सफाई के बहाने अरबों रुपए बहाए

27 Jun 2012
0 mins read
sewer drowning in Ganga
sewer drowning in Ganga

सरकार ने गंगा नदी की सफाई के लिए जितना पैसा बहा चुकी है, उससे कहीं अधिक गंदगी गंगा के पानी में घुल गई है। गंगा सफाई अभियान के नाम पर नौकरशाह, राजनेता और स्वयंसेवी संस्थाएं अपनी जेब गर्म करने में लगी है। अप्रैल 2011 में गंगा नदी की सफाई के लिए 7,000 करोड़ रुपए की परियोजना मंजूर की गई। इसे लागू करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण को दी गई। इसमें 5,100 करोड़ रुपए केंद्र सरकार और शेष 1,900 करोड़ रुपए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों को वहन करना है।

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने 1985 में गंगा की सफाई के लिए ‘गंगा एक्शन प्लान’ नामक योजना बनाई थी। इस योजना के तहत गंगा के पानी को प्रदूषण मुक्त करना था। इसके लिए 896.05 करोड़ रुपए का भारी-भरकम बजट आवंटित किया गया था। गंगा तट पर बसे कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, पटना, भागलपुर जैसे शहरों में सीवेज प्लांट लगाए गए थे। काम जोर शोर से शुरू हुआ था। 25 साल गुजर गए हैं। अब गंगा एक्शन प्लान अपने तीसरे चरण में है। पर स्थिति वही ‘ढाक के तीन पात’ वाली है। गंगा की दशा में कोई सुधार तो नहीं हुआ, हां वह पहले से ज्यादा गंदी जरूर हो गई है। केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारें अरबों रुपए खर्च करने के बाद भी मोक्ष-दायिनी गंगा को प्रदूषण से ‘मोक्ष’ नहीं दिला पाई हैं। गंगा में शहरों के नाले, औद्योगिक ईकाइयों के कचरे और कानपुर स्थित चमड़ा फैक्ट्रियों से रात–दिन निकलने वाला गंदा पानी इसकी पवित्रता को नष्ट कर रहा है। इसके साथ-साथ चीनी मिलों के प्रदूषण, धार्मिक आस्था का भी इसमें योगदान है।

पर्यावरणविद, संत और समाजसेवी संस्थाओं द्वारा समय-समय पर अभियान चलाए जाते रहे हैं। पर अब तक सारे प्रयास बौने ही साबित रहे हैं। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने गंगा संरक्षण पर कोताही बरते जाने पर प्रदेश सरकारों को आड़े हाथों लिया है। प्रधानमंत्री ने कहा कि गंगा संरक्षण के लिए धीरे-धीरे समय खत्म होता जा रहा है, जबकि प्रदेश सराकरें जल शोधन के मामले में ढीला रवैया अपना रही हैं। उन्होंने कहा कि इस मामले में दोषी उद्योगों के खिलाफ कार्रवाई करने में शीघ्रता दिखाएं। उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से कहा कि गंगा की सफाई पर वे विशेष ध्यान दें।

वे उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और उत्तराखंड के मुख्यमंत्रियों से कह रहे थे कि बेसिन प्राधिकरण को 2,600 करोड़ रुपए जो आवंटित किए गए हैं उसके इस्तेमाल में तत्परता दिखाएं। प्राधिकरण की कुछ दिन पहले ही तीसरी बैठक हुई है। इसके अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह है। वे स्वयं इस बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। बैठक में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार के मुख्यमंत्रियों के अलावा धार्मिक नेता और गंगा सफाई अभियान से जुड़े स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधि मौजूद थे। बैठक में मौजूद वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयंती नटराजन ने कहा कि मंत्रालय ने सात आईआईटी समूहों का गठन किया है। यह समूह गंगा के लिए बेसिन प्रबंधन की व्यापक योजना तैयार करेगा। इस काम में शीघ्रता लाने की जरूरत है। बैठक में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अगले साल होने वाले इलाहाबाद में महाकुंभ की चर्चा की। कहा कि पूरी दुनिया से इस मेले में लोग आते हैं। इस दौरान गंगा की धारा का प्रवाह कम नहीं होना चाहिए। बैठक में मौजूद एक सदस्य ने बताया कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अखिलेश को आश्वस्त किया। साथ ही कहा कि उस दौरान गंगा का प्रवाह कम नहीं किया जाएगा। बैठक में मौजूद नीतीश कुमार ने कहा कि गंगा की सफाई के लिए नई तकनीक का भी इस्तेमाल होना चाहिए। अभी तक गंगा के किनारे बसे शहरों के मल प्रवाह और शव दहन को आधुनिक नहीं बनाया गया है। इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

माघ और कुंभ मेले के दौरान गंगा में पानी को लेकर बवाल शुरू हो जाता है। प्रशासन भी दबाव में आ जाता है। इससे गंगा की स्थिति में तो कोई सुधार नहीं होता है, परंतु संतों व समाजसेवी संस्थाओं के पदाधिकारियों की तात्कालिक इच्छा जरूर पूरी हो जाती है। फिर इसके साथ ही आंदोलन समाप्त हो जाता है। इस संबंध में टीकरमाफी आश्रम के प्रमुख महंत स्वामी हरिचैतन्य ब्रह्मचारी ने कहा, “गंगा की सेवा कागजी नहीं, बल्कि श्रद्धा से की जानी चाहिए।” इलाहाबाद और हरिद्वार में ऐसे समय स्वयंसेवी संस्थाएं आए दिन संगम क्षेत्र व गंगा तट पर सफाई अभियान चलाने का दावा करती हैं, लेकिन उसका गंगा के प्रदूषण पर कोई असर नहीं पड़ता। गंगा का पानी दिनों-दिन काला होता जा रहा है।

वाराणसी के रविदास घाट के पास गंगा में गिरता अस्सी नालावाराणसी के रविदास घाट के पास गंगा में गिरता अस्सी नालागंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सिर्फ इलाहाबाद में 132 संस्थाएं पंजीकृत हैं। इनमें से अधिकतर सफाई के नाम पर पैसा उगाहने के काम में लगी हैं। आम लोगों का मानना है कि गंगा का प्रदूषण दूर नहीं होने की सबसे बड़ी वजह काम का सिर्फ कागजी होना है। गंगा के लिए काम करने वाली 103 संस्थाएं तो सिर्फ कागज पर ही काम कर रही हैं, जबकि शेष बीच-बीच में खानापूर्ति करके अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं। इलाहाबाद के विभिन्न मोहल्लों में बहने वाले नालों से तकरीबन 550 क्यूसिक गंदा पानी रोजाना गंगा नदी में जाता है। इन मुहल्हों से निकलने वाला तकरीबन 30 एमएलडी कचरा भी गंगा व यमुना में ही डाला जाता है, लेकिन इस रोकने का कोई प्रयास नहीं हुआ है। अविरल-निर्मल गंगा के लिए कोर्ट से लेकर सड़क तक लड़ाई लड़ने वाले टीकरमाफी आश्रम के प्रमुख महंत स्वामी हरिचैतन्य ब्रह्मचारी गंगा सेवा के लिए संस्थाओं की बढ़ती संख्या से व्यथित हैं। वे कहते हैं कि वेतनभोगी बनकर कोई गंगा की सेवा कर ही नहीं सकता। यह तो श्रद्धाभाव व त्याग से हो सकता है। उनका कहना है कि अगर सरकार इन संस्थाओं को पैसा न दे तो इनकी संख्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी।

सरकार ने गंगा नदी की सफाई के लिए जितना पैसा बहा चुकी है, उससे कहीं अधिक गंदगी गंगा के पानी में घुल गई है। गंगा सफाई अभियान के नाम पर नौकरशाह, राजनेता और स्वयंसेवी संस्थाएं अपनी जेब गर्म करने में लगी है। अप्रैल 2011 में गंगा नदी की सफाई के लिए 7,000 करोड़ रुपए की परियोजना मंजूर की गई। इसे लागू करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण को दी गई। इसमें 5,100 करोड़ रुपए केंद्र सरकार और शेष 1,900 करोड़ रुपए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों को वहन करना है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति के बैठक में इसे मंजूरी दी गई। विश्व बैंक ने इस परियोजना के लिए कर्ज के रूप में केंद्र सरकार को एक अरब डॉलर (करीब 4,600 करोड़ रुपए) की सहायता मुहैया कराया है। गंगा सफाई परियोजना की समय-सीमा आठ वर्ष तय की गई है। इसके तहत किए जाने वाले कार्यों में गंगा नदी घाटी में पर्यावरणीय नियमों का सख्ती से पालन, नगर निकायों के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे व नदी के आसपास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल हैं। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले इस प्राधिकरण का उद्देश्य व्यापक योजना और प्रबंधन के जरिए गंगा नदी का संरक्षण करना है। इसका गठन फरवरी 2009 में हुआ था। पर इसकी सुस्त चाल लोगों के मन में चिंता पैदा कर रही है।

हाईकोर्ट ने गंगा प्रदूषण मामले में सुनवाई करते हुए रिट संख्या 4003/2006 के संदर्भ में पहले एक निर्णय दिया था, जिसमें कहा गया था कि इलाहाबाद में गंगा यमुना नदी के तट से 500 मीटर तक की दूरी पर किसी भी प्रकार का नवीनीकृत निर्माण कार्य नहीं होगा। इसी निर्णय के क्रम में आदेश का क्रियान्वयन भली-भांति न हो पाने पर हाईकोर्ट ने एक बार फिर सुनवाई के दौरान आदेश दिया है कि गंगा के अधिकतम बाढ़ क्षेत्र से 500 मीटर तक निर्माण कार्य पर पाबंदी लगाई जाए। कोर्ट ने इलाहाबाद विकास प्राधिकरण एवं जिला प्रशासन को निर्देश दिया कि गंगा किनारे अधिकतम बाढ़ बिन्दु से 500 मीटर के क्षेत्र का तीन सप्ताह के भीतर निशानदेही का कार्य पूरा करे। साथ ही यह सुनिश्चित करें कि अधिकतम बाढ़ बिन्दु से 500 मीटर के भीतर कोई भी निर्माण न होने पाए। पर स्थिति दूसरी है। हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद जिला प्रशासन और इलाहाबाद प्राधिकरण अब तक इस काम को पूरा नहीं कर सका है।

अंग्रेजों ने भी किया था गंगा की धारा रोकने का प्रयास


गंगा की धारा को रोकने की बार-बार कोशिश की गई। लेकिन हर बार जनता ने सरकार के इस तरह के निर्णय पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। गंगा की पवित्रता और अविरलता को लेकर समय-समय पर आंदोलन होते रहे हैं। ब्रिटिश शासनकाल में भी गंगा की धारा को रोकने की कोशिश की गई थी। उस समय भी हिंदू जनमानस में इसको लेकर तीव्र प्रतिक्रिया हुई थी। लेकिन आम जनता की जनभावना को समझते हुए विदेशी सरकार को अपने निर्णय से हटना पड़ा था। लेकिन आज स्वतंत्र भारत की सरकार इतनी समझदारी नहीं दिखा रही है। जिसके कारण गंगा की दुर्दशा बढ़ती जा रही है।

मोक्षदायिनी गंगा अब मैली हो रही हैमोक्षदायिनी गंगा अब मैली हो रही हैबात ब्रिटिश काल की है। देश अंग्रेजों के अधीन था। भारत के भाग्य का फैसला लंदन में होता था। देश जनता के मान-मर्दन और उनकी संस्कृति को नष्ट करने का विदेशी सरकार हर संभव प्रयास करती थी। इसी दौरान 1917 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत की सरकार ने हरिद्वार में गंगा के बहाव को बांध बनाकर रोकने का प्रस्ताव लाया था। गंगा की धारा को बांध बनाकर रोकने की योजना पर देश में लोगों की भावना उफान पर आ गई थी। सरकार की इस योजना के खिलाफ चारों तरफ धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया था। पंडित मदनमोहन मालवीय ने जनता की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए देश भर के रियासतों के राजाओं और महाराजाओं से मिले। देशी रियासतों के हिंदू शासकों ने मदन मोहन मालवीय का सहयोग करने के लिए आगे आए। चारों पीठों के शंकराचार्य भी इस अभियान से जुड़ गए। एक संयुक्त मोर्चा बनाकर सरकार के निर्णय का विरोध शुरू किया।

संयुक्त प्रांत सरकार के प्रस्ताव की चारों तरफ विरोध होने लगा। हरिद्वार में मालवीय जी आमरण अनशन पर बैठ गए। विरोध की आवाज लंदन तक पहुंची। ब्रिटिश सरकार को अपना प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। तत्कालीन संयुक्त प्रांत सरकार के मुख्य सचिव आर बर्न्स आईसीएस के हस्ताक्षर से एक सरकारी आदेश जारी हुआ। आदेश संख्या 102 के नाम से 20/4/1917 को जारी किया गया। जिसमें सरकार ने ‘गंगा के मुक्त प्रवाह को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्धता और सरकार के आश्वासन की घोषणा किया था। गंगा की धारा तो उस समय अविरल रूप से बहने लगी। लेकिन गंगा के अस्तित्व पर भविष्य में आने वाली आशंकाओं को उन्होंने पहचान लिया था। इस आशंका को भांप कर वे गंगा, पर्यावरण और हिंदू धर्म के उत्थान में लगे व्यक्तियों और संस्थाओं को आगाह किया था। गंगा बचाओ अभियान में लगे लोगों का कहना है कि उसी समय पंडित मालवीय ने इलाहाबाद निवासी जस्टिस शिवनाथ काटजू को एक पत्र लिखकर कहा था कि गंगा की अविरलता को रोकने का ब्रिटिश सरकार का प्रयास तो सफल नहीं हो सका। लेकिन यह अंतिम प्रयास नहीं है। आने वाले दिनों में भी सरकारें और लोग गंगा की पवित्रता और अविरलता को भंग करने का भरसक प्रयास करेंगे। मैं चाहता हूं कि तुम अपने जीते जी इस तरह के किसी भी कोशिश का विरोध करना।

गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण का सच


फरवरी, 2009 में भारत सरकार ने एक राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण की स्थापना की है। केंद्र सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा देने का फैसला किया है। इसके साथ एक सशक्त योजना, वित्त, निगरानी और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत गंगा नदी के लिए समन्वय का अधिकार है। प्राधिकरण का अध्यक्ष प्रधानमंत्री को बनाया गया है। जिसमें गंगा जिस राज्य से बहती है इस राज्य के मुख्यमंत्रियों को इसका सदस्य बनाया है। अर्थात उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल, पर्यावरण एवं वन मंत्री, वित्त शहरी विकास, जल संसाधन, विद्युत, विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के साथ ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी इसके सदस्य हैं।

इस समिति की पहली बैठक नई दिल्ली में 05 अक्टूबर, 2009 को प्राधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में किया गया था। इस बैठक में यह निर्णय लिया गया कि कोई अनुपचारित नगर निगम के सीवेज और औद्योगिक अपशिष्ट 2020 तक गंगा में प्रवाहित करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। गंगा परियोजना के तहत गंगा नदी को साफ करने के नाम पर 960 करोड़ रुपए का भारी राशि खर्च किया गया है अब तक कोई सफाई नजर नहीं आती है। गंगा को बचाने के अभियान में लगे डॉ. जीडी अग्रवाल कहते हैं कि यह योजना ‘जनता के पैसे की सरकारी लूट’ है। इसमें कोई जवाबदेही तय नहीं कि गई है। 13 दिसंबर, 2000 को कैग की जो रिपोर्ट आई थी। जो बाद में पीएसी रिपोर्ट के लिए आधार बना था। उसमें कहा गया है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यो द्वारा 36.01 करोड़ रुपए गंगा को स्वच्छ बनाने के लिए दुरुपयोग किया गया था। जिसमें ज्यादा पैसा वाहन, कंप्यूटर की खरीद, कार्यालय का निर्माण और असंबंधित योजनाओं पर खर्च किया गया।

सीएजी ने निष्कर्ष निकाला है कि गंगा और उसकी सहायक नदियों के पानी की गुणवत्ता बहाल करने के उद्देश्य से 15 साल से अधिक समय में 901.71 करोड़ के कुल व्यय के बावजूद अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सक्षम नहीं है। सरकार योजना के कार्यान्वयन की दिशा में 987.88 करोड़ रुपए जारी किया था और मार्च 2000 तक 901.71 करोड़ के व्यय की सूचना हो चुका था। गंगा के नाम पर इस समय सरकारी लूट जारी है। गंगा को बचाने के लिए सरकारी स्तर पर जितने भी कार्यक्रम चल रहे हैं अधिकांश में पैसा बनाने का खेल चल रहा है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading