सन्तुलन बिगाड़ती, असन्तुलित आबादी

16 Aug 2015
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population growth
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जनसंख्या दबाव के कारण नदियों के बौखलाने अथवा पगलाने के उदाहरणों से भारत अछूता है? क्या कोसी, गंगा, चेनाब, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के बौखलाने का एक कारण बढ़ती जन-जरूरत की पूर्ति के लिये इन पर बनते बाँध नहीं हैं? क्या यह सच नहीं हैं कि बढ़ती जन-जरूरत की पूर्ति के लिये ही गुड़गाँव, नोएडा और ग्रेटर नोएडा में भूजल का दोहन बढ़ा? इसी खातिर झीलों के लिये प्रसिद्ध बंगलुरु की झीलों के ‘लिविंग स्पेस’ को कम कर दिया; उन्हें सिकोड़ दिया। कई का तो अस्तित्व ही मिटा दिया। आबादी का असन्तुलित और अधिक घनत्व सिर्फ गरीबी, बेरोज़गारी और संसाधनों की मारामारी नहीं लाता; यह लोगों को विक्षिप्त भी बनाता है। ओशो चिन्तित थे कि भोजन तो जुटाया जा सकेगा, लेकिन भीड़ बढ़ने के साथ क्या आदमी की आत्मा कहीं खो तो नहीं जाएगी? इस डर के पीछे ओशो का तर्क था, “पहली बात ध्यान रखें कि जीवन एक अवकाश चाहता है। जंगल में जानवर मुक्त है; मीलों के दायरे में घूमता है। अगर 50 बन्दरों को एक कमरे में बन्द कर दें, तो उनका पागल होना शुरू हो जाएगा। प्रत्येक बन्दर को एक लिविंग स्पेस चाहिए।... गौर कीजिए कि बढ़ती भीड़, प्रत्येक मुनष्य पर चारों ओर से एक अनजाना दबाव डाल रही है। भले ही हम इन दबावों को देख न पाएँ। अगर यह भीड़ बढ़ती गई, तो मनुष्य के विक्षिप्त होने का डर है।’’

विक्षिप्त होते हम


ओशो का यह निष्कर्ष आज सच होता दिखाई दे रहा है। अपने चारों तरफ निगाह डालिए। अवसाद बढ़ रहा है। हम बात-बात पर गुस्सा होने लगे हैं; इतना गुस्सा कि मामूली सी टक्कर होने पर ड्राइवर की जान लेने लगे हैं। जरा सी असफलता पर आत्महत्या के मामले सामने आने लगे हैं। परिवार टूट रहे हैं।

एक-दूसरे की देखभाल का भाव भूल रहे हैं। क्या ये सभी विक्षिप्त होने के ही शुरुआती लक्षण नहीं हैं? जनसंख्या वितरण में असन्तुलन कुछ ऐसा है कि हमारे शहर कचराघर में तब्दील हो रहे हैं और भारतीयों गाँवों से सतत् पलायन का दौर शुरू हो चुका है। प्राकृतिक रूप से बेहतर गाँवों को छोड़कर कम जगह, कम शुद्ध भोजन, कम शुद्ध पानी वाले शहरों की ओर जाना विवशता है या विक्षिप्तता? सोचना चाहिए।

विक्षिप्त होते हवा-पानी


क्या ‘लिविंग स्पेस’ का घटना और दबाव का बढ़ना हमारे प्राकृतिक संसाधनों को भी विक्षिप्त बना रहा है? मेरे ख्याल से इस प्रश्न का उत्तर भी हाँ ही है। क्या ग्लेशियरों के पिघलने की बढ़ती गति के पीछे मानव दबाव एक कारण नहीं है? क्या बढ़ती आबादी के लिये बिजली और पानी की बढ़ती जरूरतों के लिये क्या हम नदियों पर दवाब नहीं बना रहे?

क्या इस दबाव के कारण नदियों के बौखलाने अथवा पगलाने के उदाहरणों से भारत अछूता है? क्या कोसी, गंगा, चेनाब, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के बौखलाने का एक कारण बढ़ती जन-जरूरत की पूर्ति के लिये इन पर बनते बाँध नहीं हैं? क्या यह सच नहीं हैं कि बढ़ती जन-जरूरत की पूर्ति के लिये ही गुड़गाँव, नोएडा और ग्रेटर नोएडा में भूजल का दोहन बढ़ा? इसी खातिर झीलों के लिये प्रसिद्ध बंगलुरु की झीलों के ‘लिविंग स्पेस’ को कम कर दिया; उन्हें सिकोड़ दिया। कई का तो अस्तित्व ही मिटा दिया।

जरूरतें बढ़ीं; भोग बढ़ा, तो हमने जंगल काट डाले; नीलगायों के ठिकाने पर खुद कब्जा जमा लिया - क्या यह सच नहीं? जरूरत और भोग की पूर्ति के लिये हम इतने स्वार्थी हो गए कि हमने हमें जिन्दा रखने वाली ऑक्सीजन का ‘लिविंग स्पेस’ छीन लिया। मकान इतने ऊँचे कर लिये कि गली की मिट्टी को जिन्दा रहने के लिये जरूरी धूप का अभाव हो गया।

नतीजा साफ है। प्रकृति के जीव वनस्पति सब विक्षिप्त होने के रास्ते पर हैं। आपने पहले कभी गाय को मानव-मल खाते न देखा होगा? अब यह दृश्य दुर्लभ नहीं। यह विक्षिप्तता के लक्षण नहीं, तो और क्या हैं? सब्जी, फल अपना स्वाद छोड़ दें या धनिया की पत्ती में मसलने पर भी गंध न आये, यह सब क्या है? यह भी एक तरह से दबाव के कारण वनस्पति जगत का अपने गुणों को छोड़ देना है। यही विक्षिप्तता है। मानव का मानवता छोड़कर, स्वार्थवश दानवी कृत्यों में जुट जाने को विक्षिप्तता नहीं तो और क्या कहा जाएगा?

जाहिर है कि अतिभोग की प्रवृत्ति के अलावा, जनसंख्या का दबाव भी इस विक्षिप्तता का एक मुख्य कारण है। यह भी स्पष्ट है कि इस विक्षिप्तता से यदि स्थायी रूप से बचना है, तो जनसंख्या नियंत्रित करनी ही होगी। चाहे पानी स्वस्थ चाहिए हो या परिस्थिति, परिवार नियोजित करना ही होगा।

सामाजिक अपराध घटाने हो या फिर आपसी विद्वेश, आबादी की संख्या और वितरण ठीक किये बगैर यह हो नहीं सकता। आर्थिक विकास के मोर्चे पर आगे बढ़ना हो अथवा हर चेहरे की मुस्कान के मोर्चे पर, प्रजनन दर को कम करना अन्य उपायों में से एक जरूरी उपाय है।

अधिक आबादी, अधिक गरीबी


पृथ्वी के जनसंख्या नक्शे पर निगाह डालिए। पृथ्वी की कुल इंसानी जनसंख्या का 75.5 प्रतिशत भाग लेटिन अमेरिका, अफ्रीका, एशिया, पोलिनेशिया, मेलानेशिया तथा माइक्रोनेशिया के अल्पविकसित देशों में निवास करता है। ये सभी क्षेत्र जनांकिकी संक्रमण की प्रथम या द्वितीय अवस्था से गुजर रहे हैं। शेष 24.5 प्रतिशत जनसंख्या का निवास बने यूरोप, उत्तरी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और न्यूजीलैंड आदि सभी देश, विकसित श्रेणी के देश हैं।

आकलन भी है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की 90 प्रतिशत आबादी मात्र छह देशों में रह रही होगी। ये देश हैं: भारत, चीन, पाकिस्तान, नाइजीरिया और बांग्लादेश। यूँ तो भारत, आबादी के मामले में नम्बर दो है; किन्तु भारत में जनसंख्या वृद्धि दर, सर्वाधिक आबादी वाले चीन से ज्यादा है। कारण कि भारत में प्रजनन दर, चीन के दोगुने के आसपास है।

यहाँ यह बात भूलने की नहीं कि चीन ने जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम को सख्ती के साथ लागू किया है। कहना न होगा कि शिक्षा और सोच के मोर्चे पर पिछड़ने का नतीजे बहुत बुरे हैं। भारत में कुपोषितों की जनसंख्या, दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है। आर्थिक रूप से पिछड़े होने के बावजूद, बाल जीवन दर के मामले में बांग्लादेश और नेपाल की स्थिति भारत से बेहतर है।

वर्ष 1798 मे इंग्लैंड के अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने लिखा था कि अगले 200 वर्षों में जनसंख्या 256 गुना हो जाएगी। किन्तु जीवन निर्वाह की क्षमता में मात्र नौ गुना ही वृद्धि होगी। भारत के मामले में कहा गया कि वर्ष 2050 तक भारत की आबादी बढ़कर 162 करोड़ हो जाएगी। खाली होते गाँव और शहरों में बढ़ता जनसंख्या घनत्व! पानी और पारिस्थितिकी पर भी इसका दुष्प्रभाव दिखने लगा है। सोचिए, आगे चलकर संसाधनों की मारामारी का संकट कितना भयावह होगा? संदेश साफ है कि आबादी नियंत्रित करनी होगी।

तय कीजिए


इसके दो तरीके हैं। अर्थशास्त्री माल्थस के मुताबिक या तो हम इन्तजार करें कि जनसंख्या वृद्धि के कारण माँग-आपूर्ति की समस्या सिर से ऊपर चली जाये। ऐसा होने पर दुर्भिक्ष, अकाल, युद्ध तथा संक्रामक रोगों के फैलने की स्थिति बने और परिणामस्वरूप, जनसंख्या खुद-ब-खुद नियंत्रित हो। दूसरा तरीका यह है कि हम अभी से संजीदा हों; जनसंख्या नियंत्रण के जो भी नैतिक तरीके हो, उन्हें अपनाएँ।

इसी के साथ-साथ संसाधनों का दुरुपयोग करने की बजाय सदुपयोग करने को अपनी आदत बना लें। दक्षिण भारत के कई राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रित करने के नैतिक तरीकों पर भरोसा जताया है। इसका लाभ भी वहाँ की प्रकृति, आय, शिक्षा और तरक्की के दूसरे मानकों पर दिखने लगा है। उत्तर भारत कब ऐसा करेगा?

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