शक्ति-संतुलित जल-संसाधन व्यवस्था : भारत-समृद्धि का समीकरण

भारत जल-संसाधन सम्पदा में काफी समृद्ध है, फिर भी पेय जल के लिए सर्वत्र हाहाकार मचा है। बड़े-बड़े बांधों का निर्माण निरंतर जारी है। बंधियों की लम्बाई भी बढ़ती जा रही है। इसी अनुपात में विनाशलीला भी बढ़ती चली जा रही है। लाखों, करोड़ों की सम्पत्ति तथा असंख्य लोगों की तबाही हर वर्ष अवश्यम्भावी हो गयी है। मृदाक्षरण के प्रकोप से हजारों एकड़ जमीन हर वर्ष नष्ट हो रही है। गांव का गांव उजड़ता चला जा रहा है। इन समस्याओं से यह लग रहा है कि हमारी तकनीकी उपलब्धियां, जिनकी सहायता से हम शिखर पर पहुंचने का अनुमान लगा रहै हैं, जल संसाधन व्यवस्था के दृष्टिकोण से उपयोगी नहीं हैं, तथा इससे यह भी सत्यापित हो रहा है, कि जिस तकनीक का उपयोग कर हम जल-संसाधन व्यवस्था कर रहे हैं, वह त्रुटिपूर्ण है। उपरोक्त समस्याओं की जड़ की खोज करना परमावश्यक हो गया है। यही निदान का उपाय भी बता सकता है। हमारी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में नदी गठजोड़ जैसी विशालतम परियोजना भी शामिल है, किंतु जो परियोजनाएं हमने पूरी कर ली हैं, उनके प्रभाव, अर्थात, हानि-लाभ की समीक्षा नहीं की जा रही है, इनकी त्रुटियों का आकलन एवं निवारण कर भविष्य की तकनीकों को कैसे सुधारें, इस पर गंभीर चिंतन नहीं हो रहा है। यही कारण है कि हमने जल-संसाधन के वैज्ञानिक विश्लेषण को दर-किनार कर रखा है। हमने जल-व्यवस्था सम्बंधी सारी व्यवस्था की है, पर जलसंसाधन व्यवस्था नहीं। अतः नदी गठजोड़ सम्बंधी परियोजना के विश्लेषण की आवश्यकता है। इसके लिए प्राकृतिक रूप से मिलने वाली नदियों का स्थल क्षेत्र एवं संगम की वैज्ञानिक पहलू को जानना आवश्यक है।

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