समंदर में तेजी से खत्म हो रही हैं मछलियाँ

7 Sep 2011
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व्यापारी इन तमाम भुगतानों के बाद जब समंदर में जहाज लेकर उतरता है तो यही सोच रखता है कि जितनी ज्यादा हो सके मछलियाँ पकड़नी है ताकि सारे भुगतान तो अदा हो ही इसके अलावा मुनाफा भी अच्छा खासा हो। इंसान का बढ़ता लालच मछलियों के लिए काल बनता जा रहा है। अब लालच की तो कोई सीमा नहीं लेकिन समंदर में मछलियों की संख्या सीमित है।

109 मीटर लंबा लिथुएनियन स्टर्न ट्रालर बैलेंडीस उन 200 पानी के जहाजों में से एक है जिसे यूरोपीय यूनियन की ओर से मॉरीतानिया के समुद्री इलाके में मछली पकड़ने की पूरी छूट मिली हुई है। यह जहाज हर दिन अपनी किस्मत से हजारों-लाखों टन की तदाद में मछलियाँ पकड़ते हैं। स्टर्न ट्रालर बैलेंडीस जहाज के बारे में कहा जाता है कि यह एक बार में दो हजार टन का वजन उठा सकता है। इतनी क्षमता वाले इन तमाम जहाजों में मछली पकड़ने के संयंत्र और जहाज में रहने वाले लोगों के लिए जरूरी सामान के अलावा सिर्फ और सिर्फ मछलियाँ ही होती हैं। जरा सोचिए 2 हजार टन की क्षमता वाले इन जहाजों में अगर एक बार में एक हजार टन मछलियाँ भी कुछ महीनों तक समुद्र से निकाली जाती हैं तो साल भर में समुद्र से निकाली जाने वाली मछलियों की संख्या कितनी होती होगी? ऐसे ही 200 जहाज हर साल मछलियों को निकालकर समुद्र को खाली करते जा रहे है। इनके अलावा कई छोटे और मझोले मछली पकड़ने वाले जहाजों की तो कोई गिनती ही नहीं है।

दुनिया के कई मुनाफे वाले व्यापारों में से एक मछली पकड़ने के व्यापार से न सिर्फ बड़ा फायदा होता है बल्कि यह कई लोगों को रोजगार भी देता है। समुद्र के बारे में ज्यादातर लोग एक ही राय रखते हैं कि इसमें अपार संपदा है। यह कभी भी खत्म न होने वाला खजाना है। इससे कितना भी निकालो लेकिन यह कम नहीं होता है, जो लोग इस तरह की बातें करते हैं उनके लिए खजाना हीरा-मोती या सोना-चांदी नहीं बल्कि मछलियों का अथाह भंडार है। जिनके बल पर लोग दिन-दूनी और चार-चौगुनी तरक्की करते हैं। समुद्र की गहराईयों में गोते लगाती मछलियाँ जल की रानी हैं, इसलिए इन्हें खजाने की उपाधि देना तो सही है, लेकिन यह कहना कि इस बहुमूल्य खजाने का चाहे जितना भी दोहन किया जाय यह कभी खत्म नहीं होगा, सरासर गलत है। किसी भी वस्तु के उत्पादन से ज्यादा यदि उसका दोहन किया जाएगा तो एक न एक दिन उसका खत्म होना लाजिमी है। यही तर्क जल की रानी पर भी लागू होता है। उनकी जन्म दर की तुलना में जिस तेजी से इंसान अपने फायदे के लिए उनका दोहन कर रहा है उससे तो ऐसा ही पतीत हो रहा कि आने वाले कुछेक दशकों बाद मछलियों के लिए कही जाने वाली पंक्तियां कुछ इस तरह की होंगी, `मछली जल की रानी थी, जीवन उसका पानी था, हाथ लगाओ तो डर जाती थी, बाहर निकालो तो मर जाती थी।' जल की रानी किस्सों और कहानियों में बीते हुए दौर का हिस्सा बन जाए इससे पहले ही दुनिया के तमाम देशों को इनके संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।

ऐसा माना जाता है कि इस समय दुनिया में जितने भी फिशिंग टूल्स हैं, उनमें से बड़े पानी के जहाजों से सिर्फ 40 प्रतिशत ही मछलियाँ पकड़ी जाती हैं। बाकी की 60 प्रतिशत मछलियाँ छोटे आकार के जहाजों या छोटी नावों से पकड़ी जाती हैं यानी छोटे मछुआरे बड़ों की तुलना में मछलियों का ज्यादा शिकार करते हैं। इसलिए क्योंकि ये संख्या में बहुत ज्यादा होते हैं। मछलियों की कम होती तादाद और खत्म होती प्रजातियों पर पूरी दुनिया के वैज्ञानिक चिंतित हैं और यूरोपीय यूनियन को इस बात के लिए सचेत कर रहे हैं कि अगर जल्द ही फिशिंग पर रोक नहीं लगाई गई तो वह दिन दूर नहीं जब समुद्र से जन्म लेने वाली तरह-तरह की महामारियां धरती पर हाहाकार मचाएंगी लेकिन यूरोपियन यूनियन इस विषय पर कानों में तेल डालकर बैठा है। पर्यावारणविदों ने तो यहां तक चेतावनी दे दी है कि अगर जल्द ही इस क्षेत्र में कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए तो वह दिन दूर नहीं जब समुद्र में मछलियाँ पूरी तरह खत्म हो जाएंगी। इससे पर्यावरण पूरा गड़बड़ा जाएगा। जिस तरह हमारी दुनिया में घर व बाहर की सफाई का जिम्मा हम इंसानों और कुछ जानवरों पर भी होता है, ठीक वैसे ही पानी की दुनिया में सफाई कर्मियों की भूमिका मछलियाँ ही निभाती हैं।

मछलियाँ न सिर्फ पानी के भीतर मौजूद कचरे को कम करती हैं, मृत हो चुके अन्य जीवों को खाकर पानी को सड़ांध से बचाने में भी विशेष योगदान देती हैं। पानी के भीतर उपस्थित जीवन चक्र को संरक्षित रखने में मछलियाँ ही अधिकतम योगदान देती हैं। ऐसे में अगर पानी के भीतर की दुनिया का यह खास जीव पूरी तरह खत्म हो जाएगा तो आने वाले समय में समंदर दुनिया की सबसे प्रदूषित जगहों में से एक बन जाएगा। ऐसा होने पर इसका सबसे ज्यादा असर उन दूसरे जीवों पर पड़ेगा जो जल के बिना जीवित नहीं रह सकते हैं। इसके अलावा इंसान भी इससे अछूता नहीं रहेगा। हमारी 50 फीसदी से ज्यादा जरूरतें समुद्र से ही पूरी होती हैं। इसके पूरी तरह प्रदूषित हो जाने के बाद भी क्या हम इसका दोहन अपनी जरूरतों के लिए कर पाएंगे, शायद नहीं। कुछ समय पहले कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने 53 राष्ट्रों के फिशरीज इंडस्ट्री पर एक तुलनात्मक अध्ययन किया। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य था ऐसे देशों की तलाश करना जहां मछलियों का कम से कम दोहन किया जाता हो, लेकिन हैरानी की बात यह थी कि अध्ययन में एक भी ऐसा राष्ट्र नहीं मिल पाया यहां समुद्र, छोटी नदियों या तालाबों से मछलियों को व्यापार के लिए बड़ी मात्रा में न पकड़ा जाता हो। मछलियाँ पकड़ने का व्यापार सबसे ज्यादा उत्तरी अमरीका और चीन में होता है। उत्तरी अमरीका में तो इस समय पूरी दुनिया की 30 प्रतिशत फिशरी इंडस्ट्री मौजूद है।
 

जाल के पानी से बाहर आते-आते छोटी मछलियाँ मर चुकी होती हैं। इनकी खास तवज्जो न होने के कारण मरी हुई मछलियों को समुद्र में ही फेंक दिया जाता है। मछुआरे मछलियों की संख्या तो कम कर ही रहे हैं इसके अलावा समुद्री वातावरण को भी दूषित कर रहे हैं। इसके कुछ और विकल्प नहीं निकाले गए तो आने वाले समय हमें इसका बेहद नुकसान पहुंचा सकता है।

प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के लिए यूरोपीय यूनियन ने फिशरी मैनेजमेंट के तहत कॉमन फिशरी पॉलिसी बना रखी है। इस पॉलिसी के तहत हर देश की एक निश्चित समुद्री सीमा है। एक देश का व्यापारी यदि मछली पकड़ने के उद्देश्य से जहाज को दूसरे देश की समुद्री सीमा तक ले जाना चाहता है तो इसके लिए उसे यूरोपीय यूनियन से परमिट लेना पड़ता है। यह परमिट काफी मुश्किलों के बाद मिलता है। इसके लिए भारी कीमत भी चुकानी पड़ती है। व्यापारी इन तमाम भुगतानों के बाद जब समंदर में जहाज लेकर उतरता है तो यही सोच रखता है कि जितनी ज्यादा हो सके मछलियाँ पकड़नी है ताकि सारे भुगतान तो अदा हो ही इसके अलावा मुनाफा भी अच्छा खासा हो। इंसान का बढ़ता लालच मछलियों के लिए काल बनता जा रहा है। अब लालच की तो कोई सीमा नहीं लेकिन समंदर में मछलियों की संख्या सीमित है। यह सीमित संख्या खत्म हो सकती है, इसका अंदेशा अभी से ही होने लगा है। सुपर ट्रॉलर जहाज के कैप्टन नॉस्टविक पिछले दो दशकों से समुद्र को ही अपना घर बनाए हुए हैं। लैटिन अमरीका, एशिया और अफ्रीका के समुद्री इलाकों में मछलियों की तलाश कर चुके नॉस्टविक का कहना है, `यह बात सच है कि अब हमें मछली पकड़ने के लिए उन इलाकों की तलाश करनी पड़ती है जहां कम से कम मछुआरे गए हों।

मछली पकड़ने के सामान्य समुद्री क्षेत्रों में तो अब मछलियाँ दिखती ही नहीं। आज से दो दशक पहले जब मैं इस क्षेत्र में आया था तो बड़ी आसानी से मछलियाँ जाल में फंस जाती थीं। लेकिन अब नई तकनीक और आधुनिक जाल के बावजूद मछलियाँ पकड़ना बेहद मशक्कत भरा काम हो गया है। आगे इसमें और कितनी परेशानियां हो सकती हैं, इसका अंदाजा अभी से ही लग रहा है। पता नहीं सारी मछलियाँ कहां चली गई हैं। शायद उन्हें इस बात का अंदाजा लग जाता है कि उन्हें जाल में फंसाने वाले उनकी तरफ बढ़ रहे हैं।' नॉस्टविक की बातों से भले ही उनके पक्के व्यापारी होने की झलक मिलती हो लेकिन इतना तो तय है कि अब फिशरी इंडस्ट्री से जुड़े लोग भी यह मानने लगे हैं कि मछलियाँ गायब हो चुकी हैं। हां, इसमें फर्क सिर्फ इतना है कि वह इसे खुलकर नहीं कह रहे। क्योंकि इससे उनकी रोजी-रोटी भी जुड़ी है।पर्यावरणविदों का मानना है कि इस समय मछलियों की सबसे ज्यादा कमी यूरोप के समुद्री इलाकों में है। धरती पर पानी के अन्य स्रोतों की तुलना में यूरोप के समुद्र मछली के स्टॉक से खाली हो चुके हैं। 88 प्रतिशत तक मछलियाँ खत्म हो चुकी हैं। आज से एक दशक पहले स्थिति इतनी बुरी नहीं थी। इस इलाके में अच्छी-खासी मछलियाँ मिल जाती थीं लेकिन यूरोपीय यूनियन के हाई फिश कोटा ने मछुआरों को इस बात की खुली छूट दे दी कि वह बिना किसी रोकटोक के जितनी चाहें उतनी मछलियाँ पकड़ें। कोटे का फायदा उठाते हुए इस इलाके के मछुआरों ने इतनी अधिक मात्रा में मछलियाँ पकड़नी शुरू कर दीं कि उन्हें काफी मुनाफा होने लगा। यूरोप के समुद्र में मछलियाँ पकड़ने के उद्देश्य से अन्य देशों के मछुआरे भी परमिट लेकर आने लगे। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2008 में यूरोपीयन यूनियन ने 22000 टन मछलियाँ पकड़ने की अनुमति दी थी लेकिन यह मात्रा गैर-कानूनी रूप से 50000 टन तक पहुंच गई। एक वर्ष में ही समुद्र से 50000 टन मछलियाँ खत्म हो गईं। आज हालत यह है कि मेडीटेरियन-सी में मछलियों का अकाल पड़ा हुआ है। छोटी मछलियों के अलावा शार्क भी दिन ब दिन कम होती जा रही हैं। उत्तरी सागर में अधिकता में पाई जाने वाली शार्क अब काफी खोजबीन के बाद ही मिलती हैं। पिछले बीस सालों में डॉगफिश शार्क की संख्या 80 प्रतिशत तक कम हो गई है। परिणाम इतने भयावह हो चुके हैं कि इस समय मछलियों की 2500 प्रजातियाँ संकट में हैं और इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

मछलियों में लोकप्रिय कॉड फिश की मांग हमेशा बनी रहती है। आंकड़ों की मानें तो मछलियों की बढ़ती मांग को पूरा करने में व्यापारी असमर्थ हो रहे हैं। परमिट के आधार पर मछलियों को सीमित संख्या में पकड़ने के लिए मजबूर व्यापारी गैर-कानूनी तरीकों का भी उपयोग करते हैं। वर्ष 2005 में नॉर्वे के फिशरी प्वाइंट में 1 लाख टन कॉड फिश गैर-कानूनी तरीके से पकड़ी गईं। ऐसा माना जाता है कि मछलियों की धर-पकड़ में हर पांच में से एक मछली गैर-कानूनी तरीकों का इस्तेमाल करके पकड़ी जा रही है। आयरलैंड के निकट 30 हजार मछलियाँ पकड़ी जाती हैं जो परमिट की तुलना में दोगुनी हैं। जरा सोचिये इस तरह तो मछलियों को बचाना नामुमकिन हो जाएगा। गैर-कानूनी या परमिट में तय संख्या से दोगुनी या तीन गुनी मात्रा में मछलियाँ पकड़ना, कुछ समय के लिए तो फायदेमंद लगता है लेकिन हालात ऐसे ही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब मछलियाँ मेन्यू कार्ड से गायब हो जाएंगी।

मछलियों को पकड़ते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि वह जख्मी न होने पाएं। मछलियों की सबसे ज्यादा खपत भोजन के रूप में ही होती है। ऐसे में कटी-फटी मछलियों के खरीदार नहीं मिलते। जाल में हजारों की तादाद में जब मछलियाँ फंसाई जाती हैं तो इसमें सैंकड़ों मछलियाँ तो बुरी तरह जख्मी हो जाती हैं। इस तरह की मछलियों को वापस समुद्र में फेंक दिया जाता है। इसके साथ ही जाल में छोटी मछलियाँ ही फंसती हैं जिनकी कीमत अच्छी नहीं मिलती। जाल के पानी से बाहर आते-आते छोटी मछलियाँ मर चुकी होती हैं। इनकी खास तवज्जो न होने के कारण मरी हुई मछलियों को समुद्र में ही फेंक दिया जाता है। मछुआरे मछलियों की संख्या तो कम कर ही रहे हैं इसके अलावा समुद्री वातावरण को भी दूषित कर रहे हैं। इसके कुछ और विकल्प नहीं निकाले गए तो आने वाले समय हमें इसका बेहद नुकसान पहुंचा सकता है।
 

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