sukhna lake
sukhna lake

सँवरने के बाद बिखरता सुखोमाजरी

Published on
6 min read

1970 व 80 के दशक में जलस्तर बढ़ने लगा था, जो अब घटने लगा है। बाँध का पानी और भाबर घास के खरीदारों की संख्या भी काफी कम हो गई है। एचआरएमएस की आय सन 1996 में 1.7 लाख रुपए थी, जो साल 2016-17 में घटकर 10 हजार रुपए रह गई है। एचआरएमएस के सदस्य पिछले दस वर्षों से नहीं मिले हैं। विकास के अपने ही मॉडल में आज सुखोमाजरी के लोगों की दिलचस्पी नहीं है। इसे प्रकृति से लोगों का टूटता नाता कहें या सरकारी कार्यक्रमों का दोष कि सुखोमाजरी अस्सी के दशक में जिस तेजी से चमका था, उसी तेजी से अपनी चमक खोता जा रहा है। करीब 120 देशों के लोग हरियाणा के पंचकुला जिले में बसे गाँव का दौरा कर चुके हैं। कोई गाँव प्राकृतिक संसाधनों के सामुदायिक प्रबन्धन से अपनी गरीबी कैसे दूर कर सकता है, सुखोमाजरी इसकी मिसाल रहा है।

दुर्भाग्यवश ‘चक्रीय विकास प्रणाली’ से हासिल समृद्धि का चक्र अब थम-सा गया है। इस मॉडल के तहत गाँव के संसाधनों से प्राप्त राजस्व को वापस उसी के विकास पर खर्च किया जाता था। लेकिन आज हालात काफी बदल चुके हैं। एक नया संकट भी सुखोमाजरी के सामने है। हरियाणा अरबन डवलपमेंट अथॉरिटी (हुडा) द्वारा पंचकूला-शिमला हाइवे पर प्रस्तावित 7.3 किलोमीटर लम्बा बाइपास इस गाँव की पहचान मिटा सकता है।

निर्धनता को समृद्धि में बदलने वाले सुखामाजरी के पीछे चंडीगढ़ के पास स्थित सुखना झील का भी बड़ा हाथ है। यह झील सन 1970 के आस-पास रेत से भर चुकी थी। पीआर मिश्रा के नेतृत्व में केन्द्रीय मृदा एवं जल संरक्षण रिसर्च एवं ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (सीएसडब्ल्यूसीआरटीआई, जो अब भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के तहत जाता है) के वैज्ञानिकों ने पाया कि शिवालिक पहाड़ी की तलहटी में बसे सुखोमाजरी की वजह से झील में गाद इकट्ठी हो रही है।

इन वैज्ञानिकों ने मिट्टी के कटाव की जाँच करने के बाद वहाँ चार चेकडैम बनाए और पहाड़ी पर पेड़ लगाने शुरू कर दिये। मिश्रा ने किसानों को प्रेरित किया कि वहाँ पशुओं को अत्यधिक न चराएँ। लेकिन गाँव के लोग मुश्किल से अपने भोजन और पशु चारे की जरूरत पहाड़ी से पूरी कर पाते थे और अधिकतर वर्षा आधारित फसलों पर ही निर्भर थे। बाँध का पानी मिलने की आस में वे सहयोग करने को तैयार हो गए। पाँच साल के अन्दर ही फसलों की पैदावार में सुधार और पशुपालन से समुदाय की आय बढ़ने लगी।

चक्रीय विकास प्रणाली के प्रणेता पीआर मिश्रा के मार्गदर्शन में उन्होंने हिल रिसोर्स मैनेजमेंट सोसायटी (एचआरएमएस) का गठन किया और जल एवं वन संसाधनों का सूझ-बूझ से इस्तेमाल करने लगे। यह संस्था पानी के बदले एक शुल्क लेती, भाभर घास लोगों व पेपर मिलों को बेचती और तालाबों को मछलीपालन के लिये लीज पर दिया करती थी। इस राजस्व का उपयोग बाँधों के रखरखाव के साथ-साथ नहरों व गाँव के विकास के लिये किया जाता था। सन 1990 में सुखोमाजरी आयकर देने वाला देश का पहला ऐसा गाँव बन गया था।

इस पहल से जुड़े रहे वैज्ञानिक एसपी मित्तल ने ‘डाउन टू अर्थ’ को बताया कि सुखोमाजरी देश का पहला गाँव था, जिसने ऊपर से नीचे की ओर चलने वाले विकास के मॉडल को चुनौती दी थी।

लेकिन हाल में जब ‘डाउन टू अर्थ’ ने इस गाँव का दौरा किया तो विकास के इस मॉडल के प्रति लोगों में घोर उदासीनता देखने को मिली। ज्यादातर गाँव के परिवार अपने मकानों को ईंट व सीमेंट की बहुमंजिला इमारतों में तब्दील कर चुके हैं। घरों के आगे बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ खड़ी हैं, जबकि खेती बर्बाद हो रही है। सन 1999-2000 में वहाँ 51 हेक्टेयर में खरीफ की फसल बोई गई थी, लेकिन अब केवल 16 हेक्टेयर में खेती हो रही है। 4 में से तीन बाँधों में गाद जमा हो चुकी है और ट्यूबवेल के सहारे सिंचाई की जा रही है।

भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद के तकनीकी अधिकारी सुरिंद्र सिंह बताते हैं,

“बाँध का कमांड एरिया 20 हेक्टेयर से घटकर 6 हेक्टेयर का रह गया है क्योंकि अधिकांश नहरें बन्द पड़ी हैं।”

सुखोमाजरी के कृष्णा सिंह अपनी 0.2 हेक्टेयर खेती में सिंचाई के लिये बाँध पर निर्भर हैं। लेकिन पानी की कमी के चलते उन्हें अपने पड़ोस के ट्यूबवेल से 50 रुपए प्रति घंटा के रेट पर पानी खरीदना पड़ा, जबकि बाँध का पानी उन्हें 23 रुपए में मिलता था।

गाँव के सरपंच गुरमेर सिंह ने बताया कि पिछले एक दशक में गाँव में छह बोरवेल लगाए गए हैं। 1970 व 80 के दशक में जलस्तर बढ़ने लगा था, जो अब घटने लगा है। बाँध का पानी और भाबर घास के खरीदारों की संख्या भी काफी कम हो गई है। एचआरएमएस की आय सन 1996 में 1.7 लाख रुपए थी, जो साल 2016-17 में घटकर 10 हजार रुपए रह गई है। एचआरएमएस के सदस्य पिछले दस वर्षों से नहीं मिले हैं। विकास के अपने ही मॉडल में आज सुखोमाजरी के लोगों की दिलचस्पी नहीं है।

क्या यही वजह है कि साल 2012 में लोगों ने अपनी खेती की जमीनें हुडा को बेच दी है? गुरमेर सिंह इस बात से सहमत नहीं है। वह बताते हैं,

“हुडा ने हमारे बाँध और खेती की जमीन पर बाइपास बनाने की योजना बनाई है। शुरू में हम जमीन देना नहीं चाहते थे लेकिन जब पता चला कि पंचकूला नगर निगम यह जमीन हुडा को देने की योजना बना चुका है, तब हमने भी हुडा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।”

अपनी 0.4 हेक्टेयर जमीन बेच चुके अभिराम सिंह कहते हैं कि सिंचाई के अभाव में उनकी जमीन वैसे भी बंजर पड़ी थी। जमीन के बदले उन्हें 40 लाख रुपए मिल गए। इस पैसे से उन्होंने गाँव के पास खेती की कुछ जमीन और कार खरीद ली। सुरेंद्र सिंह का मानना है कि बाईपास रोड बनने के बाद सुखोमाजरी के विकास मॉडल का पूरी तरह अन्त हो जाएगा। सुखना झील में फिर से गाद भरने लगेगी!

दोषपूर्ण मॉडल?

सुखोमाजरी की खुशहाली के बाद राज्य सरकार ने इस मॉडल को कई अन्य गाँवों में भी लागू किया था। ‘डाउन टू अर्थ’ की पड़ताल बताती है कि तकरीबन सभी गाँवों में यह मॉडल नाकाम हो चुका है। तो क्या इस ग्रामीण विकास के इस मॉडल में ही कमी थी? प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन पर काम कर रही सामाजिक कार्यकर्ता मधु सरीन कहती हैं कि मॉडल में कमी नहीं है। समस्या यह है कि खेती योग्य भूमि के अधिग्रहण पर पाबन्दी के बावजूद हुडा ने सड़क के लिये सुखोमाजरी के किसानों से जमीन ले ली। जल संसाधन प्रबन्धन के लिये नए लोगों को भी तैयार नहीं किया गया। बहरहाल, वजह जो भी हो, ग्रामीण भारत से पैदा हुई एक उम्मीद आज दम तोड़ रही है।

सुखोमाजरी मॉडल का पतन

कैसे सुखोमाजरी में विकास की चक्रीय प्रणाली कमजोर होती गई

1970-1980

95% भूमि क्षरित; रबी और खरीफ की फसल के दौरान उपज 562,000 किलो; भूजल स्तर जमीन के नीचे 121 मीटर पर (mbgl); दुग्ध उत्पादन 248 लीटर/दिन; घरेलू आय 10,000 रुपए/वर्ष

1976 :

वाटरशेड प्रबन्धन की शुरुआत; 1985 तक चार बाँधों का निर्माण; लोग बाँध के पानी के बदले में संरक्षण संरचनाओं की हिफाजत करने को सहमत

1980-1990

1979 :

जल उपभोक्ता समाज का गठन

1983:

नाम बदलकर एचआरएमएस किया गया। यह जंगल और जल संसाधनों का प्रबन्धन करता; बाँध के पानी के लिये एक मामूली शुल्क वसूलता, भाभर घास बेचता, मछली पालन के लिये तालाबों को पट्टे पर देता

1986 :

43,800 रुपए का मुनाफा कमाया; बाँधों और सिंचाई चैनलों के रख-रखाव पर और गाँव के विकास कार्यक्रमों पर खर्च करता है कमाई; सुखोमाजरी आयकर भुगतान करने वाला भारत का पहला गाँव बन जाता है; भाभर और खाद्य फसलों का उत्पादन; 658 लीटर/दिन दूध का उत्पादन बढ़ जाता है; घरेलू आय 15,000 रुपए/वर्ष तक बढ़ जाती है

1990-2000

1990 :

एचआरएमएस का मुनाफा 68,800 रुपए; यह 1996 में 1.7 लाख तक बढ़ जाता है; पड़ोसी धमला गाँव के साथ भाभर घास पर संघर्ष के बाद वन विभाजन

1997 :

तक तीनों बाँधों क उपयोगिता में गिरावट

1998 :

वन विभाग द्वारा अर्जित राजस्व पर 55% हिस्सेदारी के दावे के बाद एचआरएमएस की कमाई आधी रह जाती है; घरेलू आय 40,000 रु./वर्ष तक बढ़ जाती है; भूजल स्तर 42 मीटर (mbgl); 995 लीटर/दिन दूध का उत्पादन; 1999-2000 में फसल की उपज 42 हजार क्विंटल हो जाती है

2000-2010

जंगल और पानी से राजस्व कम हो जाता है; वर्ष 2005-06 के बाद से एचआरएमएस की कोई बैठक नहीं; पानी के लिये बोरवेल की खुदाई; भूजल स्तर 55 मीटर (mbgl) तक गिर जाता है। दुग्ध उत्पादन में वृद्धि जारी। घरेलू आय में भी 60,000 रुपए/वर्ष की वृद्धि

2010 का दशक

2012 :

हुडा लोगों से सम्पर्क साधता है; 32 हेक्टेयर भूमि का अधिग्रहण; चौथा बाँध काम करना बन्द कर देता है; फसल की उपज 600 किलो (2016) तक सिमट जाती है; लोग डेयरी, कस्बों में ईंट भट्टों में काम पसन्द करने लगते हैं; घरेलू आय 1.08 रुपए लाख/वर्ष

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org