सन्नाटा है, इन सवालों पर

7 Aug 2012
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भारत भी पहले से चल रहे कलपक्कम ऊर्जा केंद्र से लेकर बंगाल के हरिपुर, आंध्र के कोवाडा, गुजरात के मीठीविडी और महाराष्ट्र के जैतापुर के प्रस्तावित केंद्रों का जनक बनना चाहता है। हमारे प्रधानमंत्री ने तारापुर आदि केंद्रों से किसी भी खतरे की संभावना से इनकार करते हुए आश्वस्त किया है। पर क्या हमारे नेताओं ने घटनाओं से सबक भी लिया है? इस ओर सन्नाटा ही नजर आ रहा है।

हम 6 अगस्त, 1945 की घटना को थोड़ा याद करें, जब हीरोशिमा पर अणुबम का विस्फोट हुआ था। कहा गया कि वह प्रयोग था। प्रयोग की उस घटना को इस साल (2012 में) सड़सठ साल पूरे हो जाएंगे। छियासठ साल पहले 6 अगस्त, 1945 को सिर्फ प्रयोग के रूप में जो अणुबम विस्फोट हुआ था, उसके नश्तर और रिसते घावों का दर्द अभी तक कोई भूला नहीं है। इस विस्फोट के बाद और भी कई घटनाएं विश्व में हुईं, पर दुनिया के तलपट में वे दर्ज भर होकर रह गईं। ‘चेरनोबिल’ (रूस) और ‘थ्री माइल आइलैंड’ (अमेरिका, 1979) की भयानक घटनाओं से भी किसी प्रकार का सबक दुनिया के नीति-निर्धारकों ने नहीं लिया। मार्च, 2011 को जापान में भूकम्प, सुनामी की शुरुआत हुई थी और विध्वंस उससे हुआ, उसे भुलाया नहीं जा सकता। पर, यह तो समझा ही जा सकता है और कहा भी जा सकता है कि क्या इसका अंत होगा?

जिस फुकुशिमा केंद्र की तबाही ने जापान में दहशत पैदा की, चालीस-इकतालीस साल पहले उसके निर्माण के समय ऐसी किसी सुनामी और भूकम्प की कल्पना नहीं की गई थी। जापान के प्रधानमंत्री नाओती कान ने भी यह माना है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद घटित जापान की यह त्रासदी उसके लिए सबसे बड़ा संकट है। उन्होंने परमाणु आपातकाल की घोषणा भी की और दो लाख से अधिक लोगों को परमाणु दुर्घटना ग्रस्त इलाकों से बाहर भी निकाला, लेकिन विकिरण (रेडिएशन) कितना भयंकर था, इसका अनुमान तब नहीं लगाया जा सका था। अलबत्ता पर्यावरणविदों और नागरिक समूहों ने घटना के पहले तीनों दिनों में यह मापा भी कि विकिरण छह सौ किलोमीटर तक फैल गया है।

जापान में यह घटना पहली नहीं है। भूकम्प तो वहां आते ही रहते हैं। 1995 में ‘हानशिन भूकम्प’ की याद जापान वासियों को तो है ही, दुनिया के अन्य लोगों को भी होगी। तब नुकसान का आकलन एक सौ खरब येन किया गया था। इसी तरह ‘तोहोकु भूकम्प’ की घटना भी भुलाई नहीं जा सकती है। ये सभी भूकम्प जापान के लिए जानलेवा सिद्द हुए थे, पर सबक के रूप में इतना भर सीखा कि जापान को फिर सशक्त होना है। लेकिन, सशक्त किस रूप में होना होगा और क्या वह पर्याप्त होगा?

दरअसल दुनिया की सरकारों के लिए लीपापोती और झूठ सामान्य बात होने लगी है, गोया कि सरकारें यह समझने लगी हों कि ये आपदाएं उन्हीं की बदौलत हैं। सब दानते हैं कि इन आपदाओं की वजह सही नीतियों के निर्धारण का अभाव और घटनाओं से सबक न लेना है, सीख नहीं लेना है। अलबत्ता कभी-कभार कुछ कार्रवाई हो जाती है, जैसे 2002 में एक मामले में ‘टोकियो इलेक्ट्रिक पावर कंपनी’ (जापान) के अध्यक्ष को इस्तीफा देना पड़ा, पर इससे नीतिगत बदलाव क्या आया?

एक तरफ घटनाओं से कोई सबक नहीं लेना, और परिस्थितियों से सीख न लेने की बात है, तो दूसरी ओर विनाश के भरपाई मात्र ‘आर्थिक सशक्तता’ के पैमाने पर ही देखा जाता है। ऐसी आपदाओं के बाद भी आर्थिक रूप से फिर से सशक्त हो जाना ही पर्याप्त मान लिया जाता है। लेकिन, इन घटनाओं में जो लाखों जिंदगियां असमय काल-कवलित हो जाती हैं उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है।

कहा जाता रहा है कि समय सबको सबक सिखा देता है। समय किसी का सगा नहीं है। समय किसी को बख्शता नहीं है। बात सही है। पर यह भी सही है कि समय को समझ कर चलने और उसके मुताबिक व्यवहार करने की बात तात्कालिक सुख या लाभ के लिए चाहे दिख जाए, पर समय की परवाह कौन करता है? यह भी सही है कि समय की नब्ज को पहचानने की कुव्वत हर किसी में नहीं होती और जिनमें होती है, उनके कहे जाने का असर किसी पर होता है- यह समझना जरूरी है।

हम आज भी मानते हैं कि भारत ऋषि-मुनियों का देश है। पर, भारत ऐसे राजनयिकों का भी देश है- जहां शांति, एकत्व और सौहार्द की बात की जाती रही है। हमारे सम्मुख केवल गांधी और विनोबा ही नहीं हैं, सी राजगोपालाचारी जैसे व्यक्ति भी है, जो ‘संत’ की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। वे क्या सोचते रहे हैं, आज वह काफी मानीखेज हैं।

समय सब कुछ बहा ले जाता है- यह भी हम कहते-सुनते और देखते आए हैं। जापान में जो कहर बरपा, वहां समय की धार में सब कुछ बह गया। भूकम्प और सुनामी के बाद परमाणु ‘रिएक्टर्स’ में आई भारी टूट-भंग और उसके कारण हुई ‘रेडियो-धर्मिता’ ने जापान में क्या बचा छोड़ा, कहना कठिन है। वह जापान जो प्रोद्योगिक दृष्टि से सबसे अधिक विकसित माना जाता रहा है – वहां तब सन्नाटा पसरा था। जापान का सेंदाइ प्रांत और उत्तरी-पूर्वी जापान के फुकुशिमा, ओनागावा और तोकाई परमाणु केंद्रों की जो हकीकत बयान हुई, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि दुनिया की इस महान आर्थिक शक्ति को समय के एक झटके ने किस तरह धूल-धूसर कर डाला।

दिसंबर 2010 में जलवायु संकट पर कोपेनहेगन में हुए विश्व शिखर सम्मेलन में एक बड़ा-सा पोस्टर लगा था और लिखा था- ‘दुनिया को बदलना है तो अपने को बदलो-महात्मा गांधी’। कोपेनहेगन से ‘जनसत्ता’ ने अपने 14 दिसंबर 2009 के एक आलेख में यह लिखा था।

‘दुनिया को बदलना है तो अपने को बदलो’- यह बात देश में सदियों से कही जा रही है – भगवान महावीर से लेकर आचार्यश्री महाप्रज्ञजी तक। पर आज दुनिया वह नहीं रही, जो कभी थी। आज जलवायु संकट की वजह यही तो है। यही वजह है कि भूख और बेबसी भी इंतिहा है। धन-संपदा, ऐश्वर्य, संसाधन लगातार बढ़े हैं। बेशक प्राकृतिक संसाधन इनकी बलि चढ़े हैं और विषमता के पंजे खूनी नश्तर की मानिंद जगह बना चुके हैं। आतंकवाद और हिंसा से शासनाधीश तक परेशान हैं। आम आदमी भी इनकी चपेट में है। आंतरिक कलह और घरेलू हिंसा के खौफनाक रूप जब-तक दिखाई देते रहते हैं।

यह उपयोग बनाम उपभोग का खेल है। इस खेल में इच्छाएं आकाश के समान अंतहीन हैं- ‘इच्छा हु आगाससमा अणंतिया’ – यह बात महावीर ने कब कह डाली थी। महावीर का वह स्वर जब-तब मुखरित भी होता रहा है।

हम आज भी मानते हैं कि भारत ऋषि-मुनियों का देश है। पर, भारत ऐसे राजनयिकों का भी देश है- जहां शांति, एकत्व और सौहार्द की बात की जाती रही है। हमारे सम्मुख केवल गांधी और विनोबा ही नहीं हैं, सी राजगोपालाचारी जैसे व्यक्ति भी है, जो ‘संत’ की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते। वे क्या सोचते रहे हैं, आज वह काफी मानीखेज हैं। सी राजगोपालाचारी ने अणु-अस्त्रों को लेकर गहरी चिंता प्रकट की थी। अपने विषाद भरे भाषण में वे स्पष्ट संकेत करते हैं कि दुनिया की ‘राष्ट्रीय शक्तियां’ अगर इन अस्त्रों को त्यागने के लिए तैयार हुईं तो ये शक्तियां मानवीय सभ्यता का अंत कर देंगी। न केवल राजगोपालारी, अणु-अस्त्रों के निर्माण में लगे वैज्ञानिकों ने भी इसके भयानक परिणामों के बारे में बताया है।

बर्टेड रसेल जैसे महान विचारक शायद साठ के दशक में अपनी पुस्तक में यहां तक लिख चुके हैं कि- ‘यह बात अक्षरशः सत्य है कि यदि मनुष्य जाति ने विनाश के सभी संभव साधनों का अनुचित और पूरा लाभ उठाया तो संसार से उसका सर्वथा लोप हो जाएगा।’ यह एक गंभीर और विचारणीय मसला है और इसके लिए पहल निश्चय ही भारत से होनी चाहिए। हालांकि, भारत भी परमाणु ऊर्जा के नाम पर महंगे और खतरनाक स्रोत से बचा हुआ नहीं है। भारत भी पहले से चल रहे कलपक्कम ऊर्जा केंद्र से लेकर बंगाल के हरिपुर, आंध्र के कोवाडा, गुजरात के मीठीविडी और महाराष्ट्र के जैतापुर के प्रस्तावित केंद्रों का जनक बनना चाहता है। हमारे प्रधानमंत्री ने तारापुर आदि केंद्रों से किसी भी खतरे की संभावना से इनकार करते हुए आश्वस्त किया है। पर क्या हमारे नेताओं ने घटनाओं से सबक भी लिया है? इस ओर सन्नाटा ही नजर आ रहा है।

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