सम्पूर्ण स्वच्छता अभियानः कहानी अनीता की

“आधे भारतीय घरों में सेलफोन हैं, किंतु शौचालय नहीं”, घरेलू जनगणना-2011


अनीता बाई नेरे को सुलभ स्वच्छता पुरस्कार देते केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री, जयराम रमेशअनीता बाई नेरे को सुलभ स्वच्छता पुरस्कार देते केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री, जयराम रमेशस्थान था दक्षिण कोरिया की राजधानी शहर-सिओल का कोरिया डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (के.डी.आई.)। भारत एवं कोरिया के अधिकारियों से भरे एक सम्मेलन–कक्ष में एक लघु फिल्म दिखाई जा रही थी, इस फिल्म में एक सफलता की कहानी प्रदर्शित की जा रही थी कि किस तरह से एक गांव को खुले में शौच करने से मुक्त (ओ.डी.एफ) कराया गया। कोरिया के कुछ अधिकारियों के चेहरों पर यह देख कर हंसी तथा आश्चर्य था कि पुरुष एव महिलाएं अपने हाथों में मग लिए शौच के लिए खुले मैदानों में जाते हैं। फिल्म में, गांव को खुले में शौच से मुक्त(ओ.डी.एफ.) कराने के लिए सरकारी अधिकारियों द्वारा किए गए कड़े प्रयास भी दर्शाए गए थे। अधिकांश भारतीय चेहरों पर शर्म दिखाई दे रही थी। जबकि कुछ अधिकारी अपने देश की ऐसी भद्दी तथा गंदी तस्वीर प्रदर्शित करने पर भारतीय प्रस्तुतिकर्ता पर अपनी खिन्नता व्यक्त कर रहे थे। जुलाई, 2010 में आई.ए.एस. के लिए चरण-III प्रशिक्षण कार्यक्रम के एक भाग के रूप में, मैं उस सम्मेलन कक्ष में बैठा हुआ था तथा मेरे भाव भी अन्यों से भिन्न नहीं थे।

सभी भारतीय अधिकारियों के चेहरों पर शर्म के भाव थे। हमारे ग्रामीण भारत की लाखों महिलाएं प्रति दिन इन्हीं भावों से गुजरती हैं। सच तो यह है कि हमारा देश आर्थिक तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तीव्र गति से विकास करने के बावजूद ऐसे लोगों का देश है जो शौच के लिए खुले स्थानों पर जाते हैं। गांव में किसी भी घर में हमें डायरेक्ट टू होम (डी.टी.एच.) डिस्क तथा घरों के सामने एक चमचमाती मोटर साइकिल तो देखने को मिल जाएगी, किंतु घरों में शौचालय नहीं होते। सरकार हमारे देश को खुले में शौच से मुक्त कराने की प्रतिज्ञा लेती है, क्योंकि 1999 में, जब केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम लागू किया गया था, तब एक सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान चलाया गया था। आशा थी कि सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान की मांग होगी, किंतु लोग इसके प्रति उदासीन रहे, इस अभियान को चलाए हुए एक दशक हो गया है, किंतु इसे अधिक सफलता नहीं मिली है और अधिकांश व्यक्ति अब भी खुले में शौच करते हैं। यह अभियान सरकार की प्राथमिकता सूची में है, इस अभियान के लिए धन-राशि की कमी नहीं है, इस अभियान के कार्यान्वयन के लिए क्षेत्रीय स्तर पर कार्य-समर्पित स्टाफ भी उपलब्ध है, किंतु फिर भी हम 2017 तक देश को खुले शौच से मुक्त (ओ.डी.एफ.) करने के अपने लक्ष्य को पूरा करने से काफी दूर हैं। इसके कई कारण हैं। अधिकांश अन्य ऐसे कार्यक्रमों, जिनमें एकतरफा कार्यान्वयन अर्थात कार्यक्रम को कार्यान्वित करने वाला सरकारी तंत्र शामिल होता है और जो सफलता प्राप्त करने के लिए प्रयोक्ता पर निर्भर नहीं होते हैं, उन कार्यक्रमों से भिन्न सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान की पूर्णतः एवं मूल रूप में सफलता प्रयोक्ताओं पर निर्भर करती है, न कि सरकारी तंत्र पर। सरकार घरों में शौचालय बनवाकर दे सकती है, किंतु यदि व्यक्ति उनका उपयोग न करें तो उनका कोई लाभ नहीं। इसलिए सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान की सफलता शौचालयों का निर्माण करने से नहीं है, बल्कि यह सफलता तो व्यक्तियों की आदत एवं सोच बदलने में है, जब तक व्यक्तियों की आदत नहीं बदल जाती है, सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के अंतर्गत बनाए गए शौचालयों का उपयोग फावड़े, उपलों और जलाई जाने वाली लकड़ियों को जमा करने के लिए किया जाता रहेगा या ज्यादा से ज्यादा से शौचालय ताले लगे बंद पड़े होंगे।

सूचना शिक्षा तथा संचार (आई.ई.सी) अभियान का अति महत्वपूर्ण पहलू है और दुर्भाग्यवश यह पहलू भी सामान्यतः अत्यधिक उपेक्षित पहलू है। आई.ई.सी. का शौचालय निर्माण चरण में भूमिका निर्धारित होना चाहिए। इसका उपयोग शौचालयों के प्रयोग के लाभों के प्रति एवं खुले में शौच करने के जोखिम के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए किया जाना चाहिए। आईईसी के द्वारा ग्रामीण जनता में ‘शौचालयों की अनुभव की गई आवश्यकता’ का सृजन किया जाना चाहिए। इस संबंध में जो एक सबसे बड़ी गलती की जा रही है वह है लोगों को आर्थिक सहायता का लालच देना/ गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों के लिए प्रति परिवार रु. 3000/- और शौचालयों के उपयोग के बारे में लोगों को विश्वास में लिए बिना ही शौचालयों का निर्माण करना। अधूरे पड़े शौचालयों के लिए एक सबसे आम तर्क यह दिया जाता है कि सरकार द्वारा दी जाना वाली धनराशि एक उपयोगी शौचालय के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं होती। तथापि इस आर्थिक सहायता का उद्देश्य कभी भी यह नहीं रहा है कि शौचालय के निर्माण की पूरी लागत को पूरा किया जाए। वास्तव में इस आज्ञथिक सहायता का उद्देश्य यह था कि लोगों को अपने घरों में शौचालय बनाने के विचार को प्रोत्साहन मिल सके।

यदि शौचालय पूरी तरह से बना भी लिए जाते हैं तब भी इनका उपयोग बहुत कम किया जाता है इसका एक मुख्य कारण यह है कि लोगों को खुले में शौच करने की आदत पड़ गई है। इसके अतिरिक्त, शौचालय का उपयोग करने के लिए पानी की कमी, शौचालयों में दोषपूर्ण शीटों को लगाना, शौचालयों का निर्माण ठीक से नहीं करना, शौचालय के चारों ओर उपयुक्त संरचना न होना आदि कुछ अन्य ऐसे कारण हैं जिनके अभाव में शौचालयों का कम उपयोग किया जाता है।

• घरेलू सुविधा गणना, 2011 के अनुसार कुल 246.6 मिलियन घरों में से केवल 46.9% घरों में ही शौचालय सुविधाएं हैं। शेष में से 3.2% सार्वजनिक शौचालयों का प्रयोग करते हैं और 49.8% खुले में शौच जाते हैं। झारखंड, ओड़िशा तथा छत्तीसगढ़ में तीन-चौथाई से अधिक परिवार खुले में शौच जाते हैं और यहां तक कि तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, गुजरात तथा कर्नाटक जैसे सम-विकसित राज्यों में 40 से 50% व्यक्ति व्यक्ति खुले में शौच जाते हैं। महाराष्ट्र ही एक मात्र ऐसा सीमित सफलता वाला राज्य लगता है जहां सार्वजनिक शौचालयों में 13% ग्रामीण महाराष्ट्र एवं 21% शहरी महाराष्ट्र सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करता है।
• शौचालय महिलाओं की गरिमा का अंतरंग भाग होते हैं।
• महाराष्ट्र के एक संत-संत गडके महाराज जिन्होंने सफाई के माध्यम से समाज सेवा करने का प्रयास किया, के नाम पर एक राष्ट्रीय स्वच्छता तथा जल पुरस्कार।
• हरियाणा के गांवों में “शौचालय नहीं तो दुल्हन नहीं” नारे की घोषणा हुई है।

यद्यपि स्थिति चिंताजनक दिखाई देती है, लेकिन कुछ आशा की किरणें हैं जो इस तथ्य को सकारात्मक बनाए हुए हैं। कुछ स्थानों पर, लोगों को प्रेरित करने के लिए आइईसी कार्यकर्ताओं ने नई सोच अपनाई है। महाराष्ट्र के सतारा जिले में पंचायत बुलेटिन बोर्डों पर प्रतिदिन ऐसे घृणित फोटो मजाक स्वरूप लगाए जाते हैं। कुछ मामलों में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टी.एस.सी.) कार्यकर्ताओं ने बंबई पुलिस अधिनियम की धारा 115 एवं 117 के प्रावधानों का उपयोग किया है। इन प्रावधानों में सार्वजनिक स्थलों पर शौच जाना अवैध है और इनमें 700/- रु. तक के जुर्माने की व्यवस्था है।

हाल ही में मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के एक छोटे तथा अत्यधिक जनजातीय गांव की एक 22 वर्षीय युवा महिला के रूप में एक अत्यधिक अनूठा उदाहरण प्रकाश में आया है। अनीता, जो चिंचोली ब्लॉक में जिला मुख्यालय से लगभग 50 किमी दूर झितूधाना नामक एक छोटे से गांव (रतनपुर ग्राम पंचायत) में रहती है, ने उन लाखों महिलाओं के लिए एक उदाहरण स्थापित किया है जो खुले में शौच जाने की निंदा को सहन करती हैं, अनीता ऐसी सभी महिलाओं के लिए खड़ी है।

13 मई, 2011 को श्री शिवराम नैरे से विवाह करके, वह नई-नवेली दुल्हन के सपने संजोए अपनी ससुराल पहुंची। उसे यह देख कर अत्यंत दुःख हुआ कि उसके पति के घर में कोई शौचालय नहीं है। खुले में शौच जाने में उसे अत्यधिक कठिनाई हुई। उसने अपने पति तथा सास-ससुर को घर में एक शौचालय बनाने का अनुरोध किया, किंतु उसके इस अनुरोध को अनसुना कर दिया गया। उसने अपने पति को कहा कि यदि घर में शौचालय शीघ्र ही नहीं बनाया गया तो वह घर छोड़ कर अपने मायके जाने के लिए मजबूर हो जाएगी। अनीता की ससुराल वालों ने यह सोच कर उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया कि नई दुल्हन द्वारा अपनी बात मनवाने की यह एक और चाल है। जब कोई विकल्प नहीं बचा तो अनीता से साहस दिखाते हुए – जो सामान्यतः ग्रामीण महिलाओं में नहीं दिखाई देता, अपने विवाह के कुछ दिनों बाद ही अपने पति का घर छोड़ दिया और अपने माता-पिता के घर रहने चली गई। उसके पति तथा सास-ससुर ने मामले की गंभीरता को अनुभव करते हुए तथा कुछ ग्रामीणों की आलोचना सुनकर एक शौचालय का निर्माण करने का निर्णय लिया। शिवराम ग्राम पंचायत सचिव से मिला और कुछ ही दिनों में उसे सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के अंतर्गत एक शौचालय की मंजूरी मिल गई और शौचालय का निर्माण कर लिया गया। अनीता घर में शौचालय बनने के बाद ही अपनी ससुराल लौटी। इससे गांव में सकारात्मक प्रतिक्रिया फैल गई और अन्य ग्रामीण महिलाओं ने भी अपने घर में शौचालय बनाने की बातें रखीं। अनीता के इस उदाहरण का आभार, अब किसी महिला को अपनी ससुराल छोड़ने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि अधिकांश परिवारों ने शौचालय बनाने का निर्णय ले लिया था। ‘ग्राम जल एवं स्वच्छता समिति’ अचानक सक्रिय हो गई, क्योंकि उसे शौचालय बनवाने के अनेक आवेदन-पत्र प्राप्त हुए. जो परिवार अपने घरों में शौचालय बनाने से मना कर रहे थे, वे शौचालय बनाने में सहायता करने की मांग लेकर सामने आने लगे। गांव में पहले सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान के अंतर्गत केवल 50 निजी शौचालय थे और अनीता के साहसिक कदम के बाद 300 परिवार वाले उस गांव में अब तक 280 शौचालय बनवा लिए गए हैं और इन शौचालयों की सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि उनमें से अधिकांश शौचालयों का उपयोग उसी उद्देश्य से किया जा रहा है जिस उद्देश्य से इनका निर्माण किया गया था। यह गांव एवं पंचायत बहुत जल्द ‘निर्मल’ बनने जा रहे हैं।

एक शौचालय के लिए अपनी ससुराल छोड़ने के अनीता के साहसिक कदम ने इस महिला के लिए प्रशंसा उत्पन्न हुई है और कइयों को प्रोत्साहित किया है।

सुलभ इंटरनेशनल ने अनीता को, उसके उदाहरणीय प्रयास के लिए 5 लाख रु. का नकद पुरस्कार दिया है। बैतूल जिला प्रशासन ने अनीता को जिला में संपूर्ण स्वच्छता अभियान के लिए एक ब्रांड एम्बेसडर बनाने का निर्णय लिया है। मध्य प्रदेश सरकार भी इसी दिशा में सोच रही है। जिला प्रशासन, शौचालय बनानने तथा उनका उपयोग करने के लिए अन्य हजारों परिवारों को प्रेरित करने के अनीता के इस उदाहरण का उपयोग करने की संभावना के प्रति आशावादी है।

इस तरह अब हमारी ग्रामीण महिलाओं को जनता की दैनिक निंदा नहीं झेलनी पड़ेगी और वे एक शालीन जीवन जीएंगी। हमें आवश्यकता है ऐसी अनेक अनीताओं की, जो सामने आकर खड़ी हों। सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान यदि मात्र अन्य सरकारी कार्यक्रमों के समान चलता तो यह सफल नहीं होता। इसके लिए समाज के सहयोग की आवश्यकता है, और इसके लिए सरकार को एक समर्थक तथा प्रेरक की भूमिका निभाने के साथ इसे समाज द्वारा चलाए जाने की आवश्यकता है। अनीता जैसे और उदाहरण आने और इस अभियान के सार्वजनिक होने के साथ ही आशा है कि हमारा देश 2017 तक खुले में शौच जाने से मुक्त हो जाएगा।

लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा से संबंधित है और वर्तमान में समाहर्ता एवं जिला मजिस्ट्रेट बैतूल (म.प्र.) हैं।

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