संकट में गंगा की अविरलता


बाँध पर्यावरण के लिये कितना बड़ा खतरा है। इससे अविरलता बाधित होती है और सुरंगों में जल जमाव के चलते उसकी गुणवत्ता और गंगाजल का कभी न खराब होने वाला गुण खत्म हो जाता है। समझ नहीं आता ऐसा क्या है जो सरकार बाँधों के निर्माण पर आमादा है जबकि दुनिया के देश बाँधों से होने वाली पर्यावरणीय क्षति के कारण अपने यहाँ बाँध निर्माण से तौबा कर चुके हैं। उस दशा में गंगा पर जल विद्युत परियोजनाओं की बहाली का निर्णय उसकी कथनी और करनी के अन्तर का जीता-जागता सबूत है। सरकार दावा कुछ भी करे लेकिन असलियत यह है कि मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना नमामि गंगे लाख कोशिशों के बावजूद 2018 तक किसी भी कीमत पर पूरी नहीं होने वाली है। इसके लिये केन्द्र सरकार खुद जिम्मेदार है। वैसे तो केन्द्रीय जल संसाधन, नदी विकास व गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती पिछले साल से लगातार दावा कर रही हैं कि गंगा में सफाई का असर अक्टूबर 2016 से दिखने लगेगा और 2018 तक गंगा पूरी तरह शुद्ध हो जाएगी।

मौजूदा हालात इसकी गवाही नहीं देते। इस परियोजना में केन्द्र सरकार के जल संसाधन, शहरी विकास, ग्रामीण विकास, पेयजल व स्वच्छता, पर्यटन, मानव संसाधन विकास, आयुष, व नौवहन मंत्रालय मिलाकर सात मंत्रालयों की साख दाँव पर लगी है। अब ऐसा माना जा रहा है कि गंगा की सफाई में कम-से-कम एक दशक तो लग ही सकता है। उससे कम की उम्मीद करना बेमानी होगा।

पिछले साल जल संसाधन मंत्रालय ने निर्णय लिया था कि नमामि गंगे मिशन सबसे पहले उत्तराखण्ड पर केन्द्रित होगा। लेकिन अब उत्तराखण्ड सरकार ने गंगा सफाई में केन्द्र की वजह से देरी होने का आरोप लगाया है। उसने गंगा से जुड़ी परियोजनाओं की मंजूरी में देरी और कोष जारी नहीं करने के लिये केन्द्र को जिम्मेदार ठहराया है।

उत्तराखण्ड सरकार ने राष्ट्रीय हरित अधिकरण में पेश अनुपालन रिपोर्ट में कहा है कि उसने अपने स्तर पर गंगा सफाई के लिये अधिकरण के आदेशों के अनुरूप गंगा को प्रदूषित करने वाली 41 औद्योगिक इकाइयों और 50 से ज्यादा कमरे वाले नौ होटलों को बन्द करने और 81 हेल्थकेयर व निजी अस्पतालों पर 20-20 हजार रुपए जुर्माना लगाने जैसे हर सम्भव जरूरी कदम उठाए हैं। लेकिन जल संसाधन मंत्रालय के क्लीन गंगा मिशन द्वारा गंगा सफाई से जुड़ी कई परियोजनाओं पर महीनों से मंजूरी नहीं मिली है।

कई कार्य तो महज कोष नहीं जारी करने के कारण लटके पड़े हैं। उसकी मानें तो पेयजल, सीवेज शोधन यंत्र निर्माण, बायो शौचालय और नालों समेत अन्य योजनाओं पर उसने कदम उठाए हैं। लेकिन केन्द्र के स्तर पर विभिन्न परियोजनाओं पर मंजूरी मिलना बाकी है। उसे केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से भी मंजूरी और निर्देशों का इन्तजार है।

अब उमा भारती भी यह मानती हैं कि बीते दो सालों के अनुभवों से साफ हो गया है कि गंगा सफाई का काम बहुत ही कठिन है। इसके बावजूद असम्भव नहीं है।

गौरतलब है 2013 में उत्तराखण्ड त्रासदी के बाद गंगा व उसकी सहायक नदियों पर बाँध बनाने पर रोक लगाई गई थी। लेकिन अब प्रधानमंत्री कार्यालय ने विभिन्न जल विद्युत परियोजनाओं को बहाल कर दिया है। जबकि सरकार भी स्वीकारती है कि बिना अविरलता गंगा की निर्मलता सम्भव नहीं है।

यह जगजाहिर है कि बाँध पर्यावरण के लिये कितना बड़ा खतरा है। इससे अविरलता बाधित होती है और सुरंगों में जल जमाव के चलते उसकी गुणवत्ता और गंगाजल का कभी न खराब होने वाला गुण खत्म हो जाता है। समझ नहीं आता ऐसा क्या है जो सरकार बाँधों के निर्माण पर आमादा है जबकि दुनिया के देश बाँधों से होने वाली पर्यावरणीय क्षति के कारण अपने यहाँ बाँध निर्माण से तौबा कर चुके हैं।

उस दशा में गंगा पर जल विद्युत परियोजनाओं की बहाली का निर्णय उसकी कथनी और करनी के अन्तर का जीता-जागता सबूत है। जब गंगा के मायके में ही यह हालत है, उस दशा में 2510 किलोमीटर लम्बी गंगा का क्या होगा, यह समझ से परे है।

सरकार ने पर्यावरणविद रवि चोपड़ा समिति के निष्कर्षों पर सुप्रीम कोर्ट में दिये हलफनामे में स्वीकार किया था कि हिमालयन क्षेत्र में बाँध परियोजनाओं के कारण ऐसे नुकसान हुए हैं जिनको किसी भी हालत में सुधारा नहीं जा सकता। साथ ही बाँध परियोजनाएँ जून 2013 की आपदा के लिये प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जिम्मेदार हैं।

विडम्बना देखिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में 13 जनवरी 2015 को हुई बैठक जिसमें बिजली, पर्यावरण, वन, जलवायु परिवर्तन व सम्बन्धित मंत्रालयों के सचिव शामिल थे, में निर्णय लिया गया कि देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिये गंगा कायाकल्प के अविरलता और निर्मलता के पहलुओं को एक तरफ रख विद्युत परियोजनाओं के पक्ष में प्रचार किया जाएगा और सुप्रीम कोर्ट से और समय देने की माँग की जाएगी। जबकि दिसम्बर 2014 में सरकार गंगा पर बाँध परियोजनाओं पर रोक सम्बन्धी हलफनामा पेश कर चुकी थी।

समझ नहीं आता कि एक महीने में ऐसा क्या हो गया जो सरकार को अपना रुख पलटने को मजबूर होना पड़ा। यही नहीं सरकार ने गंगा पर बाँधों के निर्माण को हरी झंडी देने के लिये जनवरी 2016 में एक हलफनामा भी दिया। सरकार के इस रवैए की संसद की डॉ. मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली प्राक्कलन समिति ने कटु आलोचना की और कहा कि सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में ही स्थिति साफ नहीं है।

एक ओर जल संसाधन सचिव कहते हैं कि बिना अविरलता के निर्मलता असम्भव है, दूसरी ओर बाँध निर्माण को मंजूरी दी जा रही है। पर्यावरण सचिव यह साफ करने की स्थिति में नहीं हैं कि गंगा पर बड़ा बाँध बनाया जाना उपयोगी होगा या नहीं और क्या इससे प्रदूषण बढ़ेगा। समिति ने कहा है कि उसके उठाए सवालों पर सम्बन्धित मंत्रालय छह महीनों में अपना जवाब दें।

अब जल संसाधन मंत्रालय ने कार्ययोजना से पहले गंगा के आसपास के वन, पेड़-पौधों, उसके जलीय जीवन व गंगा के पानी में बदलाव का व्यापक अध्ययन कराने का फैसला लिया है। गंगा को निर्मल करने व उसके जल की गुणवत्ता बनाए रखने की दृष्टि से सरकार तीन स्तरों पर काम कर रही है। इसमें देहरादून स्थित वन अनुसन्धान संस्थान यानी एफआरआई, राष्ट्रीय पर्यावरण यांत्रिकी अनुसन्धान संस्थान यानी नीरी और सेंट्रल इनलैंड फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी शिफरी अलग-अलग अध्ययन कर रहे हैं।

एफआरआई गंगा व उसकी सहायक नदियों के किनारे के पेड़-पौधों व वनस्पतियों का अध्ययन कर एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार कर रही है। इसके आधार पर ही गंगा किनारे वृक्षारोपण प्रारम्भ किया जाएगा। नीरी तीनों मौसम में गंगा के विभिन्न हिस्सों में पानी में आने वाले बदलाव का अध्ययन कर रही है। गंगा के जलीय जीव-जन्तुओं के जीवन का अध्ययन शिफरी कर रही है।

इससे गंगाजल में जलीय जीव-जन्तुओं के योगदान का खुलासा हो सकेगा। इसके बाद गंगा किनारे बने पुराने तालाबों को फिर से ठीक करने और नए तालाब निर्माण का काम शुरू होगा। बारिश के दिनों में इनमें पानी जमा किया जाएगा और जब नदी में पानी कम होगा तब नदी में इनका पानी छोड़ा जाएगा।

जाहिर है यह काम इन तीनों संस्थानों की अध्ययन रिपोर्टें आने के बाद ही शुरू होगा। यह एक-दो महीनों में तो होने से रहा। फिर गंगा के मायके में ही उसमें गिरते सीवर के वाले नालों को रोकना, रोजाना गंगा में गिरने वाले 1,2051 मिलियन लीटर सीवेज के शोधन की व्यवस्था, उद्योगों के विषैले कचरे को रोकना, सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगाना, टेनरियों पर अंकुश लगाना, गंगा किनारे बसे शहरों में सीवेज शोधन की व्यवस्था, गंगा की सतही सफाई जैसे बहुतेरे काम व्यवस्थित तंत्र के अभाव के चलते 2018 तक पूरे हो पाएँगे, इसमें सन्देह है। जबकि सरकार खुद इसमें अड़ंगे लगा रही हो।

बीते दो सालों में कारण कुछ भी रहे हों, गंगा के मायके उत्तराखण्ड जैसे छोटे राज्य में ही नमामि गंगे मिशन प्राथमिक चरण भी पूरा नहीं कर सका है, उस हालत में 2510 किलोमीटर लम्बी गंगा के शुद्धिकरण में मिशन कब तक कामयाब हो पाएगा, इसका दावा करना बेमानी होगा।

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