यंत आद्य गुणों वाले जंतु थे। उनमें दाँत उपस्थित थे, खोपड़ी असममित थी, अग्र पसलियाँ द्विभुजी थीं, ग्रैविक कशेरुक पूर्ण विकसित तथा असंयुक्त और बाहरी नासारंध्र कपाटरहित थे।

(2) ओडोंटोसेटी- ये दंतयुक्त वर्तमान तिमि है जिनमें बाहरी नासारंध्र एक होता है। इनमें भी कुछ आद्य गुण उपस्थित हैं जो निम्न हैंमुक्त और बड़े ग्रैविक कशेरुकों को अग्र पसलियों का द्विभुजी होना, अपेक्षाकृत अपरिवर्तित अग्रपाद जिनकी उँगलियों या अंगुलास्थियों की संख्या में वृद्धि न होना आदि। यह उपगण 3 वंशों में विभक्त किया जाता है:

(क) फाइसेटराइडी (Physteridae)- इसके अंतर्गत उष्ण कटिबंधीय स्पर्मतिमि (Physeter) आते हैं जो लंबाई में 82 फुट तक हो सकते हैं। इनका विशाल सिर शरीर के लंबाई का लगभग एक-तिहाई होता है परंतु खोपड़ी अपेक्षाकृत छोटी होने के कारण उसके (खोपड़ी के) और सिर की दीवाल के बीच एक स्थान उत्पन्न हो जाता है। यह स्थान 'स्पर्मोसेटी' (Spermaceti) नामक एक द्रववसा (Liquid fat) से भरा होता है। इस वसा का प्रथम उल्लेख सलनों (Salerno) ने सन्‌ 1100 में अपने 'फार्मेकोपिया' (Pharmacopia) में किया था जिसे बाद में अलबर्टस मैगनसश् (Albertus Magnus) तथा अन्य वैज्ञानिकों ने तिमि के शुक्रकीट अथवा 'स्पर्म' (Sperm) से परिभ्रमित किया। इसीलिए इन तिमिगणों का स्पर्म ह्वेल नाम पड़ा। बाद में हंटर (Hunter) और कैंपर (Camper) नामक व्यक्तियों ने बताया कि स्पर्मासेटी तेल की तरह का ही एक द्रव वसा पदार्थ है जो इन तिमिगणों के सिर में पाया जाता है। स्पर्म तिमि में पाई जाने वाली दूसरी बहुमूल्य वस्तु ऐंबरग्रिस (Ambergris) है जो उनके पाचन नलिका (alimentary canal) से प्राप्त होती है। ऐंबरग्रिस का मुख्य उपयोग इत्रकशी (Perfumery) में किया जाता है। प्राचीन काल में इसका प्रयोग औषधियों में भी किया जाता था। पिग्मी स्पर्म तिमि (Cogia) उपर्युक्त उपगण का दूसरा उदाहरण है।

(ख) जिफिआइडी (Ziphiidae)- इसके अंतर्गत आने वाले तिमियों के तुंड आगे बढ़े हुए होते हैं अतएव उन्हें चोंचवाले (Beaked) तिमि भी कहते हैं। इनकी लंबाई 30 फुट से अधिक नहीं होती तथा सामान्य रूप से ये नहीं मिलते। ये दक्षिणी समुद्रों में पाए जाते हैं। उदाहरणजीफिअस (Ziphius) हाइपरूडॉन (Hyperoodon),मीजोप्लोडॉन (mesoplodon) आदि।

(ग) डेलफिनाइडी (Delphinidae)- ये बहुसंख्यक तिमि छोटे तथा औसत लंबाई के होते हैं। दाँत दोनों ही जबड़ों पर अधिक संख्या में होते हैं। इस उपगण के मुख्य उदाहरण सूँस डालापन तथा नार ह्वेल हैं। सूँस हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी, इरावदी नदी तथा संसार के अन्य भागों में पाए जाते हैं। डॉलफिन भी अन्य देशों के अतिरिक्त भारत की गंगा, सिंध, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों में पाए जाते हैं। ये 708 फुट लंबे तथा जल के सभी जंतुओं में सबसे अधिक समझदार जंतु होते हैं। सिखाने पर कुछ भी सरलता से सीख लेते हैं और बहुधा प्राणि उद्यानों (Zoos) में तरह-तरह के खेल दिखाकर दर्शकों को प्रसन्न करते हैं। नार ह्वेल तिमि 15 फुट तक लंबे होते हैं। इनके सभी दाँत छोटे होते हैं परंतु नर में एक दाँत लंबा होकर रदन (Tusk) बनाता है। रदन के अनुमानित प्रयोग निम्न हैंअपनी मादा को प्राप्त करने के लिए अन्य नरों पर इसके द्वारा आक्रमण करना, बर्फ तोड़कर भोजन प्राप्त करना, शिकार का भेदन करना आदि।

(3) सिंस्टैकोसेटी- यह सबसे विकसित तथा विशाल तिमियों का समूह है। माप में अन्य तिमियो में केवल स्पर्म तिमि फाइसेटर (Physeter) ही इनका मुकाबला कर सकते हैं। इनके विकसित गुण इस प्रकार हैंदाँतों की अनुपस्थिति तथा उनके स्थान पर श्रृंगास्थि होना, खोपड़ी का सममित तथा पसलियों का एकभुजी होना। इस उपगण को दो वंशों में विभक्त कर सकते हैं

(क) बलीनॉपटराइडो (Balaenopteridae)- इस वंश के उदाहरण हैं विशाल रोरकुअल (Rorquol) या ब्लू ह्वेल (Balaenoptera) जो 67 फुट और उससे भी अधिक लंबे होते हैं तथा कभी अकेले और बहुधा 50 तक के झुंड में रहते हैं। हँप बैक या कूबड़ तिमि (Megaptera) जिससे पृष्ठ मीन पंख (fin) के स्थान पर कूबड़ सा निकला होता है।इसकी लंबाई 50-60 फुट तक होती है। ग्रेह्वेल (Rhachianectes) मुख्यत: प्रशांत महासागर में पाया जाता है इनमें पृष्ठ पंख अनुपस्थित होता है तथा ये लड़ाकू प्रकृति के होते हैं।

(ख) बलीनाइडी (Balaenidae)- इन्हें वास्तविक तिमि (Right whales) के नाम से संबोधित करते हैं क्योंकि ये अपनी श्रृंगास्थि की लंबाई तथा तेल की मात्रा के और गुण के कारण शिकार के लिए उचित माने जाते थे। इसके अंतर्गत ग्रीनलैंड में पाई जाने वाली बलीना (Balaena) तथा न्यूजीलैंड, दक्षिणी आस्ट्रेलिया तथा अन्यत्र पाई जाने वाली नियोबलीना (Neobelaena) आते हैं।

सं. ग्रं.टी.जे. पार्कर ऐंड डब्ल्यू.ए. हासवेल: ए टैक्स्टबुक ऑव जुआलौजी; एफ. वेड्डार्ड: कैंब्रिज नेचुरल हिस्टरी, खंड 10 भमैलिया; आर.एस लल: आर्गेनिक इवोल्युशन। (कृष्ण प्रसाद श्रीवास्तव)

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