समुद्री जीव-जन्तुओं के लिये भीषण खतरा है प्लास्टिक कचरा

Plastic Trash
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प्लास्टिक कचरे की समस्या से आज समूचा विश्व जूझ रहा है। इससे मानव ही नहीं बल्कि समूचा जीव-जन्तु एवं पक्षी जगत प्रभावित है। यदि इस पर शीघ्र अंकुश नहीं लगाया गया तो आने वाले समय में स्थिति और विकराल हो जायेगी और तब उसका मुकाबला कर पाना टेड़ी खीर होगा। कहने का तात्पर्य यह कि उस समय स्थिति की भयावहता का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय प्राणी जगत यानी जीव-जन्तुओं एवं पक्षियों का अस्तित्व ही समाप्ति के निकट होगा। देखा जाये तो आज प्लास्टिक कचरा पर्यावरण और जीव-जगत के लिये गम्भीर खतरा बन चुका है। वैज्ञानिकों के शोध-अध्ययन इसके प्रमाण हैं।

एक अध्ययन में कहा गया है कि बढ़ते प्लास्टिक कचरे के कारण धरती की सांस फूलने लगी है। सबसे बड़ी चौंकाने वाली और खतरनाक बात यह है कि यह समुद्री नमक में भी जहर घोल रहा है। इससे मनुष्य के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव अवश्यंभावी है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। कारण यह है कि प्लास्टिक एक बार समुद्र में पहुँच जाने के बाद विषाक्त पदार्थों और प्रदूषकों के लिये चुम्बक बन जाते हैं। अमेरिका के लोग हर साल प्लास्टिक के 660 से अधिक कण निगल रहे हैं। अध्ययनों ने इसे प्रमाणित भी कर दिया है। यही नहीं असलियत तो यह है कि धरती पर घास-फूस पर अपना जीवन निर्वाह करने वाले जीव-जन्तु भी प्लास्टिक से अपनी जान गँवा ही रहे हैं, समुद्री जीव-जन्तु, मछलियाँ और पक्षी भी इससे अपनी जान गँवाने को विवश हैं।

आर्कटिक सागर के बारे में किये गए शोध, अध्ययन और चौंकाने वाले हैं। इस शोध के अनुसार 2050 में इस सागर में मछलियाँ कम होंगी और प्लास्टिक सबसे ज्यादा। आर्कटिक के बहते जल में इस समय 100 से 1200 टन के बीच प्लास्टिक हो सकता है जो तरह-तरह की धाराओं के जरिये समुद्र में जमा हो रहा है। प्लास्टिक के यह छोटे-बड़े टुकड़े सागर के जल में ही नहीं पाये गए हैं बल्कि यह मछलियों के शरीर में भी बहुतायत में पाये गए हैं। ग्रीनलैंड के पास के समुद्र में इनकी तादाद सर्वाधिक मात्रा में पायी गई है।

इसमें दो राय नहीं कि दुनिया के तकरीबन 90 फीसदी समुद्री जीव-जन्तु-पक्षी किसी न किसी रूप में प्लास्टिक खा रहे हैं। यह प्लास्टिक उनके पेट में ही रह जाती है जो उनके लिये जानलेवा साबित हो रही है। यह प्लास्टिक के थैलों, बोतल के ढक्कनों और सिंथेटिक कपड़ों से निकले प्लास्टिक के धागे शहरी इलाकों से होकर सीवर और शहरी कचरे से बहकर नदियों के रास्ते समुद्र में आती है। समुद्री पक्षी प्लास्टिक की इन चमकदार वस्तुओं को गलती से खाने वाली चीज समझकर निगल लेते हैं। नतीजतन उन्हें आंत से सम्बंधित बीमारी होती है, उनका वजन घटने लगता है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि बीते कुछ दशकों से समुद्र में फेंके जाने वाले प्लास्टिक से समुद्री जीवों की जान खतरे में आ गई है। अगर जल्दी ही समुद्र में किसी भी तरह से आ रहे प्लास्टिक पर रोक नहीं लगाई गई तो आगामी तीन दशकों में पक्षियों की बहुत बड़ी तादाद खतरे में पड़ जायेगी।

आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच का तस्मानिया सागर का इलाका सर्वाधिक प्रभावित इलाका है। पीएनएएस जर्नल में प्रकाशित अमेरिकी वैज्ञानिक एरिक वैन सेबाइल और क्रिस विलकॉक्स के शोध के मुताबिक 1960 के दशक से लेकर अब तक समुद्र में पक्षियों के पेट में पाये जाने वाले प्लास्टिक की मात्रा दिनोंदिन तेजी से बढ़ती ही जा रही है। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि 1960 में पक्षियों के आहार में केवल पाँच फीसदी ही प्लास्टिक की मात्रा पायी गयी थी। आने वाले 33 सालों के बाद 2050 में हालत यह होगी कि 99 फीसदी समुद्री पक्षियों के पेट में प्लास्टिक मिलने की संभावना होगी। शोधकर्ताओं के मुताबिक यदि इसी तरह से समुद्र में प्लास्टिक फेंका जाता रहा तो स्थिति और भयावह हो जायेगी।

यदि दुनिया जहाँ के हालात पर नजर डालें तो पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर पिछले सात दशकों में प्लास्टिक का उत्पादन कई गुणा बढ़ा है। इस दौरान तकरीबन 8.3 अरब मीट्रिक टन प्लास्टिक उत्पादन हुआ। इसमें से 6.3 अरब टन प्लास्टिक कचरे का ढेर लग चुका है जिसका महज 9 फीसदी ही रिसाइकिल किया जा सका है। इससे भी ज्यादा मात्रा में प्लास्टिक कचरे का ढेर दुनिया में जगह-जगह इकट्ठा हो चुका है। देखा जाये तो साल 1950 में दुनिया में प्लास्टिक का उत्पादन केवल 20 लाख मीट्रिक टन था जो 65 साल में यानी 2015 तक बढ़कर 40 करोड़ मीट्रिक टन हो गया है। जब बात समुद्री जीव-जन्तुओं की आती है, तो गौर करने लायक तथ्य यह है कि साल 2010 तक करीब 80 लाख मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा महासागरों में इकट्ठा हो चुका है या इसे यदि यूँ कहें कि इतना कचरा 2010 तक पाया गया है तो कुछ गलत नहीं होगा। आगे दिन-ब-दिन हालात और भयावह होंगे, इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता। 2050 तक यह 12 अरब मीट्रिक टन का आंकड़ा पार कर जायेगा। चूँकि इसका जैविक क्षरण नहीं होता लिहाजा आज कचरा आने वाले सैकड़ों साल तक हमारे साथ रहेगा। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता।

अब जरा अपने देश का जायजा लें, हमारे यहाँ हर साल 56 लाख टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। 9205 टन प्लास्टिक रिसाइकिल किया जाता है। यही नहीं 6137 टन प्लास्टिक हर साल फेंकी जाती है। पूरे देश के हालात की बात तो दीगर है, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मानें तो देश के अकेले चार मेट्रो शहरों यथा- दिल्ली में 690 टन, चेन्नई में 429 टन, कोलकाता में 426 टन और मुम्बई में 408 टन प्लास्टिक कचरा हर रोज फेंका जाता है। देश की राजधानी दिल्ली को ही लें, यहाँ प्लास्टिक की थैली रखने पर पाँच हजार रुपये जुर्माना देने की व्यवस्था है। एनजीटी ने यहाँ 50 माइक्रोन से भी कम मोटाई वाली प्लास्टिक की थैलियों के इस्तेमाल किये जाने प्रतिबंध लगाया हुआ है। यदि किसी व्यक्ति के पास से इस तरह की प्रतिबंधित प्लास्टिक पाई जाती है तो उसे 5000 रुपये की पर्यावरणीय क्षति-पूर्ति देनी होगी। एनजीटी ने आदेश दिया था कि ऐसे भंडारों को तत्काल जब्त करने व डम्प किये हुए प्लास्टिक कचरे को कम करने की कार्यवाही की जाये। इसके बावजूद पूरे राजधानी क्षेत्र में प्लास्टिक का व्यापक और अंधाधुंध इस्तेमाल जारी है। उस पर अंकुश केवल कागजों तक ही सीमित है। इसमें दो राय नहीं है। यह जानते-समझते हुए कि यह जलभराव और पानी को प्रदूषित करने का बड़ा कारण है। प्लास्टिक के इस्तेमाल से नाले बंद हो जाते हैं। जलभराव से डेंगू और चिकनगुनिया के मच्छर पनपते हैं लेकिन इसके बावजूद सरकार का मौन समझ से परे है।

गौरतलब है कि इस मामले में हमारा देश बांग्लादेश, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया और फ्रांस से बहुत पीछे हैं। बांग्लादेश ने तो अपने यहाँ 2002 में ही प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगा दिया था। कारण वहाँ के नाले प्लास्टिक के चलते जाम हो गए थे। आयरलैंड ने प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल पर अपने यहाँ 90 फीसदी तक टैक्स लगा दिया। नतीजतन प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल में काफी कमी आयी। प्लास्टिक पर बंदिश के कारण मिले टैक्स से प्लास्टिक के रिसाइकलिंग के काम में तेजी आयी। ऑस्ट्रेलिया में वहाँ की सरकार ने अपने देशवासियों से स्वेच्छा से प्लास्टिक के इस्तेमाल में कमी लाने का अपील की। नतीजतन वहाँ इसके इस्तेमाल में 90 फीसदी की कमी आयी। फ्रांस ने अपने यहाँ इसके इस्तेमाल पर 2002 से पाबंदी लगाने का काम शुरू किया जो 2010 तक देश में पूरी तरह लागू हो गया।

दुनिया में समय-समय पर हुए अध्ययन और शोधों ने यह साबित कर दिया है कि प्लास्टिक हमारे दैनंदिन इस्तेमाल के मामलों में हमारे समाज में बड़े पैमाने पर घुस चुका है। यह हर जगह है। इसने हमारे पर्यावरण में भी व्यापक रूप से पैठ बना ली है। इन हालात में हमें इसके उत्पादन, निस्तारण को लेकर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा, साथ ही आने वाले खतरों के मद्देनजर प्लास्टिक रहित दुनिया के विषय में भी सोचना होगा। तभी कुछ बात बनेगी। दुख इस बात का है कि इस दिशा में सरकारों की बेरुखी समझ से परे है। लगता है सरकारों को मानव जीवन और उसके स्वास्थ्य की चिंता ही नहीं है। ऐसी स्थिति में प्लास्टिक कचरे में वृद्धि को रोक पाना बेमानी सा लगता है।
 

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