समुद्र में कशीदाकारी : प्रवाल भित्तियाँ

25 Jul 2015
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समुद्र में स्थित प्रवाल भित्तियाँ वास्तव में कैल्शियम कार्बोनेट के कंकाल वाले प्रवालों से निर्मित चट्टानें हैं जो एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया के मार्फत एक अति सूक्ष्म जलीय जीव से निर्मित होती हैं। इस सूक्ष्म जलीय जीव को प्रवाल का जल-जीव या 'पोलिप' कहा जाता है। इन प्रवाल भित्तियों की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। प्राकृतिक क्रिया की तुलना में मानवीय लापरवाही से इन्हें ज्यादा खतरा है। हमें चाहिए कि इस विशाल एवं समृद्ध विरासत को बनाए रखें।प्रवाल भित्तियाँ कहलाने वाली मूंगे की चट्टानें हमारे समुद्री जगत के सौंदर्य की प्रतिनिधि संरचनाएँ हैं। थल जगत में वर्षा-पोषित विषुवत क्षेत्रीय वन समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र का व्यक्त करते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रवाल भित्तियाँ भी अपने चमकदार रंगों एवं विभिन्न आकृतियों के भीतर एक विशाल सजीव जगत संजोये हुए हैं। क्या हमने कभी विचार किया है कि समुद्र में हजारों किलोमीटर तक फैली ये प्रवाल भित्तियाँ और इनके प्रवाल कहाँ से आए हैं? मन्नार की खाड़ी या मालद्वीप की यात्रा करते समय हमने शायद ही सोचा हो कि सुंदरता की ये नायाब लड़ियाँ कैसे सृजित हुई होंगी?

समुद्र में स्थित ये प्रवाल भित्तियाँ अर्थात मूंगे की चट्टानें वास्तव में कैल्शियम कार्बोनेट के कंकाल (ढाँचे) वाले प्रवालों से ही निर्मित चट्टानें हैं। इसमें भी मुख्य बात यह है कि इन सुंदर चट्टानों का निर्माण करने वाले मूंगे (प्रवाल) भी एक अत्यंत जटिल प्रक्रिया के मार्फत एक बहुत सूक्ष्म जलीय जीव से निर्मित होते हैं। इस सूक्ष्म जलीय जीव को मूंगे (प्रवाल) का जल-जीव या ‘पोलिप’कहा जाता है।

क्या है मूंगा


प्रत्येक मूंगा अर्थात प्रवाल हजारों पोलिपों की एक कॉलोनी होती है। वृद्धिशील पोलिप समुद्री जल से कैल्श्यिम कार्बोनेट (चूना-पत्थर) संचित करते हैं और इससे अपने इर्द-गिर्द सघन कंकाल (ढाँचा) बनाते रहते हैं। पोलिपों की कंकालीय कॉलोनी ही प्रवाल या मूंगा है। इन पोलिपों के ये कैल्शियम कार्बोनेट ढाँचे आकार एवं आकृति में भिन्नता लिए होते हैं। इसी भिन्नता के आधार पर प्रवालों को तस्तरीनुमा प्रवाल, सघन प्रवाल, खुंबी प्रवाल और शाखित प्रवाल जैसे नाम दिए गए हैं।

कैसे बनता है मूंगा


हमने देखा कि प्रवाल अर्थात मूंगे का निर्माण प्रवाल जल-जीव या पोलिप से होता है। इस पोलिप में लगभग एक सेंटीमीटर लंबी एक थैली जैसी रचना होती है जिसके ऊपरी सिरे पर अग्रमुखीय तस्तरी-सा मुख होता है। यह मुख सीधा आमाशय में खुलता है। मुख के चारों ओर अंगुलियों जैसे संस्पर्शकों के कई घेरे होते हैं। कैल्शियम कार्बोनेट का कंकाल इसकी तली पर स्थित होता है।

समुद्र में कशीदाकारी - प्रवाल भित्तियाँ 1मूंगे की निर्माण प्रक्रिया वास्तव में पोलिपों की वंशवृद्धि ही है। पोलिपों में नर एवं मादा जननांग अलग-अलग पोलिपों में होते हैं परंतु ज्यादातर मामलों में नर एवं मादा जननांग एक ही पोलिप में होते हैं। वयस्क पोलिप द्वारा छोड़े गए शुक्रणु किसी अन्य पोलिप के मुख में प्रविष्ट होकर निषेचन क्रिया संपन्न करते हैं। इसके बाद मुक्त प्वाली लार्वा मुख से ही बाहर आता है और एक उपयुक्त आधार पर स्थापित होकर एक नए पोलिप के रूप में विकसित होता है। इसी पोलिप से एक कलिका फूटती है जो पूर्णतः इसकी नकल होती है। यह कलिका अलग होकर अपने लिए अलग खोल की रचना करती है। इस प्रकार कलिका निर्माण निरंतर चलता रहता है और कॉलोनी का आकार बढ़ता रहता है। अंततः हजारों लाखों पोलिपों की एक कॉलोनी बन जाती है। इस तरह बनी प्रत्येक कॉलोनी एक प्रवाल होती है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि कलिका निर्माण से केवल कॉलोनी के आकार में वृद्धि होती है। नई कॉलोनी का निर्माण तो इससे अलग हुए हिस्से से होता है या फिर प्लावी लार्वा के गतिमान होने से होता है।

प्रवाल भितियाँ


हम जान गए कि प्रवाल वास्तव में हजारों पोलिपों की संयुक्त कॉलोनियाँ हैं तथा पोलिपों में कैल्शियम कार्बोनेट का कंकाल होता है। ये लाखों कठोर कंकाल ही मिलकर हजारों वर्षों में प्रवाल भित्तियों का रूप धारण कर लेते हैं। स्पष्ट है इनके निर्माण की गति अत्यंत धीमी है।

पोलिपों के मुख पर स्थित संस्पर्शक लगातार गतिशील रहते हैं। गतिशील संस्पर्शक जल में उपस्थित छोटे प्लावकों को पकड़कर मुख द्वारा सीधे अमाशय में पहुँचाते हैं। यह कार्य रात में ज्यादा होता है तथा पोलिप की भोजन आपूर्ति कहलाता है। संस्पर्शक जल में डूबते हुए कणों को भी एक-दूसरे संस्पर्शक पर गिरने एवं जमने से रोकते हैं ताकि ऐसे कण तली की ओर जाकर कंकाल निर्माण में सहभागी हो सकें। चूँकि प्रवाल का निर्माण अत्यंत धीमी गति से होता है फलतः समुद्री खरपतवार, समुद्री जीवों के अवशेष, उनके आवरणों के टुकड़े और मिट्टी इन प्रवालों के बीच जमते रहते हैं। प्रवालों पर उगी काई एवं शैवाल की परत भी प्रवाल ढाँचों को जोड़ती है। कुछ शैवाल अपने तंतुओं को प्रवाल के कंकाल में फैलाकर बीच के स्थान को भरते हैं। प्रवालों में रंगों की जगमगाहट इन्हीं शैवालों से उत्पन्न होती है यद्यपि समुद्री जल के अन्य लवण भी इस रंग-रचना में सहयोगी हैं।

कहाँ होती हैं


ऐसा नहीं है कि प्रवाल भित्तियाँ सारे समुद्री जगत में पाई जाती हों। प्रवाल भित्तियाँ उत्तरी एवं दक्षिणी ठंडे प्रदेशों के बजाय ऐसे समुद्रों में ज्यादा पाई जाती हैं जिनका जल गर्म होता है। भित्ति बनाने वाले प्रवालों को गर्म, स्वच्छ और उथले जल की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि ये महाद्वीपीय तटों पर 28 अंश उत्तरी और 28 अंश दक्षिणी अक्षांश के बीच पाई जाती हैं। भित्ति बनाने वाले प्रवाल विश्व के दो भागों में सीमित हैं। इनमें एक भाग है कैरीबियन महासागर क्षेत्र और दूसरा भाग है भारतीय एवं पश्चिमी प्रशांत महासागर क्षेत्र। ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्व में भी प्रवाल भित्तियों का विस्तार है। प्रवाल भित्तियों का निर्माण विभिन्न प्रकार की प्रवाल जातियाँ मिलकर करती हैं। भारतीय प्रवाल भित्तियों में प्रवालों की लगभग 500 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

समुद्र में कशीदाकारी - प्रवाल भित्तियाँ 2प्रवाल भित्तियों का निर्माण एवं विकास उस स्थान पर अच्छा होता है जहाँ जल का तापमान वर्ष भर 22 से 28 डिग्री सेल्सियस रहता है। यही कारण है कि ज्यादा गहरे जल में भित्तियाँ नहीं बन पाती। प्रवाल भित्तियाँ जल की 50 से 70 मीटर तक की गहराई वाले प्रकाशीय क्षेत्र में ही पाई जाती है। इनके विकास में जल की लवणीयता भी 32 से 35 प्रतिशत के बीच अच्छी मानी गई है। भित्तियों के क्षेत्र में सामान्य लवणता वाले जल में भी कैल्शियम कार्बोनेट की मात्रा अधिक होती है। एक ही जगह स्थिर रहने वाले पोलिपों को आहार एवं ऑक्सीजन के लिए जल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। अतः तेज लहरों से प्रवाल की वृद्धि को सहारा मिलता है क्योंकि इससे ताजा ऑक्सीजनयुक्त जल प्लावकी भोज्य पदार्थों की उपलब्धि होती है।

प्रकार


प्रवाल भित्तियाँ मूल रूप से तीन प्रकार की होती हैं- 1. तटीय या झालरदार 2. अवरोधक तथा 3. एटॉल। तटीय प्रवाल भित्तियाँ प्रवालों की ऐसी सरंचनाएँ हैं जो समुद्र-तल पर मुख्य भूमि के निकट किनारों पर स्थित होती हैं। ये मुख्यतया चट्टानों के टुकड़ों मृत प्रवालों और मिट्टी से बनती हैं। इनमें जीवित प्रवाल प्रायः बाहरी किनारों एवं ढलानों पर पाए जाते हैं। भित्तियों की ऊपरी सतह मृत प्रवालों से बनी होती है। ये भित्तियाँ उन स्थलों पर होती हैं जहाँ तापमान 20 डिग्री सेल्सियस से ऊपर हो, लवणता 35 प्रतिशत और पंकिलता न्यून हो। भारत में ये भित्तियाँ मन्नार की खाड़ी तथा अंडमान एवं निकोबार द्वीपसमूह में पाई जाती हैं।

अवरोधक प्रवाल भित्तियाँ भी तटीय प्रवाल भित्तियों की तरह ही होती हैं परंतु ये किनारे से दूर स्थित होती हैं और इनके तथा किनारे के बीच सैकड़ों किलोमीटर चौड़ा लैगून होता है। लैगून की चौड़ाई कम होते जाने पर अंततः अवरोधक प्रवाल भित्ति भी तटीय प्रवाल भित्ति में रूपांतरित हो जाती है। इन भित्तियों में प्रवालों की बढ़ोत्तरी बाहरी वृद्धि केंद्रों पर प्रचुरता से होती है। संसार की सबसे बड़ी अवरोधक प्रवाल भित्ति ऑस्ट्रेलिया की ‘ग्रेट बैरियर रीफ’है। ऑस्ट्रेलिया के उत्तर-पश्चिमी तट पर 2010 किलोमीटर तटीय लंबाई पर फैली इन भित्तियों का क्षेत्रफल 260000 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ प्रवालों को 400 जातियाँ तथा मछलियों की 1500 प्रजातियाँ हैं। ये भित्तियाँ भी 15000 वर्ष पुरानी मानी जाती हैं।

एटॉल एक ऐसा प्रवाल द्वीप होता है जो एक केंद्रीय लैगून के चारों ओर प्रवाल भित्तियों की एक पट्टी का बना होता है। इस प्रकार एटॉल ऐसी भित्तियाँ होती हैं जो उथले लैगूनों के किनारे-किनारे होती हैं और उन्हें चारों तरफ से घेर लेती हैं।

उपयोगिता


प्रवाल भित्तियाँ विश्व का दूसरा सबसे समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र है। यह अनेक जीवों एवं वनस्पतियों का आश्रय स्थल है।

प्रवाल भित्तियाँ सजावटी मछली, मोलस्क जाति के जीव तथा इकाइनोडर्मेटा संघ के जीवों का आवास एवं आहार-स्थल हैं। प्रवाल का प्रयोग मानव सदियों से रत्न के रूप में करता आया है। प्रवाल का प्रयोग औषधियों में भी होता रहा है। वर्तमान में भी इन्हें अर्णुदरोधी, दर्दरोधी एवं प्रदाहरोधी दवाओं में काम में लेने के साथ-साथ मधुमेह, बवासीर और मूत्र रोगों के उपचार में भी काम में लाया जाता है। प्रवाल भित्तियों को कई उपयोगी पदार्थ, यथा—छन्नक, फर्शी, पेंसिल, टाइल आदि बनाने में भी काम में लाया जाता है। शृंगार सामग्री में तो इनकी गुलाबी, बैंगनी एवं नारंगी रंग की कसीदाकारी में बहुत ही काम आती है।

स्थिति


कई वर्षों में केवल कुछ ही मिलीमीटर वृद्धि कर पाने वाली हमारी इन प्रवाल भित्तियों की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। भित्तियों का उत्खनन इनके निर्माण की तुलना में अत्यंत तीव्र है। उत्खन्न एवं प्रदूषण से इनका क्षरण चिंता का विषय है। अवैध व्यापार एवं मानवीय लालच से ये नष्ट होनी शुरू हो गई हैं। यदि इनके नष्ट होने की वर्तमान दर जारी रही तो अगले 30 वर्षों में हम लगभग 60 प्रतिशत प्रवाल भित्तियों से महरूम हो जाएँगे। प्राकृतिक रूप में विरंजन क्रिया से इनके नष्ट होने की तुलना में मानवीय लापरवाही से इन्हें ज्यादा खतरा है। हमें चाहिए कि इस विशाल एवं समृद्ध विरासत को बनाए रखने के लिए अभी से प्रयास शुरू करें।

[लेखक रा.उ.मा.वि. लाडनूं (नागौर), राजस्थान में प्राध्यापक हैं।]

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